मंगलवार, 1 सितंबर 2020

मानवीय सम्बन्धों का जाल और सर्वश्रेष्ठ सम्बन्ध


 अक्सर ही इस बात को दोहराया जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। और सामाजिक प्राणी होने के नाते प्रत्येक मनुष्य नाना प्रकार के सम्बन्धों में बंधा होता है। ये सम्बन्ध इतने नाना प्रकार के होते हैं कि कोई इन्हें गिनना शुरू करे तो वह थक जाएगा पर सम्बन्धों का सिलसिला खत्म ही नहीं होगा। मसलन हम प्रियदर्शिनी नामक एक छात्रा को लें जो बी.एस.सी.तृतीय वर्ष की छात्रा है।

प्रियदर्शिनी एक ही समय में किसी की बहन, किसी की बेटी, किसी की बुआ, किसी की मौसी, किसी की भतीजी, किसी की पोती और न जाने क्या, क्या है। और आगे के जीवन में वह न जाने किन-किन सम्बन्धों में बंधेगी। यानी प्रियदर्शिनी अपने भावी जीवन में प्रेमिका, मां, पत्नी, भाभी, ननद, दादी, नानी आदि, आदि संम्बन्धों को जियेगी।

जो बात प्रियदर्शिनी पर लागू होती है वही बात किसी भी अन्य युवती और थोड़ा भिन्न अर्थों में किसी भी युवा पर लागू होती है। पर क्या कोई व्यक्ति सिर्फ पारिवारिक या नातेदारी-रिश्तेदारी के ही सम्बंधों में ही बंधा होता है। नहीं पारिवारिक सम्बन्धों से बाहर भी संम्बंधों का विशाल दायरा होता है।

मसलन प्रियदर्शिनी जो कि बी.एस.सी.तृतीय वर्ष की छात्रा है को लें। वह जिस कक्षा में पढ़ती है, उसमें 25 छात्र-छात्रायें हैं। वह जिस विश्वविद्यालय में पढ़ती है उसमें 3000 छात्र हैं और करीब 200 शिक्षक हैं। लैब टेक्नीशियन आदि सब को मिलाकर करीब 500 कर्मचारी हैं। प्रियदर्शिनी छात्रा-शिक्षिका, छात्र-छात्रा आदि सम्बन्धों में बंधी है। उसकी कई सखियां हैं और कइयों से सिर्फ साथ में पढ़ने के कारण जान-पहचान है। कुछों को वो सिर्फ इसलिए जानती है कि वे उसके विश्वविद्यालय में पढ़ते हैं। बचपन की सखियां, साथ में पढ़ने वाली सखियां, पड़ोस की सहेलियां आदि-आदि को भी हम मानवीय संबंधों के दायरे में लेंगे। इसी तरह एक ही बस में सवार होकर विश्वविद्यालय जाने वालों को हम सहयात्री कहेंगे जो कि अपने किस्म का मानवीय संबंध ही है। 

इसी तरह प्रियदर्शनी एक छात्रा होने के साथ मतदाता भी है। वह भारत की नागरिक है। और बालिग हो जाने के साथ वह अब ड्राइविंग लाइसेंस प्राप्त कर प्रशिक्षण प्राप्त ड्राइवर भी बन चुकी है। यानी मानवीय संबंधों का ऐसा क्षेत्र जिसका संबंध निजी पारिवारिक संबंधों से बाहर का है। 

प्रियदर्शनी भावी जीवन में किसी पर निर्भर रहने के स्थान पर आत्मनिर्भर होकर जीना चाहती है। उसकी सोच है कि वह दवा फैक्टरी में काम करेगी। यानी मानवीय संबंधों का एक नया क्षेत्र जहां उसकी भूमिका दवाओं के उत्पादन से जुड़ी होगी। वह समय के साथ कुशल मजदूर बन जायेगी। उत्पादन संबंधों में वह एक उत्पादक होगी। जो उसे वेतन मिलेगा उससे वह अपने जीवन की जरूरत पूरी करेगी। जरूरतों को पूरा करते वक्त प्रियदर्शनी एक उपभोक्ता बन जायेगी।

इस तरह से देखें तो प्रियदर्शनी मानवीय संबंधों के एक अलग संसार में होगी, जहां वह ‘नागरिक’, ‘मतदाता’, ‘उत्पादक’, ‘उपभोक्ता’ आदि, आदि होगी। इन भूमिकाओं के तहत उसके अधिकार-कर्तव्य का सिलसिला होगा। 

