इंदिरा इज इंडिया और घर-घर मोदी
पाकिस्तान के जनपक्षधर शायर हबीब जालिब ने कभी तानाशाहों की फितरत पर लिखा था - ‘‘तुम से पहले वो जो इक शख्स यहाँ तख्त-नशीं था उसको भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यकीं था“।पाकिस्तान में जनरल अय्यूब खान की सैन्य तानाशाही के जनप्रतिरोध से खत्म हो जाने के बाद 1969 में फिर जनरल याह्या खान की सैन्य तानाशाही कायम हो जाने के खिलाफ यह गजल हबीब जालिब ने लिखी थी।
गजल की ये पंक्तियां हमारे दौर के लिए भी सटीक हैं। वैसे मुसोलिनी, हिटलर जैसे फासीवादी तानाशाहों को भी कभी यही गुमान रहा होगा कि वही सर्वशक्तिमान हैं, कि वे इतिहास और समाज की गति को हमेशा के लिए थाम लेंगे। मगर इतिहास ने, प्रचंड फासीवाद विरोधी क्रांति की लहर ने, इन्हें किनारे लगाकर कूड़ेदान में फेंक दिया।
यही बात भारत के हुक्मरानों के लिए भी सही है। एक दौर में देश के भीतर नारा दिया गया था ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’। यही गुमान तब भी था। यही गुमान आज के हुक्मरानों को भी है, मोदी और शाह को है। योगी, भाजपा और संघ को है। ‘मन की बात’ सुनाकर, ‘सबका साथ-सबका विकास’ की बात करते हुए इनके कदम फासीवादी तानाशाही की ओर बढ़ रहे हैं।
ये ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’ का नारा लगाते हैं। ये भी यही सोचते हैं कि अपनी हिंदुत्व की राजनीति के जरिये समय के प्रवाह को रोक देंगे, जनता के अलग-अलग हिस्सों के प्रतिरोध को ध्वस्त कर देंगे। इस तरह ये लोग यह भी भूल जाते हैं कि ये खुद भी इसी समाज की खास अवस्था की उपज हैं, समय के खास दौर के प्रवाह की पैदाइश हैं। इसके आगे इनकी कोई हैसियत नहीं है। इन्हें भी देर-सबेर कूड़ेदान में फेंक दिया जाएगा।
‘इंदिरा इज इंडिया-इंडिया इज इंदिरा’ यानी ‘इंदिरा भारत है और भारत इंदिरा है’ यह नारा 1974 में कांग्रेस के अध्य्ाक्ष देवकांत बरूच ने दिया था।
आजादी के बाद देश के बड़े पूंजीपतियों के अनुरूप बनाये गए टाटा-बिड़ला एक्शन प्लान का असर दिखने लगा। आम जनता, मजदूरों-किसानों की कीमत पर पूंजीपतियों के विकास को देश का विकास कहा जा रहा था। 1957-58 में ही देश को आर्थिक मंदी का सामना करना पड़ा। आगे देश ने खाद्यान्न संकट, भुगतान संकट, पूंजी निवेश का संकट भी झेला। जिससे शासकों के बीच खुले बाजार की नीतियों के समर्थक पैदा हो गये थे। जिनमें कांग्रेस के भीतर कुछ लोग तो बाहर जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी सरीखी पार्टियां संरक्षणवादी नीतियों की विरोधी थीं।
