बुधवार, 2 सितंबर 2020

सर्वे के निष्कर्ष

कोरोना : सरकारी प्रयास सतही और इंतजाम नाकाफी


कोरोना महामारी के भारत तक पहुंचने पर लगभग एक-डेढ़ माह तक सरकार द्वारा कोई खास एहतियात नहीं बरती गई। जब गंभीरता से लेने की बात हुई तो पूरे देश को लॉकडाउन (बन्द) कर दिया गया। यह लॉकडाउन भी शुरुआत में नरेंद्र मोदी के संबोधनों के जरिए 3 माह तक बढ़ाया जाता रहा। फिर शुरू हुई अनलॉक (खुलने) की प्रक्रिया के बावजूद देश अभी भी पूरी तरह कोरोना काल से पहले वाली स्थिति में नहीं पहुंचा है। लॉकडाउन से देश में जनता खास तौर पर मजदूर-मेहनतकश, छात्रों, महिलाओं को खासी परेशानियां झेलनी पड़ीं। 

परिवर्तनकामी छात्र संगठन (पछास) द्वारा महामारी, लॉकडाउन और उससे जुड़े कुल 19 सवालों के आधार पर एक सर्वे किया गया। यह सर्वे ऑनलाइन व ऑफलाइन दोनों तरीकों से किया गया। 314 लोगों ने इस सर्वे में भाग लिया। ऑफलाइन सर्वे में लालकुंआ, हल्द्वानी, रामनगर, काशीपुर (उत्तराखंड) से ही सर्वे पत्र प्राप्त हो सके। अन्य जगह कंटेनमेंट जोन बनने व अन्य कारणों से ऑफलाइन सर्वे नहीं प्राप्त हो सके। सर्वे से प्राप्त जवाबों से निकलते आम निष्कर्षों को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।

सर्वे पत्र का पहला सवाल था- क्या आप लॉकडाउन को कोरोना की रोकथाम हेतु अनिवार्य मानते हैं? इस सवाल के जवाब में लगभग 58 प्रतिशत लोगों की राय लॉकडाउन को अनिवार्य मानने, 30 प्रतिशत लोगों की राय अनिवार्य ना मानने के पक्ष में थी जबकि 12 प्रतिशत लोगों की राय कुछ नहीं थी। दूसरा सवाल था- क्या आप मानते हैं कि शुरुआत (फरवरी-मार्च) में सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों को आने का मौका देकर कोरोना को भारत में फैलाने का काम किया? इसके जवाब में लगभग 81 प्रतिशत लोगों ने सरकार को जिम्मेदार ठहराया, लगभग 12.5 प्रतिशत लोगों ने सरकार को जिम्मेदार नहीं माना, शेष लोगों की इस पर कुछ राय नहीं थी।

