गुरुवार, 10 नवंबर 2022

प्रयोगशाला इस्तेमाल का शुल्क भी अब वसूला जायेगा

                                                                                                                   -अमन भारती


दिल्ली विश्वविद्यालय में 29 अप्रैल 2022 को दिल्ली विश्वविद्यालय के अंतर्गत आने वाली संस्था न्ैप्ब्.क्न् (न्दपअमतेपजल ैबपमदबम प्देजतनउमदजंजपवद ब्मदजतम) ने एक नोटिस जारी किया, जिसके तहत यह कहा गया कि आगे से विज्ञान की सभी शाखाओं में शोध के लिए इस्तेमाल होने वाले 21 तरह के उपकरणों का प्रयोग करने के लिए छात्रों को ‘मेंटेनेंस चार्ज’ देना होगा। 29 अप्रैल को ये आदेश सभी प्रयोगशालाओं के बाहर चस्पा किया गया और 1 मई से छात्रों से यह शुल्क वसूला जाने लगा। यह शुल्क एक सौ रुपए प्रति सैंपल टेसिं्टग से लेकर एक हजार रुपये एक घंटे के बीच है।

दिल्ली विश्वविद्यालय में विज्ञान संकाय (थ्ंबनसजल व िैबपमदबम) की स्थापना के बाद से ही ये सभी उपकरण छात्रों के लिए बिना किसी शुल्क उपलब्ध थे, जिसे इस आदेश के बाद बदल दिया गया। इस आदेश के विरोध स्वरूप छात्रों ने प्रयोगशालाओं में नहीं जाने का फैसला किया और यह हड़ताल एक महीने तक लगातार जारी रही। प्रशासन को बार-बार लिखित में देने के बावजूद प्रशासन की ओर से छात्रों को कोई जवाब नहीं मिला। इसके बाद छात्रों ने 31 मई को उपकुलपति कार्यालय के बाहर प्रदर्शन किया।

न्ैप्ब् के इस आदेश से पहले भी इन शोधार्थियों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक पहले से न्ळब्/ब्ैप्त् की तरफ से शोध के लिए आवंटित राशि में लगातार कटौती की जा रही थी। एक वित्त वर्ष में बीस हजार रुपए प्रदान किए जा रहे थे, वो भी केवल उन विद्यार्थियों के लिए, जिन्होंने जूनियर रिसर्च फेलोशिप (श्रत्थ्) को पास किया हुआ है।

एक छात्र के मुताबिक इस आदेश के लागू होने से शोध का वार्षिक खर्च 30,000 से 40,000 रुपये तक बढ़ जाएगा, जोकि पूरी तरह से छात्रों को ही वहन करना होगा। इसलिए मजबूरन छात्र ज्यादा प्रयोग करने से बचेंगे और शोध की गुणवत्ता पर भारी असर पड़ेगा।

इंडियन एक्सप्रेस ने जब इस आदेश के बारे में न्ैप्ब् के डायरेक्टर से बात करना चाहा तो उन्होंने बस इतना जवाब दिया कि ‘‘केवल मेंटेनेंस चार्ज लिया जा रहा है।’’ यह कहकर उन्होंने किसी भी अन्य सवाल का जवाब देने से मना कर दिया। सवाल उठता है कि आखिर ये मेंटेनेंस चार्ज छात्रों से क्यों वसूल किया जाए? छात्र इसके लिए पैसा कहां से लाएंगे?

