रिचर्ड लेओन्टिन: ‘द्वन्द्ववादी जीव वैज्ञानिक’
प्रकृति विज्ञानों (भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, जीव विज्ञान इत्यादि) के क्षेत्र में बहुत कम वैज्ञानिक हैं जो स्वयं को खुलेआम द्वन्द्ववादी या मार्क्सवादी घोषित करें। ऐसा इसलिए कि आधुनिक विज्ञान की शुरूआत (सोलहवीं-सत्रहवीं सदी) से ही वैज्ञानिक जगत में यह धारणा दृढ़ता से स्थापित हो गई कि वैज्ञानिकों को किसी भी तरह की विचारधारा से मुक्त रहकर सत्य की खोज करनी चाहिए। किसी भी विचारधारा से जुड़ाव सत्य की खोज में बाधक बनता है। ऐसा इसलिए भी हुआ कि नये उभरते आधुनिक विज्ञान को तब तक यूरोपीय समाजों में हावी इसाई धर्म की पोंगापंथी सोच से भीषण संघर्ष करना पड़ा था। इसका एक प्रसिद्ध और सर्वज्ञात उदाहरण तो सौर मंडल की संरचना ही थी जिसके बारे में इसाई धर्म की मान्यता थी कि सौरमंडल तो क्या पूरे ब्रह्माण्ड का केन्द्र पृथ्वी है। आज बच्चा-बच्चा जानता है कि सौरमंडल का केन्द्र पृथ्वी नहीं सूरज है।
इसीलिए आज पूंजीवादी जगत में वैज्ञानिकों के बीच यह आम मान्यता प्रचलित है कि वैज्ञानिकों को किसी भी विचारधारा से दूर रहना चाहिए। यदि कोई वैज्ञानिक किसी विचारधारा को मानता है तो वह खराब वैज्ञानिक है और उसके द्वारा प्रस्तावित सिद्धातों पर स्वतः सवाल खड़ा हो जाता है।
रिचर्ड लेओन्टिन(1929-2021) इस आम मान्यता के खिलाफ खड़े जीव वैज्ञानिक थे और वह भी पूंजीवाद के गढ़ संयुक्त राज्य अमेरिका में (उसके प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्थानों में)। उन्होंने अपने वैज्ञानिक जीवन की शुरूआत 1960-70 के दशक में की थी जब शीत युद्ध चरम पर था और अमेरिका में मार्क्सवाद विरोधी भावनाएं चरम पर थीं। पर लेओन्टिन ने इन सब की परवाह नहीं की और स्वयं को खुलेआम मार्क्सवादी घोषित किया और मानो इसे जोर से स्थापित करने के लिए रिचर्ड लेविन के साथ मिलकर ‘द्वन्द्ववादी जीव वैज्ञानिक’ शीर्षक से लेखों के एक संग्रह को प्रकाशित कराया।
रिचर्ड लेओन्टिन को अमेरिका के घोर मार्क्सवाद विरोधी माहौल में भी वैज्ञानिकों को एक लब्द प्रतिष्ठ वैज्ञानिक के रूप में स्वीकार करना पड़ा तो इसका कारण जेनेटिक विज्ञान के क्षेत्र में उनका तकनीकी शोध था। तब जीव विज्ञान में (आज की तरह ही) जेनेटिक विज्ञान छाया हुआ था और डार्विन के पुराने सिद्धान्त के साथ इसका संश्लेषण, जिसे ‘नव-संश्लेषण’ कहा गया, तब राज कर रहा था। रिचर्ड लेओन्टिन ने इसी क्षेत्र में तकनीकी शोध किया जिसने एक तरह से इसे नई दिशा दी। गैर-तकनीकी भाषा में बात करें तो उन्होंने बताया कि किसी भी जैविक लक्षण(टेªट) के पीछे मौजूद जीन में इससे बहुत ज्यादा विविधता होती है जितना कि तब तक माना जाता था। उन्होंने दिखाया कि भारी मात्रा में जीन ‘न्यूट्रल’ होते हैं। इसका व्यावहारिक मतलब क्या है इसे मानवों की ‘नस्ल’ के मामले से समझा जा सकता है जिसे स्वयं लेओन्टिन ने ही स्पष्ट किया था।
प्राचीन काल से ही इंसानी नस्लों(रेस) की बात होती रही है-गोरे, काले, पीले या काकेशियाई, अफ्रीकी, मंगोल इत्यादि। आधुनिक जीव विज्ञान में नस्ल की इस धारणा को खास तरह से मान्यता मिली। हालांकि डार्विन स्वयं नस्ल की धारणा के खिलाफ थे पर उनके सिद्धांतों को इसे सही साबित करने के लिए इस्तेमाल किया गया। बीसवीं सदी में जेनेटिक विज्ञान के विकास के बाद इसे नये सिरे से स्थापित करने का प्रयास किया गया। यदि जीवों में सारे कुछ का निर्धारण जीन ही करता है तो इंसानों में रंग-रूप का निर्धारण इसी से होगा और वह जन्मजात या आनुवांशिक होगा। एक खास रंग-रूप के लोगों के समूह को ही नस्ल कहते हैं। इसीलिए नस्लों का जेनेटिक या आनुवांशिक आधार है।
