सोमवार, 7 नवंबर 2022

 मोदी की अमेरिका यात्रा

लचर विदेश नीति लाचार प्रधानमंत्री


2014 के आम चुनावों से पहले आम जनमानस में यह धारणा बैठाने की मुहिम चलायी गयी कि मनमोहन सिंह बहुत कमजोर प्रधानमंत्री हैं। यह धारणा घरेलू और विदेश नीति दोनों के संदर्भ में थी। 

2013 के बाद से ही कारपोरेट घरानों की तरफ से मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत किये जाने की रूपरेखा बनायी जाने लगी। मोदी को प्रोजेक्ट करने में दो धारणाओं का भरपूर इस्तेमाल किया गया। एक, मोदी एक मजबूत नेता हैं और दूसरा, मोदी एक कुशल प्रशासक हैं। 

कारपोरेट घरानों की योजना सफल रही। प्रचार माध्यमों के तेज ने मोदी को प्रधानमंत्री के पद पर बैठाने में उनकी पूरी मदद की। मोदी की विदेश यात्राओं का, उनके भाषणों का सीधा प्रसारण किया जाता था। 

दरअसल संघ और भाजपा के विदेश स्थित संगठन मोदी की विदेश यात्राओं की पूरी तैयारी करते थे। अप्रवासी भारतीयों की भीड़ इकट्ठा की जाती थी। मोदी-मोदी के नारे लगवाये जाते थे। घंटों लंबे भाषणों का भारत में लगातार प्रसारण होता था। अमेरिका, जापान आदि देशों में जहां भी मोदी गये वहां यह सब एक सुविचारित नीति के तहत किया गया। करोड़ों रूपये बहाकर ‘हाउडी मोदी’ जैसा कार्यक्रम किया गया। झूले और झप्पी की चर्चाओं के बीच विदेश नीति के मोर्चे पर मोदी की असफलताओं को दबा दिया गया। यह सब ठीक वैसे ही किया गया जैसे ‘हाउडी मोदी’ जैसे कार्यक्रमों की चकाचौंध में ‘‘मोदी गो बैक’’ के नारों को अंधेरे में धकेल दिया गया। 

विदेशों में मोदी की यात्राओं के विरोध में होने वाले व्यापक प्रदर्शन आम चर्चाओं का हिस्सा नहीं बने। कम से कम भारत में तो इन विरोधों को कोई तवज्जो मिली ही नहीं। भारतीय मीडिया और मध्यम वर्ग तो मोदी नाम की भांग की गोली खाकर नशे में बहका ही हुआ था, किसान और मजदूर-मेहनतकश अवाम का एक हिस्सा भी इसके प्रभाव में था। 

टंªप और मोदी दोनों विभाजनकारी ताकतें जब फासिस्ट तौर-तरीके के साथ वैश्विक पटल पर टिमटिमा रहे थे तो ऐसा लग रहा था जैसे सब कुछ अंधकारमय है। विरोध की ताकतों के लिए जैसे कोई जगह बची ही नहीं थी। अमेरिकी जनता ने टंªप को उसकी मांद में क्या धकेला मोदी के सितारे भी प्रचार माध्यमों में गर्दिश में जाने लगे। 

ऐसा नहीं था कि टंªप के काल में भारतीय विदेश नीति को कोई सफलता मिली हो। टंªप ने केवल अमेरिकी कारपोरेट व अमेरिका के हितों के मद्देनजर मोदी को जितना भाव दिया था भारतीय मीडिया ने उससे कई गुना ज्यादा प्रचार इसे दिया। जो दिख रहा था वह प्रचार तंत्र का कमाल ज्यादा था। जिसमें मोदी और टंªप, मोदी और जिनपिंग के साथ भाव-भंगिमाओं को ज्यादा तवज्जो दी जा रही थी। 

कोरोना के लंबे कालखंड के बाद मोदी पहली विदेश यात्रा पर अमेरिका गये थे। पूरे कोरोना काल में वह अपनी मांद से बांग्लादेश के लिए निकले थे क्योंकि बंगाल में चुनाव था। परंतु इस बार अमेरिका मंे टंªप नहीं बाइडेन थे जिसके विरूद्ध हाउडी मोदी कार्यक्रम रखा गया था। इतने ‘‘मजबूत’’ प्रधानमंत्री की ऐसी बेइज्जती, आज तक किसी भारतीय प्रधानमंत्री की नहीं हुई। व्हाइट हाउस में बाइडन ने बाहर आकर ‘‘मजबूत देश के मजबूत प्रधानमंत्री’’ का स्वागत तक नहीं किया। सामान्य शिष्टाचार तक को न निभाना दिखाता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति मोदी को ज्यादा मान्यता नहीं देता। द्विपक्षीय बैठक के लिए मोदी को ओवल ऑफिस ले जाया गया। यह सम्मान था मोदी का। 

इतना ही नहीं बाइडेन और कमला हैरिस दोनों ने बैठक में मानवाधिकारों के हनन का मुद्दा उठाया। दोंनों ने लोकतांत्रिक मूल्यों पर जोर देने की बात की। महात्मा गांधी के आदर्शांे मसलन अहिंसा, सम्मान और असहिष्णुता का पाठ मोदी को पढ़ाया गया। ऐसा नहीं है कि बाइडेन और कमला हैरिस, टंªप के उलट अमेरिकी जनता के हितों के पक्षधर हैं। वे भी टंªप की तरह अमेरिकी साम्राज्यवादी पूंजी के ही प्रतिनिधि हैं। बस फर्क इतना है कि टंªप भोंडे़ तरीके से अमेरिकी पूंजी के हितों की वकालत करता था और बाइडेन यही काम ज्यादा शातिर तरीके से करता है।

अमेरिकी अखबारों ने ‘‘मजबूत’’ प्रधानमंत्री की यात्रा को अपने अखबारों में जगह तक देना मुनासिब नहीं समझा। अगर किसी अखबार ने कुछ छापा भी तो उसमें मोदी के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों पर नसीहतें ज्यादा थीं। 

इस बार बाइडेन के अमेरिका में मोदी के अप्रवासी भारतीयों ने भी कम अपमानजनक व्यवहार नहीं किया। टंªप के काल में अप्रवासियों के बीच यह चमकता सितारा बाइडेन के काल में पूरी तरह बुझ चुका था। बाइडेन के अमेरिका में केवल कुछ सौ लोग ही मोदी के कार्यक्रमों में मौजूद थे। इसके बजाय मोदी विरोधी रैलियों में कहीं ज्यादा लोग थे। 

क्वाड चीन की घेरेबंदी के लिए गठित किया गया था। पिछले वर्षों में चीन की भारतीय सीमा पर लगातार आक्रामक कार्यवाहियों के मसले पर मोदी क्वाड में चीन को घेरने में नाकाम रहे। अमेरिका ने अफगानिस्तान के मामले में भारत को पूरी तरह से किनारे कर दिया है। अफगानिस्तान पर तालिबानी कब्जे ने भारत की समस्याओं को काफी बढ़ा दिया है। मोदी किसी भी किस्म के बड़े समझौते के बिना मुंह लटकाकर लौट आये। जैसे मायूस बच्चे को खुश करने के लिए लालीपाप दे दिया जाता है वैसे ही, इस अमेरिकी दौरे में मोदी को 157 पुरानी और दुर्लभ कलाकृतियां खुश होने के लिए और भारतीय मीडिया को इन कलाकृतियों की धुनों पर थिरकने के लिए दे दी गई। 

अमेरिकी दौरे पर ऐसी लाचारगी और बेचारगी मोदी को भारत का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री साबित करती है। 

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