बुधवार, 2 सितंबर 2020

कोरोना काल और भटकते बेरोजगार



   राजीव बीएससी तृतीय वर्ष का छात्र है। वह अपनी पढ़ाई के साथ छठी से 12वीं तक के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर अपना खर्चा निकालता है। उसके मां-बाप गांव में रहते हैं जो छोटे से जमीन के टुकड़े पर खेती करते हैं। लाकडाउन लगने के साथ राजीव का रोजगार जो छूटा वो अब तक शुरू नहीं हुआ है क्योंकि सरकार ने कोचिंग पढ़ाने की अनुमति नहीं दी है। राजीव बेरोजगार हो चुका है। 

 सविता एक घरेलू नौकरानी है जो दिल्ली की एक पाश कालोनी में 3-4 घरों में झाडू़-पोछा करती थी। कोरोना शुरू होते ही उसे काम से निकाल दिया गया। अब तक उसे काम नहीं मिला है। आजकल वह दूसरे काम की तलाश में है। 

 समीर फैक्टरी में ठेके का मजदूर था। लाकडाउन के दौरान मार्च-अप्रैल फैक्टरी बन्द रही। मई में फैक्टरी खुलने पर जब वह काम पर गया तो मार्च-अप्रैल का वेतन देने के बजाय मालिक ने दुत्कारते हुए उसे काम से निकाल दिया। आजकल वो दूसरी फैक्टरियों में काम ढूंढ रहा है, पर कहीं काम नहीं मिल रहा है। 

राजीव, समीर, सविता तीनों अपने भाग्य को कोसते हुए हैरान-परेशान हैं। तीनों को लगता है कि उनकी किस्मत ही खराब है वरना उनके गुजर-बसर वाले काम को कोरोना की नजर नहीं लगती। तीनों को लगता है कि उनकी या उनके जैसे तमाम लोग जो आज बेरोजगार हो चुके हैं, उनकी बदहाली का जिम्मेदार एक अदना सा वाइरस है। चूंकि इस वाइरस पर किसी का नियंत्रण नहीं है इसलिए अपने भाग्य को कोसने और वायरस का प्रभाव खत्म होने का इंतजार करने के अलावा उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा है। सरकार से उन्हें कोई असंतोष नहीं है। उल्टा वे महीने में 5 किलो चावल मिलने पर सरकार का आभार जताते हैं। 

राजीव, समीर, सविता की तरह कोरोना काल में नौकरी गंवाने वालों की तादाद हमारे देश में करोड़ों में है। इनमें से अधिकतर राजीव, समीर, सविता की तरह ही सोचते हैं और अपनी बदहाली के लिए नियति या भाग्य को कोसते मिल जाते हैं। इन करोड़ों लोगों का ऐसा सोचने की वजह भी है कि वे जो खबर अखबारों, टीवी चैनलों या अपने आस पड़ोस में सुनते हैं उसमें यही सब होता है कि कोरोना से लड़ने के लिए तो सरकार बहुत कुछ कर रही है। पर लाइलाज बिमारी पर सरकार का भी कहां बस चलता है। या फिर यह कि सरकार भी कहां तक करे। 

राजीव, समीर, सविता या उनके जैसे लोगों को लगता है कि इस महामारी से पूरा देश परेशान है। वे नहीं जानते कि इसी महामारी के बीच देश का सबसे अमीर आदमी मुकेश अंबानी और अमीर बन गया है। अगर वे यह सब जानते तो यह सोचकर परेशान हो जाते कि क्यों कोरोना काल में वे बेकार हो दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं और क्यों इसी काल में मुकेश अंबानी और अमीर हो जा रहा है। 

हमारे इन बेरोजगार मित्रों को लगता है कि कोरोना वायरस ने उनकी नौकरी छीन ली है पर अगर उन्हें यह पता चलेगा कि कोरोना आने से पहले भी बेरोजगारी हमारे देश में बीते 45 वर्षों में सर्वोच्च स्तर पर थी। यानी उनके जैसे ढेरों लोग कोरोना आने से पहले भी बेकार थे या उन्हें समझ में नहीं आयेगा कि इन पहले से बेकार लोगों की बेकारी के लिए कौन जिम्मेदार है?

