निरंतर प्रगतिवान क्रांतिकारी चरित्र शहीद-ए-आजम भगत सिंह
भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को बंगा, लायलपुर (वर्तमान में पाकिस्तान में) में हुआ था। भगत सिंह के जन्म के बाद संघर्षों, आंदोलनों में जेल गये परिजन रिहा हुए तो दादी ने उनको ‘भागांवाला’ (अच्छे भाग्य वाला) कहा। देश की आजादी के संघर्ष में कूदकर उसके लिए सबसे बेहतर करने की कोशिश करते हुए भगत सिंह न सिर्फ परिवार बल्कि पूरे देश के भाग्य को बदलने में लग गये। इसके लिए 23 मार्च 1931 को अपने दो क्रांतिकारी साथियों सुखदेव, राजगुरू के साथ वे फांसी के फंदे पर खुशी-खुशी झूल गये।
भगत सिंह का जीवन इस बात की मिसाल है कि क्रांतिकारी बनना एक प्रक्रिया है। मिसाल इस बात की कि फांसी के फंदे में झूलना या समाज के जालिम दुश्मनों की हत्या कर देना क्रांतिकारी होना नहीं होता। मिसाल इस बात की कि कोई भी नौजवान जो समाज से प्यार करता हो, न्यायप्रिय हो, अन्याय के खिलाफ मेहनतकश जनता के संघर्षों से हमदर्दी रखता हो क्रांतिकारी हो सकता है।
1921 में जब भगत सिंह, मात्र 14 साल के थे, ने अपने दादा जी को पत्र लिखा। पत्र में उन्होंने अन्य बातों के अलावा लिखा ‘‘आजकल रेलवे वाले हड़ताल की तैयारी कर रहे हैं। उम्मीद है कि अगले हफ्ते के बाद जल्द शुरू हो जाएगी।’’ यह देश में असहयोग आंदोलन का दौर था। यदि घटनाओं को और टटोलने और समझने की कोशिश की जाये तो पता चलता है कि किन परिस्थितियों में भगत सिंह क्रांतिकारी बने। 1907 में (भगत सिंह के जन्म के समय) अंग्रेज 1857 के विद्रोह को कुचलने और ‘फूट डालो और राज करो’ की अपनी विभाजनकारी नीति की सफलता का जश्न मना रहे थे। विदेशों में रहने वाले क्रांतिकारियों द्वारा ‘गदर पार्टी’ का जन्म हुआ। 1914-15 में भारत में गदर आंदोलन की लहर देखी गयी। 16 नवम्बर 1915 को गदर आंदोलन के सक्रिय क्रांतिकारी करतार सिंह सराभा को 19 साल की उम्र में फांसी की सजा। करतार सिंह सराभा को भगत सिंह अपना ‘गुरू, दोस्त और भाई’ मानते थे। प्रथम विश्व युद्ध की वैश्विक घटना, जिसमें साम्राज्यवादी लालच और लूट के लिए शासकों की खूनी जंग में करोड़ों लोगों की हत्या। इसमें कई भारतीयों को ब्रिटेन ने युद्ध में ‘‘चारे’’ की तरह कटवा दिया। इसी समय दुनिया के एक हिस्से रूस में मजदूर-मेहनतकश जनता ने अक्टूबर समाजवादी क्रांति कर दुनिया की मेहनतकश जनता के लिए नयी राह ही रोशन कर दी। 13 अप्रैल 1919 को निर्दयी ब्रिटिश शासकों द्वारा जलियावाला बाग नरसंहार की घटना को अंजाम दिया गया। असहयोग आंदोलन की लहर। यानी कुल जमा उथल-पुथल भरे, समुद्री ज्वार-भाटों की लहरों के दौर में ही दृढ़निश्चयी क्रांतिकारी पुष्पित-पल्लवित हो रहे थे। उन्हीं में भगत सिंह भी थे।
ऐसे में भगत सिंह ने 1923 में घर छोड़ दिया, पूरी तरह क्रांतिकारी काम में जुट गये। अब पूरा देश उनका घर था। और क्रांति करना उनका मकसद। इस मकसद के लिए हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक संघ (एच.आर.ए.) के साथी क्रांतिकारियों का दल।
1924 में भगत सिंह के तीन लेख मिलते हैं- ‘पंजाब की भाषा तथा लिपि की समस्या’, ‘विश्वप्रेम’ और ‘युवक’। इन लेखों में भगत सिंह का ‘राष्ट्रवाद’, ‘समता-समानता का विचार’ और ‘युवाओं की रोमांचकारी पर उद्देश्यपूर्ण जीवन की चाह’ की लालसा साफ दिखती है। पर उनके लिए ये तो बस शुरूआत थी, उन्हें और आगे जाना था, क्रांतिकारी बनना था। अपने शुरूआती विचारों को दुनिया के अनुभवों की रोशनी में कसना था। कुछ को बदल देना था तो कुछ को और अधिक मजबूती से पकड़ना था। इसके लिए उन्होंने अध्ययन जारी रखा। अध्ययन ने ही उन्हें एच.आर.ए. में अन्य साथियों से आगे निकाल दिया था। यही कारण था कि जहां संगठन के मामले में चंद्रशेखर आजाद कमाण्डर-इन-चीफ थे, वहीं भगत सिंह राजनीतिक कमाण्डर। उन्हीं के प्रस्ताव पर एच.आर.ए. के नाम में समाजवादी (सोशलिस्ट) जोड़ इसे एच.एस.आर.ए. (हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी) कर दिया गया। जाहिर है भगत सिंह भारत में समाजवाद की स्थापना को अपना लक्ष्य बना चुके थे।
ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ चले भारतीयों के संघर्षों का भी भगत सिंह ने अध्ययन किया। ‘कूका विद्रोह’, ‘10 मई का शुभ दिन’ के जरिये उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ चले संघर्षों को समझा। साथ ही ‘काकोरी के वीरों से परिचय’ से लेकर सूफी अम्बा प्रसाद, मदन लाल ढींगरा, करतार सिंह सराभा, श्री बलवन्त सिंह, डॉ. मथुरा सिंह, मास्टर अमीरचन्द आदि के जीवन पर अध्ययन किया और लेखन के जरिये इसे फैलाया भी। इस सबने भगत सिंह को साम्प्रदायिकता, जातिवाद जैसी सामाजिक समस्याओं को समझने और इनसे लड़ने में मदद पहुंचायी।
एक क्रांतिकारी के रूप में भगत सिंह को ढलने के लिए दुनिया से भी सबक लेने थे। उन्होंने विभिन्न विचारधाराओं को समझा। आयरलैण्ड के स्वतंत्रता संघर्ष, रूसी क्रांति में मौजूद विभिन्न प्रवृत्तियों से भगत सिंह सीख रहे थे। तभी उन्होंने अराजकतावाद, नाशवाद (कुछ भी न मानने वाले) आदि को समझा। इसने उन्हें मौजूदा व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के विचारों में मजबूती प्रदान की। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के शासन में मजदूरों-किसानों सहित तमाम मेहनतकशों के भयंकर शोषण, शासन के दमनकारी तरीकों, षड्यंत्रकारी तरीकों से संघर्षों को बदनाम करने, नेताओं को बहलाने-फंसाने की कमीनी चालों आदि से भी वे साम्राज्यवादी ब्रिटिश शासन को उखाड़ने के नतीजे पर पहुंचे। साथ ही विभिन्न आर्थिक-राजनीतिक संघर्ष के मुद्दों पर राजे-रजवाड़ों और पूंजीपतियों के ब्रिटिश समर्थक हो जाने या बीच-बीच का रास्ता तलाशने की सीमाओं को भी समझ रहे थे। जिससे आजादी के बाद भारत की सत्ता राजे-रजवाड़ों और पूंजीपतियों के हाथों में आने से मजदूरों-मेहनतकशों की बदहाली को वे देख पा रहे थे। इससे वे लगातार इस समझ पर पहुंचते गये कि आजादी तभी मुकम्मल हो सकती है जब राजनीतिक सत्ता मजदूर वर्ग के हाथ में हो।
असेम्बली बम काण्ड के बाद गिरफ्तारी देने और जेल में रहने के दौरान भी भगत सिंह ने अपना अध्ययन जारी रखा। बल्कि वहां भी भूख हड़ताल जैसे संघर्षों से अपने लिए मानवीय व्यवहार का हक ब्रिटिश शासन से छीना। किताबें मंगाने और पढ़ सकने का अधिकार भी इसमें शामिल था। बंदी जीवन के दौरान भगत सिंह रूसी समाजवादी क्रांति से और अधिक परिचित होते गये और समाजवादी भारत के निर्माण के अपने इरादों में और दृढ़ होते गये। अपने संगठन एच.एस.आर.ए. को भी इस समझ पर लगातार खड़े करते रहे। ‘क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसौदा’, ‘युद्ध अभी जारी है’ जैसे लेखों से भगत सिंह के इरादों की इस दृढ़ता का पता चलता है।
भगत सिंह क्रांतिकारी थे। लेकिन वे शुरूआत में जैसे क्रांतिकारी थे अंत तक वैसे ही नहीं रहे। बल्कि लगातार अपने विचारों में उन्नत होते गये, अपने व्यवहार में और दृढ़ होते गये। यही चीज उन्हें अपने अन्य साथियों में सबसे ऊपर खड़ा कर देती थी। जिसने उन्हें शहीद-ए-आजम बना दिया।
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