सोमवार, 7 नवंबर 2022

कन्हैया कुमार कांग्रेस में शामिल

एक अवसरवादी अवसर की तलाश में


चुनाव का मौसम करीब है। हर पूंजीवादी नेता अपने लिए सुरक्षित आशियां ढूंढ रहा है। कोई लुढ़ककर यहां तो कोई लुढ़ककर वहां पहुंच रहा है। यूं तो पूंजीवादी राजनीति में पतन यहां तक पहुंच चुका है कि अब यह कोई मायने नहीं रखता की कौन नेता कितना अवसरवादी है। राजनीतिक कैरियर, सत्ता सुख के लिए कौन नेता कब कहां पलटी मार जाये कोई नहीं कह सकता। पूंजीवादी नेताओं में ना विचार, ना आदर्श बचे हैं। एक ही आदर्श है सिर्फ अपना राजनैतिक कैरियर देखो, इसके लिए सब कुछ जायज है। धन बहाना, विचार-मूल्य बहाना यहां तक खून बहाना सब कुछ आज नैतिक है।

यूं तो हाल के समय में दल-बदल के दर्जनों उदाहरण हैं। लेकिन हम यहां अपनी बात ‘यूथ आइकन’ कन्हैया कुमार तक ही सीमित करेंगे। यह 2015 में जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गये। इससे पहले 2014 में भाजपा केन्द्र की सत्ता पर काबिज हो गयी थी। और भाजपा-संघ जेएनयू को निशाने में लेने की योजनाएं बना ही रही थी। उन्हें मौका मिला 9 फरवरी 2016 में अफजल गुरू पर हो रहे कार्यक्रम से। जिस पर संघ-भाजपा के गुण्ड़ा-तत्वों ने हमला किया। जिसके विरोध में जेएनयू के छात्रों ने विरोध प्रदर्शन किया। इस विरोध प्रदर्शन की अगुवाई अध्यक्ष होने के चलते कन्हैया कुमार ने की। अपनी भाषण शैली और वाकपटुता से ये काफी लोकप्रिय हुए।

9 फरवरी के कार्यक्रम के बाद पूरी भाजपा-संघ मशीनरी जेएनयू के छात्रों पर हमलावर हो गयी। उन्हे देशद्रोही, टुकड़े-टुकड़े गैंग से लेकर ना जाने क्या-क्या कहा गया। कई छात्र नेताओं सहित कन्हैया कुमार पर भी देशद्रोह की धारा पर मुकदमा कायम कर दिया गया। ए मार्च को इन सभी को हाईकोर्ट से जमानत मिल गयी। 

इसके बाद भी संघ-भाजपा के जेएनयू सहित देश के कई विश्वविद्यालयों पर हमले जारी रहे। एक ढंग से कहें तो भाजपा ने केन्द्र की सत्ता पर काबिज होने के बाद सबसे पहले छात्रों को ही अपना निशाना बनाया। शायद ही कोई विश्वविद्यालय इसके हमलों से बचा हो। छात्रों ने भी इन हमलों को बेहद मजबूती और साहस से जवाब दिया। बीते वर्ष छात्र संघषों के गवाह बने। छात्रों के इन संघर्षाें से छात्र एक ताकत के रूप में सामने आये। छात्रों के ये संघर्ष असीमित संभावनाओं को लेकर आ रहे थे।

ऐसे ही माहौल में कन्हैया कुमार जैसे नेता जो वाकपटुता में माहिर हो और राजनैतिक कैरियर बना रहे हों, के लिए एक मुफीद समय था। छात्र संघर्ष से मिली पहचान को इन्होंने खूब भुनाया और इसे अपने कैरियर के तौर पर लिया। पूंजीवादी प्रचार तंत्र ने भी कन्हैया को खूब मौका दिया क्योंकि उसके हित भी इसी में जुड़े थे। कन्हैया कुमार और उसकी पार्टी पूंजीपतियों द्वारा देखी-भाली रही है। पूंजीपति वर्ग भली-भांति जानता है कि कन्हैया कुमार कभी भी उसके दायरे से बाहर की ना तो बात करेगा ना ही जायेगा। और यह अनुमान कितना सटीक था। यह बार-बार दिखता रहा।