2019 में यह खबर चुनाव से पहले ही आने लगी थी कि देश में बेरोजगारी 45 वर्षों में सर्वोच्च स्तर पर पहुंच चुकी है। पर तब मोदी सरकार ने आम चुनाव के मद्देनजर खबर दबा दी थी और चुनाव के बाद ही उसे प्रकाश में आने दिया था। उस समय राष्ट्रीय सैंपल सर्वे की खबर यह थी कि 2017-18 में भारत में बेरोजगारी दर 6.1 प्रतिशत पहुंच गयी थी जो 45 वर्षों में सर्वोच्च थी। यानी 45 वर्षों में बेरोजगारों की संख्या 2017-18 में सबसे अधिक थी। 

अब अगर इसकी तुलना लॉकडाउन के अप्रैल-मई माह से करें तो सीएसएमई(सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकानामी) के अनुसार इन दोनों माह में बेरोजगारी दर क्रमशः 23.52 प्रतिशत, 23.48 प्रतिशत रही। सीएसएमई के ही अनुसार कोरोना काल में 12.2 करोड़ भारतीय बेरोजगार हुए। इसमें 9.13 करोड़ छोटे व्यापारी व कामगार थे। 1.78 करोड़ वेतनभोगी मजदूर व 1.82 करोड़ स्वरोजगार वाले लोग थे। हालांकि जुलाई आते-आते सीएसएमई बेरोजगारी दर में सुधार की बात करती है पर अभी यह कोरोना पूर्व स्तर से काफी दूर है। 

दरअसल बेरोजगारों की सरकारी गणना के तरीके को समझ कर ही इस बेरोजगारी दर की असलियत समझी जा सकती है। सरकार देश की कुल आबादी को दो हिस्सों में बांटती है- काम करने योग्य आबादी(15 से 64 वर्ष के बीच की आबादी) व शेष आबादी। इस काम करने योग्य आबादी का एक हिस्सा माना जाता है कि काम करने का इच्छुक नहीं है। उसे हटा देने पर 15-64 वर्ष उम्र वर्ग की जो आबादी बचती है उसे कुल श्रम शक्ति व कुल आबादी में इसके प्रतिशत को श्रमशक्ति भागीदारी दर(लेबर फोर्स पार्टीशिपेशन रेट) कहा जाता है। 

2004-5 में यह श्रमशक्ति भागीदारी दर 63.7 प्रतिशत थी यानी 2004-5 में देश के कुल 100 लोगों में 63.7 लोग काम करने के इच्छुक थे। यह दर 2017-18 में गिरकर 49.8 प्रतिशत रह गयी। इस गिरावट को कोई कारण सर्वे पेश नहीं करता। पर आगे हम देखेंगे कि दरअसल काम को इच्छुक आबादी में गिरावट नहीं हुई बल्कि बेरोजगारी दर गिराकर दिखाने के लिए यह आंकड़ा नीचे गिराया गया। 

बेरोजगारी दर की गणना हेतु कुल बेरोजगार आबादी की गणना की जाती है। इसे काम करने को इच्छुक कुल आबादी में से कुल कार्यरत आबादी को घटा कर निकाला जाता है। अब अगर काम करने को इच्छुक आबादी का आंकड़ा गिरा दिया जाय तो बेरोजगार आबादी और इसलिए बेरोजगारी दर दोनों नीचे आ जायेंगी। 