इन सवालों के उत्तर से पता चलता है कि कोरोना के भारत में फैलने से रोकने को लेकर लोग डेढ़ माह की देरी, अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों को रद्द न करने, आदि में सरकार की लापरवाही को जिम्मेदार मानते हैं। पर वहीं जुलाई माह में हुए इस सर्वे में जब देश में मरीजों की संख्या लॉकडाउन की शुरुआत के समय से कई गुना बढ़ कर 15 लाख पार कर गई तब भी सरकार द्वारा लॉकडाउन को अनिवार्य माना गया। यहां गौर करने लायक बात है कि अखबार, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल मीडिया ने शुरुआत से ही कोरोना पर सरकार के कदमों की जबरदस्त प्रशंसा की। जहां शुरुआत में लॉकडाउन को रामबाण बताना, लॉकडाउन के कारण भारत की स्थिति अन्य देशों से बेहतर होना, लॉकडाउन से जनसंख्या के अनुपात में मरीज कम होना, आदि-आदि बताया गया। यह प्रचार बदले हुए रूप में निरंतर जारी है। इस प्रचार में महामारी विशेषज्ञ यहां तक कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के टेस्ट, ट्रेस, ट्रीटमेंट की चर्चा तक नहीं होती थी। विशेषज्ञ इतने कठोर लॉकडाउन के आम तौर पर पक्षधर नहीं हैं। कुछ खास क्षेत्र में लॉकडाउन की विशेष परिस्थितियों में ही वे चर्चा करते हैं। क्योंकि भारत के मामले से स्पष्ट है कि बीमारी रोकथाम में मिली मदद से कहीं ज्यादा तकलीफ पीड़ा-पलायन का दंश गरीब जनता को लॉकडाउन के चलते झेलना पड़ा, जिससे बचा जा सकता था। निश्चित ही संक्रमण की रोकथाम व इलाज पर ध्यान देते हुए स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत करना, अस्पतालों में इंतजाम बेहतर करना, आदि मसले महत्वपूर्ण थे। भारत की खराब स्वास्थ्य व्यवस्था किसी से छिपी नहीं है। यह ऐसा समय था कि एक अवसर के तौर पर स्वास्थ्य तंत्र को ठीक किया जाता। पर यह नहीं हुआ। लॉकडाउन में तमाम सख्ती के बावजूद संक्रमण बढ़ता गया और मौतें भी। यह क्रम अभी भी जारी है।

आगे सवाल था- लॉकडाउन के दौरान सरकार द्वारा किए गए प्रयास, स्वास्थ्य सेवाएं एवं राहत अभियान कैसे थे? इसके जवाब में लगभग 59.5 प्रतिशत लोगों ने कई खामियां होने, 22 प्रतिशत लोगों ने सरकार द्वारा बढ़िया काम करने की बात की जबकि शेष लोगों ने इस पर कोई राय व्यक्त नहीं की। एक अन्य सवाल था- आप तक जो राहत सामग्री पहुंची वह किसके द्वारा पहुंचाई गई? इसके जवाब में 26 प्रतिशत लोगों ने समाजसेवी व्यक्तियों/संस्थाओं से राहत सामग्री मिलने की बात की जबकि 26 प्रतिशत लोगों ने सरकार द्वारा, शेष 48 फ़ीसदी लोगों ने कोई राहत सामग्री ना मिलने की बात कही। आगे सवाल था- लॉकडाउन के दौरान सरकार द्वारा उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति (कोरोना मरीजों की जांच व इलाज, हृदय एवं अन्य बीमारियों के इलाज, खांसी-बुखार आदि) कैसी रही? इसके जवाब में 74 प्रतिशत लोगों ने कई खामियां होने की बात स्वीकारी जबकि मात्र 8.5 प्रतिशत लोगों ने स्वास्थ्य सेवाओं के बेहतर होने की बात को माना, लगभग 11 प्रतिशत ने सरकार इतना ही कर सकती है, वाला विकल्प चुना, शेष लोगों ने उत्तर नहीं दिया। एक अन्य सवाल था- कोरोना महामारी से निपटने में मोदी सरकार के प्रयास कैसे रहे? इस सवाल के जवाब में 54.5 फ़ीसदी लोगों ने सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया माना, 31.8 फ़ीसदी लोगों ने सही समय पर सही कदम उठाने का विकल्प चुना, 12 फ़ीसदी लोगों ने सरकार को असफल कहा, शेष ने उत्तर नहीं दिया।

इन जवाबों से साफ है कि सरकार के इंतजामों में भारी कमी थी। जहां राहत कार्यों में सामाजिक संगठनों, संस्थाओं, व्यक्तियों की भूमिका 26 प्रतिशत वहीं सरकार की भूमिका भी लोगों ने 26 प्रतिशत ही मानी। यह दिखाता है कि भले ही सरकार असफल रही पर जनता ने महामारी के काल में सामूहिकता का परिचय दिया। परस्पर सहयोग किया। 48 फ़ीसदी लोगों का यह कहना कि उन्हें कोई राहत सामग्री नहीं मिली। जब कोरोना के चलते सरकार ने लॉकडाउन लगाया तो उसके पीछे किसी भी तरह की पूर्व तैयारी नहीं थी। न यह सोचा गया कि अन्य बिमारियों के इलाज का क्या इंतजाम होगा, न राशन सामग्री वितरण की व्यवस्था। यानी पूरे समय सरकार ने स्व प्रशस्ति का ही ख्याल रखा। न तो आत्ममंथन किया, न जनता की तरफ से हो रही आलोचनाओं से ही कोई सबक लिया।

