शनिवार, 25 जनवरी 2020

कश्मीर में क्रूरता की इन्तहां

कश्मीर के बारे में ऐसा कहा जाता है कि ‘अगर कहीं जन्नत है तो यहीं है, यहीं है।’ लेकिन पिछले 2 माह से अधिक समय हो गया है जब केन्द्र की सत्ता ने कश्मीर का हाल जहन्नुम से बदतर कर दिया है। 5 अगस्त, 2019 को कश्मीर को धारा 370 के रूप में मिले विशेष दर्जे को खत्म कर दिया गया। यही नहीं बल्कि केन्द्र की सत्ता ने जम्मू और कश्मीर के दो टुकड़े भी कर दिये। जम्मू-कश्मीर को दो केन्द्र शासित राज्यों में विभाजित कर दिया- एक जम्मू-कश्मीर तथा दूसरा लद्दाख।
 
केन्द्र की सत्ता यहीं नहीं रुकी बल्कि घोर तानाशाही और प्रतिक्रियावाद का परिचय देते हुए उसने कश्मीर को एक खुली जेल में तब्दील कर दिया। यह कदम उठाते समय केन्द्र की सत्ता बराबर यह कहती रही कि धारा 370 का हटना देश हित और जम्मू-कश्मीर के हित में है, इससे जम्मू-कश्मीर का विकास होगा, आतंकवाद खत्म होगा, हर तरफ खुशहाली लौटेगी, जम्मू-कश्मीर के लोग इस फैसले से खुश हैं, बस चंद अलगाववादी या पाकिस्तान समर्थक इस फैसले से खुश नहीं हैं। लेकिन अगर ऐसी ही बात होती, अगर यह फैसला कश्मीरियों को इतना सुकून देने वाला था तो जम्मू-कश्मीर को अनिश्चितकाल तक कर्फ्यू लगाकर खुली जेल में क्यों तब्दील कर दिया गया? हर नुक्कड़, हर कोने पर सुरक्षा बल क्यों तैनात किये गये? फोन, इण्टरनेट और परिवहन अनिश्चित काल के लिए क्यों बंद कर दिया गया? अस्पताल, दवा, स्कूल, राशन-पानी आदि कश्मीर की जनता से क्यों छीन लिये गये? मीडिया पर अघोषित प्रतिबंध क्यों थोप दिये गये? कश्मीर की इस दौर की सच्चाई को बयां करने वाले पत्रकारों पर दमन चक्र क्यों चलाया जा रहा है? आदि-आदि। जम्मू-कश्मीर की जनता को इस लायक भी नहीं छोड़ा गया कि वे केन्द्र सरकार के इस फैसले का जश्न या मातम मनाये। सभा-प्रदर्शन जैसे तरीकों से अपने मन के उदगार को व्यक्त करने पर सख्त पाबंदी थोप दी गयी। लोग अपने ही घरों में कैद कर दिये गये। कश्मीर में सब सामान्य जैसे शब्द और बातें कानों को सुकून देने के लिए की गयीं। लेकिन पर्दे के पीछे से कश्मीर पर नये-नये हथियारों से हमला जारी रहा है। सत्ता के केन्द्र में आसीन लोगों को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि इन प्रतिबंधों से बीमारों का क्या हाल होगा? अपने परिजनों के चितिंत-परेशान लोगों पर क्या गुजरेगी? इन प्रतिबंधों के दौरान गिरफ्तार, हिरासत में मौतें जनता के मन-मस्तिस्क पर कैसा प्रतिकूल असर पैदा करेंगे? 14-16 साल के मासूमों को गिरफ्तार कर, उनको प्रताड़ित कर वे कैसा शासन कायम करने में लगे हुए हैं? सोचा जा सकता है 2 माह से अधिक समय से कर्फ्यू और प्रतिबंध झेल रहे कश्मीरी लोग अपनी आजीविका कैसे कमा रहे होंगे, क्या खा रहे होंगे और कैसे बीमारों, गर्भवती महिलाओं को इलाज मिल रहा होगा? असल में इन बातों की आड़ में देश में अंधराष्ट्रवाद का ऐसा जहर फैलाया गया जिसका असर देश के मेहनतकशों के जहन में लंबे समय तक होना लाजिमी है। कश्मीरियों और मुसलमानों और पाकिस्तान को गाली देने का ये जो सिलसिला केन्द्र की सत्ता द्वारा चलाया गया और पालतू मीडिया ने इसे प्रचारित-प्रसारित करने का काम संघ-भाजपा के ‘‘प्रवक्ताओं’’ की बेहतर भूमिका के रूप में किया। मीडिया और संघ-भाजपा की इस अंधराष्ट्रवाद की आंधी ने देश को अपने आगोश में ले लिया।  

