शनिवार, 25 जनवरी 2020

सब ठीक नहीं है, कुछ भी ठीक नहीं है

भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर लगातार नीचे आ रही है। मांग गिर रही है। कपड़ा, ऑटोमोबाइल, चमड़ा, जैसे औद्योगिक क्षेत्र संकट में फंसते जा रहे हैं। नौकरियों में छंटनी की जा रही है। सरकार विनिवेश कर सरकारी कम्पनियों को निजी हाथों में सौंप रही है। पिछले समय में बी.एच.ई.एल, आर्डनेन्स, एच.ए.एल., आदि सरकारी कम्पनियों के कर्मचारी संघर्ष कर कम्पनियों को निजी हाथों में सौंपे जान (विनिवेश) का विरोध करते रहे। विभिन्न क्षेत्रों की कम्पनियां सरकार से नीति बनाने और उनके मुनाफे की भरपाई करने की मांग कर रही हैं। ऐसा न होने पर नौकरियों में कटौती होने, बेरोजगारी बढ़ने आदि की बात या धमकी दे रही हैं। इन हालातों में क्या कहें सब ठीक है या कुछ भी ठीक नहीं है?


जब मोदी विदेश में कहते हैं कि भारत में सब ठीक है और अलग-अलग भाषाओं में इसे दोहराते हैं तो इसका क्या मतलब निकाला जाए। अर्थव्यवस्था के बुरे हाल, ऑटोमोबाइल, बैंकिग, रियल एस्टेट, आदि क्षेत्र रोज ही अपनी कहानी बयां कर रहे हैं। चुनाव से पहले बेरोजगारी के 45 साल में सबसे ज्यादा होने की बातें और अब बढ़ रही छंटनी ने बेरोजगारी की भयावहता को और बड़ा दिया है। जीडीपी की वृद्धि दर को लगातार नीचे करना पड़ रहा है। रेटिंग एजेन्सियां भारत की रेटिंग नीचे कर रही हैं। तब कहा जा सकता है कि सब ठीक है का बयान वह व्यक्ति दे रहा है जो बदहवासी की हालत में यही शब्द दोहरा सकता है- सब ठीक है। यह भी सुनने वालों से ज्यादा अपने लिए दोहरा रहा है। पर इस बदहवासी के बावजूद उसे पता होना चाहिए कि इससे खराब हालातों को ठीक नहीं किया जा सकता। उससे ज्यादा यह छात्रों-नौजवानों व देश के मेहनतकशों को पता होना चाहिए कि ‘सब ठीक है’ बदहवासी में कही गई बात है जिससे रोजगार नहीं बढ़ेंगे। मांग नहीं बढ़नी है। उद्योगों की हालत नहीं सुधरने वाली। अर्थव्यवस्था की हालत नहीं सुधरनी है।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) ने अपने अर्द्धवार्षिक मूल्यांकन में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर को 7 प्रतिशत के अनुमान से नीचे गिराकर 6.1 कर दिया। अप्रैल-जून की तिमाही में जीडीपी की विकास दर 5 प्रतिशत रही। विश्व बैंक ने भारतीय अर्थव्यवस्था के अपने अनुमान में संशोधन कर इसकी विकास दर को कम करके 6 प्रतिशत बताया है। वहीं रेटिंग एजेंसी मूडीज ने अपने पूर्व के 6.2 प्रतिशत विकास दर के अनुमान को गिराकर 5.8 कर दिया। विकास दर को गिराने के कारणों में बाजार मांग की कमी और तरलता के चरमराने (बाजार में पूंजी की कमी) को मुख्य बताया गया। साथ ही जी.एस.टी. में कोई स्थायित्व न होने से सरकार के राजस्व में कमी होने की ओर भी इंगित किया। ज्ञात हो कि 2017 के जुलाई में जी.एस.टी. की नई टैक्स व्यवस्था के बाद से अभी तक भी इसमें बदलाव होते रहे हैं, जिनके आगे भी जारी रहने की संभावना है। इसके अलावा आय के हिसाब से मूल्यांकन करने पर तो विश्व बैंक ने भारत की स्थिति को नीचे गिराकर विकासशील देशों की तुलना में निम्न मध्यम आय वाले देशों की श्रेणी में डाल दिया है। इस श्रेणी में घाना, जांबिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश, आदि जैसे देश भी शामिल हैं। इन अंतर्राष्ट्रीय वित्तीस संस्थाओं को आंकड़े भारत सरकार से ही प्राप्त होते है। सरकार पूर्व में इन संस्थाआें का हवाला देकर अर्थव्यवस्था की अच्छी तस्वीर भी बताती रही है। अतः इन आंकड़ों को तो सरकार मानेगी ही। बस यहां इतनी ही टिप्पणी और जोड़ दी जाए कि कोई भी देश, भारत सहित, अपनी अर्थव्यवस्था की अच्छी तस्वीर दिखाने के चक्कर में आंकड़ों में हेर-फेर कर ही दिखाता है। मार्च 2019 में ही जब भारत में 45 साल में सबसे अधिक बेरोजगारी दर होने की बातें सामने आ रही थी। तब सरकार ने उन्हें दबाने का प्रयास किया था। उस समय देश दुनिया के 108 सांख्यिकीविदों और अर्थशास्त्रियों ने भारत में आंकड़ों को छुपाने की आलोचना की थी। इन लोगों में नोबेल पुरुस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी भी थे। अतः निश्चित ही यह माना जाना चाहिए कि देश के आर्थिक हालात इससे भी बुरे हैं, जितने दिखाये जा रहे हैं।

अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में पिछले समय में चली हलचलों पर एक नजर डाली जाए। सितम्बर माह में बताया गया कि भारत में ऑटोमोबाइल क्षेत्र की कम्पनियों में लगातार 11 माह से बिक्री की दर कम रही है। ऑटोमोबाइल क्षेत्र के पूंजीपतियों की संस्था सोसायटी ऑफ इण्डियन ऑटोमोबाइल मेनुफेक्चरर्स (सिआम) ने बताया कि सितम्बर 2019 में गाड़ियों की बिक्री में 23.7 प्रतिशत की कमी आयी है। भारत की सबसे बड़ी कार निर्माता कम्पनी मारुति सुजुकी के वाहनों की बिक्री में 32.7 प्रतिशत की गिरावट आयी है। बात सिर्फ मारुति सुजुकी की ही नहीं है बल्कि अन्य वाहन निर्माता कम्पनियों की गाड़ियों की बिक्री का भी हाल बुरा है। यह हाल तब है जब कम्पनियां भारी छूट (डिस्काउंट) सहित अन्य आकर्षक ऑफर भी दे रही हैं। वाहन क्षेत्र से जुड़ी हुई अन्य वेन्डर कम्पनियों में भी इसका असर है। वहां भी उत्पादन गिरा है। देश में गाड़ियों के 20,000 शोरूम बन्द होने की खबरें भी पिछले समय में सुनी गयी। 

इसका असर क्या हुआ? देश की विभिन्न वाहन निर्माता कम्पनियों व वेन्डर कम्पनियों ने अपने प्लांटों में छुट्टियां कर दीं। ये ऐसी छुट्टियां हैं जिन्हें कम्पनी अपनी मर्जी से कर रही है पर मजदूरों को इसकी तनख्वाह नहीं मिलेगी। इनमें महिन्द्रा एंड महिन्द्रा ने अपने विभिन्न प्लांटों में 17 दिन, अशोक लीलेंड ने अपने विभिन्न प्लांटों में 18 दिन, प्रिकोल ने देशभर के 8 प्लांटों में 3 से 8 दिन की छुट्टियां की। इसी तरह की छुट्टियां मारुति सुजुकी, टाटा मोटर्स तथा अन्य वेन्डरों ने भी की।

