बुधवार, 9 नवंबर 2022

 बेरोजगारी से पलायन तक खत्म न होती त्रासदी 

बेरोजगारी आज देश की क्रूर सच्चाई है। पिछले दो सालोें से तो छात्रों-युवाओं ने प्रधानमंत्री मोदी के जन्म दिवस को राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस मना अपना आक्रोश जगजाहिर कर ही दिया। इसके अलावा समय-समय पर बेरोजगारों के विरोध प्रदर्शनों की खबरें कभी किसी प्रदेश से तो कभी किसी प्रदेश से सामने आती रही हैं। उत्तराखण्ड भी इससे अछूता नहीं है। यहां बेरोजगारी के साथ पलायन का मुद्दा भी जुड़ जाता है। पहाड़ी जिलों में रोजगार न होने के चलते युवा-नौजवान मैदानी जिलों या देश के अन्य हिस्सों में पलायन करते रहे हैं।

उत्तराखण्ड 9 नवम्बर 2000 को नये राज्य के रूप में अस्तित्व में आया। इसके निर्माण के लिए जो संघर्ष लड़ा गया उसकी प्रमुख मांगों में एक रोजगार भी थी। पूंजीपति अपने माल के सस्ते में उत्पादन के लिए सुविधाजनक और सब्सिडी वाली जगहों पर उद्योग लगाते हैं। यहां तक कि सरकारों ने भी कभी ऐसा निवेश नहीं किया, ऐसी नीति नहीं बनायी जो पहाड़ी क्षेत्रों में रोजगार के अवसर खोले। शिक्षा की बेहतर सुविधा न होने, स्वास्थ्य की उचित व्यवस्था न होने, सड़क व अन्य सुविधाओं का अभाव अन्य ऐसे कारण हैं, जो लोगों को पलायन की ओर धकेलते हैं। टिहरी, बागेश्वर, चमोली, रुद्रप्रयाग, पौड़ी ऐसे जिले हैं जहां पलायन गंभीर समस्या है। इसका अन्दाजा इस बात से ही लग जाता है कि उत्तराखण्ड में ‘‘ग्राम्य विकास और पलायन आयोग’’ का गठन किया गया है।

सीएमआईई (सेन्टर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी) मार्च 2022 में उत्तराखण्ड में बेरोजगारी दर 3.5 प्रतिशत बताती है। एक अन्य रिपोर्ट वोटरों के अनुपात में बेरोजगारी के बारे में बताते हुए कहती है कि हर 10 में से एक वोटर बेरोजगार है। प्रदेश में कुल वोटरों की संख्या 82 लाख है वहीं 8 लाख 42 हजार लोग पंजीकृत बेरोजगार हैं। इनमें वे लोग शामिल नहीं हैं जिन्होंने रोजगार पंजीकरण कार्यालय से उम्मीद छोड़ दी है और पंजीकरण नहीं करवाया है। यदि कुल संख्या में से 25 प्रतिशत बूढ़े लोगों को हटा दिया जाए तो नौजवानों में बेरोजगारी की और भयानक तस्वीर सामने आती है। सीएमआईई प्रदेश में भयंकर बेरोजगारी और रोजगार के सीमित अवसर होने की तस्दीक करती है, चिंता जाहिर करती है। 

राज्य के कुल रोजगारशुदा लोगों में से 47 फीसदी से भी ज्यादा कृषि में लगे हैं। जबकि सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) में कृषि का योगदान केवल 10 फीसदी है। राज्य में कृषि के बाद रोजगार का दूसरा प्रमुख क्षेत्र विनिर्माण, निर्माण और व्यापार की भी रोजगार देने में भागीदारी 10 फीसदी है। मैदानी क्षेत्रों में रोजगार का मुख्य स्रोत उद्योग हैं जिनमें 72 फीसदी कार्यबल लगा है। ऐसे में पहाड़ी क्षेत्रों में रोजगार के लिए कृषि पर निर्भरता 2011-12 के मुकाबले 2019-20 के बीच बढ़ी है जबकि मैदानी क्षेत्रों में इसमें लगभग 10 फीसदी की कमी आई है। आवधिक श्रम बल रिपोर्ट 2019-20 के अनुसार पहाड़ी जिलों में बेरोजगारी दर मैदानी जिलों से अधिक है। तीन मैदानी जिलों हरिद्वार, देहरादून, उधमसिंह नगर में बेरोजगारी प्रतिशत 16.4 प्रतिशत है जबकि पहाड़ी जिलों में यह 24 प्रतिशत है। पहाड़ी क्षेत्रों में लगभग 30 प्रतिशत युवा पुरुष श्रम बल जबकि महिला श्रम बल 13.6 प्रतिशत बेरोजगार है। मैदानी क्षेत्रों में यह क्रमशः 16.4 प्रतिशत और 24.3 प्रतिशत है। लैगिंग आधार पर पहाड़ी जिलों में पुरुष अधिक बेरोजगार हैं तो शहरी जिलों में महिलायें अधिक बेरोजगार हैं। वहीं शिक्षित बेरोजगारी के हिसाब से देखा जाए तो राज्य में लगभग 70 प्रतिशत शिक्षित युवा बेरोजगार हैं। इनमें स्नातकों का प्रतिशत 40 है। 

