राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ- एक संक्षिप्त परिचय
1925 में विजयदशमी के दिन अपनी स्थापना से लगभग 95 वर्ष बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आज पूरी दुनिया का सबसे बड़ा संगठित फासीवादी संगठन बन चुका है।
कभी महज 12 सदस्यों की शाखा से शुरू हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की उपस्थिति देशभर में आज है। हालांकि आर.एस.एस. का स्वरूप आज भी अर्धगोपनीय व अर्द्धसैनिक संगठन का है और इसके सदस्यों का कोई आधिकारिक रिकार्ड उपलब्ध नहीं होता, तब भी यह सच है कि आज कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से उत्तरपूर्व तक आर.एस.एस. (संक्षेप में संघ) की मौजूदगी है।
संघ के राष्ट्रीय प्रचार प्रमुख अरुण कुमार के मुताबिक संघ की शाखाओं व सदस्यता में पिछले 10 वर्षों में दुगुनी वृद्धि हुई है। वर्तमान में संघ की 50 हजार शाखायें चल रही हैं, जिनमें प्रतिदिन 5 से 6 लाख लोग भागीदारी करते हैं। संघ की वृद्धि 20 से 25 प्रतिशत वार्षिक दर से हो रही है।
आज संघ की हैसियत कितनी बढ़ चुकी है इसका अंदाजा इसी से लग जाता है कि संघ की राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी 12 करोड़ सदस्यों की घोषणा के साथ दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतिक दल बन चुकी है। जिसकी केन्द्र से लेकर 20 राज्यों में सरकार है। सेना, नौकरशाही, न्यायपालिका से लेकर राज्य सत्ता के हर अंग में और राज्येतर संस्थाओं में संघ की प्रभावी मौजूदगी है। देश का मीडिया संघ के इशारों पर नाचता है।
कभी राजनीति से दूरी रहने की बात करने वाला तथा स्वयं को एक गैर राजनीतिक-सांस्कृतिक संगठन कहने वाला संघ आज खुलकर राजनीति करता है। विजयदशमी के दिन संघ प्रमुख देश के अघोषित राष्ट्र प्रमुख की मुद्रा में देश को संबोधित करते हैं तथा दूरदर्शन से लेकर लगभग सभी प्रमुख निजी चैनल उसी श्रद्धाभाव से उनके भाषण का सीधा प्रसारण करते हैं। समय-समय पर संघ के दरबार में भाजपा नेता अपने मूल्यांकन हेतु व्यक्तिगत और सामूहिक रूप में अपना रिपोर्ट कार्ड लेकर उपस्थित होते हैं। संघ न केवल भाजपा को निर्देशित करता है बल्कि समय-समय पर सरकार का प्रचार व बचाव करता दिख जाता है।
संघ अब तेजी से अपने उस चिर-परिचित हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लक्ष्य को पूरा करने की तरफ बढ़ रहा है।
पुरातनपंथी, ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक मूल्यों एवं हिन्दू पुनरुत्थानवादी आंदोलन का मुख्य प्रतिनिधि होने के बावजूद, समय के साथ अपनी विचारधारात्मक अवस्थितियों को मूलतः अपरिवर्तित रखते हुए, आधुनिकता के अनुरूप भी संघ ने अपने रूप को ढाला है। संघ के गणवेश में परिवर्तन से लेकर ‘जातिगत समरसता’ के विचारों, प्रयोगों एवं हिन्दुत्व को नए रूप में परिभाषित करने के उपक्रम, स्वदेशी व राजकीयकरण के समर्थक से वैश्वीकरण व निजीकरण के समर्थक के रूप में सामने आना इन्हीं की अभिव्यक्ति है। यह कम दिलचस्प नहीं है कि आज संघ के प्रतिसप्ताह 10,000 आई.टी.(इंफोरमेशन टेक्नोलोजी) के मिलन कार्यक्रम (बैठक) होते हैं। ब्राह्मणवादी मूल्यों का पैरोकार संघ रविदास व वाल्मीकि जयंती कार्यक्रमों के आयोजनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता है। कभी मुसलमानों को भीतरी दुश्मन के रूप में परिभाषित करने वाला संघ मुसलमानों को संस्कारित करने की बात करता है और ‘राष्ट्रीय मुस्लिम मंच’ के नाम से संगठन भी चला रहा है।
