शनिवार, 25 जनवरी 2020

इण्डोनेशिया का छात्र आंदोलन

15 अगस्त 2119 के बाद से ही इण्डोनेशिया छात्रों-नौजवानों के जुझारू प्रदर्शनों-संघर्षों का केन्द्र बना हुआ है। एक के बाद एक दो छात्र संघर्षों ने अन्याय न सहने की छात्रों की विरासत को और मजबूत किया है। आज इण्डोनेशिया के छात्र न केवल न्याय व अधिकरों की खातिर सड़कों पर संघर्षरत हैं बल्कि पुलिस व सैन्यबलों के भारी दमन का मुकाबला करते हुए मौत की भी परवाह नहीं कर रहे हैं। 


संघर्ष का पहला केन्द्र इण्डोनेशिया का अपेक्षाकृत पिछड़ा क्षेत्र पश्चिमी पापुआ बना। इण्डोनेशिया अपने आप में कई द्वीपों का समूह है। पापुआ भी एक द्वीप है। जहां बाकि इण्डोनेशिया में मुस्लिम आबादी अच्छी मात्रा है वहीं पश्चिमी पापुआ में अश्वेत स्थानीय लोगों के साथ इसाई लोगों का वर्चस्व है। 60 के दशक में पश्चिमी साम्राज्यवादियों खासकर अमेरिका के हस्तक्षेप से पश्चिमी पापुआ पर इण्डोनेशिया का शासन कायम हुआ था। यहां के संसाधनों-पहाड़ों का पश्चिमी साम्राज्यवादी-इण्डोनेशियाई पूंजीपति वर्ग निर्मम दोहन करते हैं।

60 के दशक में इण्डोनेशिया में मिलाये जाने को पश्चिमी पापुआ के लोगों ने कभी स्वीकार नहीं किया। वे तब से इण्डोनेशिया से अपनी मुक्ति के लिए लगातार संघर्षरत रहे हैं। 28 लाख की आबादी वाले पश्चिमी पापुआ में कुछेक हथियारबंद समूह भी आजादी की जंग छेड़े हुए हैं।

पश्चिमी पापुआ के अश्वेत लोगों को इण्डोनेशियाई लोगों द्वारा नस्लीय भेदभाव का भी शिकार होना पड़ता है। यहां के छात्रों-नौजवानों को शिक्षा के नाम पर इण्डोनेशिया के इतिहास-संस्कृति-जानवरों-वनस्पतियों को जानने को मजबूर होना पड़ता है। पापुआ का इतिहास-संस्कृति उन्हें नहीं पढ़ाया जाता।

अगस्त माह में पापुआ के छात्रों का संघर्ष 16-17 अगस्त को पूर्वी जावा के सुराबाया में पापुआ के छात्रों पर बोले गये नस्लीय हमले से शुरू हुआ। सुराबाया में पापुआ के छात्र एक डोरमैट्री में रह रहे थे। 16 अगस्त को उनकी डोरमैट्री के बाहर मुस्लिम कट्टरपंथी लोगों की एक भीड़ इकट्ठा हुई और उसने पापुआ के लोगों पर अपमानजनक टिप्पणी के साथ हमला शुरू कर दिया। इस भीड़ ने आरोप लगाया कि इण्डोनेशिया के स्वतंत्रता दिवस (17 अगस्त) के मौके पर पापुआ के छात्रों ने इण्डोनेशियाई झण्डे को जो डोरमैट्री की छत पर लगा था, क्षतिग्रस्त कर दिया है। भीड़ ने नस्लीय अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा ‘तुम बन्दर यहां से भाग जाओ, सभी पापुआ वालों को सुराबाया से लात मार कर निकाल दो।’ भीड़ के हिंसक हो जाने की आशंका में पापुआ के छात्रों ने किसी तरह डोरमैट्री के दरवाजे बन्द कर खुद की जान बचायी। 17 अगस्त की दिन में 12 बजे पुलिस ने डोरमैट्री पर हमला किया और 42 पापुआ के छात्रों को गिरफ्तार कर लिया। पुलिस ने बेरहमी से छात्रों की पिटाई की और उनके मोबाइल छीन लिये। पुलिस छात्रों को 4 गाड़ियों में भरकर थाने ले गयी जहां काफी पूछ-ताछ व उत्पीड़न के बाद रात साढ़े 11 बजे छात्रों को रिहा किया गया।

