धर्मों की गति-नियति: पंथ, सांप्रदायिकता और भविष्य
आधुनिक पूंजीवादी दुनिया में सभी धर्म जहां पहुंचे हैं वहां उनके संस्थापकों अथवा मध्यकालीन समर्थकों ने कभी कल्पना नहीं की होगी। यहां तक कि सबसे कट्टर माने जाने वाले धर्मों का स्वरूप भी एकदम बदल गया है।
इसका सबसे बड़ा कारण पूंजीवादी समाज के एकदम अलग तौर-तरीके तथा ज्ञान-विज्ञान का बेहद ऊंचे स्तर का विकास है। प्रकृति, समाज और मानव के बारे में जिन सवालों के जवाब धर्म देते थे या देने का प्रयास करते थे अब उनका ज्यादा बेहतर जवाब विभिन्न प्रकार के विज्ञान देते हैं। यही नहीं, विज्ञान के विकास के कारण बहुत सारे पुराने सवाल ही आप्रासांगिक हो गये हैं। उदाहरण के लिए जीव विज्ञान का हर छात्र जानता है कि धरती पर जीवन का कोई अन्य व्यापक उद्देश्य नहीं है। इसीलिए इसके एक हिस्से के तौर पर मानव जीवन का भी कोई अन्य व्यापक उद्देश्य नहीं है। इस उत्तर के साथ धर्मों का आदि काल से चला आ रहा यह सवाल स्वतः ही अप्रसांगिक हो जाता है कि आखिर मानव जीवन का उद्देश्य क्या है?
बात केवल ज्ञान-विज्ञान तक सीमित नहीं है। आधुनिक पूंजीवादी समाज के तौर-तरीके ऐसे हैं जिससे एक तो पुराने तरीके से धर्मों का पालन करना संभव नहीं रह जाता, दूसरे यह समाज ऐसी नई जरूरतें पैदा करता है जिन्हें परंपरागत धर्म अपने बदले रूप में भी पूरा नहीं कर पाते। उदाहरण के लिए आज मुसलमानों के लिए रोज पांच वक्त की नमाज पढ़ना तथा हिन्दुओं के लिए मध्यकालीन तरीके से पूजा-पाठ करना संभव नहीं है। दूसरी ओर आज की दौड़-भाग भरी भीषण होड़ वाली जिन्दगी, जिसमें व्यक्ति निहायत अकेला है, से पैदा हो रही आत्मिक समस्याओं के लिए परंपरागत धर्मों में कोई समाधान नहीं है। महज नमाज पढ़ने या पूजा-पाठ करने से वह सुकून नहीं मिल पाता जिसकी आज के निहायत एकाकी व्यक्ति को तलाश है।
अपने बदले हुए रूपों में भी परंपरागत धर्मों की यह असफलता एक ओर लोगों को नास्तिकता की ओर ले जा रही है तो दूसरी ओर भांति-भांति के पंथों की ओर। आज सारे ही धर्मों में भांति-भांति के पंथों की भरमार इसी का परिणाम है। इसी के दूसरे रूप के तौर पर मजारों-जियारतों पर अथवा तीर्थस्थलों, देवस्थानों पर उमड़ती भीड़ है।
आज सभी धर्मों के भांति-भांति के पंथों में एक चीज समान है। वह है ‘पर्सनल टच’ यानी उस आत्मिक अनुभूति की पूर्ति जिसका आज की भीषण होड़ वाली एकाकी जिन्दगी में बेहद कमी है। पंथों के मुखिया इस ‘पर्सनल टच’ को अलग-अलग समाजों के हिसाब से अंजाम देते हैं। भारत में डेरों, आश्रमों इत्यादि के रूप में यह होता है तो अमेरिका में बड़े-बड़े सभागारों में। ‘बाबा’ का यानी पंथ के मुखिया का तौर-तरीका भी समाजों के या यहां तक कि वर्गों-तबकों के हिसाब से अलग-अलग होता है। ‘पर्सनल टच’ के लिए यह निहायत जरूरी हो जाता है।
यहां से परंपरागत व्यापक धर्मांे तथा पंथों मंे फर्क को समझा जा सकता है। दुनिया के सभी धर्म कभी पंथ के रूप में ही पैदा हुए थे। जो पंथ समय के साथ विकसित होकर व्यापक धर्म नहीं बन पाये वे विलुप्त हो गये। जो विकसित होकर व्यापक धर्म बन गये वे अपनी प्रकृति से ही निर्वेयक्तिक हो गये तथा उनमें भांति-भांति के लोगों को साथ लेने की संभावना पैदा हो गई। इसी का परिणाम निकला कि धनिकों की सख्त भर्त्सना करने वाले इसाई धर्म में राजा-महाराजा शामिल हो गये और चर्च खुद भारी सम्पत्ति का मालिक बन गया। इसी तरह बुतपरस्ती का भीषण विरोध करने वाले इस्लाम धर्म में मजारों पर भारी भीड़ जुटने लगी।
