बुधवार, 23 नवंबर 2022

 राम प्रसाद बिस्मिल: एक अविस्मरणीय क्रांतिकारी

                                                                                                                  -महेश

भारत की आजादी के आंदोलन में राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ प्रमुख क्रांतिकारियों में से एक हैं। राम प्रसाद ‘बिस्मिल’  ब्रिटिश साम्राज्यवादी व्यवस्था के खिलाफ आजीवन संघर्ष में लगे रहे। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा गुलाम बनाए गए प्यारे वतन हिंदुस्तान को आजाद कराने के लिए चर्चित ‘काकोरी कांड’ में अपनी जान न्यौछावर करने तक जा पहुंचे। राम प्रसाद बिस्मिल ने ब्रिटिश गुलामी कभी स्वीकार नहीं की और ना ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद को चैन से रहने दिया। उन्होंने अपनी ही तरह के जुझारू, उत्साही, संघर्षशील नौजवानों को साथ लेकर भारत से साम्राज्यवादी जकड़न की बेड़ियों को काटने की कसम खा ली। 

राम प्रसाद बिस्मिल सहित तमाम क्रांतिकारी नौजवान संघर्ष के प्रतीक बन चुके हैं। आज भी क्रांतिकारी धारा के महान वीरों की शहादतें भारत के नौजवानों-मेहनतकशों को क्रांतिकारी जोश से भर देती हैं। तमाम तरह के शोषण-उत्पीड़न-भेदभाव के खिलाफ नौजवानों-मेहनतकशों का संघर्ष आज भी जारी है।

राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ का जन्म 11 जून 1897 को  खिरनीबाग मोहल्ले, जिला शाहजहांपुर (उत्तर-प्रदेश) में हुआ था। इनकी माता का नाम मूलमती और पिता का नाम मुरलीधर था। इनके दादा ग्वालियर से उत्तर प्रदेश आ गए थे। फिर यहीं के निवासी हो गए। माता-पिता दोनों राम के आराध्य थे इसलिए इनका नाम भी रामप्रसाद रखा गया। बाद में ‘बिस्मिल’ इनका उपनाम पड़ गया।

रामप्रसाद एक सामान्य परिवार से थे। बाल्यकाल से ही उनकी शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। उनके पिताजी ने हिंदी में उनकी रुचि न देख हार कर उर्दू के स्कूल में भर्ती करा दिया। इससे वह उर्दू के उपन्यास और गजलें, पुस्तक पढ़ने के आदी हो गये। रामप्रसाद ने उर्दू की मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण न होने पर अंग्रेजी पढ़ना आरंभ किया। वह अंग्रेजी में पांचवे दर्जे तक पढ़े।  

रामप्रसाद अपने जीवन में आ रहे बदलावों और सही मार्ग चुनने का श्रेय अपनी मां को दिया करते थे। फांसी की सजा मिलने के बाद वह अपनी मां के बारे में कहते हैं ‘इस संसार में मेरी किसी भी भोग-विलास तथा ऐश्वर्य की इच्छा नहीं। केवल एक तृष्णा है, वह यह कि एक बार श्रद्धापूर्वक तुम्हारे चरणों की सेवा करके अपने जीवन को सफल बना लेता। किंतु यह इच्छा पूर्ण होती नहीं दिखाई देती और तुम्हें मेरी मृत्यु का दुःखपूर्ण संवाद सुनाया जाएगा। मां, मुझे विश्वास है कि तुम यह समझकर धैर्य धारण करोगी कि तुम्हारा पुत्र माताओं की माता ‘भारत माता’ की सेवा में अपने जीवन को बलि वेदी की भेंट कर गया और उसने तुम्हारी कुक्षि को कलंकित न किया। अपनी प्रतिज्ञा में दृढ़ रहा। जब स्वाधीन भारत का इतिहास लिखा जाएगा, तब उसके किसी पृष्ठ पर उज्जवल अक्षरों में तुम्हारा भी नाम लिखा जाएगा।’ इस तरह वह अपने मार्ग में अटल रहकर अपने मां के प्रति स्नेह  प्रकट करते हैं।