प्रियदर्शनी जिस फैक्टरी में काम करेगी वहां मजदूरों की एक यूनियन है। हो सकता है कि वह यह तय करे कि वह भी यूनियन की सदस्य बनेगी। यूनियन सदस्य बनते ही वह मानवीय संबंधों की एक अलग दुनिया में होगी। यूनियन मजदूरों के हितों के लिए संघर्ष करने वाली संस्था है। यूनियन सदस्य बनकर किसी समय की छात्रा प्रियदर्शनी मजदूरों के हकों के लिए लड़ने वाली कार्यकर्ता या भविष्य में नेता बन सकती है। जैसे-जैसे जीवन आगे बढ़ता जायेगा वैसे-वैसे नये संबंध सामने आते जायेंगे। 

इस तरह प्रियदर्शनी के उदाहरण के जरिये हमने मानवीय संबंधों की विशाल दुनिया की एक छोटी सी यात्रा की। इस छोटी से यात्रा में ही हम उसके मानवीय संबंधों की गणना करने का साहस नहीं जुटा पाये क्यांकि यह संबंधों का अनवरत सिलसिला हर बार हमारे सामने नये संबंध खोलता जा रहा था।

मनुष्यों के बीच संबंध कोई स्थिर चीज नहीं हैं। वे लगातार बदलते रहे हैं। यह बात न केवल मनुष्यों के जीवन के सापेक्ष है बल्कि उससे कहीं-कहीं ज्यादा समाज सापेक्ष है। जैसे-जैसे समाज बदलता जाता है वैसे-वैसे मनुष्यों के बीच संबंध बदलते जाते हैं। और समाज जब कभी क्रांतिकारी रूपांतरण की प्रक्रिया से गुजरता है तो मनुष्यों के संबंधों में भी क्रांतिकारी बदलाव दिखाई देने लगते हैं। और यह बदलाव निजी पारिवारिक संबंधों में ही नहीं बल्कि हर मानवीय संबंध में दिखाई देने लगते हैं। किसी व्यक्ति के जीवन काल में ही यदि समाज में क्रांतिकारी बदलाव हो जायें तो वह व्यक्ति अपने जीवन काल में एक समाज व्यवस्था से दूसरी समाज व्यवस्था की यात्रा कर डालेगा। ऐसा सौभाग्य मनुष्यों को कई बार मिल जाता है। ऐसा सौभाग्य मनुष्यों के जीवन में हो या न हो परंतु यह निश्चित रूप से मनुष्यों के हाथ में है कि वे ऐसा सौभाग्य लाने का पूरा यत्न करें। आखिर में मनुष्यों के जीवन में परिवर्तन मनुष्य ही ला सकते हैं। कोई पारलौकिक ताकत उनके जीवन में परिवर्तन नहीं ला सकती है। और क्रांति काल में जो बात सबसे ज्यादा स्थापित होती है वह यही होती है कि ‘हां हमारे जीवन और समाज में कष्ट, दुख और परेशानी हैं और हमारे जीवन के कष्ट और समस्याओं के कारण क्योंकि हमारी समाज व्यवस्था में हैं इसलिए हम उन्हें हल कर सकते हैं। इसका सीधा तरीका है कि हम अपनी समाज व्यवस्था को बदल डालें।’

समाज व्यवस्था को बदलने का अर्थ है कि मनुष्यों के बीच के संबंधों को संचालित करने वाले मूल संबंधों को बदलना। इस बात को थोड़ा खोलकर कहा जाये तो किसी भी समाज में मनुष्यों के बीच के संबंध को मूलतः निर्धारित करने में समाज के उत्पादन संबंधों की भूमिका होती है। समाज के उत्पादन संबंधों की बुनियाद पर मनुष्यों के आम व निजी संबंध निर्भर कर रहे होते हैं। वे तय कर रहे होते हैं कि कैसे पारिवारिक संबंध होंगे। और यहां तक कि स्त्री-पुरूष संबंध भी इसी से निर्धारित होते हैं। ये सभी संबंध एकतरफा नहीं होते हैं। एकतरफा क्रिया नहीं करते हैं। बल्कि ये सभी संबंध एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं और अन्योन्यक्रिया करते हैं। परंतु जो बात केन्द्रीय भूमिका निभाती है वह यह है कि आखिर में समाज में उत्पादन संबंध कैसे हैं।

