मंगलवार, 1 सितंबर 2020

 विद्रोही कवि : काजी नजरूल इस्लाम


मैं बगावत का अखिल दूत,


मैं उबकाई नरक का प्राचीन भूत!


काजी नजरूल इस्लाम भारतीय उपमहाद्वीप के उन कवियों में शुमार किये जाते हैं जो एक कवि होने के साथ एक स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी, मजदूरों-मेहनतकशों के मित्र और धर्मनिरपेक्षता के प्रतीक हैं। 

काजी नजरूल की प्रतिष्ठा भारत(विशेषकर पश्चिमी बंगाल और बांग्लादेश में बराबर है। बांग्लादेश ने तो उन्हें अपना राष्ट्र कवि घोषित किया है। 

बहुमुखी प्रतिभा के धनी काजी नजरूल का जीवन बेहद उथलपुथल से भरा रहा है। एक मस्जिद के मुअज्जिम से धार्मिक पाखंडवाद के खिलाफ संघर्ष के पुरोधा व धर्म निरपेक्षता के प्रतीक और ब्रिटिश फौज के एक हवलदार से ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ खोदने व शोषितों, वंचितों की मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध एक विद्रोही तक उनकी जीवन यात्रा बेहद तूफानी रही है। 

काजी नजरूल इस्लाम का जन्म 24 मई 1899 को ब्रिटिश इंडिया के बंगाल प्रेजीडेंसी (वर्तमान में पश्चिम बंगाल) के चारूलिया (पुरूलिया) गांव में हुआ था। इनका बचपन बेहद गरीबी व वंचना में बीता। इनके पिता काजी फकीर अहमद गांव की मस्जिद में ईमाम का काम करते थे। इनकी माता का नाम जहेदा खातून था। इनका बचपन दुःख और कष्ट में बीतने के कारण इनके बचपन का नाम दुखु मिया पड़ गया। नौ वर्ष के होते-होते इनके सिर से पिता का साया उठ गया और परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी इन पर आ गई। परिवार के भरण-पोषण के लिए इन्होंने इस उम्र में ही बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। किशोरावस्था के दौरान इन्होंने एक स्थानीय मस्जिद में नमाज पढ़वाने वाले मुअज्जिम का काम भी किया। चूंकि पिता इमाम रहे थे और प्राइमरी स्तर पर थोड़ा बहुत अरबी-फारसी का इन्हें ज्ञान हो चुका था अतः गांव वालों ने इन्हें यह काम सौंप दिया। इस बीच आजीविका के लिए ये गार्ड की नौकरी से लेकर बेकरी में काम करने जैसे छोटे-मोटे काम करते रहे। 

बचपन से काजी नजरूल इस्लाम का संगीत के प्रति विशेष लगाव था। उनके गांव में ग्राम्य-गीतों की जो महफिल सजती थी उन्हें लातेर कहा जाता था। नजरूल बचपन से ही लातेर में उत्साहपूर्वक भाग लेते थे और उनकी ग्राम्य-गीत लिखने में रूचि बन गयी। वे अपने गांव की गायक मंडली में शामिल हो गए जिसके मुखिया इनके चाचा थे। लिखने, गाने व बांसुरी का इनका शौक जारी रहा। बाद के दौर में एक कवि के रूप में बंगाल के ग्रामीण लोकजीवन का उनकी रचना की शैली में विशेष प्रभाव पड़ा। इनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर एक पुलिस का हवलदार रफी जुलाह इन्हें दरियापुर जिला मैमन सिंह(अब बांग्लादेश में) ले गया और वहां स्कूल में इनके पढ़ने की व्यवस्था कर दी। लेकिन सातवीं पास करने के पश्चात वे वापस अपने गांव चुरूलिया आ गए। घुमक्कड़ी का शौक होने के चलते एक स्थान पर टिकना इनके लिए असंभव था। गांव में इनके एक रिश्तेदार काजी मंजूर ने रानीगंज सिमरसल हाईस्कूल में आठवीं कक्षा में दाखिला दिला दिया। 

स्कूल में काजी नजरूल के जीवन पर दो शिक्षकों का बेहद गहरा प्रभाव पड़ा। इनके एक शिक्षक कांजीलाल इन्हें संगीत सीखने की प्रेरणा देते हैं तो एक अन्य शिक्षक निवारण चरण घटक एक भूमिगत क्रांतिकारी संगठन से इन्हें अवगत कराते हैं। क्रांतिकारी संगठन के संपर्क में आने का उन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसी बीच वे बंगाल रेजीमेंट में भर्ती हो जाते हैं। फौजी ट्रेनिंग के बाद उनकी पहली और अंतिम नियुक्ति कराची में होती है। यहां इनके पास काम कम था या फुरसत का समय हो जाता था। इसी दौरान उन्हांने अरबी व फारसी साहित्य का अध्ययन किया। यहीं उन्होंने पहली लघुकथा ‘एक आवारा की कहानी’ लिखी, जो सौगात पत्रिका में प्रकाशित हुयी। उनका पहला लेख ‘तुर्की महिला का घूंघट खुला’ भी सौगात में छपा। उनकी पहली कविता ‘मुक्ति’ का प्रकाशन बंगीय साहित्यिक पत्रिका में होता है। 