इस हिसाब से 2017-18 में अगर भारत की कुल आबादी 120 करोड़ मान लें तो सरकार के हिसाब से इसमें लगभग आधे (49.8 प्रतिशत) ही काम करने को इच्छुक लोग थे। यानी लगभग 60 करोड़ लोग ही काम करने को इच्छुक थे। अब अगर बेरोजगारी दर 6.1 प्रतिशत है तो इसका अर्थ है कि महज 3.6 करोड़ लोग बेरोजगार हैं। पर अगर यह माना जाय कि श्रमशक्ति भागीदारी दर 2004-5 के अनुरूप 63.7 प्रतिशत है तो दरअसल काम के इच्छुक लोग(120 करोड़ का 63.7 प्रतिशत) 76.4 करोड़ हो जायेंगे। और इस आधार पर बेरोजगारों की संख्या लगभग 20 करोड़{76.4-(60-3.63)=20} हो जायेगी और अब बेरोजगारी दर 26.1 प्रतिशत (20»76.4ग100) हो जायेगी। अपने अनुभव से हम जानते हैं कि 20-21 करोड़ की संख्या ही बेरोजगारों की कोरोनाकाल से पूर्व वास्तविक संख्या रही होगी। 

इसी बात को हम दूसरे तरीके से समझ सकते हैं कि लॉकडाउन के दौरान अप्रैल-मई में हम अपने इर्द-गिर्द केवल एक हद तक किसानों व आवश्यक सेवाओं वालों को छोड़कर सारे लोगां का काम ठप पाते हैं पर सरकार के हिसाब से बेरोजगारी महज 23.5 प्रतिशत थी। अगर सरकारी नौकरी वालों, किसानों व संगठित क्षेत्र के लोगों की नौकरी न जाने की बात मान भी ली जाये तो अप्रैल-मई माह में करीब 4 प्रतिशत लोग बेरोजगार थे। अब सरकारी दर इसीलिए नीची दिखती है क्योंकि सरकार कुल काम की इच्छुक आबादी को कम मानकर चलती है।

निश्चय ही जून-अगस्त में कुछ सुधार हुआ है फिर भी कहा जा सकता है कि वास्तविक बेरोजगारी दर आज भी 25-30 प्रतिशत होगी। यानी हर काम करने को इच्छुक चौथा शख्स बेरोजगार है। युवाओं में तो हर तीसरा और कहीं-कहीं तो दूसरा व्यक्ति बेकार है। कहा जा सकता है कि बेरोजगारी की दर आजादी के बाद सबसे अधिक है।

हम फिर उस प्रश्न की ओर लौटते हैं कि आखिर इस भारी बेरोजगारी का कौन जिम्मेदार है? हम देख आये हैं कि कोरोना काल से पूर्व ही लगभग 20 करोड़ लोग बेरोजगार थे। कोरोना काल में यह संख्या लगभग दोगुनी हो गयी और अब कुछ सुधार के साथ 25 करोड़ के आस-पास लोग बेरोजगार हैं। जाहिर है कोरोना को इस सब का दोषी नहीं ठहराया जा सकता। क्यों? क्योंकि अगर सरकारी कर्मचारियों, संगठित मजदूरों के एक हिस्से का रोजगार कोरोना काल में सुरक्षित रह सकता है तो बाकि असंगठित व ठेके के क्षेत्र के लोगों को भी अगर रोजगार सुरक्षा हासिल होती तो उन्हें काम से नहीं निकाला जाता और उनका रोजगार बचा रहता। अतः कोरोना काल में रोजगार कटौती का कारण कोरोना वायरस नहीं, नौकरियों का असुरक्षित-अस्थायी चरित्र था तभी मालिक ऐसे लोगों को काम से निकाल सके। अगर उन्हें स्थायी रोजगार की तरह सुरक्षा हासिल होती व सरकार काम से न निकालने व लॉकडाउन का वेतन देने के दिखावटी फरमान का पालन कराती तो करोड़ां मजदूरों की नौकरी खोने से बच जाती। इसी तरह सरकार छोटे कारोबारी, स्वरोजगार, रिक्शा, ठेला, खोमचे, रेड़ी वालों की वैसे आर्थिक मदद करती जैसे उसने पूंजीपतियों की की तो वे भी बेकारों की श्रेणी में शामिल नहीं होते। 