मौजूदा दौर में संघ के बारे में एक सही समझ बनाने के लिए हम संक्षेप में संघ की विकास यात्रा, उसकी वैचारिक अवस्थितियों, उसके हिन्दू राष्ट्रवाद की अवधारणा एवं राष्ट्रीय आंदोलन में संघ की भूमिका की चर्चा करते हुए मौजूदा दौर में संघ के आधुनिक अवतार व ‘सामाजिक इंजीनियरिंग’ की चर्चा करेंगे तथा देश के समक्ष संघ निर्देशित-संचालित हिन्दू फासीवाद के खतरे की चर्चा करेंगे।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना 1925 में डॉ0 केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी। हेडगेवार पहले कांग्रेस के कार्यकर्ता थे। असहयोग आंदोलन के दौरान(1921-22) वे 1 वर्ष के लिए जेल भी गये। राष्ट्रीय आंदोलन में यह उनका पहला और अंतिम योगदान था। हालांकि 1930 में भी वे 1 माह के लिए जेल गए लेकिन उस जेल यात्रा का उद्देश्य आजादी के आंदोलन में शामिल युवाओं को संघ के प्रभाव में लाना था। बाकि हेडगेवार और उनके बाद गुरू गोलवलकर ने संघ को सचेत रूप से आजादी के आंदोलन से किनारे रखा था। संघ की आजादी के आंदोलन में भूमिका की आगे चर्चा करेंगे। पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के जन्म के भौतिक राजनीतिक आधारों की चर्चा कर ली जाय।
20 वीं सदी में महाराष्ट्र, भारत में हिन्दू पुनरुत्थानवाद के गढ़ के रूप में उभरा। संघ के साथ उसके पूर्ववर्ती हिन्दू महासभा के विनायक सावरकर और मुंजे जैसे नेता और तिलक जैसे राष्ट्रवादी यहीं से थे।
मराठा राज्य के अंतर्गत सत्ता ब्राह्मण पेशवाओं के हाथ में आने के बाद पूरे भारत से ब्राह्मणों ने महाराष्ट्र में बसना शुरू किया। ब्राह्मणों का महाराष्ट्र में बसने का कारण यह था कि मुस्लिम शासन के अंतर्गत ब्राह्मणों को वह राजकीय सम्मान व हैसियत नहीं मिल रही थी जिसे उन्होंने पूर्ववर्ती हिन्दू शासकों के काल में भोगा था। इन ब्राह्मणों ने धीरे-धीरे मराठी को अपना लिया। इन ब्राह्मणों में कर्नाटक के कनाडे, तेलंगाना के तेलंग, तमिलनाडु के द्रविड़, गुजरात के गुजराते, पंजाब के पंजाबे, बनारस के बरपांडे, कश्मीर व बंगाल के सारस्वत ब्राह्मण प्रमुख थे। इन अप्रवासी ब्राह्मणों ने जहां जमींदारी हासिल की (देशमुख, देशपांडे) वहीं आधुनिक शिक्षा में भी आगे रहे। सामाजिक सुधार से लेकर राष्ट्रीय आंदोलन में भी ये खिंचे। लेकिन उनमें पुनरूत्थानवादी दृष्टिकोण ही प्रभावी रहा। राष्ट्रीय आंदोलन में तिलक से लेकर चापेकर बंधु अतीत के हिन्दू गौरव की वापसी की ही बात करते थे। महाराष्ट्र के इन ब्राह्मणों में चितपावन (कोंकणी) ब्राह्मणों का हिन्दू पुनरूत्थानवाद के विकास में खासा योगदान रहा। चापेकर बंधु, बालगंगाधर तिलक, बी.एस. मुंजे, सावरकर से लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रथम चार प्रमुख (सर संघ चालक) गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे व नारायण आप्टे चितपावन ब्राह्मण ही थे।