पुराने जमाने में भी धर्मों के भीतर भांति-भांति के पंथ पैदा होते थे तथा यदि वे विकसित हो जाते तो धार्मिक विभाजन का कारण बन जाते। दुनिया का कोई भी धर्म नहीं है जो भांति-भांति के विभाजनों से नहीं गुजरा। पर पुराने जमाने के पंथों और आज के पंथों में फर्क है। पुराने जमाने के पंथ अक्सर ही धार्मिक पवित्रता को लेकर पैदा होते थे। पंथों को लगता था कि लोग धर्म के सही स्वरूप से भटक रहे हैं और वे लोगों को सही रास्ते पर लाने की कोशिश करते थे। इसी प्रक्रिया में कई बार धर्म का नया रूप विकसित हो जाता था।
आज के पंथ दूसरी चीज करते हैं। वे इस समस्या से जूझते हैं कि परंपरागत धर्म आज की जिंदगी से पैदा हुई जरूरतों को पूरा नहीं कर पाते। इसलिए लोग धर्म के ‘सही रूप’ से नहीं बल्कि स्वयं धर्म से ही दूर हो रहे हैं। इसका एक परिणाम नास्तिकता की बढ़ती प्रवृति है। दूसरे परिणाम के तौर पर व्यक्ति सुकून की तलाश में यहां से वहां भटकता है। एक डेरे से दूसरे डेरे, एक आश्रम से दूसरे आश्रम या एक देवस्थान से दूसरे देवस्थान तक। इन डेरों, आश्रमों, मजारों-देवस्थानों की यात्रा से उपजा सुकून बहुत क्षणिक साबित होता है और यह यात्रा अनवरत जारी रहती है।
घर में या पास के मंदिर में पूजा कर लेने अथवा घर में या पास की मस्जिद में नमाज पढ़ लेने से किसी जमाने में धार्मिक चित्त को सुकून मिल जाता था। और जीवन के अन्य परंपरागत तौर-तरीके व रीति-रिवाजों के साथ मिलकर वह एक सामान्य धार्मिक और लौकिक जीवन को ढर्रे पर चलाता रहता था। आज यह सब छिन्न-भिन्न हो गया है। आज न जिंदगी किसी ढर्रे की है और न जेहन। दर-दर भटकता आज भौतिक तौर पर भी है तथा आत्मिक तौर पर भी। सारे पंथों के मुखिया आज इसी का इस्तेमाल कर रहे हैं और लोगों को नकली सुकून बेचकर मालामाल हो रहे हैं। लोगों की आत्मिक दुनिया भले खाली रह जाये पर इनकी तिजोरियां भर रही हैं।
आज के पूंजीवादी जीवन के एकाकी मनुष्य की इस धार्मिक-आत्मिक स्थिति का इस्तेमाल केवल भांति-भांति के ‘बाबा’ ही नहीं कर रहे हैं। इसका इस्तेमाल समूची पंूजीवादी व्यवस्था और सबसे बढ़कर पूंजीवादी राजनीतिज्ञ कर रहे हैं। इन इस्तेमाल में से एक है धार्मिक सांप्रदायिकता।
यह स्पष्ट हो लेने की जरूरत है कि धार्मिक सांप्रदायिकता विशुद्ध राजनीतिक चीज है। यह धर्मों की स्वाभाविक उत्पत्ति या परिणति नहीं है। अतीत में भी धार्मिक सांप्रदायिकता विशुद्ध राजनीतिक चीज रही है। यूरोप में जब इस्लाम के खिलाफ इसाईयों द्वारा ‘धर्म युद्ध’ छेड़ा गया तो यह आम इसाईयों की स्वगति का परिणाम नहीं था। इसके विपरीत यह रोमन चर्च और यूरोपीय राजे-रजवाड़ों द्वारा संगठित किया गया था। इसमें इनके भांति-भांति के हित थे।
