राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-एक संक्षिप्त परिचय
(गतांक से जारी)
परचम के पिछले अंक में हमने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उत्पत्ति, उसकी विचारधारा एवं आजादी तक की उसकी विकास यात्रा पर बात की थी। इस अंक में आजादी के बाद खासकर जनसंघ के निर्माण के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विकास यात्रा के प्रमुख पड़ावों एवं वर्तमान में उसकी स्थिति पर बात करेंगे। इसके साथ ही हम भारतीय समाज में हुए आर्थिक सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तनों के मद्देनजर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में आये बदलावों यानी उसकी कार्यप्रणाली में आये बदलावों को भी चिन्हित करेंगे।
आजादी के बाद 60 व 70 के दशक तक संघ की समाज में कोई खास जड़ें नहीं जमीं थी। इसका आधार मुख्यतः महाराष्ट्र व उत्तर भारत के सवर्ण तबकों खासकर वैश्यों व ब्राह्मणों के बीच ही सीमित था। इसका कारण आजादी के आंदोलन में संघ की तटस्थ व नकारात्मक भूमिका व महात्मा गांधी की हत्या में संलिप्त होने का आरोप था। यह अवधारणा भी नहीं था जैसा कि हम पिछले अंक में बताते आये हैं कि गांधी जी की हत्या से पूर्व संघ के कुछ पदाधिकारियों द्वारा अपने कार्यकर्ताओं से ‘शुभ समाचार’ आने और गांधी हत्या के बाद मिठाई बांटने जैसी बातों का खुलासा हो चुका था।
बीते वर्षों में संघ ने अपने को विभिन्न प्रयोगों से गुजारकर अपना सफल रूपांतरण भी किया है। इस प्रक्रिया में हिन्दू धर्म के निम्न तबकों खासकर पिछड़ों व दलितों के बीच अपना आधार बनाया है। राजनीति से दूरी के नाटक को छोड़कर प्रत्यक्ष तौर पर भारतीय पूंजीवादी राजनीति में सक्रिय हस्तक्षेप से लेकर प्रभावशाली असर डालने की स्थिति तक पहुंचा है। शाखाओं की रूटीनी कार्यवाही से आगे बढ़कर संघ में भारी संख्या में अनुषंगी संगठनों का जाल बिछाकर भारतीय समाज के हर हिस्से में अपनी पैठ बनायी है। उसने उत्तर भारतीय पहचान से निकलकर संपूर्ण भारत खासकर इसाई बहुल उत्तरपूर्व तक में अपनी पैठ बनायी है। कांग्रेस को पूंजीवादी राजनीति की वर्चस्वकारी स्थिति से बेदखल कर संघ भारतीय संसदीय राजनीति में भी वर्चस्वकारी स्थिति तक पहुंचा है। अपनी पुरातनपंथी पहचान से निजात पाकर आधुनिकता के कुछ चयनित पहलुओं को अंगीकार कर भारतीय दक्षिणपंथ को समयानुकूल व चलन के मुताबिक संघ ने खुद को ढाला है। खास और गौर करने का पहलू यह है कि इन सब रूपांतरणों के बावजूद संघ की कोई विचारधारा ‘हिंदुत्व’ में कोई बदलाव नहीं आया और उसकी सांगठनिक एकता भी कायम रही। आइए इस विकास यात्रा की संक्षिप्त चर्चा करें।
सबसे पहले संघ की भारतीय संसदीय राजनीति में हस्तक्षेप व वर्चस्वकारी स्थिति हासिल करने की चर्चा करेंगे।