संघ संस्थापक हेडगेवार के ऊपर सर्वाधिक प्रभाव डा0 बी.एस. मुंजे का पड़ा जो तिलक के करीबी सहयोगी एवं हिन्दू महासभा के प्रमुख नेता थे। संघ का जो गणवेश व अर्द्धसैन्य सांगठनिक स्वरूप है उसके पीछे मुंजे की ही सोच रही है। 15 मार्च 1931 से 24 मार्च 1931 के बीच मुंजे अपनी यूरोप यात्रा के दौरान इटली के फासीवादी नेता बेनिटो मुसोलिनी से मिले थे। उन्होंने इस मुलाकात के साथ ही फासीवादी ट्रेनिंग शिविरों का भी भ्रमण किया था।
हेडगेवार के द्वारा संघ की स्थापना की तात्कालिक प्रेरणा मोपला विद्रोह व अहमदाबाद के दंगे थे। मोपला केरल के मालाबार के किसान थे। वर्ण व्यवस्था-जाति व्यवस्था के आतंक से अधिकतर मालाबार के किसान मुसलमान व इसाई बन गये थे। जबकि जमींदार उच्च जाति के हिन्दू ही रहे। मोपला किसानों, जो कि मुसलमान थे, के जमींदारों के खिलाफ विद्रोह को अंग्रेजों व देशी रियासतों ने सांप्रदायिक रूप में ही प्रस्तुत किया था। मोपला विद्रोह में कुछ अतिरेक भी हुए थे जो कि योग्य नेतृत्व व विचारधारा के अभाव में प्रायः स्वतःस्फूर्त विद्रोहों में होता है। इन्हीं अतिरेकों को अंग्रेजों व उनके चाटुकारों ने हवा दी थी। संघ की स्थापना के पीछे हेडगेवार का मूल उद्देश्य एक संगठित हिन्दू मिलिशिया का गठन करना था। जिससे विधर्मियों को भरपूर सबक सिखाया जा सके। साथ ही प्राचीन भारत के गौरव को स्थापित कर हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना था। हिन्दू राष्ट्र का विचारधारात्मक परिप्रेक्ष्य और हिन्दुत्व को राष्ट्रीयता के पर्याय के रूप में संघ की विचारधारा के ठोस रूप देने का काम हेडगेवार की 1940 में मृत्यु के बाद सर संघचालक बने गुरू गोलवलकर ने किया।
माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने हिन्दुत्व की अवधारणा मूल रूप से सावरकर से ही उधार ली और उसमें कुछ नये अवयव जोड़कर हिन्दुत्व को संघी राष्ट्रवाद की अवधारणा के रूप में विकसित किया। सावरकर के और संघ के हिन्दुत्व का परंपरागत हिन्दू धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है। बल्कि यह हिन्दू धर्म को विकृत कर उसे असहिष्णु व अपवर्जी बनाकर राजनीतिक गोलबंदी के एक उपकरण में तब्दील करने का उपक्रम है। सावरकर के अनुसार हिन्दुत्व ही भारत की राष्ट्रीयता व नागरिकता का आधार है और वे सभी समुदाय जिनकी पितृभूमि (जन्म स्थान) व पुण्यभूमि (तीर्थ) भारत में हैं हिन्दुत्व की परिभाषा और तदनुरूप देशभक्ति और नागरिकता के दायरे में आते हैं। जाहिर है इस परिभाषा के अनुसार केवल हिन्दू, बौद्ध, सिक्ख व जैन समुदाय के लोग ही नागरिकता के पात्र हो सकते हैं।
गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा’ (वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड) में राष्ट्र को पांच निर्विवादनीय तत्वों- ‘‘देश, नस्ल, धर्म, संस्कृति और भाषा’’ से बना बताते हैं। सावरकर की तरह उन्होंने संस्कृति को धर्म से जोड़ते हुए इसे हिन्दुत्व कहा। सावरकर की तरह वह नस्लीय शुद्धता को हिन्दू राष्ट्र निर्माण का आवश्यक साधन मानते थे। हिन्दू धर्म व संस्कृति हिन्दू राष्ट्र की अद्वितीय पहचान थे। गोलवलकर के अनुसार ‘‘हम वह हैं जो हमारे महान धर्म ने बनाया है। हमारी नस्लीय भावना हमारे धर्म की उपज है और हमारे लिए संस्कृति और कुछ नहीं बल्कि हमारे सर्वव्यापी धर्म का उत्पाद है, इसके शरीर का अंग जिसे इससे अलग नहीं किया जा सकता......वह प्रत्येक इकाई जिसे हम राष्ट्र कहते हैं एक राष्ट्रीय धर्म और एक संस्कृति को धारण करता है तथा उसे कायम करता है। क्योंकि ये राष्ट्रीय विचार को संपूर्ण बनाने के लिए आवश्यक हैं।’’ (एम.एस.गोलवलकरः वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड, भारत पब्लिकेशन, नागपुर, 1939 का हिन्दी अनुवाद ‘हम और हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा, पृष्ठ 132-133)
अपने राष्ट्रवाद में नस्लीय श्रेष्ठता को महत्वपूर्ण अवयव मानने के साथ गोलवलकर किस कदर जर्मन नाजीवाद से प्रभावित थे और हिटलर द्वारा यहूदियों के सफाये पर प्रसन्न होकर भारत में अल्पसंख्यकों के सफाये के लिए नाजियों द्वारा यहूदियों के नरंसहार से जरूरी सबक निकाल रहे थे उसे उनकी इन बातों से समझा जा सकता है-
‘‘जर्मन नस्ल का गर्व आज चर्चा का विषय बन गया है। नस्ल तथा उसकी संस्कृति की शुद्धता को बनाये रखने के लिए, देश सामी नस्लों-यहूदियों से- स्वच्छ करके जर्मनी ने पूरी दुनिया को स्तब्ध कर दिया है। यहां नस्ल का गौरव अपने सर्वोच्च रूप में अभिव्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह दिखा दिया है कि किस तरह ऐसी नस्लों तथा संस्कृतियों का, जिनकी भिन्नताएं उनकी जड़ों तक जाती हैं, एक एकीकृत समग्रता में घुलना, लगभग असंभव ही है। यह हिन्दुस्थान में हमारे लिए एक अच्छा सबक है कि सीखें और लाभान्वित हों।’’ (वही, पृष्ठ 140)
इसके साथ ही राष्ट्र के सामने आंतरिक संकट के रूप में जिन 3 संकटों का वर्णन करते हैं उनमें 1. मुसलमान 2. इसाई और 3. कम्युनिस्ट हैं। मुसलमानों के बारे में तो गुरू गोलवलकर मुसलमानों को पाकिस्तान का एजेण्ट घोषित कर देते हैं।
...‘‘निष्कर्ष यह है प्रायः हर स्थान में ऐसे मुसलमान हैं, जो ट्रांसमीटर के द्वारा पाकिस्तान से सतत संपर्क स्थापित किये हैं और अल्पसंख्यक होने के नाते सामान्य नागरिक के ही नहीं, अपितु कुछ विशेषाधिकारों तथा विशेष अनुग्रहों को भी उपभोग करते हैं....’’ (विचार नवनीत(बंच ऑफ थॉट का हिन्दी अनुवाद) मा.स. गोलवलकर, ज्ञानगंगा प्रकाशन, अध्याय 16, पृष्ठ 187)
यही नहीं वे मौलाना अबुल कलाम जैसे लोगों पर भी कीचड़ उछालने से नहीं बचते-
‘‘हमारे समय के महानतम ‘राष्ट्रीय मुसलमान’ मौजाना आजाद ने भी अपने अंतिम समय में ‘इंडिया विंस फ्रीडम’ नामक पुस्तक में अपने मस्तिष्क को निभ्रांत शब्दों में प्रकट कर दिया है। प्रथम तो संपूर्ण पुस्तक आरंभ से अंत तक एक निर्लज्जतापूर्ण अहमन्यता से भरा कथन है, जिसमें गांधी जी तथा नेहरू जी सहित अन्य सभी नेताओं को समाविष्ट करते हुए क्षुद्र बुद्धि के रूप में चित्रित किया गया है और पटेल को सांप्रदायिक रूप में। ....सबसे बढ़कर पाकिस्तान के निर्माण का उनका विरोध पूर्णरूप से इस कारण है कि वह मुसलमानों के हितों के प्रतिकूल होगा।.........मौलाना जिन्ना से अधिक धूर्त थे। यानी उन पर छोड़ दिया जाता तो भारत वस्तुतः मुसलमानी वर्चस्व का देश हो जाता। ’’
