शनिवार, 25 जनवरी 2020

अग्निदीक्षा
....कबहुं न छाड़े खेत


‘अग्नि-दीक्षा’ सोवियत संघ के लेखक निकोलाई आस्त्रोवस्की द्वारा लिखित एक उपन्यास है। उपन्यास का नायक पावेल कोर्चागिन एक गरीब मजदूर परिवार में पैदा हुआ। पिता, मां, भाई, बहन सब मजदूर थे। बचपन में ही पावेल ने गरीबी की जलालत देखी थी।


‘अग्नि-दीक्षा’ नये मानव के जन्म की कहानी है। समाजवादी युग के उस नये मनुष्य की जो मानवता के सुख के लिए होने वाले संघर्ष में सब कुछ करने की योग्यता दिखलाता है। बड़े-बड़े काम अपने सामने रख कर उनको पूरा करके दिखाता है। यह उपन्यास दिखलाता है कि एक शत्रुता से भरे हुए परिवेश के विरुद्ध संघर्ष करते हुए ‘अग्नि-दीक्षा’ के नायक पावेल कोर्चागिन के मन और चरित्र का निर्माण होता है। किस तरह उसके विचार पकते हैं। उसकी इस आवश्यकता की जागृति होती है कि परिवेश और सम्पूर्ण समाज व्यवस्था को नये सिरे से बनाना है। यह उपन्यास वीर बोल्शेविक के साहस की कहानी है।

ग्यारह साल की छोटी उम्र में पावेल रेलवे स्टेशन के रेस्तरां (बावर्चीखाना) में काम करने लगा। रेस्तरां में गन्दगी और गुलामी का वातावरण था। इससे बचने के लिए वह अपना समय अपने भाई के साथ रेलवे डिपो में गुजारा करता था। वह रेलवे डिपो में एक मिस्त्री था। इसी जगह पर पावेल ने मानव अधिकारों के लिए मजदूरों के संघर्ष की बात सीखी।

पावेल को पढ़ाई करने का अवसर कम मिला। ग्यारह साल की छोटी उम्र में स्कूल से निकाल दिया गया। पावेल स्कूल के पादरी से सवाल करने, धर्मग्रंथों पर सवाल खड़े करने के कारण निकाल दिया गया। अपनी छोटी उम्र में ही वह तार्किकता और वैज्ञानिकता की ओर बढ़ चला था। 1917 की महान समाजवादी क्रांति ने पावेल के लिए शिक्षा के दरवाजे खोले। वह बिजलीघर में आग वाले का काम भी करता था। साथ में पढ़ता भी था। स्कूल से निकलने वाली साहित्यिक पत्र और गोष्ठियों के संचालन में योग देता था।

उक्रेन में घमासान युद्ध हो रहा था। नयी पीढ़ी के लोगों को अपने साथ खींच रहा था। पावेल और उसके मित्र आक्रमणकारियों और देश के साथ विश्वासघात करने वाले पूंजीपतियों से लड़ने वाली क्रांतिकारी कमेटी को मदद पहुंचाते थे। अगस्त 1919 में घर से भागकर पावेल लाल सेना में भर्ती हो गया। सेना में अपना परिचय बहादुर सैनिक के रूप में दिया। पन्द्रह वर्षीय पावेल लुओव की लड़ाई में बुरी तरह घायल हुआ और दाहिनी आंख की रोशनी जाती रही। 2 माह अस्पताल में गुजारने के बाद पावेल को सेना से छुट्टी दे दी गई। 

गृहयुद्ध के भीषण दौर में आवश्यक चीजों की भारी कमी थी। सेना से आने के बाद पावेल खाली नहीं बैठना चाहता था। वह किसी भी हालात, किसी भी तरह से अपनी भूमिका अदा करना चाहता था। 1919 में कीव जाकर स्थानीय कोमसोमोल (नौजवान कम्युनिस्ट) का प्रधान बना साथ में एक रेलवे कारखाने में इलेक्ट्रीशियन का काम करने लगा। पावेल नौजवान मजदूरों की टुकड़ी का एक नेता बना। जिसका काम नई रेल लाइन बिछाना था। घुटने-घुटने भर बर्फाले पानी में खड़े होकर कठिन परिस्थितियों में काम करते हुए तन्दुरुस्ती टूट गई।