सरकार ने क्या किया? वैल्थ (सम्पत्ति) टैक्स में छूट दी। यह छूट पूंजीपतियों पर लगने वाले कर पर होती है। इसके अलावा ऑटोमोबाइल सहित विभिन्न क्षेत्रों में पूंजीपतियों को टैक्स छूट, पूंजी उपलब्ध कराने की व्यवस्था, जी.एस.टी. के स्लेब्स में बदलाव, आदि तरीकों से कम्पनियों को मुनाफे में हो रहे घाटे से उबारने की व्यवस्था की गई और यह जारी है। पर मजदूरों का क्या? इसकी कोई बात सरकार ने अपनी तरफ से दी जा रही छूटों के बावजूद नहीं की। कम्पनी मालिकों को इसकी कोई परवाह नहीं है कि मजदूरों का क्या होगा उन्होंने तो अपना घाटा भरना है, भर रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार ऑटोमोबाइल क्षेत्र में ही पिछली तिमाही में 3 लाख से ऊपर नौकरियों में छंटनी हुई है। इसके अलावा छुट्टी किये जाने से मजदूरों की तनख्वाहों में भी भारी कमी हुई है। इनमें भी सबसे ज्यादा मार ठेका मजदूरों पर पड़ी। 

इसके अलावा अन्य क्षेत्रों में बैंकिंग व्यवस्था में भी भारी गड़बड़ियां, धोखाधड़ी, बढ़ते एन.पी.ए. (नॉन परमार्फिंग एसेट्स) के मामले सामने आये। सबसे ताजा मामला तो पंजाब और महाराष्ट्र बैंक का ही है। जिसे रिजर्व बैंक ने अपने नियंत्रण में ले लिया। और घोषणा कर दी कि ग्राहक अपने पैसे बैंक से नहीं निकाल सकते। हालांकि बढ़ते जनदबाव व बैंकिंग व्यवस्था पर विश्वास उठने और चरमराने और अफरा-तफरी के डर से पैसा निकालने की छूट को बढ़ाया गया। फिर भी ग्राहक अपना पैसा किसी भी जरूरी काम के लिए नहीं निकाल सकता। जबकि आज लोग इलाज, शादी, मकान बनाना, आदि किसी भी काम के लिए बैंक में रखे अपने ‘सुरक्षित’ पैसे पर ही निर्भर हैं। बैंकों को सरकार पैसा उपलब्ध करा रही है। सरकार के सहयोग से ही अक्टूबर माह के पहले पखवाड़े में 81,781 करोड़ रुपये का कर्ज बैंकों ने चुकाया। सरकार दावा कर रही है कि बैंकों में पैसे की कोई कमी नहीं है आगे भी कर्ज चुकाये जाते रहेंगे। बैंकों के बढ़ते एन.पी.ए. का हाल यह है कि यह साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है। जहां 2013-14 में यह कुल कर्जों का 3.83 प्रतिशत था वहीं यह 2017-18 में बढ़कर 11.18 प्रतिशत हो गया है। यानी बैंकों से कर्ज लिए हुए वे पूंजीपति जो अब बैंकों को कर्ज नहीं चुका सकते हैं या नहीं चुकाना चाहते हैं, बढ़ते ही जा रहे हैं। यानी प्रकारांतर से बैंकों में जमा देश की आम जनता का, मेहनतकशों का पैसा पूंजीपतियों की सेवा में लग रहा है। इससे वे एय्याशी करें और जनता फटेहाल रहे। सरकार पूरी बेशर्मी से उन्हें बचा रही है। यहीं पर जरा याद कीजिये जब देशभर में किसान अपनी दुर्दशा बताते हुए कर्जमाफी (अन्य प्रमुख मांगों के साथ) की मांग कर रहे थे तो सरकार का जवाब क्या था? इस तरह कर्ज माफ करने से गलत परम्परा पैदा हो जायेगी लोग कर्ज लेकर नहीं चुकायेंगे और उसका बोझ सरकार के ऊपर आयेगा। देश में किसानों की दुर्दशा आज किसी से छुपी नहीं है। 3 लाख से अधिक किसानों की आत्महत्या खुद ही हालात बयां कर देती है। ऐसे में किसानों के प्रति सरकार का रुख देखें और उसकी पूंजीपतियों के कर्ज को एन.पी.ए. में डालने से तुलना करें।