मौलाना आजाद जैसे राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं जिन्होंने देश के बंटवारे का अंतिम समय तक विरोध किया, को लांछित करने वाले गोलवलकर व संघ की आजादी की लड़ाई में क्या योगदान था, निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है-
‘‘1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आंदोलन था। उस समय भी संघ का नित्यकर्म चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प लिया। परंतु संघ के स्वयंसेवकों के मन में उथल-पुथल चल रही थी। संघ यह अकर्मण्य लोगों की संस्था है, उसकी बातों में कुछ अर्थ नहीं, ऐसा केवल बाहर के लोगों ने ही, तो अपने स्वयंसेवकों ने भी कहा। वे बड़े रुष्ट भी हुए।’’ (श्री गुरू जी समग्र ‘दर्शन’, खंड 4 पृष्ठ 40 भारतीय विचार साधाना, नागपुर 1981, में प्रकाशित एवं शम्शुल इस्लाम की पुस्तक ‘गोलवलकरवादः एक अध्ययन से उदधृत)
यही नहीं आजादी के आंदोलन में अपने प्राणों की बाजी लगाने वाले राष्ट्रीय क्रांतिकारियों के बारे में श्री गुरु जी की यह राय थी।
‘‘निःसंदेह ऐसे व्यक्ति जो अपने आप को बलिदान कर देते हैं श्रेष्ठ व्यक्ति हैं और उनका जीवन दर्शन प्रमुखतः पौरुषपूर्ण है। वे सर्वसाधारण व्यक्तियों से जो कि चुपचाप भाग्य के आगे समर्पण कर देते हैं और भयभीत एवं अकर्मण्य बने रहते हैं बहुत ऊंचे हैं। फिर भी हमने ऐसे व्यक्तियों को समाज के सामने आदर्श के रूप में नहीं रखा है। क्योंकि अंततः वे अपना उद्देश्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई त्रुटि थी’’ (वही पृष्ठ 281)
आजादी के आंदोलन के दौर में गोलवलकर ने कभी यह दावा नहीं किया कि वे ब्रिटिश शासन के खिलाफ थे बल्कि इस सम्बंध में कोई संशय न छोड़ते हुए 5 मार्च 1960 को इन्दौर की एक सभा में उन्होंने कहा-
‘‘हम लोग इस प्रेरणा से काम करते थे कि अंग्रेजों को निकालकर देश को स्वतंत्र करना है। अंग्रेजों के औपचारिक नीति से चले जाने के पश्चात कार्य की यह प्रेरणा ढीली पड़ गयी। हमें स्मरण होगा कि हमने प्रतिज्ञा में धर्म और संस्कृति की रक्षा कर राष्ट्र की स्वतंत्रता का उल्लेख किया है, उसमें अंग्रेजों के जाने न जाने का कोई उल्लेख नहीं है।’’ (वही खंड-4, पृष्ठ 2)
1857 के एक नायक अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह जफर जो कि 1857 के विद्रोह के प्रतीक थे, का मजाक उड़ाते हुए गोलवलकर ने लिखाः ‘‘1857 में हिन्दुस्तान के तथाकथित अंतिम शासक ने निम्न गर्जना की थी-गाजियों में बू रहेगी जब तक ईमान की/तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की- परंतु आखिर क्या हुआ? सभी जानते हैं वह।’’ (श्री गुरूजी समग्र दर्शन, खंड-1, पृष्ठ-121, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981)