आज सारी दुनिया में ही धार्मिक सांप्रदायकिता का जो उफान है वह विशुद्ध राजनीतिक परिघटना है। यह साम्राज्यवादियों और पूंजीवादी शासकों द्वारा लोगों के धार्मिक विश्वासों का अपने राजनीतिक हित के लिए बेहद घृणित और बेशर्म इस्तेमाल है। इसको सबसे अच्छे तरीके से भारत में राम मंदिर आंदोलन के पुरोधा लालकृष्ण आडवाणी ने व्यक्त किया था जब उन्होंने कहा था कि राम मंदिर आंदोलन कोई धार्मिक नहीं बल्कि एक राजनीतिक आंदोलन है। इस कथन की सत्यता आज भारतीय समाज में हिन्दू फासीवाद के वर्चस्व से स्थापित हो चुकी है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा हिन्दू महासभा ने गोलवलकर और सावरकर के जमाने से ही कहा है कि भारत के मुसलमानों को अपने घर में या मस्जिद में नमाज पढ़ने की छूट है(यानी अपने धार्मिक विश्वासों पर चलने की छूट है) बशर्ते वे सामाजिक-राजनीतिक तौर पर देश में हिन्दुओं के वर्चस्व को स्वीकार कर लें। आज हिन्दू फासीवादियों ने यह स्थिति काफी कुछ हासिल कर ली है जहां मुसलमान सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य से लगभग गायब से हो गये हैं। आर्थिक तौर पर तो उनकी हालत पहले से ही बेहद खराब थी।
पूंजीवादी-साम्राज्यवादी राजनीति आम तौर पर तथा सांप्रदायिक पूंजीवादी राजनीतिज्ञ खास तौर पर यदि आज बेहद बेशर्मी से लोगों के धार्मिक विश्वासों का अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल कर ले रहे हैं तो इसका कारण स्वयं धर्म नहीं बल्कि लोगों की जिंदगी के हालात हैं। भीषण होड़ में रत एकदम एकाकी व्यक्ति, जिसकी आर्थिक-सामाजिक जिंदगी पिछले तीन-चार दशकों में लगातार संकटग्रस्त होती गई है, ऐसे हालात में होता है जहां भांति-भांति के उन्मादी विचारों की ओर आकर्षित हो सकता है। और यदि एक पूरा संगठित गिरोह इस आकर्षण को पैदा करने में लगा हो तो यह अत्यंत मारक हो जाता है। आज यही हो रहा है।
इस धार्मिक सांप्रदायिकता से पूंजीवादी व्यवस्था और पूंजीवादी राजनीतिज्ञों दोनों को फायदा होता है। पंूजीवादी राजनीतिज्ञ इसके जरिये सत्ता हथियाने के अपने लक्ष्य में कामयाब होते हैं। दूसरी ओर आम मजदूर-मेहनतकश जनता को धार्मिक सांप्रदायिकता से विभाजित कर उनकी संभावित एकता खंडित कर दी जाती है और इस पंूजीवादी व्यवस्था को मिलने वाली संभावित चुनौती रद्द हो जाती है। इसीलिए संकटग्रस्त पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपति वर्ग धार्मिक सांप्रदायिक पार्टियों, समूहों और राजनीतिज्ञों को हर तरीके से आगे बढ़ाता है। आज भारत में इसे साफ तौर पर देखा जा सकता है।
संकटग्रस्त पूंजीवादी व्यवस्था तथा इसके संकटग्रस्त लोग इंकलाब की ओर भी जा सकते हैं। और यही वह खतरा है जिससे डरकर पूंजीपति वर्ग धार्मिक रूढ़िवादिता, कट्टरता और अंत में सांप्रदायिकता की शरण लेता है। ठीक यही तथ्य इस बात की ओर ईशारा करता है कि आज इन सारी ही समस्याओं का समाधान इंकलाब है। कोई और इंकलाब नहीं बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था को समाप्त कर वर्ग विहीन, शोषण विहीन समाज की स्थापना करने वाला इंकलाब।
आज धार्मिक कट्टरता, रूढ़िवादिता और सांप्रदायिकता का इलाज किसी सौहार्दपूर्ण धार्मिक वातावरण की स्थापना में नहीं है। यह इसीलिए नहीं हो सकता क्यांेकि परंपरागत धर्म आज के इंसान की जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। अपने सारे बदलाव के बावजूद वे आज के इंसान को सुकून नहीं दे पा रहे हैं। फलस्वरूप इंसान या तो सुकून की तलाश में दर-दर भटक रहा है या फिर उन्मादी भीड़ में तब्दील होकर धूर्त पूंजीवादी राजनीतिज्ञों के हाथ का मोहरा बन रहा है।
