काकोरी के अमर शहीद
जिये भी शान से मरे भी शान से
काकोरी काण्ड का समूचे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक विशेष महत्व है। यह केवल एक ट्रेन डकैती नहीं थी। यह ब्रिटिश सरकार पर एक राजनीतिमक हमला था। यह फरवरी 1922 में चौरी चौरा की घटना के बाद महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन को वापस लेने के बाद पैदा हुए राजनीतिक शून्य और निराशा से देश की जनता को बाहर निकालने का प्रयास था। 9 अगस्त सन् 1925 को हुई काकोरी की घटना ने देश की जनता के समक्ष कांग्रेस का समझौतावादी और ढुलमुल राजनीतिक के बरक्स क्रांतिकारी राजनीति का विकल्प भी खोल दिया। इस घटना ने न केवल देश को असहयोग आंदोलन के असफल होने की निराशा और सांप्रदायिक माहौल से बाहर निकाला बल्कि महात्मा गांधी की राजनीति की सीमाओं, उनकी सत्याग्रह के पीछे ब्रिटिश सरकार से मोलभाव करने और संघर्ष को देश में उभरते पूंजीपति वर्ग और जमींदार वर्ग के खिलाफ न खड़ा होने देने की उनकी चालाकियों को भी उजागर कर दिया। काकोरी की घटना ने देश की आजादी के आंदोलन को सशक्त क्रांतिकारी धारा की तरफ मोड़ दिया।
काकोरी काण्ड को अंजाम ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के क्रांतिकारियो ने दिया। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना सन् 1924 में शचीन्द्र नाथ सान्याल रामप्रसाद बिस्मिल आदि के द्वारा की गई थी। काकोरी काण्ड को एच.आर.ए के 10 लोगों ने अंजाम दिया था जिसका नेतृत्व रामप्रसाद बिस्मिल ने किया था। इस योजना में राजेन्द्र लाहिड़ी ने 9 अगस्त 1925 को लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी ‘8 डाउन सहारानपुर-लखनऊ पैसेन्जर ट्रेन’ को चेन खींचकर रोका और सरकारी खजाने को लूट लिया बाद में ब्रिटिश सरकार ने दमन चक्र चलाते हुए एच. आर. ए. के 40 क्रांतिकारियों पर सम्राट के विरूद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व यात्रियों की हत्या का मुकदमा चलाया। इस मुकदमें में शचीन्द्र नाथ सान्याल को बंगाल से लाया गया। उन पर काकोरी कांड का नेतृत्व करने का अभियोग लगा। इसी प्रकार राजेन्द्र लाहिड़ी भी बंगाल की जेल से काकोरी के मुकदमे में लाए गये जो दक्षिणेश्वर मे ंबम के कारखाने में गिरफ्तार हुए थे, जिसमें उन्हें 10 वर्ष की सजा हुई थी। बंगाल में नजरबंद किये गये योगेश चन्द्र चटर्जी भी इस मामले में लखनऊ लाए गये। शचीन्द्र नाथ सान्याल के भाई भूपेन्द्र नाथ सान्याल भी इस मुकदमे में गिरफ्तार हुए थे।
काकोरी के गिरफ्तार कैदियों का जेल जीवन में अध्ययन और मनन का सिलसिला तेजी से चला। क्रांतिकारियों में नई भाषाएं सीखने की पहल हुई। रोशन सिंह बांग्ला सीखने का अभ्यास करने लगे। रामकृष्ण खत्री ने मन्मयनाथ गुप्त तथा दूसरों को मराठी पढ़ाना शुरू किया। शचीन्द्र नाथ सान्याल ने उर्दू सीखी।
काकोरी कांड में गिरफ्तार क्रांतिकारियों पर अन्य धाराओं के साथ धारा-121-ए लगी थी अर्थात ब्रिटिश सम्राट के विरुद्ध युद्ध की घोषणा। बावजूद इसके क्रांतिकारियों को राजनैतिक कैदी मानने से इंकार किया जा रहा था। कुछ क्रांतिकारियों ने राजनैतिक कैदियों के अधिकारों के लिए अनशन भी किया।
रामप्रसाद बिस्मिल इस नतीजे पर पहुंच चुके थे कि सरकार उन्हें फांसी अवश्य देगी। चन्द्रशेखर आजाद और कुन्दनलाल जो इस मामले में अब तक पकड़े नहीं जा सके थे, उनसे किसी तरह सम्पर्क करके जेल से भागने की योजना बनी लेकिन ब्रिटिश हुकुमत को क्रांतिकारियों की योजना की भनक मिल चुकी थी इसलिए जेल की सुरक्षा तगड़ी कर दी गई। इस तरह जेल से निकल भागने की योजना असफल हो गइ।।