कन्हैया कुमार एक ‘यूथ आइकन’ के तौर पर उभरा या उभारा गया। सारे छात्र आंदोलन कन्हैया कुमार से जोड़ दिये गये। कन्हैया कुमार वामपंथी ठप्पा लेकर पूंजीवादी व्यवस्था, उसके जनवाद की ही महिमा गाते रहे। वे गरीबी, बेरोजगारी महंगाई आदि की बातें तो करते लेकिन, वहीं दूसरी तरफ चालाकी से इनका समाधान पूंजीवादी जनवाद में भी बता देते। वे भगत सिंह की बात तो करते लेकिन, मजदूर राज समाजवाद जिसकी बात भगत सिंह करते थे उसे गोल-मोल कर देते।

पूंजीपतियों के कारपोरेट मीडिया और सोशल मीडिया में मिले स्थान ने कन्हैया को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कई छात्र, नौजवान जो कन्हैया कुमार की वैचारिक पक्षधरता को नहीं समझ पाये वे उन्हें सच में एक यूथ आइकन समझने लगे। एक बेहद जूझारू वामपंथी समझने लगे थे। लेकिन झूठ के पांव ज्यादा लम्बे नहीं होते। 

कन्हैया कुमार ने पहले 2019 में बेगुसराय से सांसदी का चुनाव लड़ा, जिसमें वे हार गये। इस चुनाव के बाद वे समझ गये कि तथाकथित वामपंथ से वे जो लाभ उठा सकते थे वे उठा चुके। अब यदि आगे बढ़ना है, राजनैतिक कैरियर बनाना है, तो इससे काम नहीं चलेगा। और जब जैसे ही चुनाव का माहौल आया तो वे कांग्रेस में चले गये। बहाना भी खूब बनाया, उन्होंने कहा, ‘यदि कांग्रेस नहीं होगी तो देश नहीं बचेगा’। यानि वे कह रहे हैं वे देश को बचाने के लिए कांग्रेस में गये हैं।

कन्हैया कुमार का यह कांग्रेस मार्च एक अर्थ में भारत के संसदीय वामपंथियों भाकपा-माकपा-भाकपा (माले) के वैचारिक दिवालियापन का भी परिणाम है। ये दल वर्षों से इंकलाब का नाम लेते हुए पूंजीवाद की सुरक्षा पंक्ति का काम करते रहे हैं। बीते कुछ वक्त से ये संघ-भाजपा के फासीवाद का मुकाबला करने के नाम पर कांग्रेस व अन्य दलों से चुनावी गठजोड़ की वकालत करते रहे हैं। ये चुनावी जोड़-तोड़ से फासीवाद को हराने का मुगालता पालते रहे हैं। इनका मतिभ्रम इन्हें यह समझने से रोके रहता है कि फासीवाद को महज चुनावी जोड़-तोड़ से नहीं हराया जा सकता है, कि फासीवाद को निर्णायक शिकस्त तो सड़कों पर, जनसंघर्ष से ही दी जा सकती है। कि चुनावी हार मात्र से फासीवाद समाप्त नहीं होने वाला। भाकपा से जुड़े रहे कन्हैया कुमार जब यह कहते हैं कि वे देश को बचाने के लिए कांग्रेस में जा रहे हैं तो वे दरअसल भाकपा-माकपा की राजनीति को ही तार्किक परिणति पर पहुंच रहे हैं। 

कहा जाता है सच चाहे कितना भी कड़वा क्यों ना हो, सच तो सच ही होता है। हम सभी के सामने कन्हैया कुमार का सच है, जो परदे थे वे उठ चुके हैं। ये कभी भी सच्ची ताकत नहीं थे। सच्ची ताकत यदि कोई थी तो वो है छात्रों के संघर्ष। छात्रों के संघर्ष ही वो ताकत हैं जो अपने बीच से सच्चे नेताओं को जन्म देगी और दे भी रही है। मतलबपरस्त, अवसरवादी नेता बुलबुले की तरह उठते हैं और विलीन हो जाते हैं।

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