सावरकर को नायक बनाने की नाकाम कोशिशें जारी हैं
विनायक दामोदर सावरकर हिन्दू फासीवादियों के आदर्श नायकों में से एक हैं। परंतु अंडमान की सेलुलर जेल के अपने जीवन के दौरान माफीनामे और द्विराष्ट्र के साम्प्रदायिक सिद्धांत के कारण भारतीय जनमानस में उनके प्रति कोई सम्मान नहीं है। बल्कि जब सावरकर को पुनः स्थापित करने की कोशिश होती है तो जनता का भारी विरोध ही फूटता है। हाल ही में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा ‘सावरकर ने गांधी के कहने पर माफीनामे लिखे।’ हिन्दू फासीवादियों की इस कोशिश के बाद इतिहासकारों ने ऐतिहासिक तथ्यों को सामने रखकर इनकी खूब मजम्मत की। इस तरह जनता के दिलो-दिमाग में सावरकर की भूमिका से जुड़े तथ्यों को पुनः ताजा कर दिया।
तथ्यों की रोशनी में सावरकर- सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को नासिक में हुआ था। इनके भाई का नाम गणेश दामोदर सावरकर था। सावरकर ने हाईस्कूल के दौरान फर्ग्युसन कालेज में ‘‘अभिनव भारत’’ नाम की संस्था बनाकर छात्र जीवन में राजनीति की शुरूआत की। फिर कानून की पढ़ाई के लिए ये यूनाइटेड किंगडम गये। जहां इन्होंने ‘इंडिया हाउस’ और ‘मुक्त भारत सोसाइटी’ नाम के संगठन बनाये। वहीं 1907-08 में इन्होंने ‘भारत का स्वतंत्रता समर’ नामक किताब लिखी। जो 1857 के स्वतंत्रता संग्राम पर राष्ट्रवादी नजरिये से लिखी गयी किताब थी। जिसे ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया।
1910 में नासिक के कलेक्टर जॉनसन की हत्या के आरोप में इनके भाई को गिरफ्तार कर लिया गया। वी.डी.सावरकर को भी इंग्लैण्ड से अपने भाई को रिवाल्वर भेजने का आरोप लगा गिरफ्तार कर लिया। जहाज से भारत लाये जाने के दौरान इन्होंने फ्रांस के मार्सेल्स बंदरगाह पर भागने की कोशिश की। 15 मिनट समुद्र में तैरकर ये किनारे पर पहुंचे और फिर पकड़े गये। अदालती कार्यवाही के बाद इन्हें 11 जुलाई 1911 में अंडमान की सेलुलर जेल भेज दिया गया। जिसे ‘कालापानी’ की सजा भी कहा जाता है। इसके बाद 29 अगस्त 1911 को इन्होंने पहला माफीनामा लिखा। इसके बाद अगले 9 साल तक इन्होंने 6 बार माफीनामे लिखे। 1924 में पुणे की यरवदा जेल से इन्हें रिहा किया गया। जेल से छूटने के लिए इन्होंने ब्रिटिश सरकार की दो शर्तों- किसी भी प्रकार की राजनीतिक गतिविधि में भाग न लेने और रत्नागिरी के कलेक्टर की अनुमति के बिना जिले से बाहर न जाने- को माना। और आजीवन इस पर कायम रहे। ब्रिटिश सरकार इन्हें प्रतिमाह 60 रुपये पेंशन दिया करती थी।
रत्नोगिरी जेल में इन्होंने 1923 में ‘हिन्दुत्व: हिन्दू कौन है’ किताब लिखी। इसमें इन्होंने साम्प्रदायिक आधार पर कहा कि जिसकी पितृभूमि, मातृभूमि और पुण्यभूमि भारत है, वही भारत में रहने का अधिकारी है। 1937 में हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय अधिवेशन में इन्होंने साम्प्रदायिक आधार पर ‘द्विराष्ट्र’ का सिद्धांत दिया।
