लॉकडाउन और ऑनलाईन शिक्षा : एक साथ दो-दो हमले
लॉकडाउन में ऑनलाइन शिक्षा का काफी शोर सुनायी दे रहा है। मानव संसाधन विकास मंत्री श्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने दावा किया कि जब तक बच्चे लॉकडाउन के कारण स्कूल नहीं पहुंच रहे हैं तब तक ऑनलाइन कक्षा के जरिये उनके स्कूल घर तक पहुंचाए गए हैं। लॉकडाउन के लागू होने के बाद शीघ्र ही सीबीएसई ने 25 मार्च को ही बच्चों की पढ़ाई की चिंता जताते हुए किसी भी कीमत पर बच्चों की पढ़ाई प्रभावित न होने देने की चिंता जाहिर की। और इस चिंता को जताने के लिए देश के स्कूलों के लिए गाइडलाइन जारी करते हुए उन्हें फरमान सुनाया कि बच्चों की पढ़ाई बाधित न हो इसलिए सारे स्कूल ऑनलाइन पढ़ाई शुरू करें। ऐसा न करने पर उन्हें धमकी देते हुए कहा गया कि उनकी मान्यता रद्द की जा सकती है। सीबीएसई के अलावा कई राज्यां के शिक्षा बोर्डों ने भी ऐसा ही कुछ किया। इसके अतिरिक्त शिक्षण संस्थानों ने, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने और निजी शिक्षण संस्थानों के संचालकों ने इस नये प्रयोग का गर्मजोशी के साथ स्वागत किया। इस गर्मजोशी के उत्साह में इन संस्थानों ने व इनके संचालकों ने एक के बाद एक आदेश जारी किये मानो वे कोई नयी और बेहद ही महत्वपूर्ण चीज को पेश कर रहे हों। ऑनलाइन शिक्षा के पक्ष में तर्कों की बाढ़ सी आ गयी। और कोरोना महामारी के इस संकटकाल में ऑनलाइन शिक्षा को एक रामबाण के रूप में पेश करने से ये संस्थान जरा भी नहीं चूके। ऑनलाइन शिक्षा के पक्ष में इनके ये तर्क ऐसे मालूम पड़ रहे थे जैसे भारतीय शिक्षा में कोई आमूलचूल बदलाव हो रहा हो। इन सभी के द्वारा शुरू में ऐसा आभास कराया गया कि ये सब भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में कोई क्रांति करने पर आमादा हैं। कि मोटे बस्तों और स्कूलों की कक्षाओं की पढ़ाई के दिन अब लद चुके हैं। कि अब एक नये युग का सूत्रपात हो चुका है। कुल जमा शासक वर्ग मौजूदा समस्याओं के समाधान को इस रूप में पेश करता है।
लेकिन इनका यह उत्साह, गर्मजोशी और सारे दावे शीघ्र ही काफूर हो गये। दरअसल जमीनी स्तर की सच्चाई ने इनको बार-बार मुंह चिढ़ाया। जमीन पर आम छात्रों व अभिभावकों का जीवन एक दूसरी ही तस्वीर पेश करता है। जो ऑनलाइन शिक्षा का विकल्प अपनाया गया उसने छात्रों-अभिभावकों को न सिर्फ हैरान-परेशान किया बल्कि कई तरह का उत्पीड़न भी किया। जिस ऑनलाइन शिक्षा को पेश किया गया उसके लिए छात्रों या अभिभावकों के पास मोबाईल, कम्प्यूटर, लैपटाप, टैबलेट, इंटरनेट आदि होना जरूरी था। तभी वे शासक वर्ग द्वारा पेश की गयी इस ऑनलाइन शिक्षा को हासिल कर सकते थे। लेकिन हमारे देश की हालत क्या है? इसे ऐसे समझा जा सकता है- 2017-18 के नेशनल सैंपल सर्वे की शिक्षा पर एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में सिर्फ 24 प्रतिशत परिवारों के पास ही इंटरनेट की सुविधा है। गांवों में यह आंकड़ा 15 प्रतिशत तो शहरों में 42 प्रतिशत है। जिन घरों में 5 वर्ष से लेकर 24 वर्ष तक की उम्र के लोग हैं, उनमें से केवल 8 प्रतिशत परिवारों के पास कंप्यूटर और इंटरनेट की सुविधा है। सबसे गरीब 20 प्रतिशत परिवारों में से केवल 2.7 प्रतिशत परिवारों के पास कंप्यूटर और 8.9 प्रतिशत परिवारों के पास इंटरनेट उपलब्ध है। शीर्ष के 20 प्रतिशत परिवारों में 27.6 प्रतिशत परिवारों के पास कंप्यूटर व 50.5 प्रतिशत परिवारों के पास इंटरनेट है। इन आकड़ों से यह साफ जाहिर हो जाता है कि गरीब और बेहद गरीब को