प्रियदर्शिनी को यह बात पता हो या न हो पर उसके संबंध, उसकी जीवन यात्रा को, उसके संबंधों की यात्रा को समाज के उत्पादन संबंध तय कर रहे होते हैं। एक समाज व्यवस्था में एक तरह के संबंध होते हैं तो दूसरी समाज व्यवस्था में दूसरे संबंध होते हैं। पारिवारिक संबंधों के सन्दर्भ में कहें तो एक समाज व्यवस्था में एक तरह के संबंधों की प्रधानता होती है तो दूसरे तरह के समाज में दूसरे पारिवारिक संबंध प्रधान हो जाते हैं। 

जैसे आप कभी यदि प्रियदर्शिनी के पिता या उसके दादा जी से बात करेंगे तो आप को यह बात आसानी से समझ में आ जायेगी कि भारत में पिछले आठ-दशकों में ही कितने परिवर्तन आ गये हैं। 

प्रियदर्शिनी के दादा चार भाई थे। और चारों भाई अपने परिवार सहित एक ही छत के नीचे रहते थे। चारों भाई साथ खेत में काम करने जाते थे और साथ ही सभी किस्म के सुख-दुख का सामना करते थे। उनकी पत्नियां और बच्चे सब साथ रहते थे। जो कुछ भी अच्छा-बुरा होता था वह पूरे परिवार के साथ होता। कोई चीज बाजार से आती तो सबके लिए आती। कपड़े बनते तो पूरे परिवार के लिए एक साथ बनते। पूरा कुटुम्ब एक इकाई की तरह रहता था। प्रियदर्शिनी के दादा के बचपन और जवानी के दिनों का जमाना संयुक्त परिवार का जमाना था। और प्रियदर्शिनी के दादा उन्हीं दिनों को याद करते रहते हैं। 

कुनबे के बढ़ते जाने से गुजर-बसर मुश्किल होने लगी। और इस बीच शिक्षा-दीक्षा के विस्तार से कुछ नये अवसर खुलने लगे। गांव के पास के बड़े शहर में फैक्टरियां खुलने से प्रियदर्शिनी के पिता वहां गये तो चाचा-ताऊ सब इधर-उधर जीवन के नये विकल्प तलाशने लगे। कोई मुम्बई गया तो कोई कोलकाता, तो कोई सरकारी अध्यापक बनकर कहीं दूर-दराज बस गया। और इस तरह दादा जी के जमाने का संयुक्त परिवार बिखरने लगा। और उसके साथ ही ठण्डी पड़ती गयी संयुक्त परिवार के संबंधों की गर्माहट। यह गर्माहट प्रियदर्शिनी के पिता की पीढ़ी में तो तब भी मौजूद थी लेकिन प्रियदर्शिनी के लिए वे रिश्ते दूर के रिश्ते हैं। किसी का चेहरा उसने शादी-ब्याह आदि के मौके पर देखा है पर कईयों का चेहरा भी कभी नहीं देखा। गांव में जब कभी जाना ही न हो तो गांव के रिश्तों का मतलब भी क्या रह जायेगा। बस कभी मां से तो कभी पिता से सुनती है कि फेसबुक में यह लड़का तुम्हारा भाई लगता है। इसकी दादी और तुम्हारी दादी आपस में बहनें हैं। संयुक्त परिवारों का जमाना बीतता गया और उसके स्थान पर एकल परिवार स्थापित होने लगे - मां-पिता और उनकी संतानें। परिवारों के बदलते चरित्र के पीछे उत्पादन संबंध थे। 

प्रियदर्शिनी के दादा के जमाने में खेती जीवनयापन का मुख्य साधन होती थी। 1951 में भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान आधे से भी ज्यादा था और खेती पर निर्भर आबादी तो अस्सी फीसदी से भी ज्यादा थी। और आज खेती का हिस्सा 13-14 फीसदी रह गया है और कृषि पर निर्भर आबादी घटकर अभी 50 फीसदी रह गयी है। देहात में खेती के तरीके बदल गये। बैलों से खेती नाममात्र की बची तो देहात में ऐसे भी काम होने लगे जो सीधे खेती से नहीं जुडे़ हैं। शहरों की संख्या बढ़ती गयी और ऐसे कई-कई विशाल शहर हैं जिनकी आबादी दस लाख से भी ज्यादा है। दो-तीन लाख आबादी वाले शहर भी कई हजार हैं। यानी प्रियदर्शिनी के दादा के जमाने से प्रियदर्शिनी के जमाने में बहुत कुछ बदल गया। भारत किसान प्रधान देश से मजदूर प्रधान देश बन गया। राजनैतिक अर्थशास्त्र की भाषा में इस बात को इस तरह से कहेंगे कि भारत में आजादी के समय अर्द्ध-सामन्ती औपनिवेशिक संबंध थे जो कि आज पूंजीवादी उत्पादन संबंध बन गये हैं।