पढ़ाई के दौरान मंदिर में आने वाले मुंशी इंद्रजीत से उनका संपर्क हुआ। मुंशी इंद्रजीत ने रामप्रसाद को आर्य समाज के संबंध में बताया। यहीं से वह आर्य समाज की ओर बढ़े, बाद के पूरे जीवन वह आर्य समाजी रहे।

1916 में कांग्रेस के अधिवेशन के लिए बाल गंगाधर तिलक लखनऊ पहुंच रहे थे। रामप्रसाद कांग्रेस के सदस्य नहीं थे। राष्ट्रीय आंदोलन की भावना उनको यहां खींच कर लाई थी। उन्होंने 19 वर्ष की आयु में क्रांतिकारी मार्ग में कदम रखा और निरंतर आगे बढ़ते ही रहे।

कांग्रेस अधिवेशन में क्रांतिकारियों की नजर रामप्रसाद पर पड़ी। धीरे-धीरे बिस्मिल क्रांतिकारी दल के विश्वसनीय सदस्य हो गये। बाद में शाहजहांपुर में बिस्मिल ने क्रांतिकारी भावनाओं से युक्त युवकों का एक ‘मातृ वेदी’ संगठन भी खड़ा किया। संगठन में शामिल होने के लिए एक मुसलमान नवयुवक अशफाक उल्ला खाँ भी आये थे। अशफाक को भी दल में शामिल कर लिया गया। भारत की आजादी के आंदोलन में अशफाक-बिस्मिल की जोड़ी हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बन गयी थी। आज भी देश को हिंदू-मुसलमान के नाम पर बांटने वाली सांप्रदायिक, फिरकापरस्त, फासीवादी ताकतों के सामने अशफाक-बिस्मिल की ‘साझी-शहादत, साझी-विरासत’ का इतिहास सीना तान कर खड़ा हो जाता है। धर्म इन दोनों के लिए अपना निजी मामला था। धर्म न ही इन दोनों के काम, उद्देश्य में कभी आड़े आया। आजादी के आंदोलन में इनकी यही हिंदू-मुस्लिम एकता इनको मित्रता के सर्वाेच्च शिखर पर पहुंचा देती है। यही एकता आज हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत है। जिसको अपनाकर हिंदू फासीवादी ताकतों को जवाब देने की जरूरत है।

दल के लिए धन एकत्रित करने के लिए बिस्मिल ने कई तरीके अपनाये। इस संगठन के नवयुवकों ने चिल्ला- चिल्लाकर पुस्तकें बेचना शुरू किया। पुलिस ने छापा डाला किंतु बिस्मिल की सूझबूझ से सभी पुस्तकें बचा ली गई।

रामप्रसाद को जब मालूम चला कि ग्वालियर के एक रिटायर्ड पुलिस सुपरिटेंडेंट महोदय अपनी राइफल बेचना चाहते हैं। वह अशफाक को साथ लेकर ग्वालियर जा पहुंचे। किसी तरह उन्होंने हथियार तो हासिल कर लिए। अब उनके सामने समस्या यह थी कि इतने हत्यारों को वह शाहजहांपुर तक कैसे ले जाएं। रामप्रसाद शाहजहांपुर गए तथा उधर से अपनी छोटी बहन शास्त्री देवी को साथ लेकर ग्वालियर पहुंच गए। बिस्मिल ने अपनी छोटी बहन की एक टांग से राइफल दूसरी टांग से पिस्तौल व रिवाल्वर बांधकर दोनों टांगों से खपच्चियों के टुकड़ों से इसे बांध दिया। दोनों टांगों पर अस्पताल की तरह पट्टियां बांध दी गई। अपनी बहन को इस प्रकार जख्मी के रूप में सज्जित करके बिस्मिल, अशफाक की सहायता से हथियार शाहजहांपुर लाये।

1915-16 में उत्तर प्रदेश के मैनपुरी में अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए क्रांतिकारियों ने एक संस्था की स्थापना की। इस संस्था के कार्य करने की सूचना अंग्रेज अधिकारियों को लग गई। प्रमुख नेताओं को पकड़कर उनके विरुद्ध मैनपुरी मुकदमा चला इसमें बिस्मिल की ‘मातृ वेदी’ संस्था भी थी। बाद में अंग्रेजों ने इसे मैनपुरी षडयंत्र का नाम दिया। मैनपुरी षडयंत्र के कारण रामप्रसाद 2 वर्ष भूमिगत रहे।