ये हिन्दू महासभा से जुड़े रहे। हिन्दू फासीवादी विचारक के तौर पर सावरकर आर.एस.एस. के भी उतने ही थे जितने हिन्दू महासभा के। गांधी हत्या के समय नाथूराम गोडसे व अन्य के साथ सावरकर को भी मुख्य आरोपी के तौर पर पकड़ा गया। सबूतों के अभाव में इन्हें छोड़ दिया गया। सरकार ने हाईकोर्ट में अपील नहीं की। हालांकि गांधी हत्या के मामले में बने कपूर आयोग ने 1969 में अपनी रिपोर्ट दी। जिसमें गांधी की हत्या में सावरकर की भूमिका होने की बात कही गयी। इससे पहले ही 26 फरवरी 1966 को सावरकर का निधन हो गया था।
सावरकर को नायक बनाने के प्रयास- 2003 में वाजपेयी सरकार के दौरान सावरकर के चित्र को संसद भवन में लगाया गया। 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद नरेन्द्र मोदी ने 28 मई को संसद भवन में सावरकर को श्रद्धांजलि देने के लिए कदम रखा। 2019 में दिल्ली विश्वविद्यालय में भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति के साथ सावरकर की मूर्ति का स्तम्भ लगाया गया। हालांकि दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों के विरोध के बाद रात में चोरी-छिपे लगे स्तम्भ को चोरी-छिपे ही हटा दिया गया।
हिन्दू फासीवादी संघ-भाजपा ये जान गये हैं कि देश का तमाम सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के बावजूद इतिहास से छेड़छाड़ किये बिना सावरकर को ‘‘नायक’’ का दर्जा नहीं दिलाया जा सकता। जिसका ताजा प्रयास राजनाथ सिंह ने किया। हालांकि वीर सावरकर: द मैन हू कुड हैव प्रिवेंटेड पार्टिशन (किताब; जिसके विमोचन में राजनाथ सिंह, मोहन भागवत गये थे) के लेखकों ने कहा कि उनकी किताब में यह नहीं कहा गया है कि गांधी के कहने पर सावरकर ने माफी मांगी थी। यह तथ्य है कि जिस ‘‘हिन्दुत्व’’ का संघ-भाजपा चीख-चीख कर प्रचार करते हैं, उस शब्द के जनक सावरकर ही थे। सावरकर के ‘‘हिन्दुत्व’’ से प्रेरणा लेकर ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बना।
सावरकर ‘‘वीर’’ कैसे बने- हिन्दू फासीवादी सावरकर को ‘‘वीर’’ कहकर संबोधित करते हैं। 1910 में गिरफ्तारी से बचकर भागने के प्रयास में समुद्र में कूदकर भागने और फिर पकड़े जाने, 1911 में अंडमान जेल में जाने के बाद 6 बार माफीनामा देने, जेल से छूटने के बाद अंग्रेजों से किये वायदे को निभाते हुए राजनीतिक गतिविधियों में भाग न लेने, ब्रिटिश सरकार से पेंशन लेने आदि में सावरकर ने वीरता नहीं कायरता का परिचय दिया। संघर्षों से भागने का रास्ता चुना।
गांधी ने यंग इंडिया में ‘‘सावरकर बंधु’’ शीर्षक से जो लेख लिखा उसमें उन्होंने कहा- ‘‘वे दोनों स्पष्ट रूप से कहते हैं कि वे ब्रिटिश राज से स्वतंत्रता नहीं चाहते। इसके विपरीत, उन्हें लगता है कि अंग्रेजों के सहयोग से भारत की नियति सबसे अच्छी तरह से बनाई जा सकती है।’’
सावरकर जिस समय माफीनामे लिख रहे थे उस समय देश के क्रांतिकारी अपने उद्देश्य के लिए खुशी-खुशी शहादत दे रहे थे, माफीनामे नहीं। करतार सिंह सराभा, अशफाक, बिस्मिल, रोशन, लाहिड़ी, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू, उधम सिंह आदि-आदि सैकड़ों-हजारों ने कुर्बानी दी। ऐसे में जब कभी हिन्दू फासीवादी सावरकर को क्रांतिकारियों के बराबर रखने की कोशिश करते हैं तो स्वभाविक ही ऐसी फूहड़ हरकतों पर गुस्सा फूटता है।