लड़ाई का उसका जख्म, टाइफस बुखार, भयंकर गठिया तीनों ने मिलकर पावेल को बुरी तरह शारीरिक रूप से तोड़ दिया। पावेल को यह पसंद नहीं कि उसे रोगी करार दिया जाए। देश के राजनीतिक और रचनात्मक जीवन से उसका सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया जाए। पावेल के खाली ना बैठने की जिद, बार-बार काम मांगने के आग्रह के बाद वह बेरोजदोव में पार्टी व कोमसोमोल के महत्वपूर्ण काम में जुट गया। 

1924 में पावेल कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बना। तब तक तन्दुरुस्ती इतनी चौपट हो चुकी थी कि अब उसके लिए कोई काम करना असम्भव था। अच्छे विशेषज्ञों से चिकित्सा के बाद भी पावेल की बीमारी बढ़ती गई। 1926 में वीर नवयुवक पावेल आजीवन शय्या ग्रस्त हो गया। तीन साल बाद वह अंधा हो चुका था।

अब उसके अच्छे होने की उम्मीद न थी। यह नौजवान बोल्शेविक ऐसे जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता था जो जनता के कार्यों और संघर्षों से अलग हो। अपने जीवन को सार्थकता देने के लिए पावेल ने योजना बनाई। उसने फिर से नये सिरे से लड़ने वालों की कतार में शरीक होने का संकल्प लिया। इस बार उसके हाथ में नया हथियार था- कलम। पावेल ने ऐसी किताब लिखने की ठानी जो नई पीढ़ी को कम्युनिस्ट भावना में ढाल सके। यही पार्टी की सेवा होगी। पावेल को कम्युनिस्ट विश्वविद्यालय ने चिट्ठी-पत्र से मार्क्सवाद और लेनिनवाद की अच्छी शिक्षा दी। वह अपने अनुभवों को नई रोशनी में देखने लगा। वह यह बात समझा कि उसकी मातृभूमि की आजादी में कम्युनिस्ट पार्टी ने कितना योगदान दिया है। कम्युनिज्म के विचारों में वह कौन सी ताकत है, जिससे उसके देश, देशवासियों और खुद उसको भी एकदम बदल दिया है।

पावेल कोर्चागिन ने शुरू-शुरू में क्रांति के प्रति अपने कर्तव्य को जिस रूप में समझा था, उसमें व्यक्तिगत जिन्दगी के लिए कोई जगह नहीं थी। यहां तक कि उसमें प्रेम के लिए भी कोई जगह नहीं थी, जो यौवन का एक नैसर्गिक गुण है। एक मध्यवर्गीय लड़की से पावेल अपना रिश्ता खत्म कर देता है, जो मेहनतकशों को हेय दृष्टि से देखती थी। बाद में एक दूसरी लड़की से प्रेम करने लगता है परन्तु अपने प्रेम को वहीं पर खत्म कर देता है। वह सोचता है कि मैं यहां यह करने नहीं बल्कि समाज में अपना योगदान देने आया हूं। पावेल की इसी कठोरता पर रिता (उपन्यास की एक पात्र) लिखती है ‘‘पावेल, मेरे प्यारे पावेल! यह सब बातें मैं तुम्हें उस वक्त बतला सकती थी जब हम साथ थे। मगर इस तरह अच्छा होगा मैं सिर्फ एक बात की कामना करती हूं कि कांग्रेस से पहले हम लोगों ने जो बात की, उनके घाव का निशान तुम्हारी जिन्दगी पर न रहे। मैं जानती हूं तुम मजबूत आदमी हो और मैं यह भी जानती हूं कि तुमने जो कुछ कहा था उसको अच्छी तरह समझ-बूझकर ही कहा था। जीवन के प्रति मेरा कोई भटकता दृष्टिकोण नहीं है। मैं समझती हूं कि अपने व्यक्तिगत सम्बन्धों में, चाहे कभी-ही-कभी अपवाद किए जा सकते हैं बशर्ते कि वे एक सच्चे और गहरे प्यार पर आधारित हों। मैं तुम्हारे लिए यह अपवाद कर सकती थी, मगर मैंने जवानी के उस आवेश को ठुकरा दिया। मैं समझती हूं कि ऐसा करने से हम दोनों में से किसी को सच्चा सुख नहीं मिलेगा। मगर फिर भी मैं यह कहूंगी पावेल कि तुम्हें अपने साथ इतना कठोर नहीं होना चाहिए। हमारी जिन्दगी में केवल संघर्ष ही नहीं है, उसमें उस सुख के लिए भी जगह है जो सच्चे प्यार से मिलता है। जहां तक तुम्हारे जीवन के मूल अभिप्राय उसके मार्ग की बात है। मुझे उसके बारे में किसी तरह की कोई शंका नहीं है।’’