कभी भारत अंग्रेजों का गुलाम था और आज भारत राजनैतिक रूप से आजाद देश है। राजनैतिक रूप से ही आजाद कहना होगा क्योंकि आर्थिक रूप से हम कई-कई मामलों में परनिर्भर हैं। हजारों बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हमारे देश को लूट रही हैं। वे हमारे देश के मजदूरों का निर्मम शोषण करती हैं। किसानों को मजबूर करती हैं कि वे उनके हिसाब से बीज खरीदें और उनके द्वारा बनाये गये कीटनाशकों का प्रयोग करें। यहां तक कि फसलों का कारोबार ये कम्पनियां नियंत्रित करती हैं। ये कम्पनियां हमारे देश के प्राकृतिक साधनों का भी दोहन करती हैं। बाजार पर इनका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष नियंत्रण है। बाजार में कीमतों को ये ही तय करती हैं। अपनी एकाधिकारी स्थिति का लाभ उठाकर ये अपने उत्पादित सामानों में सामान्य मुनाफा नहीं बल्कि अति मुनाफा कमाती हैं। ‘सुपर प्रॉफिट’ हासिल करने के लिए ये किसी भी हद तक जाती हैं। ये कम्पनियां ही प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से सरकार की नीतियों को भी तय करती हैं। और सरकारें इन कम्पनियों के बढ़ते प्रभुत्व को विकास की संज्ञा देती हैं।

विदेशी बहुराष्टी्रय कम्पनियां ही नहीं भारत के पूंजीपतियों की कम्पनियां भी भारत के मजदूरों का निर्मम शोषण कर रही हैं। किसान खासकर छोटे-मझोले किसान पूंजीवादी लूट के कारण दिनों-दिन कंगाल हो रहे हैं। देहाती क्षेत्रों में जिनके पास जमीन नहीं है वे मजदूरी कर किसी तरह गुजर बसर करते हैं। और मजदूरी पर जीने वाले मर्द-औरतों की हालत बेहद खराब है। किसी भी तरह वे अपनी जिन्दगी जी रहे हैं। जिंदा कंकालों से हमारा देश भरा परा पड़ा है।

शहरों में खासकर गरीब बस्तियों वाले इलाके तो सीधे नारकीय जीवन के साक्षात दर्शन कराते हैं। मजदूरों की किसी भी बस्ती में सामान्य नागरिक सुविधाओं का खासा अभाव मिलेगा। टूटी-फूटी सड़कें, सड़ते पानी से भरी गलियां। छोटे-छोटे से कमरे जिनमें पूरा परिवार गुजर-बसर कर रहा होता है। साफ पानी का अभाव। शौच के लिये ढंग का बंदोबस्त नहीं। सार्वजनिक शौचालय गन्दगी से भरे हुए और उसके लिये भी लंबी-लंबी लाइनें। उन्हीं घरों में जब घर के जवान स्त्री-पुरूष फैक्टरी या अन्य जगह काम पर चले जायेंगे तो घर के बचे सदस्य कुछ छोटा-मोटा काम करते मिलेंगे। ‘पीस रेट’ पर काम करते हुए कुछ धन का जुगाड़ हो जाये ताकि किसी तरह से घर चलाने में मदद हो जाये। इस तरह से सभी सदस्य चाहे वे छोटे हों या बड़े कुछ न कुछ काम कर रहे होते हैं।

जो कुछ भी काम नहीं कर रहे होते हैं वे या तो भीख मांगकर गुजर कर रहे होते हैं या फिर इधर-उधर आवारा फिरते हए या फिर चोरी-चकारी कर के। यह आबादी हमारे देश में भारी संख्या में है। शहर-गांव में ऐसे आवारा लोगों को कई बार लम्पट सर्वहारा भी कहा जाता है।