रामप्रसाद ने रामपुर जहांगीर गांव में शरण ली। कई महीनों तक निर्जन जंगलों में घूमते हुए गांव के गुर्जरों के साथ गाय-भैंस चराए। इसका वर्णन स्वयं उन्होंने अपनी आत्मकथा के द्वितीय खंड (उपशीर्षक- पलायनवस्था) में किया है। यहीं पर रहकर उन्होंने अपना उपन्यास ‘बोल्शेविकों की करतूत’ भी लिखा है। राम प्रसाद बिस्मिल हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, बंगाली सहित कई भाषाओं के जानकार थे। वह कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाई, इतिहासकार व साहित्यकार भी थे। उन्होंने कई उपन्यास, कविताएं और लेख भी लिखे। उनके लेख पत्र-पत्रिकाओं, अखबारों में ‘राम’ या ‘अज्ञात’ नाम से छपते थे। इस तरह उन्होंने अपने जीवनकाल में 11 पुस्तकों का लेखन और प्रकाशन किया। जिन्हें अधिकतर सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया।

बिस्मिल के घर में माता-पिता, परिवार को पुलिस द्वारा काफी प्रताड़ित किया गया। बिस्मिल के पिता ने इससे तंग आकर अपनी नौकरी छोड़ दी। अपना घर बेचकर कहीं दूसरी जगह रहने लगे। इससे बिस्मिल के परिवार का जीवन चलना मुश्किल हो गया था।

मैनपुरी षड्यंत्र के मुकदमे में मुआफी के बाद फारिख होकर रामप्रसाद बिस्मिल शाहजहांपुर वापस आए। कुछ समय काम करने के बाद बिस्मिल का मन काम में नहीं लगा। आजादी के आंदोलन के लिए बना एक सच्चा सिपाही कुछ दिन बाद ही नौकरी और व्यापार के काम से आजिज आ चुका था। सितंबर 1920 में कोलकाता कांग्रेस में शाहजहांपुर कांग्रेस कमेटी के अधिकृत प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए। 1921 के अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव का खुलकर समर्थन किया और असहयोग आंदोलन प्रारंभ करने का प्रस्ताव पारित करवा कर ही माने। फरवरी 1922 में चौरी-चौरा कांड के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। यहां से बिस्मिल का गांधी जी और कांग्रेस के प्रति मोहभंग हो गया।

1923 दिल्ली विशेष कांग्रेस अधिवेशन में बिस्मिल ने रिवोल्यूशनरी पार्टी का ऐलान कर दिया। नवगठित पार्टी का नाम एच.आर.ए. (हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन) रखा गया। संगठन का विस्तार पूरे उत्तर प्रदेश सहित देश के कई हिस्सों में हो गया। कांग्रेस का पूंजीपतियों के लिए समझौतापरस्त रुख देख मेहनतकश जनता को कुछ हासिल नहीं हो रहा था। संघर्षशील ताकतों के नए दल का गठन होने से एक नई ऊर्जा का संचार हुआ। बिस्मिल ने इलाहाबाद जाकर शचींद्रनाथ सान्याल व यदु गोपाल मुखर्जी के साथ मिलकर पार्टी का नया संविधान तैयार किया। इसका संविधान पीले कागज में छपने के कारण यह संविधान ‘पीले पत्र’ के नाम से मशहूर है। 3 अक्टूबर 1924 को एचआरए की कार्यकारिणी की बैठक में पार्टी का नेतृत्व और सैन्य विभाग के प्रमुख का पद रामप्रसाद बिस्मिल को सौंपा गया।

पार्टी को चलाने के लिए धन की आवश्यकता पहले से और अधिक बढ़ गई। राम प्रसाद बिस्मिल डाके डालने के पक्ष में नहीं रहते थे, पर दल की बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति ने उन्हें विवश कर दिया था। अंततः उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि वह सरकारी खजाना लूटेंगे। 