जिन वजहों से परंपरागत धर्म आज के इंसान की रूहानी जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं, ठीक उन्हीं वजहों से आज कोई नया धर्म नहीं पैदा हो सकता जो इस काम को कर सके। भांति-भांति के अजीबोगरीब पंथ पैदा होते और विलीन होते रह सकते हैं, पर पहले की तरह कोई व्यापक धर्म नहीं पैदा हो सकता। इसके लिए जो अज्ञानता और मासूमियत चाहिए वह कब की खत्म हो चुकी है। जब बहुत सारे लोगों के लिए तर्क और तथ्य आधारित विज्ञान ने ही धर्म की जगह ले ली हो तथा अन्य बहुत सारे धार्मिक लोगों के लिए भी विज्ञान लौकिक मामलों में प्राधिकारी बन गया हो(‘विज्ञान ऐसा कहता है’) तब इसकी गुंजाइश नहीं रह जाती।
यह यूं ही नहीं है कि दुनिया के ज्यादातर आबादी वाले देशों में औपचारिक तौर पर संविधान के जरिये धर्म को राजनीतिज्ञ-सामाजिक जीवन से बहिष्कृत कर निजी मामला बना दिया गया है। अन्यों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर यही मांग की जा रही है। पहले जहां धर्म जिंदगी के हर कोने-अंतरे में पैठा हुआ था वहीं अब उससे कहा जा रहा है कि वह केवल कोने-अंतरे में ही रहे और जीवन के मुख्य क्षेत्रों में उसकी कोई भूमिका नहीं होगी।
इस तरह देखें तो आज के पूंजीवादी समाजों मंे धर्मों की दोहरी गति है। एक ओर तो पूंजीवादी आर्थिक गति के कारण धर्म स्वतः इंसान के जीवन में गौण होता जा रहा है तथा पूंजीवादी राजनीति इसे औपचारिक तौर पर निजी जीवन तक सीमित कर रही है। यह समाज में बढ़ती अधार्मिकता और नास्तिकता में प्रकट हो रही है। दूसरी ओर संकटग्रस्त पंूजीपति वर्ग सचेत तौर पर अपनी व्यवस्था की रक्षा के लिए धार्मिक रूढ़िवादिता, कट्टरवादिता और सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रहा है। आज इन दोनों प्रवृत्तियों के बीच तीखा द्वन्द्व है। अलग-अलग समाजों में अलग-अलग प्रवृत्ति है।
जहां दूरगामी तौर पर समाज की गति अधार्मिकता और नास्तिकता की ओर है वहीं निकट भविष्य में क्या होगा वह इस पर निर्भर करता है कि इंकलाबी शक्तियां कितनी मजबूत और कामयाब होती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि संकटग्रस्त पूंजीपति वर्ग अधिकाधिक धार्मिक कट्टरता और सांप्रदायिकता की शरण लेगा। वह अपनी व्यवस्था की रक्षा में हर पुरानी और सड़ी-गली चीज को प्रोत्साहित करेगा। हर प्रगतिशील चीज उसके लिए खतरा है और हर सड़ी-गली चीज उसकी रक्षक।
ऐसे में यदि प्रगतिशील और इंकलाबी ताकतें आगे बढ़ती हैं और मजबूत होती हैं तो वे संकटग्रस्त पूंजीपति वर्ग की इस घृणित रणनीति को चुनौती दे सकती हैं। वे धर्म के मामले में आधुनिक समाज की दूरगामी प्रवृत्ति को मजबूत कर सकती हैं। और अंत में यदि वे इंकलाब को अंजाम देने में कामयाब हो जाती हैं तो नये समाज के निर्माण से वह भौतिक आधार पैदा हो जायेगा जहां हर तरह के धर्म की जरूरत खत्म हो जायेगी। कहने की बात नहीं कि तब किसी तरह की धार्मिक कट्टरता और सांप्रदायिकता की जमीन खत्म हो जायेगी।
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