प्रियदर्शिनी के पिता मजदूर हैं और वह अच्छी तरह से जानती है कि मजदूरों का जीवन कैसा होता है और जब बस्ती में किसी जवान लड़के या लड़की को काम नहीं मिलता है तो वह कितना परेशान होता है। ऐसे में किसी को कई दिन या कई  महीने तक काम न मिले तो वह कैसे गलत सोहबत में पड़ जाता है। गलत संगति उसे अपराध की दुनिया में ले जाती है। उसे लम्पट बना देती है। प्रियदर्शिनी की एक सहेली का भाई तो कई बार जेल जा चुका है। बेचारा बचपन में पढ़ने में बहुत अच्छा था और अब इतना खराब हो गया है कि कोई उसे अपने पास बिठाना भी पसन्द नहीं करता है। यानी वह एक तरह से मानवीय संबंधों की दुनिया से दुत्कार दिया गया जीव है। उसकी आत्मा मर चुकी है और वह किसी भी चीज की परवाह नहीं करता है। बचपन में किसी के भी चोट लगने पर दुखी हो जाने वाला यह प्यारा बच्चा अब किसी को भी चोट पहुँचाने पर दुखी नहीं होता है। नशा ही उसका साथी है। और नशे के लिये वह कुछ भी कर सकता है। प्रियदर्शिनी को अपनी सहेली के भाई को देखकर बहुत दुख होता है। पर वह कुछ कर नहीं पाती है।

कुछ देर पहले हमने यह चर्चा की थी कि मनुष्यों के बीच के सम्बन्धों को संचालित करने वाली कुँजी उत्पादन सम्बन्ध होते हैं। या दूसरे शब्दों में उत्पादन सम्बन्धों की रोशनी से ही मनुष्यों के बीच के सम्बन्ध जगमगाते हैं। 

उत्पादन सम्बन्धों से मतलब होता है कि समाज के उत्पादन के साधनों पर किसका कब्जा है और कौन उत्पादन कर रहा है। उत्पादन करने वाले लोगों का उत्पादन के साधनों पर कोई मालिकाना है या नहीं है। और इसी तरह से वे जो वस्तुएं उत्पादित करते हैं वे उनको मिलती हैं या नहीं मिलती हैं। या फिर घटिया वस्तुएं मिलती हैं और अच्छी वस्तुएं कोई और उपयोग करता हैै। यानी वितरण किस तरह से हो रहा है। वितरण की प्रक्रिया पर किसका नियंत्रण है। उत्पादन के साधनों के मालिक और उत्पादन करने वालों के आपसी संबंध क्या हैं?

इस बात को हम अपने समाज पर लागू करें तो हमारा समाज एक पूंजीवादी समाज है। और इस समाज के अनुरूप हमारे समाज में उत्पादन सम्बन्ध पूंजीवादी उत्पादन सम्बन्ध हैं। और इसका मतलब है कि हमारे समाज के उत्पादन के साधनों पर पूंजीपति वर्ग का कब्जा है। वे स्वयं उत्पादन की कार्यवाही में कोई भागीदारी नहीं करते हैं और जो लोग उत्पादन करते हैं यानी मजदूर, उनका उत्पादन के साधनों पर कोई कब्जा नहीं होता। वे ऐसे व्यक्ति हैं जिनके पास अपनी श्रम-शक्ति बेचने के अलावा कुछ और बेचने को बचा नहीं होता है। अपनी श्रम-शक्ति बेचकर ही वह जिन्दा रहते हैं। श्रम-शक्ति का जो दाम उन्हें मिलता है वह उनकी मजदूरी होती है।

और जो मजदूरी उन्हें मिलती है उसमें वह किसी तरह अपने और अपने परिवार का गुजर-बसर करते हैं। उनके हिस्से उनके द्वारा उत्पादित बेहतरीन चीजें नहीं आती बल्कि एकदम कामचलाऊ चीजें आती हैं। सस्ती और एक तरह से एकदम निचले स्तर की वस्तुएं। सबसे अच्छी, उच्च गुणवत्ता वाली वस्तुएं एकदम ऊपर के पूंजीपति वर्ग के हिस्से या फिर उच्च वर्ग के हिस्से आती हैं। सामान्य गुणवत्ता की वस्तुएं मध्यम-निम्न मध्यम वर्ग के हिस्से आती हैं। मजदूर, किसान और समाज के दूर-दराज इलाकों में बसे आदिवासियों को पूंजीवाद बस इतना देता है कि वह बस जिन्दा रह सकें। काम करते रहें और एक नयी नस्ल पूंजीपतियों के कल-कारखानों, खेत-खलिहानों व खानों आदि में काम करने के लिये उपलब्ध कराते रहें।

