गुरुवार, 10 नवंबर 2022

छात्रों-शिक्षकों पर बढ़ रहे हमले!  

                                                                                                                    -महेन्द्र

मोदी सरकार द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति को 2020 में पास किया गया। यह नीति संसद में बिना चर्चा किए पास कर दी गई। इस नीति का छात्र व शिक्षक जगत से कोई विरोध न हो सके, इसके लिए मोदी सरकार ने वह समय चुना जब देश में कठोर लॉकडाउन लागू था। यह लॉकडाउन मोदी सरकार ने ही लागू किया था। इस लॉकडाउन के जरिये ‘आपदा में अवसर’ खोजते मोदी सरकार ने श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी बदलाव, कृषि कानूनों में किसान विरोधी बदलाव तथा शिक्षा नीति में छात्र-शिक्षक विरोधी बदलाव कर डाले। 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षा को और भी ज्यादा तेजी से निजी हाथों में सौंपने की व्यवस्था की गई है। एक तरह से देशी व विदेशी पूंजी के मालिकों हेतु शिक्षा का क्षेत्र पूरी तरह से खोल दिया गया है। अपने संस्थानों को खोलने, अपने अनुसार नियम तय करने, अपनी मर्जी से फीस तय करने आदि-आदि रूपों में इन संस्थान मालिकों को पूरी छूट दी गई है। इसके अतिरिक्त पाठ्यक्रम व शोध को भी उद्योग व उद्योगपतियों को समर्पित करने व उनका मुनाफा बढ़ाने का जरिया बना दिया गया है। 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में सरकारी शिक्षा ढांचे को कमजोर करने की बातें हैं बल्कि निजी संस्थानों को इन सरकारी संस्थानों के संसाधनों का प्रयोग करने की भी बातें हैं। यह नीति औपचारिक शिक्षा के स्थान पर अनौपचारिक व ऑनलाइन शिक्षा को वरीयता देती है। 

संघ-भाजपा द्वारा लाई गई इस शिक्षा नीति में शिक्षा के भगवाकरण करने, अतीत के मूल्यांकनविहीन गौरवगान, भारत के विश्वगुरू के ओहदे को पाने के रंगीन सपने हैं। एक राष्ट्र, एक भाषा, की तर्ज पर एक प्रवेश परीक्षा, एक पाठ्यक्रम जैसे केन्द्रीयकरण करने की योजना इस शिक्षा नीति में है। आज ये सब योजना भर नहीं रह गयी हैं बल्कि केन्द्र और विभिन्न राज्य सरकारें इनको व्यवहार में लागू करने लगी हैं।

इस शैक्षिक सत्र से केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के लिए एक प्रवेश परीक्षा (सीयूईटी) ली जा रही है। कहा तो यह जा रहा है कि इसके लिए एनसीईआरटी के इण्टरमीडियट के पाठ्यक्रम को आधार बनाकर ही परीक्षा ली जायेगी। लेकिन हम सभी जानते हैं कि भारत जैसे विविधता वाले देश में जहां राज्यों के अपने-अपने पाठ्यक्रम हैं, ऐसे में राज्यों के इन पाठ्यक्रमों को पढ़ने वाले  छात्रों के लिए यह परीक्षा पास करना खासा मुश्किल साबित होगा। कम से कम सीबीएसई के छात्रों को अतिरिक्त वरीयता तो अवश्य ही हासिल हो जायेगी। ‘समानता’, ‘केन्द्रीयकरण’ के नाम पर राजकीय बोर्डों के छात्र विश्वविद्यालयों में प्रवेश पाने के मामले में पीछे ढकेल दिये जायेंगे। और संपत्ति का वर्चस्व अपनी भूमिका निभा ही रहा होता है। सीयूईटी की घोषणा के कुछ ही दिनों बाद महानगरों में इसकी तैयारी कराने वाले कोचिंगों की बाढ़ सी आ गई। यह बात अपने-आप समझ में आने वाली है कि कोचिंग में तैयारी करने वाले बच्चे इसमें बाजी मार ले जायेंगे। गरीब छात्र जो कोचिंग का खर्च नहीं उठा सकते अपनी गति में अपने आप ही बाहर धकेल दिये जायेंगे। 12वीं के बाद छात्रों को अच्छे विश्वविद्यालयों में प्रवेश की भीषण प्रतियोगिता में शामिल होना पड़ेगा। इसका सीधा असर यह पड़ना है कि छात्र 11वीं-12वीं की पढ़ाई में ध्यान देने के स्थान पर प्रवेश परीक्षा को पास करने की होड़ में शामिल हो जायेंगे। जो कोचिंग संस्कृति को बढ़ावा देगी। जैसे नीट व जेईई के लिए होता है वैसा ही अब विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए हो जायेगा। अच्छे माने जाने वाले कालेजों में सीटें प्रवेश परीक्षा में वरीयता पाने वाले लोगों से ही भर जायेंगी। अभी तक गरीब और पिछड़ी पृष्ठभूमि से आने वाले कुछ छात्र जो यहां प्रवेश पा जा सकते थे, अब उनके लिए ऐसा संभव हो पाना मुश्किल हो जायेगा। क्योंकि प्रवेश परीक्षा में वरीयता वे छात्र पायेंगे जो कोचिंग का खर्च वहन कर सकने की क्षमता रखते हों। कहां तो यह होना चाहिए था कि नये संस्थान खोले जाते, सभी इच्छुक छात्रों को इसमें निःशुल्क शिक्षा देने का प्रबंध किया जाता लेकिन यहां तो गरीब छात्रों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। इसके साथ ही यह परीक्षा सभी राज्य बोर्डों के ऊपर 12वीं में एनसीईआरटी पाठ्यक्रम लागू करने का दबाव डालेगी। यह कदम विविधता को खत्म करने की ओर ले जायेगा।