संघ के संस्थापक व संघ की भाषा में प्रथम सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार के कार्यकाल के दौरान संघ ने खुद को एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में ही प्रस्तुत किया और घोषित किया कि संघ का उद्देश्य शाखाओं के माध्यम से लोगों को (हिंदुओं को) सांस्कारित करना है। संघ ने इस दौरान व बाद में दूसरे सरसंघचालक गोलवलकर के कार्यकाल में 1950 के पूर्वार्द्ध तक अपनी ‘अराजनीतिक’ व सांस्कृतिक छवि जानबूझकर निर्मित की, क्योंकि आजादी से पहले ‘राजनीतिक’ संगठन होने का मतलब अंग्रेजों के कोप को आमंत्रित करना था। लेकिन आजादी के बाद गांधी जी की हत्या के आरोप में संघ पर थोड़े समय के लिए प्रतिबंध लगा तो संघ को राजनीति में दखल की आवश्यकता महसूस हुई। इसी के साथ संघ ने संसदीय राजनीति में अपना प्रयोग शुरू किया जो पूर्व हिन्दू महासभा के नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में 1951 में जनसंघ की स्थापना के साथ शुरू हुआ। 1952 के संसदीय चुनावों में जनसंघ को 3 सीटें मिली। उसका वोट प्रतिशत 3.06 था। इस चुनाव में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी 16 सीटें जीतकर सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभरी थी। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी व रामराज्य परिषद को इस चुनाव में क्रमशः 12 व 3 सीटें मिली थी। हिन्दू महासभा को 4 सीटें मिली थी। इस तरह संसदीय राजनीति में राष्ट्रीय स्वयं संघ हिन्दुओं का अकेला पैरोकार नहीं था। भारतीय जन संघ भी एक तरह से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नियंत्रण में नहीं था। इस पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी का व्यक्तिगत प्रभाव बहुत ज्यादा था।
1953 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के निधन के बाद दीनदयाल उपाध्याय जनसंघ के नेता बने। जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की पृष्ठ भूमि से थे। उनके साथ बलराज मधोक, अटलबिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण अडवाणी व सुंदर सिंह भंडारी जैसे प्रचारकों की टीम के साथ राष्ट्रीय स्यवं सेवक संघ ने जनसंघ को पूरी तरह अपने नियंत्रण में ले लिया। इसके बावजूद संघ अभी अपने को सांस्कृतिक संगठन कहता रहा।
1957, 1962, 1967 व 1971 के चुनावों में जनसंघ को क्रमशः 4,14,35 व 22 सीटें मिलीं और उसका मत प्रतिशत 5.93, 6.44, 9.41 व 7.35 प्रतिशत ही रहा। यानी जनसंघ 1970 तक 10 प्रतिशत से कम वोट पा रहा था। 1970 का दशक संघ परिवार के लिए भारतीय समाज और संसदीय राजनीति में व्यापक पैठ बनाने का रहा है। राजनीतिक पैठ बनाने के लिए इसने आपातकाल के अवसर का इस्तेमाल किया। वहीं सामाजिक पैठ बनाने के लिए 1973 में गोलवरकर के बाद सरसंघचालक बने बाला साहब देवरस ने ‘सामाजिक समरसता’ के बहाने पिछड़ों व दलितों के बीच अपने आधार का विस्तार किया। 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा आपात काल लगाए जाने से पहले देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एवं लोकप्रिय मांगों के आधार पर भी छात्र आंदोलन उठ खड़ा हुआ और बाद में जयप्रकाश(जे0पी0) के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार के खिलाफ एक व्यापक जन आंदोलन बना। उसमें संघ के निर्देश पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने सक्रिय हिस्सेदारी की। जे0पी0 आंदोलन के दौरान जो ‘छात्र संयोजन समिति’ बनी थी उसके सचिव अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के अरूण जेटली थे। लेकिन इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में आपात काल लगाए जाने के बाद जैसे ही बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां शुरू हुई। संघ बिल्कुल समपर्णकारी भूमिका में आ गया। संघ प्रमुख बाला साहब देवरस ने इंदिरा गांधी के लिए कई बार माफीनामे लिखे व सरकार के प्रति वफादारी की सौगंध खायी। 