बुधवार, 2 सितंबर 2020

महामारियां : पूंजीवादी समाज और समाजवादी समाज 


मोटे तौर पर 16वीं शताब्दी से यूरोप के देशों में पूंजीवादी संबंधों का काफी हद तक विकास हो चुका था। इन संबंधों के विकास के साथ स्वास्थ्य सेवा भी क्रमशः व्यापार में तब्दील होने लगी थी। तब भी उस समय लोग स्वास्थ्य सेवा की एक मिशन के बतौर बातें करते थे। कहा जाता था कि डॉक्टर लोग अपना मानवतावादी मकसद पूरा कर रहे हैं। चूंकि डॉक्टरों को राज दरबारों से वेतन और प्रतिष्ठा मिलती थी, अभिजात घरों से सुविधाएं मिल जाती थीं और अनेक मध्यम वर्गीय परिवारों से नियमित आय हो जाती थी, इसलिए वे अपने इस पेशे को खुले व्यापार के बतौर विकसित होने का एक हद तक विरोध करते थे। कई देशों में 19वीं सदी तक में चिकित्सक अपना बिल नहीं भेजते थे। इसके बजाय रोगी जो उचित समझते थे और जितना देने में समर्थ होते थे, दे देते थे। डॉक्टरी पेशे के लोग तब तक हृदयहीन लेन-देन के रिश्तों के अभ्यस्त नहीं हुए थे। लेकिन उनके ये प्रयास निरर्थक सिद्ध होने लगे थे। 

20वीं सदी से शुरू से ही डॉक्टरी की सेवा ऐसी हो चुकी है जिसे रोगी खरीदता है और चिकित्सक बाजार के हिसाब से बेचता है। चिकित्सक को अपने द्वारा बेची जाने वाली हर सेवा की कीमत चाहिए। रोगी जितना अधिक बीमार होगा, उसे चिकित्सक की उतनी ही ज्यादा सेवा चाहिए होगी और इससे चिकित्सक की आर्थिक स्थिति उतनी ही बेहतर होगी। रोगी के लिए यह व्यवस्था विशेषतौर पर असंतोषजनक होती है क्योंकि वह यह नहीं जानता कि उसके मामले में कितनी सेवा की जरूरत होगी। उसे अपने चिकित्सक पर भरोसा करना होता है। और चिकित्सक आम तौर पर रोगी से जितना अधिक निचोड़ सकता है, वह निचोड़ता है। आम तौर पर पूंजीवाद के अंतर्गत चिकित्सक को इसी आधार पर काम करना होता है। 

जो नियम किसी देश की समूची पूंजीवादी व्यवस्था के लिए लागू होते हैं; वे चिकित्सा के क्षेत्र में भी लागू होते हैं। चाहे वे इसे पसंद करें या ना करें। मौजूदा दौर के चिकित्सक व्यापार कर रहे हैं। ऐसे चिकित्सक भी अपवाद स्वरूप हैं जो चिकित्सा शास्त्रीय नैतिकता पर चलने की कोशिश करते हैं। लेकिन उनकी ये नैतिकताएं पूंजीवाद के पहले के युग की हैं, इसलिए इनकी जमीन खिसक चुकी है। यही कारण है कि चिकित्सा से जुड़े लोग खुलकर इसे व्यापार के रूप में ले रहे हैं। यह सभी पूंजीवादी देशों में खुलेआम हो रहा है। 

जब कोई व्यक्ति बीमार पड़ता है तो वह अपनी औकात भर स्वास्थ्य सुविधाएं खरीदता है। जब वह दवाएं खरीदने जाता है तो वह अपनी जेब के हिसाब से बाजार में उपलब्ध सबसे अच्छी दवा खरीदने की कोशिश करता है। दवा निर्माता कंपनियां भी डॉक्टरों और विशेषज्ञों की मदद से अपना मुनाफा अधिकतम करने की दृष्टि से दवा का उत्पादन करते हैं। जिस रफ्तार से दवा उद्योग और रसायन उद्योग का विकास हो रहा है, दवा निर्माण बहुत ज्यादा लाभ का उद्योग हो गया है। इस उद्योग में बहुत ज्यादा पूंजी लगायी जाती है। परिणामस्वरूप बहुत सारी गैर जरूरी दवाएं भी बाजार में पट जाती हैं। इस पर चाहे कितने ही नियम क्यां न बन जाएं, अधिकांश देशों में दवा उद्योग भारी मुनाफा अर्जित कर रहा है। 