यदि हम पिछले कुछ वर्षों में उच्च शिक्षा संस्थानों के घटनाक्रमों को देखें तो पाएंगे कि सरकार सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था से पूरी तरह हाथ खींच लेना चाहती है। सरकार की सीधी मंशा यह है कि देश के बाकी क्षेत्रों की तरह शिक्षा में भी निजीकरण को बढ़ावा दिया जाए। जिसका सीधा असर यह होगा कि पढ़ने की जिम्मेदारी तो छात्रों की होगी, लेकिन पढ़ाने के लिए सुविधाएं मुहैय्या कराने की जिम्मेदारी से सरकार मुक्त हो जाएगी। छात्र को अपने पढ़ने के लिए संसाधन भी स्वयं जुटाने होंगे।

नई पीढ़ी के नौजवान और बच्चे अपने बुजुर्गों से एक किस्सा सुनते हैं कि हम बचपन में सरकारी स्कूलों में बैठने के लिए अपना खुद का बोरा या टाट पट्टी लेकर जाते थे, वर्तमान सरकार देश के नौजवानों को एक बार फिर वही दिन दिखाना चाहती है। जहां छात्रों को अपने शोध के लिए विश्वविद्यालय से उपकरण 1 घंटे के लिए किराए पर लेने होंगे, अन्यथा उसका शोध पूरा नहीं हो पाएगा।

यहां यह चीज भी ध्यान रखने योग्य है कि इस साल 2022 में दिल्ली विश्वविद्यालय अपना शताब्दी वर्ष समारोह मना रहा है। एक दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि 2017 में दिल्ली विश्वविद्यालय को सरकार ने ‘इंस्टिट्यूट ऑफ एमिनेंस’ की श्रेणी में डाल दिया। ओपी जिंदल यूनिवर्सिटी और बिड़ला इंस्टिट्यूट जैसे निजी संस्थान भी इस श्रेणी में हैं। विश्वविद्यालय बारम्बार कह रहा है कि ‘एमिनेंस’ का दर्जा मिल जाने से शोध की गुणवत्ता बेहतर होगी, विश्वविद्यालय का रैंक सुधर जाएगा। लेकिन छात्र पूछ रहे हैं कि यह कैसा एमिनेंस है और कैसा शताब्दी वर्ष है जहां छात्रों से शोध करने के उपकरण तक छीन लेने पर सरकार आमादा है। ये न तो ऐतिहासिक शताब्दी वर्ष लगता है और न ही एमिनेंस।

ये रेट कार्ड संस्कृति केवल शोध के लिए नहीं बल्कि समूची शिक्षा व्यवस्था के लिए भयावह है। इससे शिक्षा केवल शासक वर्गीय या मध्यम-उच्च मध्यम वर्गीय परिवारों के बच्चों के लिए रह जाएगी और गरीब-मजदूर पृष्ठभूमि से आने वाले छात्रों के लिए शिक्षा के दरवाजे बंद कर दिए जाएंगे। यह शिक्षा व्यवस्था में पहले से मौजूद उस खाई को और चौड़ा करेगी जो खाई पिछले वर्षों में बहुत तेजी से बढ़ी है।

आज छात्रों को यह समझना होगा कि अलग-अलग क्षेत्र में निजीकरण की ये छिटपुट साजिशें, मिलकर एक बड़ी योजना का चित्र उकेरती हैं। मौजूदा सरकार सिर्फ शिक्षा नहीं बल्कि हर क्षेत्र में निजीकरण, ठेका प्रथा को बढ़ावा दे रही है। आज इसके खिलाफ इक्का-दुक्का संघर्ष हो रहे हैं, लेकिन समस्या सबकी एक है। किसान अगर निजी मंडियों का विरोध करते हैं तो वो सीधा आम आदमी से जुड़ा सवाल है। मजदूर-कर्मचारी अगर फैक्ट्री में ठेका प्रथा का विरोध कर रहे हैं तो इसके तार उन्ही छात्रों से जुड़ते हैं जो आज शोध कर रहे हैं, पढ़ रहे हैं। इसलिए निजीकरण के खिलाफ एक साझा संघर्ष की आवश्यकता है।

छात्रों के सामने आज चुनौती है कि वो अपने शिक्षण संस्थानों/सार्वजनिक विश्वविद्यालयों को व्यावसायिक संस्थान बनाने से बचा लें। यह चीज तभी सफल हो सकती है जब केवल शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ नहीं बल्कि हर तरह के निजीकरण के खिलाफ छात्र आवाज उठाएं। 

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