1971 के भारत पाक युद्ध में संघ के सहयोग से संघ के प्रति नरम रूख रखने वाली इंदिरा गांधी ने संघ के स्वयं सेवकों को माफीनामे (अंडरटेकिंग भरने) के बाद रिहा कर दिया। इन माफीनामों (अंडरटेकिंग) में सरकार के साथ सहयोग करने व शांति व्यवस्था बनाये रखने (अर्थात आंदोलन न करने) का वायदा किया गया था।
आपातकाल के बाद जनसंघ ने खुद को नवनिर्मित जनता पार्टी में विलय कर दिया। संघ के दो वरिष्ठ प्रचारक अटल बिहारी वाजपेयी व लाल कृष्ण आडवाणी जनता पार्टी सरकार में क्रमशः विदेश मंत्री व संचार मंत्री रहे। इससे संघ के विस्तार व प्रभाव को बल मिला और संघ भारतीय संसदीय राजनीति व सरकार में प्रभावी व हस्तक्षेपकारी भूमिका में आ गया। कांग्रेस के राष्ट्रीय राजनीति में एकछत्र टूटने के साथ खाली जमीन को हथियाने में संघ ने एक हद तक सफलता पायी।
70 के दशक में दक्षिण भारत में भी संघ ने अपना प्रभाव बढ़ाया। 60 के दशक में दक्षिण में हिन्दी के खिलाफ ‘भाषायी आंदोलन’ के चलते ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ के नारे वाले संघ को दक्षिण में कोई खास तवज्जो नहीं मिली लेकिन इस नारे को ठंडे बस्ते में डालने के बाद ही 70 के दशक में उसे दक्षिण में प्रवेश मिला।
80 का दशक संघ के लिए भारतीय राजनीति में पैठ बनाने के हिसाब से अपने इतिहास का सबसे अच्छा दशक था। संघ के सदस्यों की दुहरी सदस्यता के सवाल पर जनता पार्टी में 1979 में फूट हो गयी और शीघ्र ही इस सरकार का और जनता पार्टी का पतन हो गया। अब संघ यह महसूस करने लगा था कि उसे संसदीय राजनीति में किसी सहारे की जरूरत नहीं है बल्कि उसे अपनी स्वतंत्र दावेदारी प्रस्तुत करनी चाहिए। इसी उद्देश्य के मद्देनजर 1980 को अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में संघ के अनुषंगी संगठन के रूव में भारतीय जनता पार्टी का जन्म हुआ।
भारतीय जनता पार्टी ने ‘एकात्म मानववाद’ को अपनी विचारधारा घोषित किया। साथ ही अपने कार्यक्रम में राम जन्मभूमि, समान नागरिक संहिता, धारा 370 का विरोध तथा छोटे लघु उद्यमों पर आधारित ‘ग्राम स्वराज’ की बात की। गजब की बात है कि भाजपा के संविधान में समाजवाद की बात भी थी। यह समाजवादियों के पराभव (जनता पार्टी के बिखराव के बाद) से खाली राजनीतिक जमीन को हासिल करने की कवायद तो था ही इसने बड़ी पूंजी का विरोध भी शामिल था जो संघ के निम्न पूंजीवादी तबकों की मनोवृत्ति का परिचायक था। 80 के दशक के उत्तरार्ध में शाहबानो प्रकरण में एक मुस्लिम महिला को गुजारा भत्ता देने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को राजीव गांधी ने मुस्लिम कट्टरपंथियों के दबाव में पलट दिया। संघ द्वारा ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ के रूप में इसे प्रचारित किया गया। दबाव में आकर राजीव गांधी ने अपनी मुस्लिम परस्त छवि बनने के भय से 1949 से बंद अयोध्या में विवादित राम जन्म भूमि के