काकोरी के मुकदमें में फैसले की तारीख 6 अप्रैल 1927 नजदीक आती जा रही थी। उसके एक दिन पहले 5 अप्रैल की रात्रि को क्रांतिकारियों ने ‘अपनी अदालत’ लगाई। संसार के इतिहास में इस तरह का ‘नाटक’ पहले कभी नहीं खेला गया। क्रांतिकारियों में से एक जज बना। उसने सबके गुनाहों की लंबी चौड़ी के फेहरिस्त सुनाते हुए सजाओं का ऐलान किया। सबसे पहले रामप्रसाद बिस्मिल को उनका मुख्य अपराध बताया गया कि उन्हांेने दयालु ब्रिटिश साम्राज्य’ से भारत को छीन लेने की कोशिश की और इसके लिए उन्हें मृत्यु दंड की सजा दी गई। दूसरा नंबर शचीन्द्र नाथ सान्याल का था जिनके लिए कहा गया कि यह वही पुराना क्रंातिकारी पागल था जिसने रास बिहारी बोस के साथ मिलकर ब्रिटिश वायसराय लार्ड हार्डिंग की गद्दी पर बम फेंका था और जिसे अंडमान की सेलुलर जेल में सुधरने का मौका दिया गया था लेकिन वहां से वापस आने के बाद इन्होंने ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के नाम से एक खतरनाक पार्टी का इतनी ‘‘अच्छी सरकार ’’ को उखाड़ फेंकने के लिए संगठन किया। उन्होनें ‘द रिवोल्युशनरी’ नाम का एक पर्चा छपवाकर सारे भारतवर्ष में जनता के दिमाग को खराब करने का दृष्कृत्य किया था। सबसे बड़ा अपराध उन्होनें ‘बंदी जीवन’ नामक पुस्तक लिखकर नौजवान के दिमाग खराब कर दिए। एच. आर. ए का संविधान लिखने का काम आप का ही था जिसके उद्देश्य में मनुष्य; मनुष्य का शोषण न कर सके और समान काम का समान वेतन जैसी खतरनाक बातें थीं। नकली जज ने उनके अपराध पर आजीवन कारावास का दंड सुनाया।
हर एक क्रंातिकारी को इसी तरह उनके ‘अपराध’ को सामने रखकर सजाएं सुनाई गई। जिनमें सबसे दिलचस्प मामला रोशन सिंह का था जिन्हें सिर्फ पांच साल की सजा का ऐलान किया गया। इस पर वे बिगड़ उठे। बोले, ‘बदमाशो, मैं तो कोदों बेचकर आया हूं जो मुझे पांच साल की सजा।’ इस पर जज ने कहा कि आपको अदालत की मानहानि में 15 दिन की सजा और दी जाती है। इस पर रोशन सिंह नाराज होकर उठकर कर चले गए।
6 अप्रैल 1927 को क्रांतिकारियों को सजाएं सुनाई गई। जिसमें रामप्रदास बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह और राजेन्द्र लाहिड़ी को फांसी, मुकुन्दीलाल और शचीन्द्र नाथ सान्याल को आजीवन कारावास, मन्मथनाथ गुप्त को 14 वर्ष, गोविन्दचरणकार, योगेशचन्द्र चटर्जी, राजकुमार सिन्हा और रामकृष्ण खत्री को दस-दस वर्ष, सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य और विष्णु शरण दुवलिस को सात-सात वर्ष, भूपेन्द्रनाथ सान्याल, रामदुलारे त्रिवेदी, रामनाथ पाण्डे और प्रेम कृष्ण खन्ना को पांच-पांच तथा प्रणसवेश चटर्जी को चार वर्ष की सजा सुनाई गई।
तमाम कोशिशों के बाद भी काकोरी के चारों क्रांतिकारियों की फांसी को टाला नहीं जा सका। अन्नतः 17 दिसम्बर 1927 राजेन्द्र लाहिड़ी को गोंडा जेल में फांसी दे दी गई। इसके बाद 19 दिसम्बर को रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर, अशफाक उल्ला खां को फैजाबाद तथा रोशन सिंह को इलाहाबाद जेल में फांसी दी गई। राजेन्द्र लाहिड़ी ने अपनी फांसी से कुछ दिन पहले अपने एक मित्र को पत्र में लिखा ‘‘मालूम होता है कि देश की बलिवेदी को हमारे रक्त की आवश्यकता है। मृत्यु क्या है? जीवन की दूसरी दिशा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। यदि यह सच है कि इतिहास पलटा खाया करता है तो मैं समझता हूं हमारी मृत्यु व्यर्थ नहीं जाएगी।’’ रामप्रसाद बिस्मिल ने फांसी के दरवाजे पर पहुंच कर कहा- ‘‘मैं ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश चाहता हूं।’’अशफाक उल्ला खां ने फांसी से पूर्व शेर कहे जिनमें से एक है
‘‘कुछ आरजू नहीं है, है आरजू तो यह है
रखे दे कोई जरा-सी, खाके-वतन कफन में।’’
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