तो छोड़ ही दीजिए मध्यम वर्ग के भी बड़े हिस्से के पास ऑनलाइन शिक्षा हासिल कर पाने के लिए जरूरी संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। जिनके पास यह संसाधन हैं उनके लिए भी इस ऑनलाइन शिक्षा को हासिल कर पाना भारत जैसे देश में एक टेढ़ी खीर ही साबित हुआ है। यह सभी जानते हैं कि इंटरनेट होने के बावजूद नेटवर्क की समस्या सर्वव्यापी है। नीति आयोग की 2018 की रिपोर्ट कहती है कि भारत के 55000 गांवों में मोबाईल नेटवर्क कवरेज नहीं है। जिस देश में इतनी बड़ी संख्या में गांवों में मोबाईल नेटवर्क न हो वहां ऑनलाईन शिक्षा एक मजाक से अलावा कुछ और नहीं है।
ऑनलाइन शिक्षा के लिए जरूरी संसाधन न होने के कारण छात्र व अभिभावक काफी दबाव में रहे। यह दबाव अपनी परिणति में कई छात्रों को आत्महत्या की ओर ले गया। केरल में जहां सरकार ने ऑनलाइन शिक्षा के लिए अन्य राज्यों की तुलना में पहले से तैयारी की थी, वहां दसवीं की 14 वर्षीय दलित छात्रा देविका ने आत्महत्या कर ली। देविका के पिता एक दिहाड़ी मजदूर थे और घर का टीवी खराब था। जिस कारण देविका टीवी पर प्रसारित होने वाली ऑनलाइन कक्षा नहीं ले पायी। देविका पढ़ने में काफी तेज थी। इसी तरह की एक घटना पंजाब में भी घटी। जहां कक्षा 11 की छात्रा रमनदीप कौर ने भी आत्महत्या कर ली। आखिर इनकी मौत का जिम्मेदार कौन है? जाहिर है कि नीति बनाने वाले शासक वर्ग के लोग जब नीतियां बनाते हैं तो वे ये नहीं सोचते कि इसका परिणाम क्या निकलेगा। न ही वे यह सोचते हैं कि उनकी नीति से आखिर किसको और किस स्तर का नुकसान होगा। वे बस कुछ कर रहे हैं, कुछ ‘अच्छा’ कर रहे हैं, ऐसा दिखाने का प्रयास करते हैं। असल बात तो यह है कि उनकी नीति में समाज का निचला तबका होता ही नहीं। वे गरीब नहीं होते जिनके पास ऑनलाइन शिक्षा हासिल करने लिए जरूरी साधन नहीं हैं। नीति बनाते समय शासक वर्ग की नजर सिर्फ अमीर वर्ग पर होती है जिससे वह खुद संबंधित है। वह मानकर चलता है मोबाईल, इंटरनेट, कंप्यूटर आदि तो सभी अमीरों के पास होना सामान्य बात है। इसलिए यह समाज में सभी के पास होगा, भी सामान्य बात है। देविका और रमनदीप कौर जैसे लोग और उनके अभिभावक उनकी नजर में कहीं हैं ही नहीं। देख और सुन न सकने वाले छात्र भी उनकी नजर में कहीं नहीं हैं, जिनके लिए मौजूदा ऑनलाइन शिक्षा एक पहेली ही है। गरीब पर एक ओर तो कोराना और बिना पूर्व तैयारी के लॉकडाउन की मार और ऊपर से ऑनलाइन शिक्षा का यह उत्पीड़न शासक वर्ग के हमले के अलावा कुछ और नहीं है।
जिन लोगों तक भी यह ऑनलाइन शिक्षा पहुंची उनका भी हाल अच्छा नहीं है। स्कूली छात्रों की ऑनलाइन पढ़ाई कराने में उनके अभिभावकों के पसीने छूट गये। क्योंकि छोटे बच्चों के लिए अपने आप ऑनलाइन शिक्षा लेना संभव नहीं है। निजी स्कूलों ने गृहकार्य देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। और सारा बोझ अभिभावकों और विशेषकर माताओं पर डाल दिया। व्यवहार में पाया गया कि ये ऑनलाइन कक्षाएं बच्चों की कम और उनके अभिभावकों की अधिक हैं।
ऐसा नहीं है कि ऑनलाइन शिक्षा से सिर्फ स्कूली छात्र व अभिभावक ही परेशान हुए बल्कि विश्वविद्यालयी छात्र भी इससे कम परेशान नहीं हुए। विश्वविद्यालय के छात्रों में भी सबके पास ऑनलाइन शिक्षा के साधन नहीं हैं। जिनके पास साधन हैं भी वह नेटवर्क की समस्या तथा डाटा न खरीद पाने की क्षमता के कारण तनाव में रहे।