सुराबाया की इस घटना ने पश्चिमी पापुआ प्रान्त में सबको आक्रोशित कर दिया। ऐसा नहीं है कि नस्लीय भेदभाव की यह कोई पहली घटना थी। इससे पहले भी ऐसी तमाम घटनायें घटती रहीं थीं। अकेले पूर्वी जावा में बीते 9 माह में करीब 180 से अधिक पापुआ के नागरिक-छात्र मारे जा चुके हैं। कई पादरी भी इस दौरान नस्लीय हिंसा के चलते मारे जा चुके हैं। पर 17 अगस्त की घटना ने पश्चिमी पापुआ के सब्र का बांध तोड़ दिया। सालों से संचित उनका गुस्सा सड़कों पर फूट पड़ा। पहलकदमी पापुआ के छात्रों ने ली पर आबादी के बाकी हिस्से भी उनका साथ कंधे से कंधा मिलाकर दे रहे थे।

19 अगस्त से पश्चिमी पापुआ के मानोकवारी, सोरे आदि कस्बों में छात्रों के हजारों की तादाद में प्रदर्शन शुरू हो गये। मानोकवारी में छात्रों ने स्थानीय लेजिस्लेटिव काउंसिल की इमारत में आग लगा दी। जगह-जगह सड़क को प्रदर्शनकारियों ने जाम कर दिया। पूरा कस्बा इन प्रदर्शनों से थम सा गया। जगह-जगह प्रदर्शनकारी दंगा पुलिस से दो-दो हाथ करने लग गये। इसी तरह सोरंग शहर में प्रदर्शनकारियों ने हवाई अड्डे व जेल पर हमला बोल दिया और जेल से करीब 250 कैदी भागने में सफल हो गये।

21 अगस्त को तिमका में छात्रों व जनता का बड़ा प्रदर्शन हुआ यह कस्बा फ्री पोर्ट बहुराष्ट्रीय खनन कम्पनी के प्लांट के करीब है। पापुआ के लोग इस कम्पनी का लम्बे वक्त से विरोध करते रहे हैं।

25 अगस्त को इण्डोनेशियाई सरकार ने दमन का शिकंजा बढ़ाते हुए पश्चिमी पापुआ में सैन्य बलों की संख्या बढ़ा दी। सैन्य बलों ने कई पहाड़ी इलाकों में छापेमारी की। कई गांवों से लोगों को गांव छोड़ कर भागना पड़ा।

29 अगस्त के प्रदर्शनों में पुलिस की गोली से 7 प्रदर्शनकारी मारे गये। हालांकि सरकार ने इन हत्याओं से इनकार किया। इसके बाद इण्डोनेशियाई राष्ट्रपति विडोडो ने जहां एक ओर पश्चिमी पापुआ में इण्टरनेट सेवायें बन्द कर दी वहीं दूसरी ओर भारी सैन्य बल और तैनात कर दिये। विदेशी लोगों के पापुआ जाने पर रोक लगा दी। 2 सितम्बर को सरकार ने हर तरह के प्रदर्शनों पर रोक लगाने की घोषणा कर दी। सरकार का रवैय्या पूरी तरह स्पष्ट था वह किसी भी कीमत पर इन प्रदर्शनों को दमन के जरिये बन्द करवाना चाहती थी।

राष्ट्रपति विडोडो ने पश्चिमी पापुआ के अलगाववादी विद्रोही गुटों पर छात्रों व अन्य प्रदर्शनकारियों को भड़काने का आरोप लगाया।

पर दमन से भला कब किसी संघर्ष को थामा जा सका है। पश्चिमी पापुआ में भी यही हुआ। 8 हफ्ते बीत जाने के बाद भी प्रदर्शन लगातार जारी हैं। हां! सरकार के दबावों के चलते अब इनकी उग्रता कुछ मद्धिम पड़ी है पर फिर भी पश्चिमी पापुआ के लोगों का संघर्ष चल रहा है।

पश्चिमी पापुआ में जब छात्र सड़कों पर न्याय के लिये लड़ रहे थे तो बाकि इण्डोनेशिया में जगह-जगह छात्रों ने उनके समर्थन में प्रदर्शन किये। एक अनुमान के मुताबिक अब तक इस संघर्ष में 35 छात्र-नागरिक मारे जा चुके हैं व हजारों घायल व गिरफ्तार किये जा चुके हैं। फिलहाल समूचे पश्चिमी पापुआ को छावनी बना कर ही सरकार कुछ शांति कायम कर पायी है।

