शनिवार, 25 जनवरी 2020

हमारा कहना है
यह अजब-गजब दुनिया हम सबके खिलाफ हैं

हमारे जमाने की कुछ अजब सच्चाईयां हैं। जैसे गोदामों में अनाज सड़ रहा है पर करोड़ों लोगों को भरपेट खाना भी नहीं मिलता। दवा फैक्टरी लगातार दवाईयां बनाती है पर कई लोग बिना दवा के मर जाते हैं। देश को लाखों की संख्या में डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक आदि चाहिए और लाखों बनना भी चाहते हैं फिर भी देश में डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षकों आदि की सख्त कमी है। मजदूर-किसान सब कुछ करने के बाद भी गरीब-मोहताज बने रहते हैं।

ऐसी अजब-गजब सच्चाईयों की लम्बी सूची बनायी जा सकती है। शायद मानव जीवन का कोई क्षेत्र हो जहां ऐसा ही उल्टा-सीधा न घट रहा हो। विज्ञान का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है।

विज्ञान सच्चाई को जानने, समझने का जरिया है। विज्ञान की बातों को साबित करने के लिए तर्क, प्रयोग, निरन्तर परीक्षण करने होते हैं। और ऐसे सही निष्कर्ष निकालने होते हैं जो कहीं भी उन्हीं परिस्थितियों में लागू हो सकें। यानी जैसे न्यूटन का गुरूत्वाकर्षण का सिद्धांत।

जाहिर है विज्ञान की दुनिया में ठोस वस्तुगत सच्चाई का राज होना चाहिए न कि अधकचरी गप्पों का। और वैज्ञानिकों से मांग होगी कि वे न केवल अपने कार्यक्षेत्र में बल्कि अपने सामान्य व्यक्तिगत जीवन में भी वैज्ञानिक नजरिया रखते हों। यानी एक वैज्ञानिक, मानवजाति के, अग्रदूत के रूप में सामने आना चाहिए। उसे समाज का पथ प्रदर्शक होना चाहिए। क्योंकि वह सत्य का अन्वेषक है इसलिए सत्य के अनुरूप उसका व्यवहार भी स्वभावतः क्रांतिकारी होना चाहिए। सत्य, अपनी प्रकृति में ही क्रांतिकारी है। इसलिए एक वैज्ञानिक को सत्य की प्रकृति के अनुरूप व्यवहार करना चाहिए।

लेकिन आज क्या हो रहा है? सत्य के अन्वेषक झूठ, पाखण्ड, प्रपंच के पुजारी हैं। वे अपने कार्यक्षेत्र में, प्रयोगशाला में, व्याख्यानों व खोज पत्रों में करते-कहते कुछ हैं और अपने व्यक्तिगत जीवन में करते-कहते कुछ हैं। अपने ही जीवन और भविष्य के प्रति उनका नजरिया घोर अवैज्ञानिक होता है। वैसे तो अमेरिका से लेकर जापान हर ओर ऐसे वैज्ञानिक मिल जायेंगे पर हमारे देश में तो ऐसे वैज्ञानिकों का खजाना है। ‘चन्द्रयान’ की सफलता के लिए भगवान के दरबार में गुहार लगाने वाला वैज्ञानिक खास भारतीय परिस्थितियों में ही पैदा हो सकता है।

ऐसा वैज्ञानिक नमूना भारत में इसलिए पैदा होता है क्योंकि देश का रक्षामंत्री फ्रांस में जाकर जब राफेल खरीदता है तो उसकी ‘शस्त्र पूजा’ करता है। और उसके पास नींबू रखता है ताकि उसे किसी की नजर न लग जाये। ‘जैसा गुरु वैसा चेला, दोनों चले ठेलमठेला’। जब रक्षा मंत्री-प्रधानमंत्री ऐसे होंगे तो वैज्ञानिक भी ऐसे ही होगें।