1919 का वर्ष भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में बहुत अहम है। 13 अप्रैल 1919 में जलियांवाला बाग कांड ने देश-दुनिया का ध्यान भारत के आजादी के संघर्ष व बरतानी हुकूमत के क्रूर दमन की ओर खींचा था। भारत के समस्त जनमानस और खासकर नौजवानों पर  जलियांवाला बाग की घटना का गहरा प्रभाव पड़ा। काजी नजरूल का मन भी पीड़ा व क्षोभ से तड़प उठा।

बंगाल रेजीमेन्ट भंग होने से भी देश का राजनीतिक वातावरण गरमा गया था और नजरूल के दिल में विद्रोह की ज्वाला धधक रही थी। उनका उर्वर मस्तिष्क ओज से परिपूर्ण था। फौज की नौकरी छोड़ वे कलकत्ता पहुंच गये और उन्होंने एक ओर राष्ट्रीय कांग्रेस की सदस्यता ले ली तो दूसरी ओर वे साहित्य साधना में डूब गए।

वे अनेक बंगाली युवाओं की तरह चितरंजन दास के समर्पण से प्रभावित थे इसलिए उन्होंने बासंती देवी की देख-रेख में चल रहे ‘बंगलार कथा’ के लिए ‘भांगुर गान’ (विनाश का गीत) लिखा। इसकी पंक्तियां इस तरह थी-

‘‘ कारार ओई लौह कपाट

भेंगे फेर कार-रे लोपाट

रक्त जामात

सिकार पूजार पाषाण-बेदी।’’

(इस कारागार के लोहे के दरवाजों को तोड़ दो- रक्तरंजित पत्थर की वेदी के टुकड़े-टुकड़े कर दो, जो बेड़ियां देवता की पूजा के लिए खड़ी की गई है जिन पर असंख्य बलिदानों का खून चढ़ा है।)

वैश्विक स्तर पर एक युगांतरकारी घटना के रूप में 1917 की महान अक्टूबर क्रांति की मशाल पूरी दुनिया की शोषित-उत्पीड़ित जनता को मुक्ति के एक नए युग की पदचाप सुना रही थी। पड़ोसी मुल्क चीन में 4 मई 1919 को छात्रों-नौजवानों के ऐतिहासिक 4 मई आंदोलन ने पूरे एशिया में छात्रों-नौजवानों के अंदर साम्राज्यवाद विरोधी विद्रोही चेतना को भर दिया था। नजरूल देश-दुनिया के इन घटनाक्रमों से अनुप्राणित होकर साम्राज्यवाद विरोधी चेतना के साथ मजदूरां-मेहनतकशों के मुक्ति संघर्ष की ओर उन्मुख हो रहे थे।

1920 में कामरेड मुजफ्फर अहमद के साथ दोस्ती के बाद ए.के.फजलुल हक द्वारा स्थापित नवयुग (नवजुग) के संयुक्त संपादक के बतौर दोनों काम करने लगते हैं। कामरेड मुजफ्फर अहमद के साथ वे एक ही कमरे में रहते थे। 1920 की जाड़ों की रातों में उन्होंने विद्रोही नाम से विख्यात अपनी प्रसिद्ध कविता लिखी थी जो 1922 में प्रकाशित हुई। सबसे पहले कामरेड मुजफ्फर अहमद को ही उन्होंने उसे पढ़ाया था। राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष के उस दौर में काजी नजरूल की कवितायें नवयुवकों को भारी संख्या में राष्ट्रीय आंदोलन में खींच रही थीं व उनमें उत्साह भर रही थीं। ओज से भरी उनकी कवितायें वर्ग चेतना का भी संचार कर रही थीं। नजरूल के ‘मार्चिंग सांग’ एक साथ छात्रों और मजदूरों में लोकप्रिय हो रहे थे। 