वैसे तो इसे बहुत पहले स्वीकृत किया जा चुका था कि लोगों के स्वास्थ्य को स्वास्थ्य सुविधा के बाजारीकरण के जरिये सक्षम तरीके से ठीक नहीं किया जा सकता। मध्य युग में यूरोप के देशों में चर्च अपने दान के कार्यों के जरिये इस कर्तव्य को पूरा करता था। भले ही वह गरीब लोगों पर घड़ियाली आंसू बहाकर पूरा करता रहा हो। लेकिन पूंजीवाद के अंतर्गत समाज का ऊपरी तबका यह महसूस करता है कि गरीब लोगों का खराब स्वास्थ्य खुद उनके स्वास्थ्य के लिए खतरा है। इसलिए वह किसी न किसी रूप में दान की व्यवस्था को बनाये रखता है। नाममात्र की स्वास्थ्य सेवाएं गरीबों के लिए दान दाता संस्थाओं द्वारा चलायी जाती हैं। 

लेकिन ऐसी दानदाता संस्थायें हमेशा आर्थिक तंगी का रोना रोती हैं और आर्थिक अभाव में रहती हैं। पूंजीवाद के अंतर्गत गरीबों को लगातार यह एहसास कराया जाता है कि उनकी जिन्दगी धनी लोगों के रहमोकरम पर निर्भर है। 

पूंजीवाद के अंतर्गत एक अन्य समाधान भी पेश किया जाता है। वह सामाजिक बीमा जिसमें बीमारी, दुर्घटना, अपाहिज होने, मातृत्व लाभ, बुढ़ापे और बेरोजगारी बीमा शामिल है। इसे भी पूंजीवादी देशों में शुरू किया गया था। लेकिन इस समय एक-एक करके इससे पूंजीपति वर्ग और उसके राज्य हाथ खींचते जा रहे हैं।

लेकिन जहां तक महामारियों का संबंध है, वहां राज्य इस पर अपनी जिम्मेदारी से कदम खींचता गया है। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को दुनिया भर में क्रमशः कमजोर किया गया है। कायदे से पूंजीवादी राज्य को न सिर्फ महामारियों की रोकथाम करने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए थी बल्कि इसकी उपचार की भी जिम्मेदारी लेनी चाहिए थी। क्योंकि इतने बड़े पैमाने के कार्यभार को राज्य जैसी कोई व्यापक संस्था ही ले सकती थी। यह व्यक्तियों के बूते की बात नहीं हो सकती। लेकिन यहीं पर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं और निजी मुनाफे के बीच अंतर्विरोध खड़ा हो जाता है, जहां सभी पूंजीवादी राज्य निजी मुनाफे के हित में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को चौपट कर रहे हैं या उन्हें निजी मुनाफे के हित में दे दे रहे हैं। 

इसका परिणाम यह रहा है कि पूंजीवादी देशों में लोगों के स्वास्थ्य की सुरक्षा की तमाम प्रणालियां निजी हितों के सामने बौनी कर दी गयी हैं। कहने के लिए राज्य स्वास्थ्य सुविधायें, बीमा स्वास्थ्य सुविधायें, दान स्वास्थ्य सुविधाएं सभी किसी न किसी रूप में अस्तिस्व में हैं लेकिन इन सबसे ऊपर निजी स्वास्थ्य सुविधाएं हैं। जो मुनाफे को केन्द्र में रखकर संचालित की जा रही हैं। 

लेकिन सोवियत संघ में, अक्टूबर क्रांति के बाद जब मजदूर वर्ग का राज्य अस्तित्व में आया तो वहां पहले ही दिन से स्पष्ट कर दिया गया कि स्वास्थ्य सुविधाएं मुनाफे के लिए नहीं हैं। सोवियत स्वास्थ्य प्रणाली के मुख्य लक्षणों में इन चार पर जोर दिया गया (1) स्वास्थ्य सेवा मुफ्त है, इसलिए वह सबके लिए उपलब्ध है(2) सभी स्वास्थ्य गतिविधियों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य स्वास्थ्य को बढ़ावा और बिमारियों की रोकथाम है, (3) तमाम स्वास्थ्य गतिविधियों का निर्देशन केन्द्रीय स्तर पर यानी स्वास्थ्य मंत्रालय से होगा, (जिसे शुरू में स्वास्थ्य की जन कमिसारियत कहा गया था) और(4) स्वास्थ्य की योजना व्यापक पैमाने पर बनायी जायेगी। 

इसे आम तौर पर माना गया कि राष्ट्र के कल्याण के लिए आम शिक्षा महत्वपूर्ण है, कि जब तक लोगों की शिक्षा एक निश्चित स्तर तक नहीं पहुंच जाती तब तक जनवाद असंभव है। इसलिए इसका तार्किक उपाय यह था कि शिक्षा को विशेषतौर पर प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा को मुफ्त में सार्वजनिक किया जाय। 