बैंकिंग व्यवस्था के इन हालातों से निपटने का सरकार रास्ता क्या निकाल रही है? बैंकों का विलय कर दिया जाए। इससे क्या होगा? देश के बड़े और कमजोर बैंक मिल जायेंगे तो उनकी कुल पूंजी बढ़ जायेगी। इससे बाजार में पैसा झोंकने के लिए अधिक पूंजी उपलब्ध होगी। पूंजीपतियों के लगातार बढ़ रहे एन.पी.ए. और बाजार के हाल में इस बात की गारंटी कौन कर रहा है कि मजदूरों-मेहनतकशों का पैसा सुरक्षित रहेगा, वे अपनी बचत का अपने लिए इस्तेमाल कर सकेंगे। कोई गारंटी नहीं दे रहा है? यहां तक कि सरकार की इस खाम ख्याली का बैंक कर्मचारियों ने भी विरोध किया है। बैंक भी इस योजना के प्रति सशंकित हैं। पर मोदी सरकार को तो फैसले ही लेने हैं। बाकि जनता झेले। नोटबंदी जनता झेले, प्राप्ति कुछ नहीं। कर्ज पूंजीपतियों को, एन.पी.ए. जनता झेले। उस पर भी तुर्रा ये कि पैसा तो सरकार दे रही है, जनता को क्या?

उद्योग के अन्य क्षेत्रों रियल एस्टेट, टेक्सटाइल, एफ.एम.सी.जी. (फास्ट मूविंग कन्ज्यूमर गुड्स यानी रोज-ब-रोज की उपभोक्ता सामग्रियां), आदि का हाल भी खराब है। यहां तक कि पारले कंपनी ने तो अपने 10,000 मजदूरों को निकालने तक बात कहीं। कारण बताया कि उसका 5 रुपये का बिस्कुट तक बिकने में दिक्कत आ रही है। टेक्सटाइल क्षेत्र की कम्पनियों ने तो अखबार में विज्ञापन तक निकाल दिया कि हमारे घाटे की भरपाई कीजिए वरना हमें अपना मुनाफा बनाये रखने के लिए नौकरियों में कटौती करनी पड़ेगी। 

पूंजीपतियों पर पैसा लुटाने के लिए सरकार अपनी आय कहां से करेगी? बैंक वाले अवसर सीमित हैं। टैक्स छूट से आय में कटौती और कर दी। ऐसे में सरकार वही कर रही है जो शराब या किसी नशे की लत में डूबा आदमी करता है। घर में चोरी और माल बेचकर अपने नशे का इंतजाम (माफ कीजिएगा इससे उपयुक्त उदाहरण सरकार की हरकतों को जाहिर करने का नहीं मिला)। सरकार बी.एस.एन.एल., एम.टी.एन.एल. जैसी संचार कम्पनियों को बर्बादी की कगार पर लाकर कर्मचारियों को सड़क पर ले आयी। कर्मचारियों को तनख्वाह तक नहीं दी जा रही है। आर्डनेन्स कम्पनी (भारतीय सेना के लिए हथियार निर्माता कम्पनी), बी.एच.ई.एल., बी.पी.सी.एल., एच.ए.एल. (हिन्दुस्तान ऐरोनोटिकल लिमिटेड), रेलवे, आदि नवरत्न या महारत्न कम्पनियों को निजी पूंजीपतियों को बेचने पर उतारू है। बल्कि बेचना शुरू भी कर दिया है। रेलवे की तेजस, डुरंटों जैसी ट्रेनों का संचालन निजी पूंजीपतियों को दे दिया गया है। ये सब वो कम्पनियां हैं जो भारतीय जनता के खून-पसीने से जमा पैसे से खड़ी की गयीं। इन पर सिर्फ सरकार का ही हक नहीं है बल्कि ये देश की सम्पत्ति हैं, मजदूर-मेहनतकश जनता की सम्पत्ति हैं। पर इन सत्तासीन बिगड़ैलों को क्या फर्क पड़ता है। जो हाथ लगा बेच दो, कौन पूछने वाला है? 