छात्रों के संघर्ष का नेतृत्व पापुआ स्टूडेंट्स एलायंस सेंट्रल कमेटी कर रही थी। इसने एक वक्तव्य जारी करके आत्मनिर्णय के अधिकार को हासिल करना अपना लक्ष्य बताया। साथ ही इसने बताया कि कैसे सरकार पापुआ में विभिन्न धर्मों-नस्लों के बीच तनाव पैदा करना चाह रही है ताकि आत्मनिर्णय का संघर्ष कमजोर पड़ जाये। उसने लोगों का आह्वान किया कि पश्चिमी पापुआ में रहने वाले हर धर्म-नस्ल के व्यक्ति को संघर्ष में साथ में लाया जाय और अमेरिकी साम्राज्यवाद व इण्डोनेशियाई पूंजीपति वर्ग से अपना हक छीन लिया जाय।

जहां एक ओर पापुआ के छात्रों के संघर्ष की आंच अभी ठण्डी भी नहीं पड़ी थी कि 23 सितम्बर से समूचे इण्डोनेशिया में छात्रों का दूसरा संघर्ष फूट पड़ा। भागीदारी के मामले में यह दूसरा संघर्ष बीते 20 वर्षों में इण्डोनेशिया का सबसे बड़ा संघर्ष बन गया।

इण्डोनेशिया के राष्ट्रपति विडोडो दोबारा राष्ट्रपति चुनाव जीतने की हड़बड़ी में एक के बाद एक ऐसे कदम उठा रहे हैं जिसमें उन्हें मुंह की खानी पड़ रही है। इसी कड़ी में उन्होंने जहां 2002 के भ्रष्टाचार विरोधी एजेंसी सम्बन्धित कानून में बदलाव को आगे बढ़ाया वहीं इस्लामिक आधार पर नये क्रिमिनल कोड बिल को लागू करने का प्रयास शुरू कर दिया। इन दोनों कदमों से वे देश के अमीरजादों व मुस्लिम कट्टरपंथी समूहों को खुश करके उनके समर्थन से अगला चुनाव जीतने की फिराक में थे। पर इन दोनों मुद्दों पर छात्रों के व्यापक संघर्ष से राष्ट्रपति के इरादे धरे के धरे रह गये।

तानाशाह सुकर्णो के सत्ता से जाने के बाद 2002 में भ्रष्टाचार विरोधी एजेंसी इण्डोनेशिया में कायम की गयी थी। इस एजेंसी को काफी स्वायत्तता हासिल थी। बीते 2 दशकों में इस एजेंसी ने कई नामी धनाढ्यों व नेताओं के भ्रष्टाचार का भांडा फोड़ कर काफी लोकप्रियता हासिल कर ली थी। अब सरकार इससे संदर्भित कानून में बदलाव कर इसकी स्वायत्तता समाप्त कर इसे एक सामान्य सरकारी एजेंसी में बदलना चाह रही थी। जाहिर है नेताओं-धनाढ्यों का भारी समर्थन इस बदलाव को मिला हुआ था। इसलिए संसद में कोई दल इस बदलाव का विरोधी नहीं था। जाहिर है भ्रष्टाचार के मामले में हर कोई अपने को बचाना चाहता था।

क्रिमिनल कोड बिल में जो बदलाव सरकार द्वारा प्रस्तावित किये गये थे वे कहीं अधिक मारक थे। इस्लामीकरण से प्रेरित इन बदलावों के तहत इण्डोनेशिया में शादी से पूर्व सेक्स, लिव इन, गे को अपराध घोषित कर दिया जाना था। इसके साथ अबार्शन को भी अपराध बना दिया गया था। साथ ही राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, धर्म, राज्य की संस्थाओं- प्रतीकों जैसे राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गान का अपमान अपराध घोषित हो जाना था। क्रिमिनल कोड में ये बदलाव स्पष्टतया महिलाओं-अल्पसंख्यकों के खिलाफ केन्द्रित थे पर इनका खामियाजा समूची इण्डोनेशियाई जनता को उठाना पड़ता।

ऐसे ही मजदूरों के औद्योगिक बिल में मजदूर विरोधी प्रावधान किये जा रहे थे तो भूमि अधिग्रहण में पूंजीपतियों को छूटें दी जा रही थीं। 