लेओन्टिन ने दिखाया कि किसी जीव के अलग-अलग समूहों(नस्लों) के बीच जेनेटिक विभेद कम होता है जबकि किसी समूह के भीतर यह विभेद ज्यादा होता है। इसीलिए जेनेटिक विभेद को समूहों के बीच विभेद का आधार नहीं बनाया जा सकता। इसीलिए तथाकथित नस्लों का जेनेटिक आधार नहीं होता और इंसानों में प्रचलित अर्थों में नस्ल जैसी कोई चीज नहीं होती।
जेनेटिक विज्ञान में अपने तकनीकी शोध को जब लेओन्टिन ने मानव ‘नस्ल’ की समस्या तक विस्तारित किया तो उस समय तक इंसानों के जीन के बारे में बहुत जानकारी नहीं थी। उन्होंने तब तक ज्ञात कुछ लक्षणों के पीछे मौजूद प्रोटीन में विभिन्न इंसानी समूहों के बीच और समूहों के भीतर पाई जाने वाली विविधता को अपना आधार बनाया था। बाद में जब इस शताब्दी मंे जीन समूह के बारे में ज्यादा तकनीकी जानकारी मिली तो लेओन्टिन के विचारों को और ज्यादा ठोस आधार मिला।
जेनेटिक विज्ञान में अपने शुरूआती तकनीकी शोध के बाद ही रिचर्ड लेओन्टिन वैज्ञानिक जगत में स्थापित हो गये थे। स्वाभाविक ही था कि वे तकनीकी शोध जारी रखते और नये-नये सिद्धांत प्रस्वावित करते। उनका एक ऐसा ही शोध पत्र, जो उन्होंने स्टीफन गोल्ड के साथ लिखा था, बहुत चर्चित हुआ, खासकर अपनी सटीक उपमा के कारण।
तब तक जैव उद्विकास विज्ञान में ‘नव संश्लेषण’ के तहत यह मान्यता अनकहे रूप में स्थापित थी कि जीवों के हर लक्षण का प्राकृतिक वरण हुआ है और इस रूप में वह लक्षण उस जीव के लिए अपने परिवेश में सर्वश्रेष्ठ है। जीवों के हर लक्षण की उत्पत्ति की इसी रूप में व्याख्या करने की कोशिश की जाती थी।
लेओन्टिन और गोल्ड ने इस सोच की सीमा उजागर करने के लिए ‘स्पैन्ड्रेल’ (तिकोण) की उपमा का सहारा लिया। स्पैन्ड्रेल चौकोर दीवारों पर गुम्बद खड़ा करने से बनने वाला खास तरह का तिकोना है जो चारों कोणों पर बन जाता है। वेनिस के संत मार्को गिरजाघर में गुम्बद और तिकोनों पर चित्रकारी कुछ इस तरह की गई है मानों ये तिकोने खास इसी उद्देश्य के लिए ही बनाये गये थे जबकि वे महज भवन की खास तरह की संरचना के उप-उत्पाद मात्र थे।
लिओन्टिन और गोल्ड ने बताया कि जीवों के विकास क्रम में बहुत सारे लक्षण इसी तरह पैदा हो जाते हैं जो किन्हीं अन्य लक्षणों का उप-उत्पाद मात्र होते हैं। इनका किसी उद्देश्य के लिए प्राकृतिक वरण नहीं हुआ होता है। लेकिन समय के साथ जीवों में इनका इस्तेमाल हो जाता है और कई बार तो ये अति महत्वपूर्ण हो जाते हैं। गोल्ड के अनुसार इंसानी बुद्धिमत्ता और उसका आधार बड़ा दिमाग ऐसा ही स्पैन्ड्रेल है।
लिओन्टिन और गोल्ड ने स्पैन्डेªल माडल जीन और उसके प्राकृतिक वरण को सब कुछ मानने वाले ‘नव संश्लेषण’ की सीमा उजागर करने के लिए प्रस्तुत किया था। इससे जीवों के उत्पत्ति के सवाल को ज्यादा व्यापक आयाम मिल सकता था।
इन सिद्धांतों का एक और भी व्यापक राजनीतिक-सामाजिक पहलू भी था। डार्विन के समय से ही जैविक नियतत्ववाद की एक धारा वैज्ञानिकों और समाज में प्रचलित रही है। बीसवीं सदी में जेनेटिक विज्ञान के विकास और ‘नव संश्लेषण’ के बाद इसने जीन नियतत्ववाद का एक खास रूप धारण कर लिया। पूंजीवादी जगत में इसे कही-अनकही मान्यता हासिल हुई और शोषण-अन्याय-अत्याचार की इस व्यवस्था को जायज ठहराने के लिए यह एक प्रमुख औजार बन गई।
