बेरोजगार नहीं लाचार, भरो हुंकार
‘नौकरी नहीं मिलने से तनाव में था युवक, खाना पीना छोड़ने से मौत’, ‘रिपोर्टः देश में सबसे ज्यादा ग्रेजुएट बेरोजगार’, ‘प्रदेश में 3 साल से खाली पडे़ पद समाप्त किये जायेंगे’, ‘70 हजार जेआरएफ-पीएचडी भटक रहे नौकरी के लिए’, ‘बिहार में 78 प्रतिशत बेरोजगार ग्रेजुएशन फर्स्ट ईयर से पोस्ट ग्रेजुएट वाले, पिछले मई माह में ही सूबे में 1.35 लाख बेरोजगार बढ़े’, ‘5 सालों में देश के प्रमुख सेक्टर में 3.64 करोड़ लोग हुए बेरोजगार’, ‘बेरोजगार इंजीनियर ने परिवार समेत जहर पिया, फिर सो रहे बेटे-बेटी की गर्दन काट दी’, ‘एक साल में 7 परीक्षाः सभी में नकल, पेपर लीक और डमी अभ्यर्थी पकड़े, सिर्फ जेईएन भर्ती का पेपर लीक माना’, ...ये सब वे खबरें हैं जो पिछले वर्षों मंे विभिन्न अखबारों में छपी हैं। इन खबरों से बेरोजगारी की भयावह और डरावनी तस्वीर सरकारों के लाख छिपाने के बाद भी सामने आ जाती है।
आज भारत के छात्र-नौजवान ही नहीं बल्कि काम से निकाले गये प्रौढ़ भी बेरोजगारी की मार झेलने को मजबूर हैं। बेरोजगारों में उनकी संख्या अच्छी-खासी है जो पढ़े-लिखे हैं, उच्च शिक्षा हासिल किए हुए हैं। मेहनत से पढ़ाई करने वाले, वर्षों तक गरीबी-भूख और अलगाव झेलते हुए तैयारी करने वाले युवाओं के लिए सरकार के पास रोजगार नहीं है। सरकारी नौकरियों की संख्या को सरकारें निरंतर कम करती गई हैं। भाजपा सरकार के राज में सरकारी नौकरियों को खत्म करने का जैसे अभियान सा चल रहा है। सरकारी संस्थाओं का निजीकरण कर वहां काम कर रहे लोगों से काम छीनने का जैसे मोदी सरकार ने प्रण ले रखा है। गत वर्षों में विनिवेशीकरण, मौद्रीकरण आदि नामों से रोजगार खत्म किया जाता रहा है। यह याद रखा जाना चाहिए कि यह सब उस सरकार के राज में हो रहा है जो हर वर्ष 2 करोड़ रोजगार देने की बातें करती थी।
पहले तो सरकारी नौकरियां निकलती ही मुश्किल से हैं। अगर निकल भी गई तो भर्ती प्रक्रिया बहुत-बहुत लंबी चलती हैं। और कोढ़ में खाज यह है कि नकल, पेपर लीक आदि के जरिये परीक्षा ही रद्द हो जाती है। नौकरियों में होने वाला यह भ्रष्टाचार अफसरों-मंत्रियों और नकल माफियाओं का संयुक्त कारनामा होता है। पहंुच वाले लोगों का तो जो हो सो हो लेकिन आम छात्र-युवा इसमें कहीं के नहीं रहते। वे बस ठगे और असहाय बना दिये जाते हैं। नाउम्मीदी और अंधकार उनको घेर लेते हैं।
सरकारी नौकरियों के इतर रोजगार की स्थिति भी भयावह है। फैक्टरी, छोटे-बड़े संस्थानों आदि में जो काम पहले मिल जाता था आज वह काम भी नहीं मिल पा रहा है। तमाम छोटे-बड़े उद्यम नोटबंदी, जीएसटी व लाकडाउन के बाद या तो बंद हो गये या फिर बंदी की कगार पर हैैं। ऐसेे मालिक लोगों की कमी नहीं है जो इनका हवाला देते हुए छंटनी कर रहे हैं। वे ‘आपदा को अवसर’ में बदलकर अपना मुनाफा बढ़ा रहे हैं। और श्रम सघनता बढ़ाकर कम लोगों से ज्यादा लोगों का काम करा रहे हैं। इस सबसे यहां काम करने वाले तथा काम मांगने वाले दोनों तरह के लोगों को नुकसान हुआ है। सरकारों ने ऐसे बेरोजगारों को कोई राहत नहीं दी। ऐसा लगता है जैसे इन लोगों के लिए कोई सरकार है ही नहीं। यह सरकारों की नीतियां ही हैं कि कोरोना काल में अंबानी-अडानी जैसे लोग और अमीर हुए हैं वहीं एक बड़ी आबादी बेरोजगार बना कर अपने रहमो-करम पर जीने केे लिए छोड़ दी गई।
एक बड़ी आबादी ऐसे लोगों की है जो किसी न किसी काम में लगी तो है लेकिन उसकी आय आजीविका चलाने हेतु बिल्कुल भी पर्याप्त नहीं है। गांव-देहातों में, कस्बों में ऐसे लोग बहुतायत में भीषण गरीबी और कुपोषण में मौत की ओर बढ़ रहे हैं। लगातार बढ़ती महंगाई और अत्यल्प आय के कारण ये आबादी जिंदगी की जंग रोज ही हारती जा रही है।
ऐसे हालातों में जब छोटे-बड़े काम धंधे बंद हो रहे हों, वहां काम करने वालों को काम से निकाला जा रहा हो या कम मजदूरी में काम करने को मजबूर किया जा रहा हो, तब मोदी सरकार का ‘स्वरोजगार करने’ व ‘रोजगार देने वाला बनने’ की बात कहना बेरोजगारों के संग घृणित मजाक नहीं है तो और क्या है?