केन्द्रीयकरण के अगले चरण के रूप में केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर विषयों में प्रवेश के लिए एक केन्द्रीय प्रवेश परीक्षा भी इसी सत्र से ली जा रही है। हालांकि इसके लिए अभी सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालय राजी नहीं हुए हैं। लेकिन कई केन्द्रीय विश्वविद्यालय एनटीए (नेशनल टेस्टिंग एजेंसी) द्वारा लिये जा रहे इस केन्द्रीकृत प्रवेश परीक्षा के जरिये प्रवेश देने पर राजी हो गये हैं। देर-सबेर अन्य केन्द्रीय विश्वविद्यालयों तथा अन्य संस्थानों को भी इस दायरे में लाया जायेगा। 

इस तरह विश्वविद्यालयों, संस्थानों की विभिन्न विषयों में अपने यहां प्रवेश देने की स्वतंत्रता को खत्म किया जा रहा है। वे किन तरीकों से, किन मानकों के आधार पर प्रवेश देंगे इसकी स्वतंत्रता उनसे छीनी जा रही है। यह सब एक केन्द्रीय ढांचे के तहत किया जा रहा है। जिसमें अलग-अलग संस्थानों के अपने मानकों, उनकी स्वतंत्रता का कोई मोल नहीं रह जाना है। प्रवेश के इच्छुक छात्रों के मानक जांचने के अधिकार भी संस्थानों से छीने जा रहे हैं।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति को अमली जामा पहनाते हुए चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम का मसौदा जारी कर दिया गया है। फिलहाल इस पर पाठ्यक्रम तैयार करने का काम जारी है। शिक्षक व शिक्षक संगठनों को इस मसौदे से कई आपत्तियां रही हैं लेकिन उन पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। आज मन मारकर वे एक ऐसा पाठ्यक्रम तैयार करने में लगे हैं जिससे उनकी सहमति नहीं है। चार वर्षीय इस पाठ्यक्रम में शुरूआत के डेढ़ वर्ष छात्रों को विज्ञान, कला, मानविकी आदि के सामान्य ज्ञान को पढ़ाया जायेगा। यह उच्च शिक्षा को बहुविषयक बनाने के नाम पर किया जा रहा हैं साथ ही यह बाकी दुनिया में चल रहे पैटर्न पर उच्च शिक्षा को ढालने की कोशिश भी है। छात्रोें को विभिन्न विषयों के बारे में सामान्य जानकारी देने में अपने आप में कोई बुराई नहीं है पर आज के भारी प्रतियोगिता वाले माहौल में इसका हश्र या तो ग्रेजुएशन में पढ़ाये जाने वाले पर्यावरण विषय सरीखा होना है। या फिर यह सामान्य जानकारी संघ-भाजपा की साम्प्रदायिक फासीवादी राजनीति पर छात्रों को खड़ा करने का काम करेगी।

यह छात्रों को देश-दुनिया की समस्याओं पर जागरुक, संघर्ष करने वाला बनाने के बजाय कूपमंडूकता-रूढ़िवाद की ओर ढकेलने का ही काम करेगी। यह एकरूपता, केन्द्रीयकरण देश और दुनिया में एक समान शिक्षा ढांचा बनाने तथा उस अनुरूप देशी-विदेशी पूंजीपतियों को भारत के शिक्षा बाजार में आमंत्रित करने के लिए ललचाना है। 