किस तरह से लोगों का जीवन बदल गया। एक जगह उपन्यास में एक व्यक्ति खुद अपने बारे में बता रहा है, ‘‘मेरा नाम इवान जार्की है। मैं यतीम हूं। मैंने कभी अपने मां-बाप को नहीं देखा और न उनके बारे में कुछ मालूम है। न कभी मेरा कोई अपना घर रहा। मैं सड़कों पर पला और बढ़ा हूं। मैं रोटी के एक-एक टुकड़े के लिए भीख मांगता था और अक्सर मुझे भूखे पेट सो जाना पड़ता था। मैं तुम्हें बतला सकता हूं कि मैं एक कुत्ते की जिन्दगी बिता रहा था। तुम सब जो अपनी मांओं के लाडले यहां इकट्ठे हुए हो, तुम्हें इसके बारे में कुछ भी पता न होगा। तब सोवियत सत्ता आई और लाल सेना के लोगों ने मुझे सड़क पर से उठाया और मेरी देखभाल की। उनकी एक पूरी प्लैटून ने मुझे गोद लिया। उन्होंने मुझे कपड़े दिये। उन्होंने मुझे लिखना-पढ़ना सिखलाया। मगर इन सब से बड़ी चीज यह कि उन्होंने मुझको सिखाया कि इंसान बनना किसे कहते हैं। उन्हीं के कारण मैं बोल्शेविक बना और अपनी आखिरी सांस तक बोल्शेविक रहूंगा। मैं खूब अच्छी तरह जानता हूं कि हम लोग किस चीज के लिए लड़ रहे हैं। हम लोग लड़ रहे हैं अपने ही जैसे गरीबों के लिए। हम लोग मजदूरों की हुकूमत के लिए लड़ रहे हैं। तुम लोग यहां पर बैठे चबर-चबर बातें कर रहे हो। मगर, तुम्हें नहीं मालूम कि इसी शहर के लिए लड़ते हुए हमारे दो सौ साथी मारे गये हैं। उन्होंने अपना जीवन बलिदान कर दिया।.....’’

पावेल कोर्चागिन अपनी जिन्दगी में बार-बार लगी बीमारियों से जो ठीक नहीं हो पा रही थीं, परेशान होकर सोचते हुए कि मैं अब अपनी जिन्दगी में क्या करुं कहता है, ‘‘आदमी की सबसे बड़ी दौलत उसकी जिन्दगी होती है और जीने के लिए आदमी को बस एक ही जिन्दगी मिलती है। उसे इस तरह अपनी जिन्दगी जीनी चाहिए ताकि उसे मन ही मन इस दुख की यंत्रणा को न सहना पड़े कि उसने अपनी जिन्दगी के साल यों ही गुजार दिये हैं ताकि उसे इस जिल्लत की आग में न जलना पड़े कि उसका बीता हुआ जमाना नीचे गिरा और ओछा था। उसे इस तरह से जीना चाहिए ताकि मरते वक्त वह यह कह सके कि मैंने अपनी सारी जिन्दगी, अपनी सारी शक्ति संसार के पवित्रतम कार्य में लगाई है- मानव जाति की आजादी की लड़ाई में लगाई है और आदमी को अपनी जिन्दगी के एक-एक क्षण का इस्तेमाल करना चाहिए क्योंकि कौन जाने कब कोई अचानक बीमारी या करुण दुर्घटना बीच में ही उसकी जिन्दगी के सूत को काट दे।’’