स्वास्थ्य सेवाओं के सवाल पर 74 फ़ीसदी लोगों का खामियां बताना यह दिखाता है कि स्वास्थ्य के सवाल पर सरकार सर्वाधिक लापरवाह रही। न तो सरकार ने सरकारी अस्पतालों की हालत सुधारी और न ही निजी अस्पतालों का अधिग्रहण ही किया। जिससे एक तरफ पहले से खस्ताहाल सरकारी अस्पतालों पर कोरोना महामारी का बोझ भी आ गया। वहीं दूसरी तरफ बेहतर सुविधा और इलाज के दावों के साथ खुले निजी अस्पताल अपने मुनाफे को ही ध्यान में रखे रहे। यहां तक कि उन्होंने अन्य बीमारी के मरीजों तक को देखने में आनाकानी की। महामारी जैसी संकट की स्थिति में सरकार को पहले ही निजी अस्पतालों को अपने नियंत्रण में ले लेना चाहिए था जो काम आज तक भी सरकार ने नहीं किया। जिससे इलाज में घोर लापरवाही व अव्यवस्था बनी हुई है।

क्वारंटाइन केंद्रों को लेकर एक सवाल था- कोरोना मरीजों के साथ हो रहे व्यवहार, क्वारंटाइन सेंटरों की स्थिति से आप संतुष्ट हैं? इसके जवाब में 68.5 प्रतिशत लोगों ने असंतुष्ट होने की बात कही जबकि मात्र 20 प्रतिशत लोगों ने संतुष्ट होने की बात कही, शेष ने उत्तर नहीं दिया। संक्रामक बीमारी होने के बावजूद सरकारी प्राइमरी-माध्यमिक स्कूलों को ही क्वारंटाइन केंद्र बनाया जो कई बार बीमारी के फैलने का कारण बना। वहां रुक रहे लोगों के साथ छुआछूत का सा व्यवहार था। कई जगह यह व्यवहार एकदम अमानवीय व पशुवत था। इन अव्यवस्थाओं के बाद सरकार ने अन्य इंतजाम होम आइसोलेशन या पैसे चुका कर होटल में आइसोलेट करने के किए। तब भी अव्यवस्था का माहौल ही आमतौर पर बना रहा। यहां भी सरकार ने अमीर-गरीब के बीच की गैर बराबरी को बनाए रखने और पालने-पोसने का ही काम किया। यानी आपके पास पैसा है तो आप होटल में अलग कमरा लेकर रह सकते हैं लेकिन अगर पैसा नहीं है तो सरकारी स्कूल जैसी जगहों पर ही रहना होगा। यह सरकार के घोर पूंजीवादी चरित्र को ही उजागर करता है।

लॉकडाउन की सबसे तीखी मार मजदूर-मेहनतकशों और उनके परिवारों पर ही पड़ी। इससे जुड़ा एक सवाल था- लॉकडाउन के समय मजदूरों के द्वारा हजारों किमी. पैदल चलकर गांव लौटने, दुर्घटना का शिकार होकर मरने, गर्भवती महिलाओं द्वारा सड़कों पर बच्चा जनने के लिए आप किसे दोषी मानते हैं? इसके जवाब में 78 फ़ीसदी लोगों ने सरकार को जिम्मेदार माना जबकि 11 प्रतिशत लोगों ने मजदूरों को ही जिम्मेदार माना शेष 11 प्रतिशत ने उत्तर नहीं दिया। एक अन्य सवाल था- लॉकडाउन का उल्लंघन करने पर पुलिस द्वारा पिटाई करने, मुर्गा बनाने, चालान काटने सरीखे व्यवहार को आप किस तरह देखते हैं? इसके जवाब में 56.5 फ़ीसदी लोगों ने इसे गलत माना जबकि 35.5 प्रतिशत लोगों ने इसे सही कहा, शेष ने कह नहीं सकते, का विकल्प चुना।