मजदूरों के पास अपनी संतानों को देने के लिए कोई सम्पत्ति पहले तो होती ही नहीं है और अगर कोई मकान, झोपड़ी या कुछ और हो भी तो वह उसकी संतानों के जीवन के लिए कुछ खास उपयोगी साबित नहीं होती है। अपने माँ-बाप की तरह उसे भी अपनी श्रम-शक्ति बेचकर जिंदा रहना होता है। इसलिए मजदूरों के पारिवारिक संबंध वैसे नहीं होते हैं जैसे सम्पत्तिशाली वर्गों के होते हैं। यहां तक कि छोटे मझोले किसानों के पारिवारिक संबंध में किसी न किसी रूप में सम्पत्ति की छाप होती है परन्तु मजदूरों के परिवारों की स्थिति उनसे भी एकदम भिन्न होती है। परम्परागत अर्थों में परिवार का अर्थ मजदूरों के जीवन में खत्म सा हो जाता है। मां-बाप चाहकर भी वह भूमिका नहीं निभा सकते जो खाते-पीते लोग निभा रहे होते हैं। अब प्रियदर्शिनी को ही देखो वह अपनी पढ़ाई का खर्च खुद उठाती है। ट्यूशन पढ़ाकर किसी तरह अपनी पढ़ाई को जारी रखे हुए है और उस पर मां-पिता चाहते हैं कि वह घर में और पैसा खर्च करे ताकि कुछ तो राहत मिले। हालांकि दिल से वह यह भी चाहते हैं कि प्रियदर्शिनी खूब पढ़े और वैज्ञानिक के रूप में नाम कमाये। पर वे क्या कर सकते हैं?

मां-बाप और उनकी संतानों के बीच के प्यारे से मानवीय सम्बन्ध की बात तो क्या स्त्री-पुरूष के बीच के भावनात्मक प्रेम संबंधों के बारे में मजदूर वर्ग के बीच अन्य वर्गों से एकदम भिन्न स्थिति होती है। पुरूषों के पास स्त्री के ऊपर आधिपत्य जमाने के लिये आधार खिसक चुका होता है। जो चीजें अब बचती हैं वह सामाजिक दायरे में परम्परा से चले आ रहे ऊंच-नीच के संबंध होते हैं। संस्कृति, धर्म, रीति-रिवाज, भाषा, मुहावरों आदि के दायरे में स्त्रियों के साथ होने वाले दोयम दर्जे की स्थिति और बातें होती हैं परंतु पुरूष मजदूर स्त्री मजदूर के ऊपर अन्य वर्गों की तरह चाहकर भी वह व्यवहार नहीं कर सकते हैं जो सपत्तिशाली पुरूष अपनी स्त्रियों के साथ करते हैं। वहां वही स्त्रियां बराबरी और सम्मान का कुछ हक अर्जित कर पाती हैं जो या तो स्वयं निजी सम्पत्ति की मालिक होती हैं या स्वतंत्र पेशों के अर्न्तगत जीवनयापन करती हैं। जैसे पूंजीपति वर्ग की महिलाएं, वकील, अभिनेत्रियां, शिक्षिका, डॉक्टर इत्यादि परंतु यहां भी अक्सर पुरूष आधिपत्य के किस्से सुने जा सकते हैं। परंतु यहां स्त्री-पुरूषों के बीच के संबंधों में निजी सम्पत्ति की केन्द्रीय भूमिका होती है। और साथ ही भारतीय समाज में व्याप्त जाति की महामारी यहां भी कम या ज्यादा फैली होती है। धर्म भी एक नकारात्मक भूमिका निभा ही रहा होता है। 

असल में पूंजीवादी समाज में कोई ऐसा रिश्ता नहीं बचा है जहां निजी सम्पत्ति या दूसरे संदर्भों में पैसा अपनी भूमिका न निभाता हो। पैसे ने हर संबंध को अपनी खनक की आवाज में डुबो दिया है। इस मामले में सारे पारिवारिक संबंध भी इस बात की तस्दीक करते हैं। व्यक्तिगत जीवन में थोड़ी सी गहराई में उतरने पर हर युवा, हर युवती इस बात को देख सकते हैं, महसूस कर सकते हैं। 