समाजवादी राज्य ने एक कदम और आगे बढ़कर यह घोषणा कर दी कि इसके लोगों का स्वास्थ्य राष्ट्र के बतौर इसके कल्याण के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है। यदि समाज को सफलतापूर्वक काम करना है तो इसके सदस्यों का स्वस्थ्य रहना जरूरी है। दवा और इलाज शिक्षा की तरह व्यापार नहीं रह गया। यह समाज का सार्वजनिक क्रियाकलाप हो गया। 

मजदूरों और व्यापक आबादी के फायदे के लिए दूरगामी सार्वजनिक स्वास्थ्य लागू करने के दृढ़ कदम उठाये गये, जैसे निवास स्थानों की साफ-सफाई(जमीन, पानी, हवा की सुरक्षा), वैज्ञानिक तौर पर स्वच्छता के बारे में दृष्टिकोण स्थापित करने के लिए सामुदायिक केन्द्रों की स्थापना; संक्रामक बिमारियों के विकास और फैलाव को रोकने के लिए दवाओं का संगठन और स्वास्थ्य कानून। इसी प्रकार सामाजिक बिमारियों(टी.बी., यौन रोग, नशाखोरी, इत्यादि) पर हमला बोलना और योग्य स्वास्थ्य व दवा सेवायें सभी को मुफ्त उपलब्ध कराने की गारंटी। 

क्रांति के बाद ही फरवरी, 1918 में स्वास्थ्य विभाग की परिषद पेत्रोग्राद में स्थापित कर दी गयी। जुलाई 1918 में स्वास्थ्य की जन कमिसारियत की स्थापना कर दी गयी। 

उस समय तक रूस में महामारी फैल चुकी थी। इस महामारी से निपटने के लिए मजदूरों की कमेटियों का गठन किया गया। इसमें कम्युनिस्ट पार्टी के ट्रेड यूनियनों, महिला संगठनों और युवा संगठनों की बड़े पैमाने पर मदद ली। 1919 में लेनिन ने घोषणा की थी कि या तो समाजवाद इस जूं को पराजित कर देगा या जूं समाजवाद को पराजित कर देगा। 

वैसे तो जारशाही का साम्राज्य महामारियों का निरंतर गढ़ बना हुआ था। बड़ी चेचक(स्माल पॉक्स), टाइफस, बार-बार होने वाला बुखार और डिसेन्ट्री रूस में होने वाली आम बीमारी थीं। निश्चित समय के अंतराल पर प्लेग और हैजा महामारी आती रहती थी। 1914 के पहले स्वास्थ्य हालात काफी खराब थे। लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ये बहुत ज्यादा बदतर हो गये थे। 1 करोड़ 40 लाख फौजियों की भर्ती की गयी थी। इनमें से दसियों लाख लोग युद्ध क्षेत्र से भाग खड़े हुए। ये देश के दूर-दराज के क्षेत्रों में फैल गये थे और अपने साथ महामारी भी ले गये थे। 1915 में टाइफस महामारी तुर्की के मोर्चे पर फूट पड़ी थी और गैलीशिया मोर्चे पर कई बार उभरने वाला बुखार फैल गया था। उसी वर्ष तुर्की बंदियों द्वारा टाइफस समारा फैला दिया गया। 1916-17 की गर्मियों में सेना थक कर चूर हो गयी थी, कई क्षेत्रों में परिवहन व्यवस्था ध्वस्त हो गयी थी और आपूर्ति ठप्प हो गयी थी। 1917 की गर्मियों में सभी मोर्चों पर बीमारी फैल चुकी थी। 1917-18 के जाड़े में पेत्रोग्राद में टाइफस तेजी से फैल गया। इसके बाद 1918 के पतझड़ में जर्मनी से आने वाले कैदी अपने साथ इन्फ्लुएन्जा ले आये। यह महामारी पश्चिम से रूस की तरफ आयी थी। यह उल्टी गंगा बहाना था। अभी तक पूरब से पश्चिम बिमारियां जाती थीं। गृह युद्ध फूट पड़ा था। कई साम्राज्यवादी देशों ने सोवियत सत्ता को ध्वस्त करने लिए हमला बोल दिया था। 

इसके बावजूद मजदूर वर्ग के राज्य ने महामारी के विरूद्ध बहादुराना लड़ाई लड़ी। इसने सभी मजदूर आबादी को गोलबंद किया और व्यापक जन अभियान चलाये। 

रूसियों के लिए चिर-परिचित मुख्य दुश्मन टाइफस था। क्रांति के पहले के बीस वर्षों में औसतन सालाना 82447 मामले दर्ज होते थे। 1923 के बाद टाइफस के मामलों में तेजी से गिरावट आ गयी थी। समाजवादी राज्य में 1929 तक में टाइफस की बीमारी को लगभग समाप्त कर दिया था। 