लॉकडाउन के समय सबसे दर्दनाक तस्वीरें मजदूरों के परिवार सहित पलायन की ही थी। यह तस्वीरें इतनी दर्दनाक थीं कि जनमानस में इसे लेकर भारी क्षोभ और आक्रोश भी फैला। मजदूरों ने भी जगह-जगह इकट्ठा होकर अपनी नाराजगी जताई। मजदूरों के संघर्ष की बदौलत ही अंततः सरकार को बसें और ट्रेनें चलाकर मजदूरों को घर पहुंचाने की व्यवस्था करनी पड़ी। एक अन्य पहलू यह है जो दिखाता है कि पिछले 3 दशकों से अपनाई गई उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों ने मजदूरों के रोजगार को इस हद तक नीचे गिरा दिया है कि बिना रोजगार के वह 15 दिन भी इन महानगरों में रहने की स्थिति में नहीं हैं। 

लॉकडाउन के दौरान स्कूलों/कॉलेजों द्वारा फीस लेना कहां तक उचित है? इस प्रश्न के जवाब में लगभग 72 प्रतिशत लोगों ने अनुचित, 14 प्रतिशत ने अपने खर्चों की भरपाई के लिए जरूरी माना, शेष ने उत्तर नहीं दिया। यहां स्कूलों के द्वारा प्रचारित तर्क कि उन्हें शिक्षकों व अन्य स्टाफ को तनख्वाह देने के लिए फीस लेनी ही होगी, का असर दिखाई देता है। अधिकांशतः स्कूलों के फीस ले लेने पर भी शिक्षकों व स्टाफ को तनख्वाह मिलने पर संदेह है। ऑनलाइन पढ़ाई से संदर्भित सवाल- लॉकडाउन के दौरान बिना पूर्व तैयारी के ऑनलाइन शिक्षा का आपका अनुभव कैसा रहा? पर 37.5 प्रतिशत लोगों ने बुरा, 34 प्रतिशत ने बहुत बुरा जबकि 23 प्रतिशत ने अच्छे अनुभव की बात मानी, शेष लोगों ने उत्तर नहीं दिया। ऑनलाइन पढ़ाई को लेकर एंड्रायड फोन की अनुपलब्धता, नेटवर्क की दिक्कत तथा वर्चुअल पढ़ाई/क्लास ने भारी समस्या पैदा की जिससे पढ़ाई तो नहीं हुई पर खानापूर्ति और फीस वसूलने के तर्क ही बन सके। एक अन्य सवाल- क्या आप चाहते हैं कि सामान्य स्थिति में भी ऑनलाइन शिक्षा को बढ़ावा दिया जाये? के जवाब में 62.2 फीसदी ने नहीं, 26.8 फीसदी ने हां तथा 11 फीसदी ने संसाधन मुहैय्या कराने का विकल्प चुना। ऑनलाइन पढ़ाई निश्चित ही स्कूली शिक्षा का विकल्प नहीं हो सकती। पर हां, संसाधनों में सुधार करके ऑनलाइन शिक्षा स्कूली शिक्षा में मददगार हो सकती है।

