बुधवार, 2 सितंबर 2020

हमारा कहना है

 महामारी के काल में भी जारी संघर्ष 


आज हमारा देश और दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रहे हैं। महामारी के चलते लगाये गये लाकडाउन ने पूरे समाज का जीवन ही अस्त-व्यस्त कर दिया। भारत सरीखे देशों में मजदूरों-मेहनतकशों, छात्रों-नौजवानों और रोज काम कर कमाने वाले लोगों पर शासकों द्वारा लगाये गये बगैर पूर्व तैयारी के लाकडाउन ने कहर बरपा किया। इतने माह गुजरने के बाद हम पाते हैं कि कोरोना महामारी से ज्यादा कहर शासकों द्वारा इससे निपटने के तौर-तरीकों ने बरसाया है। इन तौर-तरीकों ने दुनिया भर के पूंजीवादी शासकों की कूपमंडूकता से लेकर जनता से संवेदनहीनता को जग जाहिर कर दिया। 

महामारी के दुनिया में फैलने के शुरूआती चरण में शासकों ने इससे निपटने के उपाय करने के बजाय तू-तू, मैं-मैं कर एक-दूसरे को नंगा करने का अभियान चलाया। जब महामारी विकराल होने लगी तो शासकों ने अजब-गजब कदम उठाने शुरू कर दिये। शासक वर्ग द्वारा अपने पतित मस्तिष्क का परिचय देते हुए कहीं ये ऐलान किया कि कोरोना जैसी कोई बीमारी नहीं है और कहीं जनता को और स्वयं को मूर्ख बनाते हुए कहा गया कि जैसे महाभारत का युद्ध 18 दिन में जीता गया वैसे ही कोरोना के खिलाफ युद्ध हम 21 दिनों में जीतेंगे। शासकों की ऐसी कोरी बकवास ने महामारी बढ़ने के साथ उनको मुंह छिपाने पर मजबूर कर दिया। भारत के शासक तो कोरोना से लड़ने के फर्जी दावों के बीच स्वास्थ्य सेवाओं पर रत्ती भर खर्च बढ़ाने को तैयार नहीं हैं। कोरोना के इस दौर में निजी स्वास्थ्य सेवायें भारत जैसी जगहों पर नकारा साबित हुई हैं। इसके बावजूद भारत सरकार कोरोना के जरिये भी इनका मुनाफा बढ़ाने का इंतजाम कर रही है। 

शासकों ने यह तनिक भी नहीं सोचा कि उनके इन कदमों का मजदूर-मेहनतकशों पर कितना भयंकर असर पड़ेगा। भारत में मोदी सरकार द्वारा अचानक और जबरन थोपे गये लाकडाउन ने कई अप्रवासी मजदूरां, उनकी पत्नियों-बच्चों को मौत की नींद सुला दिया। भारत से लेकर अमेरिका तक शासकों ने अपनी निर्दयता और निर्ममता के नये रक्तरंजित अध्याय जोड़े। महामारी के इस दौर में देश-दुनिया के शासक अपने घृणित हितों को आगे बढ़ाने में जरा भी नहीं चूके। पूंजीपति वर्ग को राहत पैकेज देने, मजदूरों को काम से निकालने, वेतन काटने आदि की छूटें दी गयीं। जनवादी अधिकारों पर हमला बोल निगरानी तंत्र को मजबूत बनाया गया। लोगों का काम छीन उनकी बुनियादी जरूरतों तक का इंतजाम नहीं किया गया। ढेरों लोगों को फर्जी मुकदमे लाद जेलों में ठूंस दिया गया। यह मजदूर-मेहनतकशों पर दुहरा हमला था। 

महामारी से निपटने में देश-दुनिया के पूंजीवादी शासकों ने जो अमानवीय और निर्मम कदम उठाये उसने छात्रों-युवाओं के साथ मजदूर-मेहनतकशों के कष्टों को बढ़ाने के साथ उनके गुस्से को भी बढ़ाया। जहां शासक वर्ग के ढेरों लोग अपनी ऐशगाहों में डर के मारे दुबक गये वहीं छात्र-युवा व मेहनतकश जनता अपने आक्रोश को सड़कों पर उतरकर स्वर देने लगी। 