रोजगार और श्रम भागीदारी दर देश में सबसे कम उत्तराखण्ड में है। यह देश के 37.42 फीसदी के मुकाबले 30.43 फीसदी ही है। इसके ऊपर क्रमशः गोवा, उत्तरप्रदेश व पंजाब का नम्बर आता है। 

अभी राज्य में विधानसभा चुनाव सम्पन्न हुए हैं। चुनावों में भी बेरोजगारी एक प्रमुख मुद्दा था। इसके लिए कोई 4 लाख नौकरी देने का वायदा कर रहा था तो कोई आत्मनिर्भर बनाने की नयी स्कीमें बता रहा था। 

अक्सर ही युवाओं को इस बात के लिए कोसा जाता है कि वे सरकारी नौकरी के चक्कर में पड़े रहते हैं। कभी जुमलों के तौर पर कह दिया जाता है कि बैठे-बैठे की नौकरी चाहिए तभी खाली बैठे हैं। सच्चाई ये है कि कई सारे नौजवान तो बिना सरकारी नौकरी की उम्मीद किये ही फैक्टरियों में पहुंच जाते हैं। उत्तराखण्ड में उच्च शिक्षा में कुल नामांकन अनुपात 33.9 प्रतिशत है। यानी यदि प्राथमिक शिक्षा में 100 बच्चों ने प्रवेश लिया तो उनमें से केवल 34 के लगभग छात्र ही उच्च शिक्षा तक पहुंच पा रहे हैं। 33.9 प्रतिशत उच्च शिक्षा नामांकन में 34.9 प्रतिशत छात्र और 32.8 प्रतिशत छात्रायें हैं। यहां भी छात्रायें छात्रों की तुलना में शिक्षा से अधिक दूर हो जाती हैं। कुल 67 प्रतिशत छात्र-छात्राएं उच्च शिक्षा से दूर हो जाते हैं। 

रोजगार की ऐसी दयनीय हालत किसको फायदा पहुंचा रही है। उद्योगों के बाहर लगातार नौकरी के लिए भटकते नौजवान काम कर रहे लोगों की चिंता का सबब बन जाते हैं। छंटनी की तलवार लटकाते मालिक को कोई चिंता नहीं होती, क्योंकि बाहर नये लोग काम करने को तैयार खड़े हैं। श्रम विभाग, सरकार इन छंटनीशुदा लोगों की कोई सुध नहीं लेते हैं। अपनी बारी में सरकार भी बेरोजगारों को लूटने से नहीं हिचकती है। गाहे-बगाहे निकलती नियुक्तियों में होने वाले आवेदनों में हरेक में कम से कम 500-1000 रुपये का खर्चा आम बात है। 

प्रदेश में पुनः बनी भाजपा सरकार ने कहा है कि तीन साल से पहले के अतिआवश्यक पदों, नियुक्तियों में लापरवाही-लेटलतीफी के कारण रिक्त पदों को छोड़कर अन्य रिक्त पदों को समाप्त कर दिया जायेगा। 

बेरोजगारी के इस भयावह आलम में उत्तराखण्ड की नयी सरकार अगर पहली घोषणा ही आवश्यक सेवाओं को छोड़ बाकी सरकारी रिक्त पदों के खात्मे की करती है तो यह दिखलाता है कि बेरोजगारों के सारे आक्रोश के बावजूद, उनके सारे संघर्ष के बावजूद संघ-भाजपा की फासीवादी मण्डली अपने जनविरोधी एजेण्डे से हटने को तैयार नहीं है। 

दरअसल संघ-भाजपा की फासीवादी मण्डली बेकारी के भयावह आलम का प्रकारान्तर से लाभ उठाती रही है। बेरोजगारों की भारी फौज से ही उसे अपने बजरंग दल, अभाविप सरीखे संगठनों के कार्यकर्ता हासिल होते रहे हैं। बेरोजगारों के बीच से ही उसे कावड़ यात्रा से लेकर रामनवमी तक के धार्मिक आयोजनों में शिरकत करने वाली भारी तादाद हासिल होती है। उसे वे लोग हासिल होते हैं जिनकी बेकारी के चलते मौजूद गुस्से को संघी कारकून मुस्लिम-अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत में तब्दील कर देते हैं। जिन्हें कभी अंधराष्ट्रवाद तो कभी विकास की घुट्टी पिलाकर संघी कारकून मतिभ्रष्ट कर ‘‘हर-हर मोदी’’ के नारे लगाने से लेकर लव जिहाद, हिजाब, गौरक्षा, हलाल तक से गुजरते हुए दंगाइयों में तब्दील कर ले जा रहे हैं। संघी कारकून भूल जाते हैं कि वे लम्बे समय तक नौजवानों को अपने ‘झूठ’ से बरगला नहीं सकते और वक्त आने पर इलाहाबाद, बिहार की तरह उत्तराखण्ड व बाकी देश के नौजवान भी संघी सरकार से उसके गुनाहों का हिसाब मांगेंगे।