‘अग्नि-दीक्षा’ हमें क्यों पढ़नी चाहिए? ‘अग्नि-दीक्षा’ नये नायक के जन्म की कहानी है। समाजवादी युग के उस नये मनुष्य की जो मानवता के सुख के लिए होने वाले संघर्ष में सब कुछ करने की योग्यता अपने अंदर दिखलाता है। पावेल कोर्चागिन को जिस तरह यंत्रणा व रोग से लड़ना पड़ा और सोवियत अधिकारियों ने उसकी सहायता की जो उसके मित्र-सम्बन्धी नहीं थे। यह दिखाता है कैसे तब के सोवियत संघ में मानव सम्बन्धों में कितना बड़ा परिवर्तन आ चुका था और नये मनुष्य का जन्म हो रहा था। समाजवादी समाज में श्रम की प्रकृति, उसका रूप और प्राण बदल जाते हैं और करोड़ों आदमी निर्माण में लगी हुई एक इकाई बन जाते हैं। एक नये जीवन का निर्माण करते हैं। यह परिवर्तन लोगों के आपसी सम्बन्धों को बदल देते हैं। श्रम और समाजवादी सम्पत्ति के प्रति पावेल का नया दृष्टिकोण दिखाई देता है। कारखाने व देश का वह खुद मालिक है। औजारों के प्रति लापरवाही बरतने वाले मजदूरों से कैसे लड़ता है। तोड़-फोड़ व चोरी-छिपे व्यापार करने वाले लोगों से डटकर लड़ता है। पावेल ने क्रांति के प्रति अपने कर्तव्य को शुरू में जिस तरह समझा था कि उसमें अपनी व्यक्तिगत जिन्दगी का कोई मतलब नहीं था। प्रेम भी नहीं करता है। बाद में प्रेम क्या होता है, उसको समझकर शादी करता है। अपनी जीवन साथी को भी बोल्शेविक पार्टी में शामिल होने के लिए प्रेरित करता है। वह प्रेम के उच्च आदर्शों को दिखाता है। अपनी मां को भी कम्युनिस्ट पार्टी में लाकर निस्वार्थ भाव से पार्टी की सेवा को जारी रखता है।

अपनी जिन्दगी की निजी परेशानियों से जूझते हुए किस तरह  वीर पावेल कोर्चागिन खुद से लड़ता है और हर समय बिना एक क्षण गंवाये देश व समाज के लिए काम करना चाहता है। भयंकर बीमारी व रोग के बाद भी वह अंतिम समय तक देश व पार्टी की सेवा करता रहा। एक महत्वपूर्ण बात यह कि कितने ऊंचे व महान आदर्शों पर खड़ी वह रूसी बोल्शेविक कम्युनिस्ट पार्टी थी जिसने पावेल कोर्चागिन जैसे असंख्य वीर नायकों को तैयार किया। जो अंतिम सांस तक समाजवादी समाज को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दे रहे थे। सोवियत समाज के पावेल कोर्चागिन के जीवन को सीखने उसके चरित्र को समझे बिना अपने जीवन में यह लागू ना करें तो ऐसा किये बिना न तो इस पूंजीवादी समाज को बदला जा सकता है ना ही नये समाज समाजवादी भारत का निर्माण किया जा सकता है। पावेल कोर्चागिन जैसा शूरवीर बनना चाहिए। और शूरवीर वही है जो गरीबों, दुखियों, पीड़ितों और मेहनतकशों के लिए लड़े। उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो जाये तब भी युद्ध का मैदान ना छोड़ें।
                                              (वर्ष-11 अंक-1 अक्टूबर-दिसम्बर, 2019)

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