पैसे ने मानवीय जीवन के सभी संबंधों को अपने रंग में रंगा हुआ है और अपने विशिष्ट अर्थों में विषाक्त कर डाला है। और यह मनुष्यों की इच्छा की बात नहीं है कि वे बिना यह समाज बदले अपने संबंधों में से पैसे के विष को खत्म कर सकें। वे कितने ही पुराने जमाने की यादें ताजा करें या फिर नैतिक उपदेश या स्वर्ग-नरक का भय दिखायें पैसे के विष को मानवीय रिश्तों में से खत्म नहीं किया जा सकता है। 

इस बात को हम अपने जीवन में रोज महसूस कर सकते हैं कि किस तरह लोग पैसा कमाने के लिए भाग रहे हैं। किसी को भी अब यह डर नहीं रह गया है कि वह अगर गलत तरीके से, बगैर मेहनत किये धन कमायेगा तो उसके साथ बुरा होगा। या उसके गलत कामों का नतीजा उसके बच्चों को भुगतना पड़ेगा। प्रियदर्शिनी के दादा बताते थे कि कैसे वे अपने बच्चों को सिखाते थे कि जीवन की कुंजी ‘सादा जीवन उच्च विचार’ है। ‘ईश्वर से डरो कोई भी ऐसा काम न करो जिससे कल को मरने के बाद ईश्वर के सामने शर्मिंदा होना पड़े’। लेकिन अब ये बातें हवा हो गयी हैं। अमीर लोग, पूंजीपति, जमींदार, व्यापारी पहले भी आम जनों के बीच प्रचलित इन बातों पर विश्वास नहीं करते थे। वे जानते थे कि पैसे में ऐसी ताकत है कि वह किसी भूत से भी काम करा दे। वे ढंग से जानते थे कि भूत तो क्या ईश्वर को भी पैसे से खरीदा जा सकता है। 

भारत में जैसे-जैसे पूंजीवाद मजबूत होता गया उसने भारत के आम जनों के जीवन को भी बदल डाला। पूंजीवाद ने पहले से चले आ रहे ख्यालों, विचारों, नैतिकता, रिश्ते-नातों सभी को अपने अनुरूप बदल डाला। ऐसा नहीं है कि पहले के जमाने की चीजें कोई अच्छी थीं। सामंती, औपनिवेशिक भारत में सामंती, मध्ययुगीन विचारों का बोलबाला था। जाति-पाति की जकड़बंदी थी। छुआछूत था। महिलाओं को पांव की जूती समझने की सोच मर्दों के रग-रग में बसी थी। परजीवी वर्ग के लोग यानि राजे-महाराजे, जमींदार, सामंत आकण्ठ ऐय्याशियों में डूबे थे। अपनी प्रजा पर वे इतने जुल्म करते थे कि कई दफा आम जन बगावत पर उतर आते थे। सामंतवाद के खिलाफ सबसे बड़े संघर्ष यूरोप की धरती पर लड़े गये। 

ऐसी ही बगावतों का नतीजा था कि सामंतवाद का चलना मुश्किल होता जा रहा था। 1789 की फ्रांस की क्रांति सामंतवाद विरोधी क्रांति की सिरमौर साबित हुयी। इन क्रांति ने इंग्लैण्ड या डच या अमेरिकी क्रांति से ज्यादा मनुष्य जाति के इतिहास को प्रभावित किया और महान परिवर्तनों को एक नयी गति प्रदान कर दी। इन सभी क्रांतियों का अपना महत्व है। 

फ्रांस की क्रांति से पहले ही समाज में पूंजीवादी उत्पादन संबंध पैदा होने लगे थे। पूंजीवाद का उदय 14वीं-15वीं सदी से ही होने लगा था परंतु उसने असल में पूरी दुनिया को अपने प्रभाव में 19वीं-20वीं सदी में लिया। पूंजीवाद का इतिहास लगभग 500 सालों का है। इन सालों में अब पूरी दुनिया में ढंग से पूंजीवादी उत्पादन संबंध कायम हो गये हैं। आज की दुनिया में कहीं-कहीं छोटे से हिस्से में ही इसके कुछ अपवाद हैं। फ्रांसीसी क्रांति ने मनुष्यों के संबंध को एकदम नया आकार दे दिया था। मानव के अधिकारों की घोषणा की गयी और ‘आजादी, बराबरी, भाईचारे’ को सार्वभौमिक सिद्धांतों का दर्जा दे दिया था। हालांकि फ्रांस की क्रांति की सीमाएं बहुत जल्द उजागर हो गयी थीं। 