ऐसे में सत्ता में पहुंची इंदिरा ने 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण, राजे-रजवाड़ों के प्रीवी पर्सों (भत्तों) की समाप्ति जैसे कदम उठाये। साथ ही पाकिस्तान के विभाजन पर अंधराष्ट्रवादी प्रचार से सत्ता मजबूत करने की कोशिशें कीं। इसके बावजूद महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार आदि से त्रस्त जनता के संघर्ष फूट पड़े। इंदिरा ने खुद को गरीबों के मसीहा के रूप में पेश किया था और ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था। गरीबों की इस मसीहा को अब जल्द ही बेनकाब होना था। 1972-75 के दौर में संकट काफी तीखा हो गया।
यह संकट आंतरिक भी था और बाहरी भी था। इस वक्त वैश्विक स्तर पर तेल का संकट था। जबकि देश के भीतर कृषि में संकट हरित क्रांति के बावजूद गहरा गया था। कृषि उत्पादन काफी गिर गया। मुद्रा स्फीति यानी महंगाई 25-30 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गई। एक ओर उद्योगों में श्रमिकों की हड़ताओं में भारी बढ़ोतरी हो गयी। कर्मचारियों की हड़तालें होने लगीं। दूसरी ओर छात्रों की हड़ताल शुरू हो गयी।
1973 को अहमदाबाद के एक इंजीनियरिंग कालेज के छात्रों ने छात्रावास के भोजन में 20 प्रतिशत शुल्क वृद्धि के खिलाफ आंदोलन किया था। यही आंदोलन फिर गुजरात विश्वविद्यालय में भी होने लगा। इसका दमन हुआ। मगर आंदोलन विस्फोटक हो गया। इस आंदोलन में मध्यम वर्ग के लोग और अहमदाबाद के मजदूर भी शामिल हो गए।
देखते ही देखते छात्रों, वकीलों और प्रोफेसरों की नवनिर्माण युवक समिति बन गयी। महंगाई, बेरोजगारी, खाद्य पदार्थों की कमी तथा भ्रष्टाचार के मुद्दे पर यह आंदोलन कई जगह फैल गया। यह फिर नवनिर्माण आंदोलन के रूप में मुख्यमंत्री के इस्तीफे पर केंद्रित हो गया। सेना और पुलिस के जरिये इसे कुचलने की कोशिश हुई। अंततः इंदिरा गांधी को राज्य सरकार को भंग करना पड़ा। दमन में 100 की मौत हुई। 1000-3000 लोग घायल हुए। 8000 लोग गिरफ्तार हुए। इसी तरह बिहार में भी बड़ा आंदोलन शुरू हो गया।
इसी दौर में रेलवे की 20 दिन की हड़ताल हुई। जिसमें लगभग 17 लाख कर्मचारियों ने 8 घंटे के कार्य दिवस के लिए रेलवे का चक्का जाम कर दिया गया। कुछ जगहों पर पी.ए.सी और पुलिस में भी यूनियन बनाने को लेकर संघर्ष शुरू हो गया।
1975 जून तक आते-आते ‘इंदिरा हटाओ’ के साथ दिल्ली में बड़े प्रदर्शन होने लगे। जे.पी. नारायण ने ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का नारा दिया। इंदिरा सरकार को हटाने का आह््वान कर दिया।
इसी समय इलाहाबाद हाईकोर्ट से इंदिरा गांधी पर चुनाव में भ्रष्ट आचरण पर फैसला आ गया। उन्हें चुनाव लड़ने के लिए छह साल तक अयोग्य ठहरा दिया गया। कोर्ट में इंदिरा गांधी सवालों के जवाब देने को मौजूद थी। ऊपरी कोर्ट से इस फैसले पर 24 जून को इंदिरा गांधी को आंशिक स्टे मिल गया।
जनता के अलग-अलग हिस्सों में जबरदस्त आंदोलन व आक्रोश था । इसे भटकाने में परमाणु बम विस्फोट भी किसी काम न आया। शासक वर्ग के दूसरे हिस्से, साम्प्रदायिक संघ, जनसंघ, अकाली दल, जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिन्द व अन्य हिस्से इस गुस्से व आंदोलन पर सवार होकर सत्ता अपने हाथ में लेने को बेताब थे।