अभी देश की जनता तो सड़कों पर निकल कर पूछ नहीं रही है कि हमारी सम्पत्ति उन ऐय्याश पूंजीपतियों पर क्यों लुटा रहे हो। तब भी जो कर्मचारी इसकी सीधी मार झेलेंगे वे इसका विरोध कर रहे हैं। आर्डनेन्स फैक्टरी के मजदूरों-कर्मचारियों ने लगातार डेढ़-दो माह आन्दोलन किया। सरकार फिलहाल चुप हो गयी। संचार कम्पनियों के कर्मचारी हड़ताल कर-कर के अपना वेतन निकलवा रहे हैं, सरकार से। रेलवे की ट्रेनों के निजी संचालन का विरोध रेल कर्मचारियों ने किया। फिर भी निजी हाथों में दे दिया गया पर कर्मचारी अभी भी लड़ रहे हैं। कमजोर नेतृत्व और कमजोर कर्मचारी एकता के बावजूद कर्मचारी चुनौती दे रहे हैं। सरकार को ठिठकना पड़ रहा है। पर जैसी की उपमा दी गई है नशे में धुत्त मोदी सरकार इतने से नहीं मानने वाली। जनता को अपनी सामूहिक जमा पूंजी की रक्षा के लिए खड़े होना होगा। तब ही वह पूरी तरह लुटने से बची रहेगी। हालांकि जरूरत इस बात की है कि वह देश की सारी सम्पत्ति अपने सामूहिक नियंत्रण में ही रखे। तब ही उसका असली नियंत्रण होगा, वरना लुटेरे नए तरीकों से लूटने की राह खोज लेंगे।

अर्थव्यवस्था के ऐसे हालातों और पूंजी की सेवा में बदहवास सरकार की हरकतों का नये रोजगार पर क्या फर्क पड़ा और पड़ेगा? ‘स्किल इंडिया’, ‘मेक इन इण्डिया’, ‘मुद्रा लोन’, ‘पकोड़ा रोजगार’ (अन्यथा न लिया जाए इसे स्वरोजगार ही समझें), आदि का कुल जमा परिणाम क्या हुआ? सी.एम.आई.ई. (सेन्टर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनमी प्रा.लि.) के अनुसार साल 2018 में 11 मिलियन यानी एक करोड़ 10 लाख लोग रोजगार से बाहर हुए। स्किल इंडिया या प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के जरिए कोई नया रोजगार नहीं पैदा हुआ। हालांकि इस योजना का लाभ पूंजीपतियों ने उठाना शुरू कर दिया। फैक्ट्री में ट्रेनिंग के नाम पर मजदूरों जैसा काम करवा शोषण की चक्की में इन्हें भी पीसना शुरू कर दिया। मुद्रा लोन या प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के अनुसार 2015 से बांटे गए कुल कर्जों को लेकर श्रम मंत्रालय ने एक सर्वे किया। इस सर्वे का उद्देश्य एन.एस.एस.ओ. (नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन) के 45 साल में सर्वाधिक बेरोजगारी होने के आंकड़ों को झुठलाना था। सर्वे में जब 33 माह में बांटे गये मुद्रा लोन का परिणाम देखा गया तो पता चला कि कुल बांटे गये कर्जों के 10 प्रतिशत से भी कम ने नया रोजगार पैदा किया। यह संख्या में 1 करोड़ 12 लाख नये रोजगार था। जिसमें 51 लाख 06 हजार लोग स्वरोजगार कर रहे थे जिसमें परिवार के अन्य सदस्यों को भी शामिल कर लिया गया। 60 लाख 94 हजार लोग काम पर लगाये गये थे। साथ ही सर्वे में कहा गया कि इससे यदि नये उद्योग लगते तो यह नये रोजगार पैदा कर सकता था। उपरोक्त तथ्य पर कोई संदेह न करें इसके बारे में मोदी जी संसद में बता भी चुके हैं। इसके बाद उन्होंने इसका जिक्र करना सही न समझा। वरना! चुनाव तो सिर्फ इसी मुद्दे पर भी जीता जा सकता था हालांकि जगहंसाई ज्यादा हो सकती थी इसलिए सेफ साइड चलते हुए चुनाव ‘राष्ट्रवाद’ पर लड़ा गया। और अंधराष्ट्रवादी चुनावी फसल काटी गयी।