इन सभी जनविरोधी बदलावों के खिलाफ इण्डोनेशिया के सभी बड़े शहरों के छात्र सड़कों पर उतर पड़े। उनके संघर्ष का जगह-जगह मजदूरों-किसानों ने भी समर्थन किया। साथ ही छात्र पर्यावरण से लेकर पश्चिमी पापुआ के सैन्यीकरण के खात्मे की भी मांग कर रहे हैं। पर्यावरण के मसले पर छात्र जंगलों की आग रोकने व इसके लिए दोषी कारपोरेशनों को दण्ड देने की मांग कर रहे थे।

23 सितम्बर से शुरू हुए इन प्रदर्शनों में जकार्ता, बादुंग, मकासार सोलो सिटी सरीखे शहरों-कस्बों में बड़े-बड़े प्रदर्शन हुए। जगह-जगह छात्रों की पुलिस से झड़प हुई। छात्रों ने पुलिस बलों पर पत्थर बरसाये तो जवाब में उन्हें आसूं गैस व पानी की बौछारें झेलनी पड़ी। सोलो सिटी जो राष्ट्रपति का गृह क्षेत्र है वहां छात्रों ने पुलिस चौकी व कई सरकारी इमारतों में आग लगा दी। इन प्रदर्शनों में इण्डोनेशिया के 300 विश्वविद्यालयों के छात्रों ने हिस्सा लिया।

23 सितम्बर से शुरू हुए ये प्रदर्शन 30 सितम्बर को अपने चरम पर पहुंच गये जब राजधानी जाकार्ता में छात्रों ने संसद के एक सदन हाउस आफ रिप्रजन्टेटिव को घेर लिया। पुलिस से यहां छात्रों की व्यापक झड़प हुई।

अन्ततः राष्ट्रपति के मौजूदा कानूनों को तत्काल पास न कराने, व शादी पूर्व सेक्स, गे आदि को अपराध से बाहर करने के जुबानी आश्वासनों से छात्रों का संघर्ष कुछ शान्त हुआ है। पर यदि सरकार फिर इन कानूनों को पारित करने को आगे बढे़गी तो उसे और अधिक छात्र आक्रोश झेलना पड़ेगा।

पश्चिमी साम्राज्यवादी मीडिया व इण्डोनेशिया का पूंजीपति वर्ग छात्रों के इस संघर्ष को शादी पूर्व सेक्स को अपराध बनाने का विरोध दिखा इसके आयाम को सीमित करने की कोशिश में लगा रहा। निश्चय ही छात्र इस बदलाव के भी खिलाफ थे पर यह न तो संघर्ष का इकलौता मुद्दा था और न ही सर्वप्रमुख मुद्दा था।

इस संघर्ष में हजारों की तादाद में छात्र सड़कों पर उतरे। ये छात्र किसी राजनैतिक दल से सम्बद्ध नहीं थे। उन्होंने न केवल पुलिस से लोहा लिया बल्कि कई जगह मुस्लिम कट्टरपंथी समूहों से भी उनका टकराव हुआ। इस संघर्ष में भी 3 छात्र मारे गये व कई घायल हुए।

इस संघर्ष में छात्रों की सबसे शानदार बात यह थी कि उन्होंने न केवल मजदूरों-किसानों की मांगों को भी अपना मुद्दा बनाया बल्कि पश्चिमी पापुआ की संघर्षरत जनता के मुद्दे को भी उठाया। छात्रों ने मांग की कि पश्चिमी पापुआ का सैन्यीकरण समाप्त हो व संघर्ष के गिरफ्तार लोगों को रिहा किया जाय।

आज जब दुनिया भर में कट्टरपंथी फासीवादी ताकतों का प्रभाव बढ़ रहा है। तब ऐसे में इण्डोनेशियाई छात्रों का कट्टरपंथी कानूनी बदलावों के खिलाफ यह संघर्ष अंधेरे में उजाले की किरण दिखलाता है। दुनिया के छात्र-नौजवान हर प्रगतिशील-क्रांतिकारी बदलाव की अगली पंक्ति में बने रहेंगे और शासकों के दमन-उत्पीड़न का बहादुरी से मुकाबला करेंगे। भारत के छात्रों को भी इण्डोनेशियाई छात्रों की राह पर आगे बढ़ने की जरूरत है।                                             (वर्ष-11 अंक-1 अक्टूबर-दिसम्बर, 2019)

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