इस उथल-पुथल भरे आर्थिक- राजनीतिक संकट से निपटने के लिए अंततः अनुच्छेद-352 का इस्तेमाल करके इंदिरा गांधी ने तानाशाही थोप दी। लाखों लोग गिरफ्तार कर लिए गए। अखबार ना छप सकें इसलिये रातों-रात उनकी बिजली काट दी गयी। फिर इन पर सख्त पहरा बिठा दिया। आम नागरिकों के मौलिक अधिकार जब्त कर लिए गए। आंतरिक सुरक्षा कानून, भारत सुरक्षा कानून के जरिये बिना किसी मुकदमे और सुनवाई के जेल में लाखों लोगों को डाल दिया गया। आम नागरिकों ने 26 जून की सुबह-सुबह जब आँखें खोली तो खुद को तानाशाही की गोद में पाया।
आपातकाल के बर्बर दमन, टार्चर, हत्या, बलात्कार की फिर अपनी एक अलग दास्तां है। परिवार नियोजन के नाम पर लगभग 90 लाख लोगों की जबरन नसबंदी की गई। जिसमे कई बीमार पड़े, कई संक्रमण से मर गए। संजय गांधी संविधान से इतर एक अलग निरंकुश ताकत बन गया।
आपातकाल में जो शासक वर्ग के लोग थे उनके साथ जेलों में नरमी बरती गई। जल्दी रिहा भी किया गया। मगर जो आम जनता के हिस्से थे उनके साथ भयानक अत्याचार किया गया।
सी.पी.आई., शिव सेना ने इस आपातकाल का समर्थन किया। उद्योगपति टाटा ने कहा ‘संसदीय प्रणाली हमारी जरूरतों के अनुकूल नहीं है’। बड़े पूंजीपति आपातकाल के घोर समर्थक थे। इनके लिए यह अनुशासन पर्व था। उद्योगों में श्रमिकों से काम कराना, उनका अत्यधिक शोषण करने के लिए ‘‘उचित माहौल’’ था।
इसीलिये औद्योगिक उत्पादन पहले 6.1 फीसदी फिर 1976 में 10.4 फीसदी बढ़ गया। आयात 1974 के 53 प्रतिशत से गिरकर 1976 में 3 प्रतिशत पर आ गया। निर्यात इसी दौर में 3328 करोड़ से बढ़कर 5142 करोड़ हो गया। इसी दौर में खाद्य महंगाई दर 38 प्रतिशत से गिरकर -5.1 प्रतिशत पर आ गयी।
आपातकाल विरोधी व्यापक संघर्षों के दबाव और आर्थिक-राजनीतिक संकट से निपटने के बाद मार्च 1977 में आपातकाल हटा लिया गया।
आपातकाल के लगभग 4 दशक बाद बड़े पूंजीपतियों ने पुनः अपने नए नायक को ‘जादूगर’ के रूप में प्रोजेक्ट किया। अब भी ‘व्यक्ति पूजा’ पर ही जोर था। ‘इंदिरा इज इंडिया’ अब ‘घर-घर मोदी’ में बदल गया है।
मोदी की ताजपोशी कराने के बाद बड़ी पूंजी के मालिकों ने दो काम शिद्दत से करवाये हैं। पहला 90 के दशक से लागू नई आर्थिक नीतियों को प्रचंड गति से लागू करना, दूसरा हिंदुत्वकरण यानी हिंदू फासीवाद के लिए अनुकूल माहौल तैयार करना।
इस दौर में आपातकाल की घोषणा नहीं हुई है। संविधान ऊपरी तौर पर आज भी लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष है। मगर इसे भीतर से काफी खोखला कर दिया गया है। अब अघोषित आपातकाल है। मुख्य धारा की मीडिया पर पाबंदी नहीं है बल्कि ये मोदी, भाजपा और संघ के मुखपत्र बन गए हैं। इस अघोषित आपातकाल में पुलिस और संघी फासीवादी दस्ते एकजुट होकर ‘मोदी विरोधी’ ‘सरकार विरोधी’ आवाज को कुचलने का काम कर रहे हैं। मीडिया मोदी और सरकार को बेनकाब करने वालों के खिलाफ फर्जी दुष्प्रचार करता है। इन्हें ‘राष्ट्र विरोधी’, ‘हिंदू विरोधी’ के बतौर स्थापित करता है।