कुल मिलाकर परिणाम यह हुआ कि ऑनलाइन शिक्षा ने भी छात्रों के बीच विभाजन को जारी रखा। ऑनलाइन शिक्षा लेने के लिए आवश्यक संसाधनों की उपलब्धता वाले छात्रों के लिए इस शिक्षा को लेना अपेक्षाकृत आसान रहा लेकिन गरीब और मेहनतकश परिवार के छात्रों के ऊपर यह एक अन्य आपदा की तरह बरसा। ऑनलाइन शिक्षा उन पर मानसिक तनाव बढ़ाने वाली एक अन्य कार्यवाही साबित हुयी। यूं तो हमारी शिक्षा व्यवस्था पहले से ही बोछिल और ऊबाऊ है; उस पर घंटों मोबाईल, कंप्यूटर के आगे बैठकर सिर्फ एकतरफा संवाद सुनना इस बोझिलता व ऊबाऊपन को और बढ़ा देता है। और विशेष तौर पर जब यह ऑनलाइन शिक्षा उन शिक्षकों द्वारा दी जा रही हो जो इसमें प्रशिक्षित नहीं हैं, जिनका ऑनलाइन शिक्षा का कोई अनुभव नहीं है। एक तरह से यह इन शिक्षकों के भी उत्पीड़न का जरिया बन गयी। निजी स्कूलों की तो बात ही क्या की जाये। पहले से लूट के अड्डे बन चुके ये संस्थान महामारी के इस दौर में भी अभिभावकों की जेब पर हाथ साफ करने से जरा भी नहीं चूके। सरकार की इस घोषणा के बाद कि सिर्फ वही स्कूल जो ऑनलाइन शिक्षा दे रहे हैं वे सिर्फ ट्यूशन फीस ले सकते हैं, के बाद भी स्कूल अभिभावकों पर पूरी फीस जमा करने का दबाव बनाते रहे। जो स्कूल ऑनलाइन शिक्षा दे रहे थे उसका स्तर भी बेहद निम्न या खानापूर्ति करने का ही रहा।
ऑनलाइन शिक्षा का सवाल सिर्फ इंटरनेट, मोबाईल, लैपटाप या कंप्यूटर की उपलब्धता से ही नहीं जुड़ा है। अगर इसको इस तक ही सीमित कर दिया जायेगा तो यह हमें गलत दिशा में ले जायेगा। हम शासकों की चाल को नहीं समझ पायेंगे। ऐसा संभव है कि शासक वर्ग ऑनलाइन शिक्षा के जरूरी संसाधनों को उपलब्ध करा दे। जैसा कि वित्त मंत्री ने कहा है कि कक्षा 12 तक बच्चों के लिए 12 शैक्षिक चैनलों को शुरू किया जायेगा। ऐसे ही कोई और किस्म की व्यवस्था कर वे ऑनलाइन शिक्षा के लिए आवश्यक संसाधनों की व्यवस्था कर सकते हैं। तब क्या ऑनलाइन शिक्षा का हमें समर्थन करना चाहिए?
जिस देश में ऑनलाईन शिक्षा के ऐसे हालात हों और वहां सरकार इसको बढ़ाने की बात कर रही हो तो यह चिंता की बात है। खासतौर पर जब सरकार बार-बार ऑनलाइन शिक्षा को बढ़ाने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करती रही है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी आनलाइन शिक्षा या दूरस्थ शिक्षा को बढ़ावा देने की बात कही गयी है। ओपन और डिस्टैंस लर्निंग(ओडीएल) तथा मासिव ओपन ऑनलाइन कोर्स (डव्व्ब्)के जरिये इसको साधा जायेगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कहा गया है कि ‘‘...विद्यार्थियों के लिए बहुत से शैक्षिक सॉफ्वेयर विकसित किए जायेंगे और उन्हें उपलब्ध करवाये जायेंगे। ऐसे सभी सॉफ्टवेयर सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में उपलब्ध होंगे और सुदूर क्षेत्रों में रहने वाले छात्रों तथा दिव्यांग विद्यार्थियों समेत सभी प्रकार के उपयोगकर्ताओं के लिए उपलब्ध होंगे। सभी राज्यों तथा एनसीईआरटी, सीआईईटी, सीबीएसई, एनआईओएस एवं अन्य निकायों/संस्थानों द्वारा विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में विकसित शिक्षण एवं अधिगम संबंधी ई-कंटेंट दीक्षा प्लेटफामॅर् पर अपलोड किया जाएगा।.........प्रौद्योगिकी आधारित शिक्षा प्लेटफॉर्म जैसे दीक्षा/स्वयम संपूर्ण स्कूली और उच्चतर शिक्षा में समन्वित किये जायेंगे,.... ’’
आगे कहा गया है कि ‘‘...स्कूल और उच्चतर शिक्षा दोनां की ई-शिक्षा आवश्यकताओं पर ध्यान देने के लिए मंत्रालय में डिजीटल बुनियादी ढांचे, डिजीटल सामग्री और क्षमता निर्माण की व्यवस्था करने के उद्देश्य के लिए एक समर्पित इकाई की स्थापना की जाएगी।.........’’
तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति उच्च शिक्षा में बदलाव करने की और औपचारिक शिक्षा के स्थान पर ऑनलाइन शिक्षा को बढ़ावा देने की अनुशंसा करती है। और ऐसा करने वाले संस्थानों को सम्मान से देखे जाने की बात कहकर प्रोत्साहित किया गया है।
मौजूदा दौर में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे आवश्यक मदों में कटौती नये शिखर पर है। शासक वर्ग द्वारा इन महत्वपूर्ण और मेहनतकशों से सीधे संबंधित मदों पर कटौती का बुरा प्रभाव साफ देखा जा सकता है। सरकारें इस आपदा को अवसर में बदलने की बात कर चुकी हैं। और अब शिक्षा से लगातार हाथ खींचती सरकारें शिक्षा के क्षेत्र में भी इस आपदा को अवसर में बदल रही हैं। वह लाकडाउन की स्थिति को अर्थात ऑनलाइन शिक्षा को सामान्य स्थिति में लाने की कोशिशों में लगे हैं। सामान्य दिनों में ऑनलाइन शिक्षा को बढ़ावा देने से सरकार शिक्षा पर खर्च कम करना चाहती है। ऑनलाइन शिक्षा या मूक या ओडीएल के जरिये सरकारों को स्कूल-कालेजों का ढांचा खड़ा नहीं करना पड़ेगा और न ही विभिन्न विषयों के अध्यापकों को नौकरी पर रखना पड़ेगा। बस कुछ कोर्सों, कुछ वीडियों, कुछ पाठ्यक्रमों को प्रसारित कर वह अनेकों को ‘शिक्षा’ देने का काम करेंगे।
यूनेस्को की वैश्विक शिक्षा निगरानी रिपोर्ट 2020 के अनुसार विश्व में अल्प और मध्यम आय वाले कम से कम 40 प्रतिशत देश कोविड-19 से उपजे संकट के कारण लागू लॉकडाउन में स्कूल बंद रहने के दौरान छात्रों को पढ़ने का उचित माध्यम उपलब्ध कराने में नाकाम रहे। यह भी कहा गया कि विश्व भर में 10 प्रतिशत से भी कम देशों में ऐसे कानून हैं जो शिक्षा में पूर्ण समावेश सुनिश्चित करते हैं।
लेकिन ऑनलाइन शिक्षा देने में ढेरों सीमाएं हैं। स्कूली शिक्षा में बच्चे स्कूलों में जाकर पढ़ाई के अतिरिक्त वे सब चीजें भी सीखते हैं जो एक मानव के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। स्कूल-कालेज ही वे जगहें हैं जहां छात्र सामाजीकरण की महत्वपूर्ण प्रक्रिया से गुजरते हैं। यह सामाजिकरण घर पर बैठे ऑनलाइन कक्षाआें या वीडियो देखकर संभव ही नहीं है। स्कूलों-कालेजों में अलग-अलग जाति, लिंग, धर्म, समुदाय, पहचान, संस्कृति आदि से आये हुए छात्र-छात्राओं की आपस में अन्योन्यक्रिया होती है। ऐसा घर में बैठकर टेक स्क्रीन के सामने संभव ही नहीं है।
कालेजों में यह सामाजिक प्रक्रिया अपने ऊंचे स्तर पर होती है। जब एक छात्र अपने परिवार, समुदाय, धर्म, इलाका, क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य समुदाय, धर्म, क्षेत्र आदि के लोगों से आपसी क्रिया करता है। तब उसके निजी विश्वास, मूल्यों, संस्कृतियों, विचारों आदि पर दूसरे विश्वास, मूल्यों, संस्कृतियों, विचारों का प्रभाव पड़ता है और वह संकीर्ण दायरे से बाहर निकलता है। कई बार तो ऐसा भी होता है कि कालेज से पूर्व के विश्वासों, मूल्य-मान्यताओं जिनको वह अभी तक जीता आया था, वह पाता है कि वे प्रतिगामी हैं। तब वह प्रगतिशील, सामाजिक व श्रेष्ठ मूल्यों को अपनाने की ओर भी बढ़ता है।