ताले हिन्दुओं के पूजा हेतू खोल दिये। हिन्दू तुष्टिकरण की इस नीति से संघ को बहुत फायदा हुआ और ‘राम मन्दिर’ आंदोलन के माध्यम से उसने 90 के दशक के उत्तरार्ध में भारतीय समाज में व्यापक धु्रवीकरण पैदा करने में सफलता पायी और उसका अनुषंगी भारतीय जनता पार्टी भारतीय संसदीय राजनीति के केन्द्र में आ गया। राजीव गांधी सरकार के कार्य काल में बोफोर्स तोप घोटाले और उसके खिलाफ वी0पी0सिंह के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में संघ ने फिर सक्रिय भूमिका निभाई और भारतीय जनता पार्टी 1989 के चुनाव में 62 लोकसभा सीटें हासिल करने में सफल रही। 1989 में वी0पी0सिंह के नेतृत्व में जनता दल की सरकार को भाजपा ने बाहर से समर्थन दिया।
1990 का दशक भारतीय संसदीय राजनीति में पिछड़ा व दलित उभार का दशक भी था। संघ ने इस हकीकत को पहचानते हुए दलित व पिछड़े समुदाय के नेताओं को अपने अनुषंगी संगठनों में तवज्जो देना शुरू कर दिया। कल्याण सिंह (लोध) उमा भारती (लोध), विनय कटियार (कुर्मी), बंगारू लक्ष्मण (दलित, नरेन्द्र मोदी व सुशील मोदी (दोनों पिछड़े) इसी समय में संसदीय राजनीति में स्थापित किए गए।
1990 में जब वी.पी. सिंह ने पिछड़ों के बीच आधार पुख्ता करने के लिए मंडल कमीशन की रिर्पोट लागू की तो संघ परिवार ने इसे पिछड़ों के बीच अपने आधार के लिए खतरा मानते हुए मंडल की काट में कमंडल की नीति पर चलते हुए राम मंदिर आंदोलन शुरू किया जो बाबरी मस्जिद ध्वंस के साथ चरम पर पहुंचा। इसके साथ जहां भारतीय समाज में सांप्रदायिक धु्रवीकरण बढ़ने से भाजपा का आधार बढ़ा वहीं पिछड़ी व दलित जातियों पर आधारित क्षेत्रीय पार्टियां अस्तित्व में आ गयीं और कांग्रेस का आधार सिकुड़ गया।
सत्ता तक पहुंचने के लिए भाजपा ने जहां इसके बाद गठबंधन राजनीति को अपनाया। अटल बिहारी वाजपेयी तीन बार सत्तासीन रहे। पहले 13 दिन, फिर करीब डेढ़ साल और अंत में पांच साल (1999-2004) का कार्यकाल उन्होने पूरा किया। लेकिन 2004 व 2009 का चुनाव भाजपा हार गयी। इस चुनावी हार के बाद उग्र हिंदुत्व और सोसल इंजीनियरिंग द्वारा पिछडे़ व दलितों में पैठ व इसके साथ संघ द्वारा एकाधिकारी पूंजीपतियों के साथ गठजोड़ के साथ भाजपा केन्द्र में 2014 में सत्तासीन हुई और अंधराष्ट्रवाद, पुलवामा, बालाकोट एयर स्ट्राइक, गौरक्षा व सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बलबुले 2019 में पूर्ण बहुमत की सरकार नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने बनायी और इस तरह आज वह भारतीय पूंजीवादी राजनीति के केन्द्र से कांग्रेस को बेदखल कर सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बन गयी। इसी के साथ हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के अपने लक्ष्य के साथ हिंदुत्व को अपनी सफलता का मूलमंत्र मानते हुए भाजपा ने धारा 370 राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर, नागरिकता संशोधन कानून पास कर तेजी से अपने मिशन की ओर बढ़ना शुरू कर दिया। इस बीच राम मंदिर बाबरी मस्जिद के विवाद के उसके पक्ष में हल होने (या करने) से उसका हिंदुत्व के एजेण्डा को पुरजोर तरीके से लागू करने की कोशिश कर रहा है। बाद में अपने दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के बाद उनका हौसला सातवें आसमान पर है। संघ भारत को अभी औपचारिक तौर पर हिन्दू राश्ट्र बनाने को संभव नहीं मान रहा हो लेकिन भारत को हिंदू प्रभुत्व वाला समाज तथा मुस्लिमों को हिंदुओं की दया पर निर्भर दूसरे दर्जे के नागरिक बनाने की ओर वह एन. आर. सी. व सी.