जाहिर है संघ ने न केवल आजादी के आंदोलन से किनाराकशी की बल्कि आजादी के आंदोलन व क्रांतिकारियों का उपहास भी किया। जब पूरा देश आजादी की लड़ाई के लिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहा था तो संघ अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत मुसलमानों के खिलाफ विषवमन कर देश के माहौल को विषाक्त बनाने में तुला था। यही कारण है कि अंग्रेजी शासन के दौरान खुफिया एजेंसियों ने ब्रिटिश सरकार को संघ के बारे में सकारात्मक रिपोर्ट दी।
‘‘क्रमिक विकास और तैयारी की अपनी नीति पर चलते हुए संघ ने सामान्यतः कानून न तोड़ने और अधिकारियों से न उलझने के नियम का पालन किया है।’’ (होम डिपार्टमेंट के अफसर ई.जे. बेवेरिज की 7-3-1943 को आर.एस.एस पर लिखी टिप्पणी)
आर.एस.एस के लोग आजादी के आंदोलन से विमुख ही नहीं थे कई मौकों पर उन्होंने क्रांतिकारी लोगों के नाम सरकार को बताकर विश्वासघात किया। ऐसे ही एक प्रमुख स्वयंसेवक संयुक्त प्रांत के ध्वज वाहक अटल बिहारी वाजपेयी भी थे। बंबई के साप्ताहिक पत्र ब्लिट्ज ने एक लंबी रिपोर्ट प्रकाशित करके उद्घाटित किया कि अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘1942 में स्वतंत्रता संघर्ष के अपने क्रांतिकारी साथियों के नाम पुलिस को बताकर विश्वासघात किया और खुद माफी मांगकर जेल से बाहर आ गये।’ (ब्लिट्ज, जनवरी 26, 1974 में प्रकाशित एवं देशराज गोयल की पुस्तक ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में उदधृत, पृष्ठ 77) ब्लिट्ज के लेख में अटल बिहारी वाजपेयी के भाई प्रेम बिहारी वाजपेयी के लेख का उल्लेख है जो मध्य प्रदेश सरकार के पत्र संदेश में 12 मई, 1973 को प्रकाशित हुआ था जिसमें लिखा है कि बटेश्वर केस में दोनों भाई गिरफ्तार हुए थे और वायसराय की कौंसिल के मेम्बर सर गिरिजाशंकर वाजपेयी के बीच में पड़ने से रिहा हुए थे। ब्लिट्ज पर संघी नेताओं ने मुकदमा चलाया जो खारिज हो गया लेकिन संबद्ध व्यक्ति अटल बिहारी वाजपेयी ने न तो कोई सफाई दी और न मानहानि का दावा किया बल्कि खामोश रहना ही उचित समझा।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा हाल ही में आजादी के आंदोलन में संघ की भूमिका नामक एक पुस्तिका प्रकाशित की गयी है। जिसमें क्रांतिकारियों के साथ संघ के संबंधों के फर्जी दावों के साथ संघ का पहला गौरवपूर्ण कृत्य अपनी स्थापना के दो वर्ष के भीतर पुणे में 50 लाठीधारी स्वयंसेवकों द्वारा मुहर्रम के जुलूस पर हमला करके उसे तितर-बितर करने के रूप में दर्ज है। यह वही समय था जब पूरे देश में साईमन कमीशन के विरोध में आंदोलन हो रहे थे। ये हैं खुद को परम राष्ट्रवादी मानने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व उसके स्वयं सेवकों की देशभक्ति के नमूने।
आजादी के आंदोलन में संघ की भले ही कोई भूमिका न हो लेकिन विभाजनकालीन दंगों में उसने भरपूर भूमिका निभाई। गांधी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगा। गांधी की हत्या में संघ के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य न मिला हो लेकिन गांधी की हत्या पर संघ कार्यकर्ताओं द्वारा मिठाई बांटने की बात सर्वविदित है। तत्कालीन गृहमंत्री बल्लभभाई पटेल ने गोलवलकर को लिखे पत्र में विभाजनकालीन दंगों में निर्दोष मुस्लिमों की हत्या करने व गांधी की हत्या पर मिठाई बांटने का जिक्र करते हुए संघ पर प्रतिबंध को उचित ठहराया था। गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे, जिसे की इस मामले में सजा हुई थी, ने संघ द्वारा नाथूराम गोडसे से पल्ला झाड़ने पर संघ नेताओं की कायरता के लिए उनकी आलोचना करते हुए बताया कि वह और उसका भाई नाथूराम गोडसे हमेशा संघ के स्वयंसेवक रहे हैं। संघ की शाखाओं में छिपे रूप से गोपाल गोडसे द्वारा लिखित किताब ‘गांधी वध’ पढ़ाई जाती है। गांधी हत्या को औचित्यपूर्ण साबित करने वाले नाटक ‘मी नाथूराम बोलतोय’ का मंचन तो हिन्दुत्ववादियों के सभा-जलसों में ही होता है।
विभाजन के दौरान पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों के बीच संघ ने अपनी त्राता व रक्षक की छवि निर्मित की। इसमें निर्दोष मुस्लिमों की बदले की कार्यवाही के तहत हत्याओं से लेकर शरणार्थी शिविरों में राहत सामग्री वितरण एवं अन्य पश्चिमी पाकिस्तान से लोगों को निकाल लाने जैसी कार्यवाहियां प्रमुख थीं। सरदार पटेल ने आर.एस.एस के पंजाब प्रमुख रायबहादुर दीवान बद्रीदास को पंजाब का कार्यवाहक गर्वनर बना दिया और राहत वितरण की पूरी जिम्मेदारी पंजाब रिलीफ कमेटी को दे दी जो वस्तुतः आर.एस.एस का ही दूसरा नाम था। इससे इस संगठन ने इस अवसर का लाभ उठाकर ‘हिन्दू रक्षक’ होने की प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली एवं संघ का उत्तर भारत में पंजाबी शरणार्थियों खासकर हिन्दुओं के बीच व्यापक आधार बन गया।
लेकिन गांधी जी की हत्या के बाद व्यापक जनता संघ और उसकी सांप्रदायिक विचारधारा को इसके लिए जिम्मेदार मानने लगी।
ऐसे में संघ को दो दिक्कतें महसूस हुई। पहली तो प्रत्यक्ष अपने नियंत्रण में चलने वाले एक चुनावी संगठन या पार्टी की। दूसरा अपने ऊपर लगे कट्टरपंथ के आरोप से पीछा छुड़ाने के लिए एक मुखावरण की जो वैचारिक तौर पर उसे जनता के बीच ज्यादा स्वीकार्य बनाये।
इस कमी को पूरा करने के लिए जहां संघ ने भारतीय जनसंघ को गठित किया तो दूसरी तरफ दीनदयाल उपाध्याय द्वारा गोलवलकर के कट्टर हिन्दुत्व की विचारधारा को लोकरंजक सौम्य रूप में ‘एकात्म मानववाद’ की विचारधारा को प्रस्तुत किया।
दरअसल एकात्म मानववाद में गोलवलकर के कुछ तत्वों की कांट-छांट कर समायोजन था ताकि संघ के राजनीतिक अंग भारतीय जनसंघ को जनता के बीच व्यापक स्वीकार्यता दिलाई जा सके। गांधी जी के रामराज्य, ग्राम स्वराज, कुटीर उद्योग, सनातनी हिन्दू के रूप में अपनी पहचान स्थापित करना आदि तत्व संघ द्वारा गांधी को कांट छांटकर आत्मसात करने का आधार प्रस्तुत करते थे। गांधी के अंत्योदय, हिन्दुत्व की राष्ट्रवादी अवधारणा व पितृसत्तात्मक मूल्यों को मिलाकर एकात्म मानववाद के दर्शन को गढ़ा गया। इसके अंतर्गत व्यक्तिगत हित से ऊपर पारिवारिक हित, परिवार से ऊपर सामुदायिक हित व सामुदायिक हित से ऊपर राष्ट्र हित को घोषित किया गया। और व्यक्ति, परिवार, समुदाय व राष्ट्र को एक समेकित जैविक इकाई के रूप में प्रस्तुत किया गया। एकात्म मानववाद जनसंघ व बाद में भाजपा की जनता के बीच घोषित विचारधारा बना रहा।