भारत के पोगापंथी, ब्राह्मणवादी मध्ययुगीन मानसिकता के शासकों के संरक्षण में पलने वाले वैज्ञानिक कैसे होंगे? ऐसे ही होंगे! और ये दोनों ऐसे क्यों होंगे। क्योंकि इनकी सब चीजें उधार की हैं। नकल की हैं। विकसित साम्राज्यवादी देशों की जूठन है। जिसे खा-खाकर, ये अपने पड़ोसी देशों पर रोब गालिब करते हैं। कोई इन ‘राष्ट्रवाद-राष्ट्रवाद’ की रट लगाने वालों से यह पूछने वाला नहीं है कि ‘क्यों श्रीमान जी! आप अपने देश में राफेल क्यों नहीं बना सकते हो। और तुम्हारे लिये तो यह बिल्कुल भी मुश्किल नहीं होना चाहिए था क्योंकि तुम्हारे यहां अतीत में सब कुछ था। ‘पुष्पक विमान’, ‘स्टेम सेल की तकनीक’ (जिससे गान्धरी के सौ पुत्र हुए), ‘प्लास्टिक सर्जरी की अद्भुत क्षमता’ (जिससे मानव शरीर पर हाथी का सिर लगा दिया गया) आदि।

यानी हम ऐसे देश में रह रहे हैं जिसके अतीत में सब कुछ था पर वर्तमान में कुछ भी हासिल करने के लिए देश के प्रधानमंत्री को स.रा.अमेरिका, फ्रांस, रूस, जापान के दरवाजे पर गुहार लगानी पड़ती है। हमें पूंजी दे दो! हमें तकनीक दे दो! हमें ये हथियार दे दो! हमें वो हथियार दे दो! दे दो! भगवान के नाम पर दे दो! अजब-गजब राष्ट्रवाद है जो भीखमंगई से बलवान होता है।

ऐसे ही हमारे देश के वैज्ञानिक, प्रोफेसर, इंजीनियर हैं जिनका हाल यह है कि उनका सारा ज्ञान-विज्ञान उस वक्त लुप्त हो जाता है जब कोई समस्या आ खड़ी होती है। चाहे वह व्यक्तिगत जीवन में हो या कामकाजी जीवन में। हे! प्रभु, हे! प्रभु की रट लगाने लगता है। इतना पाखण्ड, प्रपंच, खुद से खुद के काम के बारे में इतना अविश्वासी तो कोई सामान्य जन भी नहीं होता। जिसे ज्ञान-विज्ञान जानने का सामान्य अवसर भी नहीं मिलता है। भारत में ही ऐसे अजब-गजब वैज्ञानिक पैदा हो सकते हैं जो चांद तक सीधे यान भेजें और उससे पहले चांद को धारण करने वाले एक पौराणितक देव की पूजा करेंगे।

असल में, जैसे हमारा पूरा समाज भारत के शासको-पूंजीपतियों के हाथों का गुलाम है वैसे ही ज्ञान-विज्ञान का क्षेत्र भी उनका गुलाम है। विज्ञान उनके ही हितों की सेवा करता है और इसलिए वह इतना कुंठित और विकृत है। इसलिए ही ऐसे वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियार तैयार हो रहे हैं जो अपने व्यक्तिगत जीवन में एकदम पोंगापंथी हैं। और हद यह है कि विज्ञान के क्षेत्र में होने वाले नये-नये प्रयोग या नयी-नयी बातें सालों साल इसलिए दबा दी जाती हैं क्योंकि उनसे पूंजीपतियों को लाभ नहीं, हानि है। इसलिए नयी तकनीक प्रयोग में नहीं लायी जाती है कि वे पूंजीपतियों के मुनाफों पर चोट कर सकती है। विज्ञान के पैरों में पूंजीपतियों ने बेड़ियां डालकर उसे पालतू बनाने की लगातार कोशिशें की हैं हम सबको एकदम प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्चतर स्तर तक की शिक्षा ऐसे दी जाती है कि हम विज्ञान की बातों को महज रट लेते हैं। हमारे सोचने या जीवन का नजरिया नहीं बनती हैं।

इस अजब-गजब दुनिया को बदले बगैर किसी का भी भला नहीं होने वाला है। न हम छात्र-युवाओं का, न मजदूरों- किसानों का और न वैज्ञानिकों और न विज्ञान का। पूंजीपति वर्ग ऐसे वर्ग में पूरी तरह से तब्दील हो चुका है जो फालतू है। मानव जाति पर बोझ है इस परजीवी, फालतू, मानवजाति पर बोझ बन गये वर्ग को पुराने जमाने के सामन्ती वर्ग की तरह इतिहास के कूडे़दान में होना चाहिए। पर इस वक्त यह सत्ता के सिंहासन पर विराजमान है।

पर सच तो यही है कि वक्त की मांग है इसे कूडे़दान में ही होना चाहिए। चलिये इस काम के लिए मेहनत और ऊर्जा लगायी जाये।
                                             (वर्ष-11 अंक-1 अक्टूबर-दिसम्बर, 2019)

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