अमेरिका में अश्वेत नागरिक जार्ज फ्लाइड की पुलिस द्वारा निर्मम हत्या के विरोध में शुरू हुआ आंदोलन शीघ्र ही देश के विभिन्न शहरों में फैल गया। यह आंदोलन इतना तीखा था कि राष्ट्रपति टं्रप को अपने बंकर में छिपना पड़ गया। भीषण दमन के बाद भी यह आंदोलन न सिर्फ जारी रहा बल्कि अमेरिका से आगे बढ़कर यूरोप के देशों में फैल गया। यह आंदोलन अमेरिका में आज भी जारी है। 

इजराइल के राष्ट्रपति नेतन्याहू को कोरोना महामारी से सही से नहीं निपट पाने के कारण इजराइली जनता के गुस्से का शिकार होना पड़ा। जनता कोरोना महामारी के डर को हराकर सड़कों पर उतर पड़ी। सड़कों पर उतरकर राष्ट्रपति के इस्तीफे की मांग करने लगी। जाहिर सी बात है कि इस विरोध प्रदर्शन के पीछे एक बड़ा कारण इजराइल में तेजी से बढ़ रही बेरोजगारी है। 

फ्रांस में भी मजदूर-मेहनतकशों के खिलाफ किये गये श्रम सुधारों, सामाजिक मदों में कटौती के खिलाफ उपजे आंदोलन ने पुनः तेजी कोरोना काल में पकड़ी। मजदूरों-मेहनतकशों और छात्रों-युवाओं के द्वारा चलाये जा रहे इस येलो वेस्ट आंदेलन की चिंगारी अभी भी नहीं बुझी है। ज्यादा संभावना यही है कि शासकों के जनविरोधी रुख के कारण यह आंदोलन भविष्य में और व्यापक रूप ले ले।

हाल ही में थाईलैण्ड में हजारों छात्रों ने जुंटा शासन के खिलाफ और लोकतंत्र के समर्थन में प्रदर्शन किया। लेबनान में हुये विस्फोट ने सरकार के खिलाफ गुस्से को और भड़का दिया। एक वर्ष से जनता भ्रष्टाचार और आर्थिक संकट से उपजी समस्याओं के खिलाफ आंदोलनरत थी। लेकिन विस्फोट ने जनता और युवाओं के सब्र का बांध तोड़ दिया। इस विस्फोट के पीछे सरकार की भारी लापरवाही भी आक्रोश का तात्कालिक कारण बनी। 

भारत में भी लाकडाउन की यातनाओं को सहते हुए प्रवासी मजदूरों ने अपना विरोध दर्ज कराया। पुलिस की निर्मम लाठियों, झूठे मुकदमों का सामना करते हुए ये जब-तब लाकडाउन तोड़ अपने घर जाने की मांग को सड़कों पर दर्ज कराते रहे। राज्य सरकारों, केन्द्र सरकार और पुलिसिया आतंक के खिलाफ मजदूर लगातार आक्रोशित होते गये। प्रवासी मजदूरों के आक्रोश के देशभर में फैल जाने के डर से सरकारों को प्रवासी मजदूरों को उनके घर भेजने का प्रबंध करने पर मजबूर होना पड़ा। अगर मजदूर ऐसे तेवर नहीं दिखाते तो राज्य व केन्द्र सरकारें उनको बंधुआ बनाने से भी गुरेज नहीं करतीं।

ये संघर्ष जीवन को बचाने की एक जिंदा कोशिश है। यह मेहनतकशों-युवाओं की जीजीविषा है। ये आंदोलन उम्मीद जगाते हैं कि शासक जब चाहे जो चाहे नहीं कर सकते। वे हमेशा आपदा को अवसर में नहीं बदल सकते। चाहे आज शासक वर्ग इसमें सफल होता प्रतीत हो रहा है लेकिन ये संघर्ष निश्चित ही अपना भविष्य तय करेंगे। ये संघर्ष इस उम्मीद को जिंदा रखते हैं कि शासक अपने आतंक को जनता पर थोपने, उनके अधिकारों को जब्त करने की कार्यवाही को ज्यादा दिन तक नहीं चला सकते। ये संघर्ष आगे बढ़ते हुए क्रांतिकारी संघर्ष का रूप लेंगे और समाज का क्रांतिकारी रूपांतरण करने की ओर बढ़ेंगे। और इसके साथ ही पूंजीवादी व्यवस्था व पूंजीवादी शासकों को उनके अंजाम तक पहुंचायेंगे। पूंजीवादी व्यवस्था व पूंजीवादी शासकों को इतिहास के रंग मंच से विदा कर समाजवाद के निर्माण की ओर बढ़ेंगे। 

वर्ष- 11 अंक- 3 व 4 (अप्रैल-सितंबर, 2020)

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