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने विभिन्न जनसंगठनों व राजनीतिक मोर्चे द्वारा व्यापक हिन्दू समाज को अपने पीछे लामबंद करना चाहता था लेकिन उसके ब्राह्मणवादी आग्रह दलितों व पिछड़ों को उससे दूर कर देते थे। गौरतलब है कि संघ की हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा में जाति वर्ण-व्यवस्था भारतीय राष्ट्रीयता का एक दैवीय व पौराणिक तत्व रहा है। आजादी के बाद भारत के संविधान की प्रतियां संघियों ने जलायी थी और मनुस्मृति को ही भारत का संविधान घोषित करने की मांग की थी। जाति व्यवस्था का समर्थन करते हुए गोलवलकर ने फरमाया था।
‘‘महाभारत, हर्ष वर्धन या पुलकेशी के समय को देखिये जाति आदि जैसी सभी तथाकथित बुराइयां तब भी आज से कम नहीं थी और इसके बावजूद हम एक गौरवशाली विजेता राष्ट्र थे। क्या जाति अशिक्षा आदि के बंधन तब आज से कम कठोर थे जब शिवाजी के नेतृत्व में हिन्दू राष्ट्र का महान उन्नयन हुआ था? नहीं ये वे चीजे नहीं हैं जो हमारी राह का रोड़ा है...’’ (गोलवलकर, वी ऑर अवर नेशनहुड डिफायंड, पृष्ठ 156, भारत पब्लिकेशन, नागपुर)
अन्यत्र वे बौद्धधर्म के अंतर्गत कमजोर हुए जाति बंधनों को इस्लाम के फैलाव के रूप में जिक्र करते हुए कठोर जाति बंधनों को हिन्दू राष्ट्र के लिए जरूरी मानते हैं।
जाहिर है वक्त के साथ अपनी इन मान्यताओं को खुले रूप में उद्घाटित करना संघ के लिए कठिन होता गया और जनता में संघ के राजनीतिक मोर्चे को यानी जनसंघ व 1980 के बाद व 90 के दशक से पहले भाजपा को ब्राह्मणों की पार्टी के नाम से जाना जाने लगा था।
संघ की छवि एक रूढ़िवादी, अतिवादी संगठन के रूप में स्थापित हो रही थी ऐसे में गोलवलकर के बाद संघ प्रमुख बने बाबासाहब देवरस सामाजिक समरसता की नीति लाए जो जाति व्यवस्था का विरोध किए बगैर सभी जातियों के बीच मधुर सम्बंधों की बात करते थे। साथ ही आर्थिक सामाजिक मुद्दों में संघ ने अपने जनसंगठनों के माध्यम से खासकर जनसंघ के माध्यम से हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। भ्रष्टाचार का मुद्दा इनमें प्रमुख मुद्दा रहा।
इनका इस्तेमाल संघ ने भारी संख्या में अपने कार्यकर्ताओं को गोलबंद कर कांग्रेसी सरकारों को अस्थिर करने में किया और उसे सफलता भी मिली। साथ ही हिन्दुत्व की राजनीति को व्यवहारिक रूप में ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’, ‘छद्म सेकुलरवाद’ एवं ‘समान नागरिक संहिता’ के मुद्दों एवं प्रतीकों की राजनीति को बाबरी मस्जिद-राम जन्म भूमि विवाद के जरिये कारगर तरीके से आगे बढ़ाया गया। इन व्यवहारिक नीतियों जिनमें कट्टर गोलवलकरीय सिद्धांतों को संघ की शाखाओं व उच्चतर सोपानक्रमों तक सीमित किया गया और कहीं-कहीं तो कुछ दिक्कत तलब हिस्सों को नए प्रकाशित संस्करणों से बाहर कर दिया गया।
कुल मिलाकर आजादी के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अपने को परिस्थितियों के अनुरूप नए रूप में ढाला और अपनी अंतर्वस्तु को अक्षुण्य रखते हुए हिन्दुत्व के व्यवहारिक प्रयोगों को अमल में उतारना शुरू किया। आजादी के बाद संघ की विकास यात्रा व उसके रूपांतरण की चर्चा अगले अंक में की जायेगी। क्रमशः जारी........
(वर्ष-11 अंक-1 अक्टूबर-दिसम्बर, 2019)
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