आज देशी-विदेशी पूंजी की शिक्षा के बाजार पर ‘‘गिद्धदृष्टि’’ है। ये ‘‘गिद्ध’’ शिक्षा बाजार को हथिया सकें इसके लिए उसमें बदलाव किये जा रहे हैं। केन्द्रीयकरण करने और शिक्षा को बहुविषयक बनाने या स्नातक को चार वर्षीय करने के पीछे यही कारण है। एक वर्ष, दो वर्ष, तीन वर्ष में कभी भी एक्जिट करने की बात को कहने में किसी तरह की शर्म नहीं महसूस की गई है। सर्टिफिकेट, डिप्लोमा, सामान्य डिग्री या आनर्स डिग्री के रूप में अलग-अलग समय में मल्टिपल एक्जिट व मल्टिपल एंट्री की बात इस पाठ्यक्रम में है। लेकिन समझा जा सकता है कि महंगी होती शिक्षा और चौथा अतिरिक्त वर्ष छात्रों को एक्जिट करने का ही विकल्प देता है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में जोर देकर ऑनलाइन कोर्स देने की बातें की गई थीं। नये पाठ्यक्रम में भी ‘आउट आफ क्लास’, स्वअध्ययन करने की योजना है। बस यही काफी नहीं था कि यूजीसी ने सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को पत्र जारी कर कहा है कि वे प्रत्येक सेमेस्टर अपने पाठ्यक्रम का 40 प्रतिशत तक स्वयं (ैॅ।ल्।ड) माध्यम से पढ़ाएं। स्वयं में कक्षा 9 से लेकर पीजी तक के पाठ्यक्रमों पर ‘विशेषज्ञों’ द्वारा रचित पाठ्यक्रम उपलब्ध है। यह 2017 में लान्च किया गया था। जिसमें 7115 कोर्स कराये जा रहे हैं। यह ऑनलाइन माध्यम न सिर्फ शिक्षा की गुणवत्ता को कमजोर करता है बल्कि छात्रों के आपसी साहचर्य की गुजांइश को भी खत्म कर देता है। यह छात्र-शिक्षकों के एक-दूसरे पर पड़ने वाले असर, ज्ञान को हासिल करने के लिए जरूरी वाद-विवाद व चर्चा की संभावना को भी खत्म कर देता है। यह प्रकारांतर से शिक्षकों की जरूरत को खत्म कर देता है। जिसका असर शिक्षकों को अपने रोजगार से हाथ धोकर व बेरोजगारी की समस्या के बढ़ने के रूप में समाज को चुकाना होगा। भारत जैसे देश में जहां अभी भी एक बड़ी आबादी इंटरनेट की पहुंच से दूर है, जहां एक बड़ी आबादी के पास ऐसे उपकरण नहीं है जिससे वे ‘ऑनलाइन’ माध्यम की शिक्षा ले सकें। यह डिजिटल विभाजन की खाई को और चौड़ा करेगा। ऐसे में समझा जा सकता है कि ‘स्वयं’ जैसे अन्य ऑनलाइन माध्यम बस कहने में अच्छी लगने वाली बातंे है। यह सरकारों के शिक्षा पर खर्च में कटौती करने का आसान जरिया भर हैं। 

सरकारों की मंशा शिक्षा में खर्च को निरंतर घटाने की है। सरकार द्वारा शिक्षा की गुणवत्ता, ढांचा, शोध आदि के लिए जो अनुदान मिलता था उसके स्थान पर कर्ज दिया जा रहा है। इसके लिए हेफा नामक संस्था का गठन किया गया है। हेफा शिक्षा मंत्रालय व केनरा बैंक का एक संयुक्त उपक्रम है। जिसमें संस्थानों को कर्ज दिया जायेगा। जेएनयू ने 445 करोड़ रुपये का कर्ज हेफा से लिया है। दिल्ली विश्वविद्यालय की एग्जीक्यूटिव काउंसिल ने 1000 करोड़ रुपये से अधिक का कर्ज हेफा से लेने का प्रस्ताव पास कर दिया है। सरकारें अनुदान नहीं दे रही हैं और संस्थानों को हेफा से कर्ज लेने पर मजबूर किया जा रहा है। यह कर्ज शिक्षण संस्थानों के ढांचागत विकास, शोध, रख-रखाव, नये पाठ्यक्रम खोलने आदि के लिए लिया जा रहा है। स्पष्ट है कि इसकी भरपाई छात्रों से ही की जायेगी। इसका सीधा असर फीसें बढ़ने और नये चार्ज लगाने के रूप में होगा। दिल्ली विश्वविद्यायल में विज्ञान वर्ग के छात्रों के लिए लैब के प्रयोग करने के उपकरणों, रसायनों व शोध के लिए शुल्क लिया जा रहा है। यह शुल्क एक सौ रुपये प्रति सैंपल टेस्ट से लेकर एक हजार रुपये प्रति घंटे की दर से लिया जा रहा है। जाहिर सी बात है अब गरीबों के लिए इन सरकारी संस्थानों में पढ़ पाना और मुश्किल हो जायेगा। समान अवसर के तमाम दावों के बीच गरीब और पिछड़ी पृष्ठभूमि के छात्र व्यवहार में शिक्षा से दूर कर दिये जायेंगे। सरकार कह रही होगी कि सभी के लिए समान अवसर है लेकिन वास्तव में सरकारी विश्वविद्यालयों के दरवाजे गरीबों के लिए बंद हो चुके होंगे।

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