मोदी सरकार कहते नहीं थकती थी कि ‘हम युवाओं का देश हैं’। लेकिन इस देश के युवा बेरोजगारी से तंगहाल हैं। इस देश का युवा शासकों-सरकारों के रोजगार देने के झूठे वायदों से ठगा जा रहा है। युवा भर्तियों में जारी धांधलियों-भ्रष्टाचार से आक्रोशित हैं। वह काम करना चाहता है और समाज को संवारना चाहता है। लेकिन पूंजीवादी सरकारों और इस पूंजीवादी व्यवस्था के आगे स्वयं को बेबस पाता है। वह हताशा और निराशा में स्वयं के जीवन को नष्ट कर रहा है। युवाओं में लगातार बढ़ रही आत्महत्याएं ये इशारा कर रही हैं कि इस व्यवस्था में न तो युवाओं का वर्तमान सुरक्षित है और न ही भविष्य। युवाओं का निराशा और पस्तहिम्मती में खुद को मिटा देना बुरा तो है लेकिन यह कोई समाधान पेश नहीं करता।
वहीं नौजवानों ने बेरोजगारी को सामाजिक तौर पर भी देखना शुरू किया है। जिसके चलते नरेन्द्र मोदी के जन्म दिवस को बेराजगार दिवस के तौर पर दो वर्षों से मनाया जा रहा है। छात्र भर्तियों में अनियमितता, भ्रष्टाचार, पेपर लीक आदि के खिलाफ सड़कों पर उतर रहे हैं। पुलिसिया दमन भी झेल रहे हैं। चुनाव में बेरोजगारी को मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहे हैं। सरकारी दावों की पोल खोल रहे हैं। यह शुभ संकेत हैं। पर यह शुरूआत भर है। अभी नौजवानों को व्यवस्था की कारगुजारियों को और समझना होगा, संघर्षों को और मजबूती से लड़ना होगा।
रोजगार की मांग के लिए अकेले-अकेले नहीं बल्कि सामूहिक संघर्ष और सामूहिक एकजुटता की जरूरत है। सबको उसकी योग्यतानुसार गरिमामय रोजगार की मांग करना इस संघर्ष का लक्ष्य होना जरूरी है। एक देशव्यापी आंदोलन के बिना बेरोजगारी बढ़ाने वाली नीतियों को नहीं बदला जा सकता। छात्रों-युवाओं और अन्य बेरोजगारों के जुझारू आंदोलन ही सरकारों को नई आर्थिक नीतियों को खत्म करने को मजबूर कर सकते हैं। ऐसे आंदोलनों के दम पर ही उदारीकरण की जन विरोधी नीतियों को खत्म किया जा सकता है।
छात्रों-युवाओं-बेरोजगारों का वर्तमान और भविष्य पूंजीवादी व्यवस्था मंे नहीं बल्कि समाजवादी व्यवस्था में ही संवारा जा सकता है। पूंजीवादी व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था है जो बेरोजगारी को पैदा करती है। बढ़ती बेरोजगारी के दम पर ही पूंजीपति वर्ग अपने लिए सस्ते मजदूरों की आपूर्ति करता है और अपना मुनाफा बढ़ाता है। पूंजीवादी व्यवस्था की कल्पना बेरोजगारी के बिना संभव नहीं है। पूंजीवादी व्यवस्था वह व्यवस्था है जो मनुष्य को बेरोजगार रख उसे सामाजिक उत्पादन में सहयोग करने से वंचित करती है। इसलिए छात्रों-युवाओं-बेरोजगारों को पूंजीवादी व्यवस्था के बरक्स समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के संघर्ष में खुद को उतारना होगा। समाजवादी व्यवस्था में ही छात्र-युवा-बेरोजगार अपने जीवन का कोई उद्देश्य पा सकते हैं। पूूंजीवादी व्यवस्था द्वारा बांटी जा रही निराशा, पस्तहिम्मती व ठण्डी मौतों के बरक्स समाजवादी व्यवस्था उन्हें एक उद्देश्यपूर्ण और आशापूर्ण जीवन दे सकती है। सामाजिक उत्पादन में उनकी भूमिका बना सकती है।
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