इसी तरह आज; महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के उपासक; हिन्दू फासीवादी गांधी की ही ओट लेकर सावरकर को ‘‘नायक’’ बनाने की कोशिश कर रहे हैं। गांधी जी आजादी के आंदोलन के सर्वमान्य नेता थे। निश्चित ही वे भारत के जमींदारों-पूंजीपतियों के पक्षधर थे। आजादी के बाद इन्हीं रजवाड़ों-पूंजीपतियों के हितों की उन्हें परवाह थी। पर तब भी गांधी जी अपनी महात्मा वाली छवि से देश के करोड़ों मेहनतकशों, गरीबों, किसानों आदि को अपने पीछ लामबद्ध करनेे में एक हद तक सफल थे। आजादी के बाद भी शासकों की ओर से महात्मा गांधी को जनमानस के मध्य नायक के बतौर स्थापित किया गया। आजादी के ऐसे स्थापित नेता का नाम इस्तेमाल कर हिन्दू फासीवादी सावरकर की कायरता और गद्दारी को छुपाना चाहते हैं।
संघी फासीवादियों के पास कोई ऐसा नायक नहीं है जिसने कोई कुर्बानी दी हो या आजादी के आंदोलन में कोई बलिदान दिया हो। इसके उलट उनके पास ऐसे खलनायकों की भरमार है जिन्होंने दंगें कराये हों, जिन्होंने धर्म-जाति के आधार पर जनता के बीच कटुता के बीज रोपें हांे और मेहनतकशों का खून किया हो। ले-देकर उनके पास एक सावरकर ही ऐसा शख्स बचता है जिसको कुछ वर्ष जेल हुई। और इस जेल यात्रा के बाद उनके द्वारा माफीनामों की झड़ी लगाने से उनका भी वह महत्व नहीं रह जाता। इतिहास में जहां एक तरफ क्रांतिकारी थे तो दूसरी तरफ सावरकर जैसे लोग थे। इनके लक्ष्य भी एक-दूसरे से बिल्कुल उल्टे थे। जहां क्रांतिकारी अंग्रेजों से देश को मुक्त करा एक शोषण-उत्पीड़न विहीन भारत के मिशन को लेकर कुर्बानियों से भरे पथ पर चल रहे थे। वह हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल प्रक्षधर थे। वहीं सावरकर और इनके जैसे अंग्रेजों से कोई संघर्ष नहीं कर रहे थे, वह अपना समग्र बल, बुद्धि मुस्लिमों के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे थे। इस तरह वह जनता के मध्य विभाजन को और मजबूत कर रहे थे और अंग्रेजों की ही मदद कर रहे थे। इनका मानना यही था कि अंग्रेज ही हमें अच्छा शासन दे सकते हैं।
आज बढ़ते फासीवादी प्रभाव के दौर में ऐसे किसी भी मौके पर इन हिन्दू फासीवादियों के गद्दारी भरे इतिहास को छात्रों-नौजवानों को समझना चाहिए। अधिक से अधिक इसके बारे में पढ़ना चाहिए। इतिहास को टटोलना चाहिए। एक बार इतिहास को जान लेने के बाद इनके मेहनतकश विरोधी, फासीवादी चेहरे को पहचानना मुश्किल नहीं होगा। हमारी आंखों के आगे चढ़ाई गयी साम्प्रदायिकता, अंधराष्ट्रवाद, सैन्यवाद आदि की पट्टी उतर जायेगी। हम छात्रों-नौजवानों सहित देश के मेहनतकशों के असल शत्रु पूंजीपति वर्ग और उसके चाकर मोदी-योगी, सावरकर-गोडसे सहित आर.एस.एस.-भाजपा को ज्यादा बेहतर ढंग से पहचान सकेंगे। साथ ही भगत सिंह और समाजवाद के उनके रास्ते को भी ज्यादा बेहतर ढंग से जानने की जरूरत है। असल में शहीद भगत सिंह और उनकी क्रांतिकारी विरासत ही इन हिन्दू फासीवादियों को मुंहतोड़ जवाब दे सकती है।
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