लॉकडाउन के मानसिक प्रभाव के प्रश्न- क्या लॉकडाउन के दौरान घर में बंद रहने से आपको या आपके आस-पास किसी को किसी किस्म की मानसिक परेशानी महसूस हुई? के जवाब में 55.3 फीसदी ने हां जबकि 44.7 फीसदी ने नहीं का विकल्प चुना। आधे से अधिक लोगों का मानसिक परेशानी महसूस होने की बात को स्वीकारना दिखाता है कि लॉकडाउन में बिना काम व स्कूल-कालेज से अलग घर पर बने रहना खासा तनाव पैदा करने वाला था। परन्तु आधे से थोड़े ही कम लोगों के कोई मानसिक परेशानी महसूस नहीं होने की बात कही। सर्वे में मुख्यतः छात्रों द्वारा भागीदारी की गयी। यदि इस सवाल को उजड़ चुके फड़-खोखे वालों, बेरोजगार हो गये मजदूरों, ‘रोज कमाने और खाने’ वालों और महिलाओं से पूछते तो परेशानियां, तनावग्रस्तता की संख्या बेहद अधिक होती। 

कोरोना महामारी से जूझने के लिए गठित ‘पी एम केयर फण्ड’ के विवरण को सरकार द्वारा सार्वजनिक न करने के कदम को आप किस तरह देखते हैं? इस प्रश्न के जवाब में 53 प्रतिशत लोगों ने पारदर्शिता होनी चाहिए, 28.6 प्रतिशत ने भ्रष्टाचार की संभावना, 14 प्रतिशत ने सरकार पर सवाल न करने साथ देने का विकल्प चुना। शेष लोगों ने कह नहीं सकते का विकल्प चुना। सरकार के सार्वजनिक खर्च के लिये बनाये गये कोष को जाहिर न करने का मामला खासा गंभीर था। ‘भ्रष्टाचार पर कोई समझौता नहीं’ कहने वाली सरकार का यह व्यवहार संदेहास्पद व संभावित भ्रष्टाचार को दिखाता है।

लॉकडाउन के दौरान काम के घंटे 12 करने, श्रम कानूनों को बदलने की प्रक्रिया को आप कैसे देखते हैं? प्रश्न के उत्तर में 67 फीसदी ने मजदूर अधिकारों पर हमला, 15 फीसदी ने नुकसान की भरपाई हेतु जरूरी, 4 फीसदी ने श्रम कानूनों को खत्म करने व शेष 14 फीसदी ने कह नहीं सकते का विकल्प चुना। आम तौर पर ही हमारे समाज में मजदूर अधिकारों पर कोई संवेदनशीलता नहीं दिखाई जाती है। जब कभी श्रम कानूनों-अधिकारों की चर्चा होती है तो पूंजी के नुकसान, अर्थव्यवस्था के हालात का रोना, रो दिया जाता है। बावजूद इसके 67 फीसदी लोगों का मजदूर अधिकारों पर हमले के तौर पर इसे देखना सरकार के मजदूर वर्ग पर हमले की भीषणता को ही अभिव्यक्त करता है। 

राहत पैकेज से जुड़े एक सवाल- क्या आपको लगता है कि सरकार द्वारा घोषित 20 लाख करोड़ के पैकेज से जरूरतमंद लोगों को राहत मिल पाएगी? के जवाब में लगभग 65 फीसदी लोगों को लगता है नहीं, जबकि 15.4 फीसदी को लगता है हां, शेष लोगों का उत्तर ‘कह नहीं सकते’ था। छात्रों-नौजवानों से जोड़ते हुए सवाल था कि क्या आपको लगता है कि 20 लाख करोड़ के पैकेज से छात्रों-नौजवानों, बेरोजगारों को कुछ लाभ होगा? इसके उत्तर में 65 फीसदी का मत था नहीं, 16 फीसदी का हां, शेष 19 फीसदी लोगों ने कह नहीं सकते पर मत किया। यह दिखाता है कि तमाम लोकलुभावन वायदों पर अधिकांश जनता का विश्वास नहीं है जबकि अभी भी कुछ लोग सरकार पर उम्मीद लगाये रहते हैं या चलो इस बार देखते हैं, वाली स्थिति में हैं।