ए.ए. के माध्यम से बढ़ चुका है। अब तक चुपचाप बर्दाश्त कर रहे मुस्लिम समाज ने इसका देशव्यापी पैमाने पर प्रतिकार किया है। जिसे अपने फासीवादी चरित्र के मुताबिक संघी भाजपा सरकार बुरी तरह कुचल रही है।
अभी अपने को सांस्कृतिक संगठन कहकर राजनीति से दूर बताने वाला संघ अब ख्ुलकर राजनीति में हिस्सा लेता है। सरकार के मंत्रियों (मोदी सरकार) को अपना रिपोर्ट कार्ड लेकर संघ के दरबार में नियमित हाजिरी लगानी पड़ती है। विजयदशमी पर संघ प्रमुख राष्ट्र प्रमुख की तरह राष्ट्र को संबोधित करते हैं। राष्ट्रीय चैनलों सहित सभी प्रसार माध्यमों पर उनके भाषण का प्रसारण होता है। संघ विचारक व अब भाजपा राज्य सभा सांसद राकेश सिन्हा कहते हैं-
‘‘संघ कोई झाल मंजीरा बनाने वाला संगठन नहीं है। वो सक्रीय रूप से समाज के बीच में काम करता है और राजनीति भी उसका हिस्सा है।’’ जाहिर है कि अब संघ को गैर राजनीतिक होने का नाटक करने की जरूरत नहीं रही है। सत्ता शीर्ष पर काबिज संघ परिवार आज भारत ही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा फासीवादी समूह है।
संघ को भारतीय समाज में व्यापक आधार हेतु अपना रूपांतरण करना पड़ा है।
आज संघ ब्राह्मणवादी श्रेष्ठता बोध व सवर्ण मानसिकता के खुले व प्रच्छन्न प्रदर्शन की जगह समाजिक समरसता की बातें करनी पड़ती हैं। संघ को विचारधारात्मक आधार प्रदान करने वाले सरसंघचालक गुरू गोलवलकर खुले आम जाति व्यवस्था एवं ब्राह्मण श्रेष्ठता की बातें करते थे जो उनकी कृति ‘बंच ऑफ थॉट’ में लिखित रूप में मौजूद रही है। आजादी के बाद भारतीय संविधान के लागू होने पर संघ ने भारतीय संविधान की प्रतियां इस आधार पर जलायी थीं कि संविधान उनकी हिन्दू राष्ट्र की कल्पना के खिलाफ था तथा कानूनी रूप से जाति, धर्म, लिंग के आधार पर सभी नागरिकों की औपचारिक बराबरी की बात करता था। संघ ने उस समय भारत के संविधान की जगह जातिगत भेदभाव को दैवीय, शास्त्र सम्मत व उचित ठहराने वाली मनुस्मृति को भारत के संविधान का दर्जा देने की मांग की भी। लेकिन इस खुली सवर्ण मानसिकता के प्रदर्शन से संघ का आधार बेहद सीमित था ओर 1970 के दशक व 80 के पूर्वार्ध तक संघ के अनुषंगी संगठन जनसंघ व बाद में भाजपा को ब्राह्मणों-बनियों की पार्टी कहा जाता था। जाति व्यवस्था को गलत व नाजायज ठहराये बगैर दलितों-पिछड़ों को अपने साथ कैसे जोड़ा जा सकता है इसी को ‘सामाजिक समरसता’ कहा गया। इसका प्रतिपादन तीसरे सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने किया।
8 मई 1974 को पूना में बसंत व्याख्यान में बाला साहब देवरस ने ‘सामाजिक समरसता और हिंदुत्व’ नाम से अपने व्याख्यान में दलितों-वंचितों के बारे में संघ की अवधारणा स्पष्ट करते हुए डॉ0 हेडगेवार को उदधृत करते हुए कहा ‘‘हमें न तो अस्पृश्यता माननी है ओर न उसका पालन करना है।’’