इसी प्रकार टाइफस का सहयोगी बार-बार होने वाला बुखार था। यह जूं के जरिये संक्रमित होता था। लेकिन यह कम मारक था। 

प्लेग की महामारी एक समय रूस की सबसे खतरनाक बीमारी थी। इतिहास बतलाता है कि इस महामारी से कई बार देश तबाह हो चुका था और दसियों लाख लोग मारे गए थे। द्वितीय विश्व युद्ध के पहले तक सोवियत अधिकारियों का दावा था कि प्लेग का खतरा वहां से पूर्णतया समाप्त हो गया था। 

प्लेग से बहुत ज्यादा गंभीर हैजा की बीमारी थी। हैजा का रूस में बहुत बुरा रिकार्ड रहा है। इसने 1823 से 1922 के बीच के 100 वर्षों में 55 बार रूस में हमला किया। इस दौरान इससे 55 लाख लोग पीड़ित हुए और 22 लाख लोग मर गए। समाजवादी राज्य ने बड़े पैमाने पर इस बीमारी को खत्म करने के लिए संघर्ष किया। 1922 में 1 करोड़ लोगों को वैक्सीन दी गयी। 1927 के बाद से हैजा का पूर्णतया खात्मा हो गया था। 

इसी प्रकार टाइफाइड और डिसेन्ट्री का मामला था। समाजवादी राज्य ने इन बीमारियों को दूर करने के लिए व्यापक अभियान चलाया था। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध तक उस बीमारी का पूर्ण उन्मूलन नहीं हो सका था। 

बड़ी चेचक(स्माल पॉक्स) को जारशाही के जमाने में असाध्य बीमारी समझा जाता था। लेकिन इसका पूर्ण उन्मूलन समाजवादी राज्य ने कर दिया। 

ऐसी बहुत सी बिमारियां, जो पूंजीवादी समाज में असाध्य समझी जाती हैं; महामारियों की शक्ल ले लेती है, समाजवादी समाज में व्यापक मजदूर-मेहनतकश आबादी की सक्रीय भागीदारी से हल की जा सकती है। इस तथ्य को 1956 के पहले के सोवियत समाजवादी समाज और 1976 के पहले के चीन के समाज ने सिद्ध कर दिया है। इसका मूल कारण यह रहा कि समाजवादी समाज में स्वस्थ्य नागरिक तैयार करना मजदूर वर्ग के राज्य की जिम्मेदारी होती है। समाजवादी राज्य ऐसी सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी परिस्थितियां तैयार करता है जिससे स्वस्थ्य बच्चे, स्वस्थ्य मां और स्वस्थ्य नागरिक तैयार हो सकें। ऐसा राज्य ही महामारियों का मुकाबला करके उन्हें पराजित कर सकता है। 

यह काम पूंजीवादी राज्य नहीं कर सकता। पूंजीवादी राज्य के लिए कोई भी बीमारी, महामारी पूंजीपति के मुनाफे को बढ़ाने का एक सुअवसर है। यह कोविड-19 की महामारी से स्पष्ट हो गया है। दुनिया के सभी पूंजीवादी राज्यों ने वैश्विक महामारी से बचने की जिम्मेदारी नागरिकों पर डाल दी और सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। इसके अतिरिक्त अलग-अलग पूंजीवादी राज्य इस महामारी को फैलाने का दोष एक-दूसरे पर मढ़ते रहे। षड़यंत्र सिद्धांत गढ़े जाने लगे। मजदूरों-मेहनतकशों को जबरन तालाबंदी, भौतिक दूरी बनाये रखने और कन्टेनमेन्ट क्षेत्रों में बन्द कर दिया गया।

उनकी रोजी-रोटी छीन ली गयी। पूंजीपतियों और वित्तपतियों का इसी दौरान मुनाफा बढा़या गया। साम्राज्यवादी देश युद्ध की तैयारियों में लगे रहे। इस दौरान आधुनिक हथियारों की बिक्री बढ़ गयी। पूंजीवादी राज्यों और पूंजीपतियों ने इस महामारी को अवसर में तब्दील कर दिया। मजदूरों-मेहनतकशों के लिए तबाही-बर्बादी और पूंजीवादी-साम्राज्यवादी लुटेरों की मुनाफे और विश्वप्रभुत्च की इच्छा को पूरा करना दोनों एक साथ चलता रहा।

यही पूंजीवादी राज्य का महामारियों के प्रति दृष्टिकोण है। समाजवादी राज्य का दृष्टिकोण ठीक इसके विपरीत रहा है। इसे सोवियत संघ के अनुभव से समझा जा सकता है।

                                                                                  वर्ष- 11 अंक- 3 व 4 (अप्रैल-सितंबर, 2020)

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