कोरोना के लिए आगे क्या कदम उठाये जायें, पर सवाल था कि कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए आपकी राय में सरकार को आगे क्या कदम उठाने चाहिए? इसके जवाब में 76 फीसदी ने स्वास्थ्य सेवाओं में बढ़ोत्तरी, निजी अस्पतालों का अधिग्रहण, बेड-वेंटीलेटर-टेस्टिंग बढ़ाने, 6.5 फीसदी ने कुछ नहीं कोरोना के साथ जीना, 14.5 फीसदी ने फिर से लॉकडाउन तथा 6.5 फीसदी ने कह नहीं सकते का विकल्प चुना। कोरोना रोकथाम हेतु अधिकांश की मांग स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करने और टेस्टिंग की है।

सर्वे में छात्रों-नौजवानों, बेरोजगारों की स्थिति सुधारने हेतु सरकार से उम्मीद या क्या कदम उठाये जायें, सवाल का जवाब बहुविकल्पीय नहीं था। यहां कई लोगों के लिखित उत्तर थे तो कुछ ने उत्तर नहीं दिया। सभी उत्तर कुछ खास बिन्दुओं के ही इर्द-गिर्द थे। छात्रों/शिक्षा के सवाल पर लोगों की रायें संसाधनों को बढ़ाने, व्यवस्था ठीक करने, निजीकरण रोककर सरकार से जिम्मेदारी लेने, उच्च शिक्षा पर ध्यान देने, निःशुल्क शिक्षा की उम्मीद या मांग के रूप में ध्वनित हुई। रोजगार के सवाल पर लोगों की रायें रिक्त पद भरने, छोटे उद्यमों को बढ़ावा देने, बेरोजगारी भत्ता, योग्यतानुसार स्थाई रोजगार की गारंटी, भ्रष्टाचार (भर्तियों में होने वाला) करने वालों को दण्डित करना, ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि आधारित उद्योग, आदि थीं। वहीं एक राय कोरोना संकट के कारण सरकार नौकरी नहीं दे सकती तो एक राय सरकार से कोई उम्मीद नहीं है, भी थी।

यदि सर्वे के नतीजों से आम निष्कर्ष निकाला जाये तो यही लगता है कि कोरोना की रोकथाम हेतु जो काम सरकार को करना चाहिए था वैसा नहीं किया गया। जो काम हुए उनमें भारी अनियमितताएं, कमियां थीं। निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण जैसे कदमों ने देश की स्वास्थ्य सरीखी महत्वपूर्ण व्यवस्था को एकदम लचर बना दिया है। सरकार से वही उम्मीदें की जा रही हैं जो पहले से की जाती रही हैं कि निजीकरण पर रोक लगे, सरकार जिम्मेदारी ले, आदि। 

इन निष्कर्षों पर यदि क्रांतिकारी नजरिए से विचार किया जाये तो साफ हो जाता है कि सरकार के कदम आज भी उदारीकरण-वैश्वीकरण-निजीकरण की नीतियों की तरफ हैं जो तमाम समस्याओं का कारण हैं। आज भी सरकार के कदम बड़े पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ाने के ही हैं। उनके ध्यान में आम मजदूर-मेहनतकश, छात्र-नौजवान, शोषित-उत्पीड़ित जन नहीं हैं। अपने जीवन और बेहतर भविष्य के लिए इन शोषित जनों को संघर्ष की ही राह चुननी होगी। इससे कम में कोई तात्कालिक लाभ भी हासिल नहीं किया जा सकता। निश्चित ही अन्यायपूर्ण पूंजीवादी व्यवस्था को खत्म कर समाजवाद का निर्माण ही मुकम्मिल बराबरी और बेहतर जीवन की गारंटी कर सकता है। 

                                              वर्ष- 11 अंक- 3 व 4 (अप्रैल-सितंबर, 2020)

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