इसी व्याख्यान में बाला साहब देवरस आगे कहते हैं, ‘‘शासन के अन्य विचारवान लोगों पर भी बड़ा दायित्व है। उन्हें ऐसे मार्ग सुझाने चाहिए जिनसे काम तो बनेगा किंतु समाज में कटुता नहीं होगी।.... सामंजस्य और परस्पर सहयोग के वातावरण को स्थापित करने के लिए हमें समानता चाहिए। इस बात को भूलकर अथवा न समझते हुए जो लोग बोलेंगे, लिखेंगे और आचरण करेंगे, वे निश्चय ही अपने उद्देश्य को बाधा पहुंचायेंगे।’’
जाहिर है संघ के लिए लक्ष्य जातिगत भेदभाव खत्म करना नहीं बल्कि आचरण में जातिवाद विरोधी किसी कटुता पैदा करने वाले संघर्ष से बचना था। यह दिखावटी समानता भी हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य की स्थापना के मद्देनजर एक मजबूरी भी। लेकिन देवरस के अनुसार सामाजिक तरक्की के लिए दलितों-पिछड़ों को उच्च जाति के लोगों के प्रयासों की जरूरत थी। साथ खुद ऊपर उठने की इच्छा की भी। इसके लिए देवरस दीन दयाल उपाध्याय द्वारा एक संस्मरण को रखते हुए किसी गड्ढे में गिरे व्यक्ति को बाहर निकलने जैसी प्रक्रिया का उदाहरण देते हैं। गड्ढे से बाहर निकलने के लिए ऊपर वाला झुकता है और नीचे वाला उठता है। इसी तरह समाज की उन्नति होती है। जाहिर है कि देवरस व उपाध्याय के हिसाब से गड्ढे में गिरे व्यक्ति अपनी इच्छा से गड्ढे (सामाजिक अवनति) में फंसे हैं और उनका उद्धार गड्ढे से ऊपर वालों (उनकों गड्ढे में धकलने वालों) द्वारा ही हो सकता है।
कुल मिलाकर संघ की सामाजिक समरसता की बात का सारतत्व यह था कि शासकों पर आधारित जो असमानता है वह बनी रहे और उसी के तहत सांकेतिक प्रतिनिधित्व देकर भाईचारा कायम कर लिया जाय। इसी समरसता सिद्धांत के अंतर्गत संघ ने संस्कार भारती के माध्यम से दलितों के यहॉं भोजन कैंपेन, गौतम बुद्ध व अंबेडकर की मूर्तियों का अनावरण, सभी जातियों के समागम हेतु सांस्कृतिक कुंभ जैसे आयोजित किये। बाल्मीकी जयंती, रविदास जयंती, कबीर जयंती आदि मनाना शुरू किया या इन आयोजनों में बढ़ चढ़कर धन व अन्य सहायता देना शुरू कर दिया। इसके परिणामस्वरूप दलितों-पिछड़ों में संघ का आधार कायम हुआ और दंगों के समय इस आधार का बहुत चतुराई से इस्तेमाल करके संघ ने इन्हें हिन्दुत्व के सबसे उग्र जेहादी तत्वों में बदल दिया।
लेकिन संघ के लिए भीतर से ब्राह्मणवाद व बाहर से बराबरी के ढोंग को कायम रखन में बड़ी कठिनाइयां भी सामने आती थी। खासकर जब दलितों का जातिगत उत्पीड़न के खिलाफ आक्रोश फूट पड़ता या दलित अपने हक-अधिकार की बातें करने लगते। 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव से पूर्व संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने आरक्षण को खत्म करने की बात की तो बिहार चुनावों में हार के साथ इस मुद्दे पर उनके हाथ जल गए। 4 अप्रैल 2018 को पदोन्नति में आरक्षण खत्म करने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ दलितों-पिछड़ों के देशव्यापी स्वतः स्फूर्त प्रदर्शन व भीमा कोरेगांव में यलगार परिषद द्वारा दलित स्वाभिमान पर्व के आयोजन से संघ को काफी दिक्कत हुई। इन मुद्दे से सामाजिक समरसता बिगड़ने पर संघ के नेताओं ने गहरी चिंता मोदी सरकार के साथ साझा कीं। इस तरह बदले सामाजिक परिवेश में संघ ने कट्टर गोलवलकरीय सिद्धांतों को ठंडे बस्ते में डाल दिया तथा ‘बंच ऑफ थॉट’ (हिन्दी अनुवाद- विचार नवनीत) के नए संस्करणों से संघ की निम्न जातियों या दलितों के प्रति घृणा भाव वाली, जातिव्यवस्था को औचित्यपूर्ण बताने वाली टिप्पणियों को हटा दिया।