शाहजहांपुर में 7 अगस्त 1925 को एक आपातकालीन बैठक में संगठन चलाने के लिए सरकारी ट्रेन से धन लूटे जाने की योजना बनी। बिस्मिल ने अपना प्रस्ताव रखते हुए कहा ‘अपने पिछले अनुभवों से हम देख चुके हैं कि धन प्राप्त करने के लिए डाके डालने से हमें उपलब्धि तो कुछ खास नहीं होती है, उल्टे हम डाकुओं की श्रेणी में रखे जाते हैं और अपने ही भाइयों के खून से हमें अपने हाथ रंगने पढ़ते हैं। इसलिए मेरा प्रस्ताव है कि हम सरकारी खजाने पर ही हाथ साफ करें और यह काम कोई बहुत मुश्किल नहीं है।’ चंद्रशेखर आजाद ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया। अशफाक उल्ला खान ने इस प्रस्ताव से होने वाली परेशानियों, किसी की मौत और गिरफ्तारियां होने पर अपना लक्ष्य पूरा नहीं कर पाने पर अपनी बात रखी। तर्क-वितर्क करने के बाद अशफाक भी इस फैसले के साथ हो गए। बैठक में फैसला हो जाने के बाद अशफाक उल्ला खान भी एक अनुशासित क्रांतिकारी सिपाही की तरह उस डकैती का हिस्सा हो गये।

9 अगस्त 1925 को बिस्मिल के नेतृत्व में 10 नौजवानों की टोली में अशफाक उल्ला खाँ, राजेंद्र लाहिड़ी, चन्द्रशेखर आजाद, शचींद्रनाथ बख्शी, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुंदी लाल, केशव चक्रवर्ती, मुरारी शर्मा, तथा बनवारी लाल ट्रेन में डकैती डालने के लिए निकल पड़े। गाड़ी जैसे ही लखनऊ के निकट काकोरी के पास पहुंची सभी लोग अपनी जिम्मेदारियों में मुस्तैद थे। द्वितीय श्रेणी के डिब्बों में बैठे युवकों ने जंजीर खींच ट्रेन को खड़ा कर दिया। मुसाफिरों को सावधान कर दिया कोई डब्बे से उतरे या झांके नहीं। गाड़ी के डिब्बे से संदूक धक्का देकर उतार लिया गया। अशफाक की बलिष्ठ भुजाओं ने कुल्हाड़ी के प्रयास से कुछ ही देर में संदूक का मुंह खोल दिया। रुपया हासिल करके क्रांतिकारियों की यह टोली कहीं घने जंगलों में गायब हो गयी। 

यह मशहूर ट्रेन डकैती की घटना सीधे-सीधे अंग्रेजी साम्राज्यवाद को भारतीय क्रांतिकारियों की तरफ से चुनौती थी। चौरा-चौरी कांड के बाद आजादी के आंदोलन में आये खालीपन को काकोरी कांड की घटना ने दूर किया। भारतीय जनता आजादी के आंदोलन में एक नई उम्मीद देख रही थी। इस बात को जालिम ब्रिटिश हुकूमत भी समझ रही थी। वह हर आवाज को कुचलना चाहती थी। इस घटना के बाद अत्याचारी अंग्रेजी हुकूमत ने 40 से अधिक लोगों को गिरफ्तार कर लिया। जबकि काकोरी कांड में केवल 10 लोग ही वास्तविक रूप से शामिल हुए थे। अशफाक उल्ला खाँ, चंद्रशेखर आजाद सहित पांच लोग पुलिस के हत्थे नहीं चढ़े। काकोरी कांड में 2 साल तक मुकदमों का नाटक चलता रहा। बाद में अशफाक उल्ला खान भी गिरफ्तार कर लिए गए। चंद्रशेखर आजाद कभी गिरफ्तार नहीं किए गए।

काकोरी कांड में राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी और रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई। रोशन सिंह इस डकैती कांड में शामिल भी नहीं थे। 