सरकार का कहना है कि वहां हालात लगातार सामान्य होते जा रहे हैं और जल्द ही सारे प्रतिबंध समाप्त कर दिये जायेंगे। लेकिन 2 माह से अधिक का लंबा प्रतिबंध और कर्फ्यू और कितने समय तक जारी रहेगा कोई नहीं बता सकता। प्रतिबंधों के बाद कश्मीरियों की जो प्रतिक्रिया होगी और उससे निपटने के लिए सत्ता के रंग ढंग को देखते हुए यही लगता है कि कर्फ्यू और प्रतिबंध और जारी रहेंगे। कश्मीर का लंबा इतिहास है कि कभी किसी जगह तो कभी कियी क्षेत्र में कर्फ्यू लगना वहां की आम परिघटना बन गया है।  लंबे समय से जारी कर्फ्यू ने और संचार, परिवहन पर प्रतिबंधों ने कश्मीर की जनता को वो दर्द दिया है जिसकी शायद ही भरपाई की जा सके। सरकार कह रही है कि वहां सब सामान्य है। लेकिन 17 से 21 सितंबर, 2019 को 5 महिलाओं के एक जांच दल ने कश्मीर का दौरा किया और जो निष्कर्ष निकाला वह कुछ और ही बात बयां कर रहा है। कश्मीर में अपने अवलोकन व अनुभवों को आधार बनाकर जांच दल की रिपोर्ट दो निष्कर्षों पर पहुंचती है- ‘‘पहला यह कि पिछले 50 दिनों में कश्मीरी लोगों ने भारत सरकार और फौज की बर्बरता और अंधकारमय दौर में कमाल का लचीलापन दिखाया है। और दूसरा यह कि यहां कुछ भी सामान्य नहीं है। जिन लोगों का दावा है, कि स्थिति धीरे-धीरे सामान्य हो रही है’’(इसके सबसे बड़े प्रवक्ता केन्द्र सरकार और उसका पालतू मीडिया है) ‘‘उनका दावा पूरी तरह गलत है।’’ जांच दल ने दौरे के बाद केन्द्र सरकार से मांग की कि कश्मीर में सामान्य स्थिति कायम करने के लिए सेना और अर्धसैनिक बलों को तत्काल प्रभाव से हटा लिया जाए। विश्वास पैदा करने के लिए तुरंत सभी एफआईआर व केस समाप्त किये जाएं और उन सभी को, विशेष रूप से उन युवाओं को, जो हिरासत में हैं और अनुच्छेद 370 के रद्द होने के बाद से जेल में हैं, रिहा कर दिया जाए। न्याय सुनिश्चित करने के लिए सेना और अन्य सुरक्षाकर्मियों द्वारा की गई व्यापक हिंसा और यातनाओं की जांच करायी जाए। उन सभी परिवारों को जिनके प्रिय सदस्यों की परिवहन न मिलने और संचार न उपलब्ध होने की वजह से जान चली गयी है, को मुआवजा दिया जाए। जांच दल की यह रिपोर्ट और मांग पत्र मीडिया और सरकार बारंबार बताये जा रहे ‘सामान्य स्थिति’ से बिल्कुल उलट है। जांच दल ने यह भी कहा कि नौजवान लड़कियों ने उनसे शिकायत की कि उन्हें फौज प्रताड़ित करती है, यहां तक कि नकाब हटा दिया जाता है। फौजी नौजवान लड़कों पर टूट पड़ते हैं, ऐसा महसूस होता है कि उनकी शक्ल से ही नफरत है। जब पिता उन्हें बचाने जाते हैं तो उनसे 20,000 से 60,000 रुपये तक जमा कराए जाते हैं। जांच दल को दिये गये अनुमान के अनुसार इस बंदी के दौरान लगभग 13,000 लड़कों को उठा लिया गया। जिस स्थान पर इतनी बड़ी संख्या में नौजवानों के साथ ऐसा व्यवहार हो रहा है वहां का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।  