इसी तरह संघ ने हिन्दी प्रदेश में ‘हिंदी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ का नारा दिया तथा मंदिर व गोरक्षा के इर्दगिर्द अपना राजनीतिक तानाबाना बुना तो दक्षिण भारत में हिन्दी तथा पूर्वोत्तर के इसाई बहुल राज्यों (मेघालय, मिजोरम नागालैण्ड) में गौ रक्षा व गौमांस विरोध के एजेन्डे को किनारे कर दिया।
सबसे नाटकीय रूपांतरण स्वदेशी से वैश्वीकरण तक की यात्रा में रहा। इसकी सबसे दिलचस्प बात यह है कि संघ ने खुद को वैश्वीकरण के अनुकूल ढालते हुए अपनी स्वदेशी की परिभाषा ही बदल दी। 1990 के शुरूआत में स्वदेशी जागरण मंच के माध्यम से संघ ने नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ अभियान चलाया था तथा विदेशी पूंजी को भारत में प्रवेश दिलाने का विरोध किया था। तब संघ का नारा था ‘‘तंत्र स्वदेशी, मंत्र स्वदेशी, भाव स्वदेशी लाना है।’’ लेकिन 2019 में आते-आते स्वदेशी की नयी परिभाषा गढ़ते हुए सरसंघचालक मोहन भागवत फरमाते हैं, ‘‘’स्वदेशी वह है जो वैश्विक अर्थव्यवस्था में भाग लेता है लेकिन अपने हितों को संरक्षित रखते हुए।......एक स्वदेशी व्यक्ति विदेश से किसी वस्तु को केवल तभी खरीदेगा जब यह नितांत आवश्यक हो।... एक ऐसे समय में ‘जब अंतर्राष्ट्रीय व्यापार व वैश्वीकरण के चलते सभी देश एक दूसरे के निकट आ रहे हैं, तब भारत ‘बंद अर्थव्यवस्था’ की तरफ नहीं जा सकता है।’’
कुल मिलाकर संघ ने विगत दशकों में अपनी कोर विचारधारा ‘हिन्दुत्व’ को अक्षुण्ण रख देशी विदेशी पूंजी के हितों व भारतीय समाज के सामाजिक-आर्थिक बदलावों व नए सामाजिक यथार्थ के अनुसार खुद का रूपांतरण किया है। इस रूपांतरण के चलते समूचे भारतीय भू-भाग, समूचे हिंदू समाज में संघ का विस्तार होने के साथ वह सत्ताशीर्ष से कांग्रेस को हटाकर खुद वहां काबिज होने में सफल हो सका है। इसके साथ ही वह एकाधिकारी पूंजी का भरोसा जीतने में कामयाब हुआ है।
आर्थिक संकट के इस दौर में मोदी नीत राजग सरकार ने पूंजीपतियों को श्रम कानूनों से निजात दिलाने व बैंकों से सस्ते ऋण दिलाने व सरकारी परिसंपत्ति कौड़ियों के भाव बेचने का साहस दिखाया है। तो पूंजीपतियों ने भी खासकर कारपोरेट पूंजी ने मोदी को सारे संदेहों से परे पूर्ण मदद मुहैया कराई है।
भारत के संकटग्रस्त पूंजीवाद के लिए किसी गंभीर संकट की स्थिति में संघ-भाजपा ही सुरक्षित पनाह नजर आ रही है। इस तरह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेतृत्व में भारत में फासीवाद का खतरा पहले के किसी भी दौर से ज्यादा है।
सभी जनवादी प्रगतिशील शक्तियों को संघ के जरिये हिन्दू फासीवाद के खतरे का मुकालबा करने के लिए एकजुट होना बहुत जरूरी है। लेकिन फासीवाद के विकल्प के बतौर इसी सड़ी गली व्यवस्था की ओर वापसी की नहीं बल्कि एक पूर्ण सामाजिक बराबरी वाली समाज व्यवस्था कायम करने के लिए, समाजवादी क्रांति के वास्ते एकजुट होने की जरूरत है।
(वर्ष- 11 अंक- 2 जनवरी-मार्च, 2020)
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