‘असहाय राष्ट्र’ कविता में नजरूल जनता की ओर से शासकों को सतर्क कर रहे थे कि इस जनसंघर्ष में ही उनकी परीक्षा होगी। ‘कर्णधार सावधान’ कविता में देश की जनता असहाय नहीं रह गयी थी। वह युगों की अपनी संचित व्यथा के साथ संघर्ष के मैदान में उतर रही थी। नजरूल की कविता में शोषकों के प्रति तीव्र घृणा का स्तर ‘मेरी कैफियत’ के माध्यम से सामने आता है। वे लिखते हैं-

‘‘जो लोग तैंतीस करोड़ भूखों का कौर

छीन कर खा रहे हैं

मेरे रक्त से उनके सर्वनाश की कहानी 

लिखी जा सके।’’

‘सर्वनाश की कहानी’ साम्राज्यवाद, सामंतवाद व देशी पूंजीवाद के रक्त पिपासु गठजोड़ के खिलाफ जनता की जय यात्रा का उद्घोष है।

इनका पहला काव्य संग्रह ‘अग्निवीणा’ के नाम से प्रकाशित हुआ जिसने धूम मचा दी। फिर दूसरी पत्रिका ‘धूमकेतु’ का 19 अगस्त 1922 से प्रकाशन प्रारंभ हुआ।

उनकी कवितायें शोषकों के खिलाफ तीखी नफरत पैदा करती हैं और एक अच्छा क्रांतिकारी बनने को प्रेरित करती हैं।

विद्रोही (1922) कविता का ‘मैं’ एक वास्तविक चरित्र है जो समाजवाद के पथ पर अग्रसर है। नजरूल की कविता सृष्टि भी रचती है और ध्वंस भी करती है :

मेरे एक हाथ में टेढ़े बांस की बंशी है,

और दूसरे हाथ में रणभेरी

मैं नीलकंठ हूं, मैंने वेदना के समुद्र से 

मंथन-विषपान किया है। (बांग्ला से अनूदित)

यह ‘मैं’ शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ उस समय का सजग भारत वर्ष था। साम्राज्यवादी निराशा के बीच यह समाजवादी विकल्प था।

‘विद्रोही’ कविता की लोकप्रियता के साथ काजी नजरूल का नाम ही विद्रोही पड़ गया। तभी से वे ब्रितानी हुकूमत की आंखों में खटकने लगे। आखिरकार अप्रैल 1924 में उनकी दो काव्य रचनायें ‘विशेर बंशी’ और ‘भांगुर गान’ पर प्रतिबंध लगा दिया गया तथा उनको जेल में डाल दिया गया। लेकिन जेल यातना भी नजरूल के विद्रोही तेवरों को कम नहीं कर सकी। उन पर ताजीरात-ए-हिन्द की दफा 124 के अंतर्गत मुकदमा चला। अदालत में नजरूल ने अपनी सफाई में निर्भीकता से कहा था- ‘‘मैं एक कवि हूं, सच्चाई को प्रकट करना ही मेरा कर्तव्य है। अमूर्त सत्य को मूर्त करने के लिए मैं इस धरती पर अवतरित हुआ हूं। मेरी वाणी सत्य को प्रकाशित करने वाली ईश्वर की वाणी है। यह राजदरबार में विद्रोही कहला सकती है, परन्तु न्याय के दरबार में ‘न्यायद्रोही’ या ‘सत्यद्रोही’ नहीं। राजा की आज्ञा से इसे दंड दिया जा सकता है, पर धर्म के आलोक में न्याय की तराजू पर निरपराध, निष्कपट, अम्लान और सत्यस्वरूप है।’’

काजी नजरूल इस्लाम की कविताओं में ओज तो था ही क्रांतिकारिता भी थी। यह क्रांतिकारिता राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर थी। एक तरफ जहां वे राष्ट्रीय स्वतंत्रता के जुझारू व ओजस्वी पैरोकार थे तो दूसरी तरफ सांप्रदायिकता, पितृसŸा, पाखंड और जाति व्यवस्था के विरोधी होने के साथ-साथ वे एक वर्ग विहीन, शोषण विहीन समाज के लिए प्रतिबद्ध थे।

काजी नजरूल इस्लाम एक जनकवि, पत्रकार, संगीतज्ञ होने के साथ-साथ एक एक्टिविस्ट भी थे।

कामरेड मुजफ्फर अहमद के साथ वे मजदूरों को संगठित करने के काम में जुटे। 1926 में वह बंगाल की वर्कर्स एंड पीजेन्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य बने जो कि भारत के पहले वामपंथी संगठनों में से एक था और बाद में प्रतिबंधित भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के एक मोर्चे के रूप में काम करता रहा।