बेरोजगारी को भयावह बनाने में बीते कुछ दशकों से चली आ रही निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों की विशेष भूमिका है। इन नीतियों को आगे बढ़ाने में वैसे तो सभी पार्टियां लिप्त रही हैं पर संघ-भाजपा की सरकारों ने इस मामले में बाकी को काफी पीछे छोड़ दिया है। इन नीतियों का एक ही निहितार्थ है- जनता पर राहत के नाम पर किये जा रहे खर्च को घटा कर पूंजीपतियों पर लुटाना। आज सारे प्राकृतिक संसाधनों से लेेकर सरकारी क्षेत्र की कम्पनियों को पूंजीपतियों को बेचा जा रहा है। उन्हें लूट की खुली छूट दी जा रही है। इसका परिणाम एक ओर सरकारी नौकरियों, सरकारी संसाधनों में कमी के रूप में सामने आ रहा है तो दूसरी ओर निजी क्षेत्र में बहुत कम वेतन पर मजदूरों के निर्मम शोषण के रूप में सामने आ रहा है। नोटबंदी, जीएसटी, कोरोना पाबंदियों ने जहां छोटे कारोबार को चौपट कर बेकारी को और विकराल बना दिया वहीं बड़ी पूंजी इन तबाह होते छोटे कारोबारियों को निगल कर अथाह दौलत इकट्ठा कर रही है। इसी तरह की लूट मचाकर ही कोरोना काल के बीच में अडाणी-अम्बानी दुनिया के शीर्ष पूंजीपतियों में शामिल हो पाये हैं और मोदी सरकार इनकी चाकरी में सबकुछ करने पर उतारू है। 

पूंजीवादी व्यवस्था मंदी-तेजी के क्रम में ही चलायमान होती है। मंदी के वक्त मालों-सेवाओं की मांगों में कमी व इसलिए रोजगारों में कमी पैदा होती है व तेजी के वक्त उल्टा होता है। मंदी-तेजी के इस क्रम हेतु बेरोजगारों की एक रिजर्व आबादी बनाये रखना पूंजीपति वर्ग की जरूरत होती है। इस रिजर्व आबादी के दम पर ही वह मजदूरी गिराने, पुराने मजदूरों की छंटनी व नये भर्ती करने, मजदूर संघर्षों को कमजोर करने की अतिरिक्त सहुलियत हासिल कर पाता है। इसीलिए बेरोजगारी के पूर्ण खात्मे के लिए पूंजीवादी व्यवस्था का अन्त करना जरूरी है। 

पूंजीवादी सरकारें बेरोजगारी के लिए कभी जनसंख्या वृद्धि, कभी आरक्षण, कभी संसाधनों की कमी, कभी दूसरे इलाके के लोगों के आने, कभी किसी दूसरे धर्म के लोगों को दोषी ठहरा पहले से बेरोजगारों व बाकी जनता को बरगलाती रही हैं। मौजूदा फासीवादी सरकारें मुस्लिम धर्म के लोगों के प्रति जहर फैला रही हैं। जितनी बेकारी बढ़ती जाती है सरकारों-पूंजीवादी बुद्धिजीवियों का यह बरगलाना भी बढ़ता जाता है। इसी में बेरोजगारी के लिए खुद बेरोजगारों को भी जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है।  

अंत में आते हैं उत्पीड़ित जन या इस मामले में बेरोजगार। इन्हें अन्यायपूर्ण व्यवस्था की रोज नयी दास्तां बतायी जाती है। बताया जाता है कि अकेले क्या कर लोगे। देखो! जो लड़े उन्हें क्या मिला। ‘स्वार्थी बनो’, ‘अपने बारे में सोचो’, ‘नफरत करनी ही है तो अपने से करो-अपने जैसों से करो’, ‘सिस्टम तो जैसा है-वैसा ही रहेगा’ आदि-आदि। ये बातें व्यवहारिक लगती हैं और गुलामी, अपमान, उत्पीड़न झेलने की मानसिकता या घुट-घुट कर मर जाने का ‘‘सम्मान’’ पूरी व्यवस्था करती रहती है। लेकिन इस सबके बावजूद उत्पीड़ित जन (यहां बेरोजगार) सड़कों पर उतरते हैं। कभी कुछ मांगें मनवाने में सफल हो जाते हैं। उत्पीड़न, अन्याय, गैरबराबरी को स्वीकारने से इंकार करते हैं। यही लोग व्यवस्था से ‘‘अपमान’’, ‘‘अपराधी’’, ‘‘देशद्रोही’’ आदि जैसे तमगे पाते हैं। आज उत्पीड़नकारी व्यवस्था को जड़-मूल से बदलने के लिए ऐसे तमगे पाने के लिए सड़कों पर उतरने की जरूरत है। न सिर्फ अपने हितों या समस्यओं से पार पाने के लिए बल्कि पूरे समाज को सभी मेहनतकशों के लिए समानतापूर्ण, न्यायपूर्ण बनाने के लिए। इसे भिन्न अर्थों में क्रांति के लिये उठ खड़े की जरूरत भी कहा जा सकता है। भगत सिंह के सपनों वाली समाजवादी क्रांति।


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