जाहिर है कि हमारे लेख के शुरू के तीनों पात्र राजीव, सविता, समीर की यह सोच गलत है कि उनके जीवन की बदहाली-बेकारी का कारण कोरोना वायरस है।वास्तविकता यह है कि उनकी नौकरी-काम इसलिए छूटा कि उनका रोजगार सुरक्षित रोजगार नहीं था। और सरकार ने न तो उन्हें मुआवजा दिया और न ही सविता और समीर के मालिकों को नौकरी से न निकालने को मजबूर किया। अगर सरकार राजीव, सविता, समीर की बदहाली के बारे में सोचने वाली होती तो उनका काम छूटने से बचाया जा सकता था। पर हमारी सरकार तो पूंजीपतियों के बारे में सोचती है। उनके मुनाफे की चिंता करती है। इसीलिए वो सविता-समीर जैसे लोगों को काम से निकालने की मालिकों को छूट देती है। 

इस दृष्टि से देखने पर साफ नजर आता है कि कोरोना काल में रोजगार छिनने की दोषी मोदी सरकार है। आपदा में अवसर ढूंढने को उतारू प्रधानमंत्री मोदी तमाम पूंजीपतियों को श्रम कानूनों के पालन न करने की छूटें देकर उन्हें मजदूरों-मेहनतकशों को और कंगाली में धकेलने का अधिकार दे रहे हैं। सरकार थाली पीटने-दिये जलाने के जरिये मेहनतकश जनता को बेवकूफ-कूपमंडूक बना उनका गला रेतने की साजिश रचती है। 

अगर कोरोना काल से पूर्व मौजूद भारी बेरोजगारी की बात करें तो वास्तविकता यही है कि पूंजीवादी व्यवस्था में बेरोजगार लोगों की एक फौज पूंजीपतियों के लिए न केवल फायदे की चीज है बल्कि अपरिहार्य चीज भी है। बेरोजगारों की फौज जहां आम समय में मजदूरी की दर नीची रखने में मदद करती है वहीं यह किसी तेजी के वक्त अतिरिक्त मजदूरों की मांग हेतु भी जरूरी होती है। इसीलिए पूंजीवाद में बेरोजगारी को एक स्तर पर हमेशा बनाकर रखा जाता है। हां, आज जो भीषण बेरोजगारी हम देख रहे हैं उसमें बीते 3-4 दशकों की उदारीकरण-वैश्वीकरण-निजीकरण की नीतियों का भी हाथ है, जिसने हर तरीके से सुरक्षित रोजगार को खत्म करने, ठेके के काम को बढ़ावा देने, काम के घण्टे बढ़ाने आदि भांति-भांति के तरीकों से कुल रोजगार को कम करने का काम किया है। 

इसी के साथ बीते 3-4 दशकों का पूंजीवादी विकास कुछ ऐसा रहा है कि उच्च तकनीक आदि के बल पर बेहद कम लोगों को काम पर रखा जा रहा है। इसे रोजगारविहीन विकास कहा जाता रहा है। यानी जब अर्थव्यवस्था 7-8 प्रतिशत की दर से विकास कर भी रही थी तब भी कुल रोजगार वृद्धि नगण्य थी। 2007-8 से छाये आर्थिक संकट ने विकास दर को भी प्रभावित किया है। 2019-20 या कोरोना काल में तो भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी की ओर बढ़ चुकी है। ऐसे में रोजगारों में और गिरावट स्वाभाविक है। 

बेरोजगारी की समस्या में मामूली सुधार के लिए भी जरूरी है कि बीते 3-4 दशकों की नीतियों को पलटा जाय बेरोजगारी को जड़ से तो पूंजीवादी व्यवस्था को समाप्त कर ही खत्म किया जा किया जा सकता है। राजीव, सविता, समीर और उनके जैसे करोड़ों बेरोजगार इस हकीकत को जितना जल्दी समझेंगे उतना जल्दी नियति, भाग्य को कोसना बंद कर देंगे और सरकार-व्यवस्था की 5 किलो चावल की खैरात के लिए तारीफ करना बंद कर उसके खिलाफ संघर्ष करने को उतर पड़ेंगे। करोड़ों बेरोजगारों के आक्रोश को कोई 56 इंच का सीना, कितनी ही मजबूत सरकार और शक्तिशाली पूंजीपति झेल नहीं सकते हैं।

                                              वर्ष- 11 अंक- 3 व 4 (अप्रैल-सितंबर, 2020)

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