उनकी प्रारंभिक कवितायें जहां मूलतः राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक ओजस्वी उद्घोष थी वहीं ‘विद्रोही’, ‘साम्यवादी’ (कम्युनिस्ट), ‘सर्वहारा’ विशुद्ध रूप से समाजवाद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करती हैं। काजी नजरूल इस्लाम ने ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ (कम्युनिस्टों का अंतर्राष्ट्रीय गान) का बांग्ला में अनुवाद भी किया।

काजी नजरूल ने कामरेड मुजफ्फर अहमद के साथ मिलकर दो अन्य प्रकाशनों-लांगोल (हल) व काव्य पत्रिका धूमकेतू का भी संपादन किया।

महिलाओं की आजादी के सवाल पर भी वे बहुत मुखर थे। नारी की जलालत भरी जिंदगी से बेहद आक्रोशित थे और अपने आक्रोश को उन्होंने इस तरह व्यक्त किया :

‘ऐ नारी! फाड़ डालो घूंघट,

तोड़ डालो उस जंजीर को,

जिस पर्दे ने तुम्हें डरपोक बनाया

उस पर्दे को हटा दो

गुलामी के चिन्ह स्वरूप उन सारे गहनों को उतार फेंको।’

(बांग्ला से अनूदित)

अपनी एक कविता में उन्होंने ‘वेश्या’ को भी मां का संबोधन दिया।

काजी नजरूल अपने व्यक्तिगत जीवन में भी रूढ़ियों व धार्मिक संकीर्णताओं के खिलाफ खड़े हुए। पहला विवाह असफल होने के बाद उन्होंने प्रेमलता सेन गुप्ता से विवाह किया। विवाह का उस समय दोनों धर्मों के कट्टरपंथियों ने विरोध किया था। विवाह के उपरांत प्रेमलता ने समाज के दबाव में अपना धर्म बदलने की इच्छा प्रकट की। लेकिन काजी नजरूल ने उन्हें ऐसा करने से रोका और प्रेमलता हिन्दू बनी रहीं। अपने व्यक्तिगत जीवन में काजी नजरूल इस्लाम को निरंतर दुःख-कष्ट घेरे रहे। दो बच्चों की अल्पायु में मृत्यु हो गयी। पत्नी को 1938 में पक्षाघात या लकवा हो गया।

9 जुलाई 1942 को काजी नजरूल की बोलने की शक्ति चली गई। उनकी बोध शक्ति व स्मरण शक्ति का भी लोप हो गया। 1952 में उनके लिए ‘चिकित्सा सहायता समिति’ बनी जिसकी ओर से इनका और इनकी पत्नी का विदेश में इलाज कराया गया। परन्तु वे स्वस्थ न हो सके। 1962 में इनकी पत्नी की मृत्यु हो गई और 30 वर्षों तक लगभग अचेत रहकर आखिर 29 अगस्त 1976 को काजी नजरूल की मृत्यु हो गयी। विप्लव के उद्घोषक विद्रोही कवि की इस प्रकार बेहद कठिन व दर्दनाक मृत्यु हुई।

काजी नजरूल इस्लाम बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी थे। वे कवि, लेखक, पत्रकार, गीतकार, स्वरकार, नाटककार, अभिनेता, स्वाधीनता सेनानी विकल एवं दग्ध हृदय प्रेमी, संवेदनशील स्नेहमय पति व पिता, क्रांतिकारी व व्यवस्था विरोधी सब कुछ थे लेकिन इन सबसे ऊपर वे एक ‘विद्रोही’ कवि थे और खुद को इसी नाम से पुकारा जाना पसंद करते थे।

अपनी मिट्टी से जुड़ा, निरंतर अपनी चेतना व संवेदना का विस्तार करता यह कवि आज भी शोषित-उत्पीड़ित जनता के दिलों की मुक्तिकामी हुंकार है।

आज के दौर में हिंदू साम्प्रदायिक फासीवाद नंगा नाच कर रहा है, ऐसे में काजी नजरूल बेहद प्रासंगिक हो जाते हैं। आज काजी नजरूल की विरासत को सहेजना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हिंदू फासीवादी तत्वों द्वारा; काजी नजरूल द्वारा अपनी कविताओं में हिन्दू पौराणिक देवी-देवताओं को रूपक के बतौर इस्तेमाल करने को; फासीवादी परियोजना में इस्तेमाल करने की कोशिश की जा रही है। ऐसे में काजी नजरूल के ‘विद्रोही’ शोषितों-वंचितों के पक्ष में खड़े एक ‘साम्यवादी’ और धार्मिक पाखंड के खिलाफ खड़े धर्मनिरपेक्ष योद्धा के किरदार को समाज में मजबूती से स्थापित करने की जरूरत है।                                                                                                                                                                                                            वर्ष- 11 अंक- 3 व 4 (अप्रैल-सितंबर, 2020)

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