यूं तो हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था पूंजीवादी हितों को साधने वाली एक वर्गीय शिक्षा व्यवस्था है। यह छात्रों को अनुशासित मजदूर बनाने या और सही कहें तो एक कलपुर्जा बनाने का साधन है। इसमें शिक्षण का तरीका आमतौर पर एकाकी संवाद पर आधारित है। खासकर गरीब पृष्ठभूमि के छात्रों को जो शिक्षा उपलब्ध है, वह तो और भी एकाकी है। यहां संवाद एकतरफा(शिक्षक की ओर से) होता है। दूसरी ओर से संवाद(छात्र की ओर से) अपवाद स्वरूप ही होता है। दूसरी ओर से संवाद की कोई व्यवस्था व अवसर हमारी शिक्षा व्यवस्था में नहीं है। लेकिन ऑनलाइन शिक्षा इस एकतरफा संवाद को और भी ऊंचे शिखर पर पहुंचा देती है। यहां स्क्रीन रूपी निर्जीव संवाद है जो कुछ समय बाद बेहद ऊबाऊ हो जाता है। इस कारण जो थोड़ा बहुत स्कूल में सीखा भी जाता था उसकी भी संभावना कम हो जाती है।
ऑनलाइन शिक्षा छात्रों की अलग-अलग समस्याओं पर चर्चा करने, एकजुट होकर संघर्ष करने, उसका समाधान निकालने की संभावना को खत्म कर देती है। कालेज के स्तर पर जिस काम को छात्र एकजुट होकर, छात्र विरोधी राजनीति के प्रति सचेत होकर कर रहे होते हैं उसकी संभावना भी खत्म हो जाती है। देश-दुनिया की राजनीति के प्रति सचेत होने के अवसर ऑनलाइन शिक्षा और कम कर देती है। यह छात्र संघर्षों की जमीन को कमजोर करने का काम करती है।
लेकिन इन सीमाओं के बाद भी अगर शासक वर्ग ऑनलाइन शिक्षा की वकालत करता है, इसको सामान्य स्थितियों में भी बढ़ावा देने की बात करता है या फिर राष्ट्रीय शिक्षा नीति ऐसे माध्यमों को बढ़ाने की सिफारिशें करती है तो इसका सीधा सा आशय यह है कि शासक वर्ग के लिए छात्र-छात्राएं कोई जीवित इंसान नहीं हैं। वे जनता को एक पुर्जें के रूप में देखते हैं। मानव शासकों के लिए एक संसाधन हैं जो उनके लिए सिर्फ उनकी दौलत बढ़ाने का एक जरिया हैं। ऐसी शिक्षा से वे तकनीकी मानव का निर्माण करना चाहते हैं। जो बिल्कुल मशीन की तरह काम करें। कोई सवाल न करें, जो कुछ उनके द्वारा कहा जाय उसे सिर झुकाकर और बगैर किसी अवरोध के पूरा करें।
ऑनलाइन शिक्षा का विरोध संसाधनों के अभाव, पर्याप्त तैयारी के बिना तथा प्रशिक्षित शिक्षकों के अभाव में इसे दिये जाने के कारण तो होना ही चाहिए। ऑनलाइन शिक्षा का विरोध इसलिए भी होना चाहिए कि इसके जरिये सरकार औपचारिक स्कूली-विश्वविद्यालयी शिक्षा की अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है। वह औपचारिक शिक्षा के स्थान पर अनौपचारिक शिक्षा की ओर बढ़ाना चाहती है। और हमेशा की तरह इसे ऑनलाइन, ई लर्निंग जैसे सुंदर शब्दों से जनता को भ्रमित करने की कोशिश कर रही है। ऑनलाइन शिक्षा का विरोध इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि यह छात्रों को एक तकनीकी पुर्जा बना देना चाहती है। यह तकनीकी पुर्जे पूंजीवादी व्यवस्था और पूंजीपति वर्ग के लिए पहले से अधिक मुफीद होंगे।
वर्ष- 11 अंक- 3 व 4 (अप्रैल-सितंबर, 2020)
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