मोदी सरकार 2.0 ने अब रोजगार की बात करना छोड़ दिया है। अब नौजवानों के लिए उन्होंने फिट इंडिया आन्दोलन शुरू कर दिया है। चूंकि रोटी-रोजगार के सवाल परेशान करते हैं अतः नौजवानों और बाकि जनता के लिए फिट इंडिया का नया इवेंट ले आये। 

इसके अलावा सरकारी क्षेत्र की स्थायी नौकरियों के हाल पहले जैसे ही हैं। जिसमें चंद नौकरियां निकलती हैं और लाखों आवेदन हो जाते हैं। जहां फार्म निकलने, परीक्षा देने, परिणाम निकलने, इण्टरव्यू होने और नौकरी लगने तक कई सालों का एक पूरा चक्र है। इसके अलावा योग्यता से नीचे काम करना आम परिघटना बन चुकी है। पी.एच.डी., बी.टेक., आदि उच्च शिक्षा प्राप्त छात्र चतुर्थ श्रेणी के पदों पर काम कर रहे हैं। या स्वरोजगार में लग रहे हैं। छात्र कई-कई बार लुटने को अभिशप्त हैं। शिक्षा की बढ़ती फीसें चुकाते समय लुटो। तैयारी के लिए कोचिंगों की फीसों में लुटो। नौकरियों की परीक्षा के फार्मों व फीसों में लुटो। यहां तक पहुंचते-पहुंचते छात्र इतना अपमानित व लज्जित हो चुका होता है कि वह कुछ भी और कैसी भी नौकरी करने को तैयार हो जाता है। उसकी सारी स्किल या योग्यता की वहां पहुंचने तक हत्या हो चुकी होती है। अपनी योग्यता की लाश कंधे पर ढोते हुए वह अपने को खुशकिस्मत समझता है कि कैसा ही सही कुछ काम मिल तो गया। ऐसे में ‘स्किल इंडिया’ छात्रों-नौजवानों के साथ एक क्रूर मजाक के अलावा कुछ नहीं है।

अर्थव्यवस्था की तबाह हाल स्थिति। सरकार की पूंजीपतियों पर मेहरबानी और देश की बहुसंख्य मजदूर-मेहनतकश जनता के लिए हिकारत। बेरोजगार भटकते नौजवान। छंटनी झेलते मजदूर। इससे यह साफ हो जाता है कि कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है। पूंजीवादी शासक वर्ग ठीक कर भी नहीं सकता है। ठीक करने वाले देश के मजदूर-किसान, छात्र-नौजवान, महिलायें, उत्पीड़ित-शोषित जन ही हैं। बस उन्हें इसे अलग-अलग लोगों का काम नहीं अपना सामूहिक काम समझकर लड़ना होगा। इस बात के लिए लड़ना होगा कि यदि देश की सारी दौलत देश की जनता पैदा करती है तो हम इसके सामूहिक मालिकाने का दावा करते हैं।
                                              (वर्ष-11 अंक-1 अक्टूबर-दिसम्बर, 2019)

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