फांसी की सजा सुनने के बाद ज्यों ही क्रांतिकारी लोग कोर्ट से बाहर निकले जनता अपने नायकों के स्वागत के लिए उमड़ पड़ी। जनता ने सभी क्रांतिकारियों को हार, फूल मालाओं से लाद दिया। सब लोगों से विदा लेकर, गीत गाते हुए, नारे लगाते हुए क्रांतिकारी जेल की तरफ चल दिए। 

फांसी की सजा कम कराने के लिए जनता की ओर से जोरदार आंदोलन शुरू कर दिया गया। जनता के संघर्षों के दबाव में सरकार को दो बार फांसी की तारीख आगे बढ़ानी पड़ी। लंदन के न्यायाधीशों व सम्राट के वैधानिक सलाहकारों ने उस पर बड़ी सख्त दलील दी कि ‘इस षड्यंत्र का सूत्रधार राम प्रसाद बिस्मिल बड़ा ही खतरनाक और पेशेवर अपराधी है। यदि उसे क्षमादान दिया गया तो... उस स्थिति में सरकार को हिंदुस्तान में शासन करना असंभव हो जाएगा।’ ब्रिटिश साम्राज्यवादी हुकूमत बिस्मिल से इस कदर खौफ खाती थी।

राम प्रसाद बिस्मिल को 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल में फांसी दे दी गई। फांसी का बुलावा आया तो बिस्मिल ‘वंदे मातरम’ और ‘भारत माता की जय’ कहते हुए चल दिए। फांसी के दरवाजे पर पहुंचकर उन्होंने कहा ‘मैं ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विनाश चाहता हूं’। फांसी से कुछ समय पहले बिस्मिल ने अंतिम समय में कहा था- 

‘अब न अहले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़, एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है’अंत में कहते हैं-‘मरते- बिस्मिल, रोशन, लहरी, अशफाक अत्याचार से, होंगे सैकड़ों पैदा उनके रुधिर की धार से’।उसी रुधिर की धार से चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों ने भारतीय क्रांतिकारी धारा का आगे विकास किया।

बिस्मिल और उनके साथी 1917 की रूसी क्रांति और 1925 में भारत में बनी कम्युनिस्ट पार्टी से प्रभावित थे। इसीलिए बिस्मिल फांसी पर चढ़ने से कुछ समय पहले नौजवानों से कहते हैं ‘नवयुवकों को मेरा अंतिम संदेश यही है कि वे रिवाल्वर या पिस्तौल को अपने पास रखने की इच्छा को त्यागकर सच्चे देश सेवक बनें। पूर्ण स्वाधीनता उनका ध्येय हो और वे वास्तविक साम्यवादी बनने का प्रयत्न करते रहें।’

स्पष्ट है की रामप्रसाद बिस्मिल का दिल मजदूरों-किसानों की लूट को देखकर आक्रोशित हो जाता था। वह पुराने विचारों, सामंतवादी-पूंजीवादी- साम्राज्यवादी व्यवस्था के शोषण-उत्पीड़न- अन्याय-दमन के खिलाफ संघर्ष करने वाले एक मजबूत सिपाही के तौर पर उभरे थे। वह अपनी चेतना में राष्ट्रीय क्रांतिकारी थे। 

अपने अंतिम समय तक वह समाजवादी भारत और नौजवानों को साम्यवादी समाज की ओर बढ़ने की राह दिखा रहे थे। वह 30 साल जिये। लगभग अपने 12 साल के राजनीतिक जीवन में उन्होंने कई मुक़ाम छुये। इसी को आगे बढ़ाते हुए बाद में एचआरए का नाम बदलकर एचएसआरए (हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन) कर दिया गया। जिस सुनहरे समाज का ख्वाब लिए राम प्रसाद बिस्मिल खुशी-खुशी शहीद हो गए। उनकी शहादत के 90 सालों बाद भी उनके सपनों का समाज आना अभी बाकी है। 

आज छात्र-नौजवानों का यह महती कार्यभार बन जाता है कि बिस्मिल के सपनों का समाजवादी भारत, साम्यवादी समाज बनाने के लिए कमर कसें। बिस्मिल को सच्ची श्रद्धांजलि भी उनके बताये रास्ते पर चलकर ही दी जा सकती है।

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