इसके अनुसार इंसानों की शरीरिक-मानसिक सारी क्षमताओं का निर्धारण उनके अंदर मौजूद जीन से होता है और इसीलिए इंसान जो कुछ बनते हैं और अपने जीवन में जो कुछ हासिल करते हैं वह इसी से तय होता है। समाज में मौजूद गैर-बराबरी इत्यादि का जेनेटिक और जैविक आधार है। इसीलिए इसे न केवल मिटाया नहीं जा सकता बल्कि ऐसी कोई भी कोशिश प्रकृति के विरूद्ध होगी और इसीलिए केवल दुष्परिणाम पैदा करेगी। केवल गैर-बराबरी ही नहीं बल्कि वर्तमान समाज में मौजूद होड़, स्वार्थ, अपराध, मार-काट इत्यादि सभी को जैविक आधार पर व्याख्यायित करना आज आम बात है।
रिचर्ड लेओन्टिन ने जैविक और जेनेटिक नियत्ववाद के खिलाफ आजीवन संघर्ष किया। इंसानी नस्लों के सवाल पर उनका शोध इसी का हिस्सा था। 1970-80 के दशक में ‘सोशिया-बायोलाजी’ के उदय के बाद यह नियत्ववाद और ज्यादा मुखर हो गया था। तब रिजर्ड लेओन्टिन ने रिचर्ड लेविन और स्टीवन सेज के साथ मिलकर एक किताब लिखी थी- ‘नाट इन अवर जीन्स’(हमारे जीन में नहीं)। इसमें उन्होंने विस्तार से अलग-अलग सवालों पर चर्चा की और दिखाया कि कैसे इंसानी गुणों और सामाजिक समस्याओं को जीन से निर्धारित मानना गलत है। उन्होंने स्थापित किया इंसान जैविक ही नहीं बल्कि सामाजिक प्राणी भी है और इसे केवल जैविक तक सीमित करना गलत है। असल में तो इंसान अपने कुल सामाजिक संबंधों का जटिल योग मात्र है। इससे अलग और इससे परे जैविक में उसे ढूढंना गलत है क्यांेकि उस स्तर पर वह कोई भी अन्य स्तनधारी जीव तो हो सकता है पर इंसान नहीं।
रिचर्ड लेओन्टिन ने जीवों और उनके परिवेश के सवाल को भी नयी दिशा दी। उनकी सोच आज पर्यावरण के महत्वपूर्ण सवाल को समझने मंे मदद करती है। आम तौर पर जीवों और उनके पर्यावरण के संबंध को यांत्रिक तरीके से देखा जाता है। ज्यादा से ज्यादा इसे यांत्रिक क्रिया-प्रतिक्रिया के तौर पर देखा जाता है। पर लेओन्टिन ने बताया कि जीवों और उनके परिवेश के संबंध ज्यादा ‘जैविक’ हैं। न केवल परिवेश जीवों की उत्पत्ति और विकास को तय करता है बल्कि जीव स्वयं अपने परिवेश का निर्माण भी करते हैं। इस तरह कहें तो जीव परिवेश में अंतर्प्रवेश कर जाता है तो परिवेश जीव में। दोनों एक-दूसरे से क्रिया-प्रतिक्रिया करते हुए प्रभावित ही नहीं करते बल्कि एक-दूसरे में अंतर्प्रवेश भी कर जाते हैं। यह इस हद तक होता है कि दोनों को एक-दूसरे के बिना नहीं समझा जा सकता। एकदम व्यापक स्तर पर बात करें तो आज समूची धरती के गैर-जैविक परिवेश को इस पर मौजूद जीवन के बिना और उससे अलग नहीं समझा जा सकता। आम तौर पर जीवन को धरती के गैर जैविक परिवेश में तो समझने की कोशिश की जाती है पर इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता कि स्वयं गैर-जैविक परिवेश जीवन के साथ कैसे बदला। मसलन कैसे धरती का वातावरण जीवन के कारण आक्सीजनमय हो गया। आज इंसान और उसके परिवेश के सवाल को भी इसी दृष्टिकोण से बेहतर समझा जा सकता है।
रिचर्ड लेओन्टिन ने अपने वैज्ञानिक शोधों से पूंजीवादी जगत में मौजूद इस धारणा को गलत साबित किया कि किसी भी विचारधारा से जुड़ाव वैज्ञानिक शोध में बाधा है। इसके ठीक उलट उन्होंने वैज्ञानिक के तौर पर अपने जीवन से यह स्थापित किया कि मार्क्सवादी विचारधारा कैसे वैज्ञानिक शोधों के लिए ज्यादा सही सोच मुहैय्या कराती है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि बीसवीं सदी में जीव विज्ञान के विकास में वैडिंटन, लिओन्टिन, गोल्ड, इत्यादि का बड़ा योगदान है।
इस ‘द्वन्द्ववादी वैज्ञानिक’ का बीते 4 जुलाई को 92 साल की उमर में निधन हो गया। जैसा कि परंपरावादी कहते हैं- उन्हें शत-शत नमन!
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