केन्द्र सरकार द्वारा धारा 370 को समाप्त करने के बाद कश्मीर फतह, कश्मीर में प्लाट खरीदने सहित कश्मीरी लड़कियों से शादी करने के कुत्सित अरमान हिन्दू राष्ट्रवाद का परचम उठाये संघी पालने लगे। कश्मीर की जनता की भावनाओं से, प्रतिबंधों और कर्फ्यू से उपजे उनके कष्टों से इन राष्ट्रवादियों को कोई लेना-देना  नहीं है। कश्मीर उनके लिए मात्र जमीन का टुकड़ा और वहां की लड़कियों के लिए ही मायने रखता है। संघी अपनी महिला विरोधी सोच का जब-तब परिचय देते रहे हैं। महिलाओं के प्रति घृणित सोच और कुण्ठा का परिचय देते हुए हरियाणा के संघी मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कहा कि ‘‘हमारे मंत्री ओ.पी.धनखड़ कहते थे कि वह ‘‘बिहार’’ से ‘‘बहू’’ लायेंगे। आजकल लोग कह रहे हैं कि कश्मीर का रास्ता साफ हो गया है। अब हम कश्मीर से लड़कियां लायेंगे।’’ कुण्ठा में आकंठ डूबे इन लोगों को लगता है कि कश्मीर की लड़कियां सिर्फ ऐसी यौन वस्तुएं हैं जो इनको धारा 370 के कारण नहीं मिल पा रही थी। सुरक्षा बलों की ऐसी सोच ही कश्मीरी लड़कियों-महिलाओं के साथ हिंसा, बलात्कार और छेड़छाड़ की घटना को अंजाम देने का कारण रही है। कई लड़कियों-महिलाओं की बलात्कार के बाद हत्या कर फेंक देना सुरक्षा बलों द्वारा वर्षों से अंजाम दिया जा रहा है। सुरक्षा बलों को मिले आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट, पब्लिक सेफ्टी एक्ट जैसे विशेषाधिकार ऐसे जघन्य अपराधों के बाद उनको बचाने का काम करते हैं। लेकिन महिलाओं के प्रति ऐसी सोच रखने वाले लोगों को क्या कश्मीरी लड़कियां किसी भी कारण पसंद करेंगी? उनसे विवाह करना तो दूर वे ऐसों को देखना भी शायद ही पसंद करें।

इस ‘जन्नत’ पर कब्जे को लेकर भारत और पाकिस्तान विभाजन के बाद से ही छल, कपट और हिंसा का अनवरत खेल खेलते रहे हैं। कश्मीर के लोगों की क्या इच्छा है, वे क्या सोचते हैं इसकी दोनों देशों के शासकों को कोई परवाह नहीं रही है। अपने घृणित हितों को परवान चढ़ाने के लिए ये शासक किसी भी हथकंडे को अपनाने में पीछे नहीं रहे। इस दौरान 1 लाख से अधिक लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। 

1947 में जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय स्पष्ट शर्तां के साथ हुआ था। रक्षा, विदेश और संचार को छोड़कर अन्य सारे मामलों में जम्मू-कश्मीर स्वायत्त था। इन तीन मामलों को छोड़कर जम्मू-कश्मीर पर भारत का संविधान और कानून लागू नहीं होने थे। अगर अधिकारों और स्वायत्ता में कोई कमी होती तो सिर्फ वह जम्मू-कश्मीर की जनता की सहमति से ही होना संभव था। जम्मू-कश्मीर की जनता का प्रतिनिधित्व वहां की चुनी गयी संविधान सभा द्वारा किया जाना था। धारा 370 इसी को सुनिश्चित करती थी। 

लेकिन शुरू से ही नेहरू कालीन भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर की जनता से किये गये इस समझौते/वायदे को तोड़ दिया। 1951 में चुनी गयी संविधान सभा जो जम्मू-कश्मीर के लिए संविधान बनाने का काम अभी कर ही रही थी, को नेहरू सरकार ने उसके सर्वमान्य नेता शेख अब्दुल्ला को 1953 में गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। क्योंकि शेख अब्दुल्ला स्वायत्त जम्मू-कश्मीर के पक्षधर थे और नेहरू पूर्ण एकीकरण के। अगले 15 वर्षों तक शेख अब्दुल्ला को जेल में डालने और रिहा करने का सिलसिला जारी रहा। 1971 में उन्हें राज्य से निष्कासित कर दिया गया। अंततः जब 1974 में शेख अब्दुल्ला भारत के सामने समर्पण करने को मजबूर हो गये तो ही भारत सरकार ने उन्हें स्वीकार किया। 

नेहरू के जम्मू कश्मीर की भारत में पूर्ण एकीकरण की नीति यह रही कि धारा 370 में बिना कोई छेड़छाड़ किये भारत के सारे कानूनों/प्रावधानों को वहां लागू कर दो। ऐसा जम्मू-कश्मीर के नेताओं की खरीद-फरोख्त, जेल में डालने और कैद करने का भय पैदा कर किया गया। संविधान सभा 1956 तक विद्यमान रही पर अब वह नेहरू-कांग्रेस की केन्द्र सरकार के इशारों पर नाचने को अभिशप्त हो गयी। बाद के समय तो जम्मू-कश्मीर की सरकार केन्द्र सरकार की कठपुतली ही साबित हुई। अब केन्द्र जो भी चाहता वही विधेयक और प्रस्ताव जम्मू-कश्मीर की सरकार पास कर केन्द्र सराकर को भेज देती। 1960 के बाद से तो स्थिति और भी बुरी हो गयी जब केन्द्र से नियुक्त राज्यपाल ही यह सब काम करने लगा। इस सबके परिणामस्वरूप 1990 का दशक खत्म होते-होते भारत के संविधान की 395 धाराओं में से 260, सहवर्ती सूची में 97 में से 94 तथा प्रदेश सूची में 47 में से 26 जम्मू-कश्मीर में लागू हो चुके थे। इस प्रकार धारा 370 रूप में तो बनी रही लेकिन उसकी आत्मा का हरण कर लिया गया। संघी भाजपा सरकार ने तो इस रूप को भी खत्म कर दिया है।