इंदिरा गांधी के जमाने में हाईकोर्ट तक को यह साहस था कि वह प्रधानमंत्री को कोर्ट में हाजिर होने का आदेश दे। और प्रधानमंत्री के खिलाफ फैसला दे। आज मगर न्यायपालिका बिल्कुल ही मोदी सरकार की पालतू बन गयी है। राफेल से लेकर नोटबन्दी, लॉकडाउन, बाबरी मस्जिद, नागरिकता (संशोधन) कानून, जम्मू कश्मीर से 370 हटाने आदि सभी पर कोर्ट ने मोदी सरकार के भोंपू की तरह काम किया है।
आपात काल केवल 21 माह रहा था। मगर यह अघोषित आपातकाल काफी लंबा, काफी भयानक और घातक है। इसने सैकड़ों लोगों को यू.ए.पी.ए. और राजद्रोह में फर्जी ढंग से फंसाकर जेलों में डाला हुआ है।
इसका सबसे खतरनाक पहलू यह है कि हिंदुत्व की राजनीति इसका हथियार है। यह मुख्यतः मुस्लिम विरोध और नफरत पर टिका हुआ है। हिंदू समुदाय की एक ठीक-ठाक आबादी इनके प्रभाव में है। इस आबादी ने परोक्ष तौर पर अपने अधिकारों को हिंदू फासीवादियों को समर्पित कर दिया है।
इस मायने में यह इंदिरा के घोषित आपातकाल से अधिक खतरनाक है। तमाम महंगाई, बेरोजगारी, संकट के बावजूद समाज में ठीक-ठाक आबादी को संघी फासीवादी अपने पक्ष में करे हुए हैं। हालांकि 2014 से क्रमशः इनकी साख में गिरावट आयी है। मोदी लहर कमजोर पड़ी है। पर ये अधिकाधिक हिन्दू फासीवाद की ओर कदम बढ़ाते जा रहे हैं। यह इन्हें ऊपरी तौर पर आक्रामक दिखाता है पर ये जनता की सहज स्वाभाविक चेतना से भीतर तक थरथर कांपते हैं।
इस अघोषित आपातकाल की दिशा नग्न आतंकी फासीवादी राज्य कायम करने की ओर है। इसी को मोदी, योगी, संघ और भाजपा ‘हिंदू राष्ट्र’ कहते हैं। यह घोर महिला विरोधी है, मुस्लिम और दलित विरोधी है तथा मजदूर मेहनतकश जनता विरोधी है।
इस अघोषित आपातकाल में मजदूर-मेहनतकश जनता और छोटी-मझोली पूंजी की हर तरह से लूट-खसोट और तबाही से बड़ी पूंजी यानी कॉरपोरेट घराने बेतहाशा मालामाल होते जा रहे हैं। तबाह-बर्बाद और कंगाल होती जनता को ये लोग हिंदुत्व के जहरीले नशे में डुबो रहे हैं।
अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद ये सबकुछ अपने मन मुताबिक नहीं कर पा रहे हैं। सी.ए.ए., एन.आर.सी. विरोधी संघर्ष और फिर किसानों के संघर्ष ने इस बात को दिखाया है। इनको पीछे हटने पर मजबूर भी किया है। इन संघर्षों ने भविष्य का रास्ता भी और बेहतर उम्मीद भी दिखाई है।
कॉरपोरेट घरानों की बेलगाम लूट-खसोट के लिए मोदी और इनकी सरकार ने भांति-भांति के अंतर्विरोधों को तीखा कर दिया है। यह अंतर्विरोध कभी भी, कहीं से भी विस्फोट के रूप में फट सकता है। जो संगठित और क्रांतिकारी होने पर हिंदू फासीवादियों को पराजित कर इतिहास के कूड़ेदान में डाल देगा।
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