पूंजीवादी क्रांतियों के साथ राष्ट्र-राज्य(नेशन-स्टेट) की धारणा ने जन्म लिया और इसके साथ ही मानव जाति के इतिहास में एकदम आधुनिक अर्थ में मानवीय संबंध की एक नयी अवधारणा ‘नागरिक’ (सिटीजन) पैदा हुयी। ‘नागरिक’ शब्द अपने आप में नया नहीं था। यूनान व रोमन गणराज्यों से लेकर पूंजीवाद के उदय के समय पैदा हो रहे शहर के वासियों के लिए इस शब्द का उपयोग मिलता था परंतु पूंजीवादी क्रांतियों के साथ ‘नागरिक’ ने क्रांतिकारी आभा पा ली थी। यह किसी राष्ट्र के नागरिक होने के प्रमाण पत्र से कहीं ज्यादा उस आधुनिक मानव का प्रतीक बन गया था जिसकी राष्ट्र-राज्य में महत्वपूर्ण भूमिका थी। उसके अपने अधिकार व कर्तव्य थे। फ्रांसीसी क्रांतियों सहित कई पूंजीवादी क्रांतियों के समय लोग एक-दूसरे को ‘सिटीजन’ कह कर संबोधित करते थे। सामंती उपाधियां और गैर बराबरी, गैर-जनवाद का जवाब ‘सिटीजन’ था। यानी सभी मनुष्य बराबर हैं। कोई बड़ा-छोटा नहीं है। उसने कहीं भी जन्म लिया हो, कुछ भी काम करता हो, योग्यता-अयोग्यता से नहीं मुनष्य होने का अर्थ ‘सिटीजन’ शब्द के उच्चारण मात्र से ग्रहण हो जाता था। 

‘सिटीजन’ आधुनिक पूंंजीवादी राष्ट्र-राज्य में मानवीय संबंध की एक नयी गाथा बनकर सामने आया। उसका कोई ‘प्रभु’ नहीं था। उसका कोई ‘मालिक’ नहीं था। उसका कोई ‘अभिभावक’ नहीं था। वह स्वयं में अपने व्यक्तित्व के साथ सम्पूर्ण मनुष्य था। उसका अपने जीवन पर अधिकार था। फ्रांसीसी क्रांति में राष्ट्र-राज्य ऐसे स्वतंत्र मनुष्यां ‘सिटीजन’ से मिलकर बना था। राष्ट्र-राज्य उनके लिए था न कि बाद में पूंजीवादी राष्ट्रों की तरह जहां राष्ट्र-राज्य ने एक-एक कर मानव के अधिकारों पर किस्म-किस्म की शर्तें, प्रतिबंध, सीमाएं थोप दी थीं। और फासीवादी राज्य तो मनुष्य के साथ सभी जनवादी अधिकारों को लील जाते हैं। और यह राज्य पूंजीपतियों के सबसे प्रतिक्रियावादी हिस्से वित्तीय पूंजीपतियों का राज्य होता है। फासीवादी राज्य में किसी आम व्यक्ति की सभी किस्म की स्वतंत्रताएं, अधिकार खत्म हो जाते हैं। जनवाद का विनाश फासीवाद है। और जाहिर है इसीलिए फासीवाद के खिलाफ वे सभी हो जाते हैं जो जनवाद के पक्षधर होते हैं। आज तो हर देश की सरकारें फासीवादियों से मिला-जुला व्यवहार कर रही हैं। 

पूंजीवादी क्रांति के सबसे भव्य समय में भी सभी मनुष्य ‘सिटीजन’ नहीं बने थे। वे ही सिटीजन बन सकते थे जो राज्य को कर देते थे। सक्रिय नागरिकता के हकदार करदाता होते थे। जबकि अन्य निष्क्रिय नागरिक होते थे। प्रियदर्शिनी को यह बात बहुत आश्चर्य में डाल सकती है कि यूरोप के कई देशों की तरह फ्रांस में भी महिलाओं को मत देने का अधिकार नहीं था। फ्रांस में महिलाओं को मत देने का अधिकार 1944 में मिला था। 

यहां पर कई सवाल छोड़ते हुए मानवीय संबंधों के अन्य विविध पहलुओं पर फिर कभी चर्चा करेंगे। मानवीय संबंधों में किस संबंध को सर्वश्रेष्ट कहा या माना जाय यह सवाल अभी अनुत्तरित है। 

                              वर्ष- 11 अंक- 3 व 4 (अप्रैल-सितंबर, 2020)

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