संघी फासीवादियों के इस कदम का न्यायालय ने भी समर्थन किया है। न ही कर्फ्यू और प्रतिबंधों पर ही न्यायालय ने कोई राहत कश्मीरियों को दी। अतीत में भी न्यायालय ने केन्द्र सरकार की कारगुजारियों को समर्थन ही दिया था। 

कश्मीर पर आज और भविष्य पर गौर किया जाय तो कश्मीर की स्थिति कुछ वैसी ही बनने जा रही है जैसे फिलीस्तीन की है। जैसे इस्राइली शासकों ने दमन, हत्याओं का सहारा लेकर फिलीस्तीन पर कब्जा किया और फिलीस्तीन को गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक तक न सिर्फ सीमित कर दिया है बल्कि उसकी कठोर घेरेबंदी कर दी गयी है। ठीक वैसे ही केन्द्र सरकार कश्मीर के साथ कर रही है। इस प्रक्रिया को वो दमन, जेलों, हत्याओं से और आगे बढ़ायेगी। 

आज जब कश्मीर की राष्ट्रीयता की समस्या की बात की जाये तो यह स्पष्ट है कि पूंजीवादी जनवाद इसमें सबसे बड़ा रोड़ा है। पतित होता हुआ पूंजीपति वर्ग और उसका जनवाद वहां पहुंच चुका है जहां एक बड़ी आबादी को खुले जेल में कैद करने में जरा भी नहीं हिचक रहा है। हिचकना तो दूर की बात अपने इस कुकृत्य को जायज ठहरा रहा है। और जब सत्ता पर इतिहास के सबसे प्रतिक्रियावादी तत्वों का कब्जा हो तो जनतंत्र और जनता की आकांक्षाओं की बात ही बेमानी हो जाती है। सत्ता पर कब्जा किये ये तत्व  अपने घोर दमनात्मक और फासीवादी कदमों को जनता में जायज ठहराने और जनता से अपने कुकृत्यों पर ताली बजवाने में भी सफल हो रहे हैं। कश्मीर ‘फतह’ की जब बातें की जा रही थी तो शेष देश के भीतर इसको एक जश्न के रूप में मनाया गया। जनता का यह जश्न यह बता रहा है कि अपने जनवादी और नागरिक अधिकारों को कुचलने का अधिकार उन्होंने इन प्रतिक्रियावादी तत्वों के सुपुर्द कर दिया है। यह बढ़ते फासीवादी आंदोलन और इसमें जनता के शामिल होने की तीव्र अभिव्यक्ति है। जाहिर सी बात है जनता के एक हिस्से के जनवादी और नागरिक अधिकारों का अपहरण और दमन अगले स्तर पर शेष हिस्से के अधिकारों का अपहरण करने पर उतारू होगा। यह निश्चित है एक हिस्से के अधिकारों को अपहरण इस वक्त हो रहा है तो शेष हिस्से की बारी अगले वक्त में निश्चित है। यह सिलसिला यहीं नहीं रुकेगा बल्कि यह पूर्वोत्तर भारत के विभिन्न राज्यों से होते हुए मध्य भारत के आदिवासियों तक विस्तारित होगा। इसीलिए यह जरूरी ही नहीं बल्कि मांग है कि जम्मू-कश्मीर की अधिकारों में कटौती के कृत्य का विरोध किया जाय। इसका विरोध किया जाय कि वहां की जनता का सैन्य दमन और राज्य को खुली जेल में तब्दील करने की मुहिम का पुरजोर विरोध किया जाय। जम्मू-कश्मीर की जनता के साथ खड़े होकर एकता प्रदर्शित की जाये। ऐसा करके ही हम अपने भी नागरिक अधिकारों की हिफाजत कर सकते हैं। जनवादी अधिकारों को संघी फासीवादी तत्वों के बूटों तले रौंदे जाने का हर स्तर पर विरोध किया जाये।  

जैसे फिलीस्तीनियों का संघर्ष जारी है वैसे ही कश्मीर का संघर्ष भी जारी रहेगा। यह सच है कि पिछले 70 वर्षों से जम्मू-कश्मीर में सेना का ही प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष राज रहा है। पिछले 70 वर्षों से कश्मीरी लड़ रहे हैं और उनका यह संघर्ष आगे भी जारी रहेगा।
                                              (वर्ष-11 अंक-1 अक्टूबर-दिसम्बर, 2019)

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