फासीवादी हमले के खिलाफ छात्रों के एकजुट संघर्ष
देश में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) पास होने के बाद विरोध प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया। यह दौर आज भी जारी है। सीएए कानून अंग्रेजों द्वारा बनाये गये काले कानूनों सरीखा है। धर्म के नाम पर यह जनता को बांटता है। जनता का उत्पीड़न करने में संघी फासीवादियों से आज अंग्रेज साम्राज्यवादी भी शर्मा रहे होंगे क्योंकि संघी फासीवादियों की इन कारगुजारियों के सामने वे स्वयं को बौना महसूस कर रहे होंगे।
इस काले कानून और दमन-उत्पीड़न के औजार का विरोध होना लाजिमी था। इस विरोध को सबसे पहले स्वर देने वाले छात्र थे। भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों के छात्रों-युवाओं ने विरोध को वो स्वर दिया कि पूरा ही देश विरोध करने सड़कों पर उतर पड़ा।
जामिया मिलिया इस्लामिया (जेएमआई) के छात्र जब सीएए का विरोध जताने उतरे तो दिल्ली पुलिस ने न सिर्फ उन्हें शांतिपूर्ण तरीके से विरोध करने से रोका बल्कि छात्रों का भीषण दमन किया। दिल्ली पुलिस ने जामिया में आतंक का ऐसा तांडव रचा कि देश को अंग्रेजों की याद दिला दी। दिल्ली पुलिस छात्रों से ऐसे निपट रही थी जैसे कि कोई पुराना हिसाब चुकता करना हो। प्रदर्शनकारियों को तो छोड़िये पुलिस ने लाइब्रेरी में पढ़ रहे छात्र-छात्राओं को भी नहीं बख्शा। जब लाइब्रेरी के छात्र-छात्राओं ने अपने को पुलिस के कहर से बचाने के लिए दरबाजा बंद कर दिया तो पुलिस ने दरवाजा तोड़कर उन्हें बुरी तरह पीटा। पुलिस छात्र-छात्राओं को भद्दी-भद्दी गालियां दे रही थी, उनसे कहा गया कि ‘‘तुम्हारा अंतिम समय आ गया है कलमा पढ़ लो’’। छात्राओं को पुरुष पुलिसकर्मियों ने सड़कों पर, कैंपस के भीतर घसीट-घसीटकर पीटा। पूरी लाइब्रेरी को तहस-नहस कर दिया गया। पुलिस का यह व्यवहार साफ दर्शाता है कि वह संघ-भाजपा के मुस्लिमों के प्रति फैलाये गये कुत्सा प्रचार से चालित हो रही थी। पुलिस के इस व्यवहार में और लंपट संघियों के व्यवहार में अंतर कर पाना खासा मुश्किल है। कैंपस के भीतर आंसू गैस के अनगिनत गोले दागे गये। कई छात्रों को गंभीर चोटें आयीं और कईयों की हड्डियां तोड़ डाली गयी। ये सब छात्र-छात्राएं अब कई दिनों, महीनों तक इस दर्द को सहेंगे। अमानवीयता का परिचय देते हुए गंभीर घायलों को पुलिस ने अस्पताल भी नहीं पहुंचाया। घायलों को प्राथमिक उपचार उपलब्ध कराने के स्थान पर पुलिस ने भीषण ठंड में उनको लॉक-अप में रखा। तीन लोगों को पुलिस ने गोली से घायल कर दिया।
अब यह जाहिर हो चुका है कि पुलिस ने जेएमआई पर हमला बोला था। तभी तो वह जबरन कैंपस के अंदर घुसी। असल में संघ-भाजपा की सरकार नहीं चाहती की सीएए का कोई विरोध हो। सीएए के विरोध को वह अपने हिन्दूराष्ट्र के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध मानती है। ठीक इसी कारण संघ-भाजपा के इशारे पर जेएमआई के छात्र-छात्राओं को सबक सिखाने के लिए दिल्ली पुलिस पूरी तरह संकल्पबद्ध थी। अभी कुछ दिनों पहले वकीलों से अपनी सुरक्षा की भीख मांगने वाली पुलिस अब निर्दोष छात्रों पर कहर बरपा रही है। दरअसल पुलिस का यही असली चरित्र है। संघ-भाजपा ने विरोध को शुरूआती दौर में ही दबा देने की साजिश रची। और जेएमआई में पुलिसिया आतंक रचा। संघी सरकार कालेज-कैंपसों को बर्बाद करने पर तुली है। छात्रों से इस तरह निपटना कि वे कोई खूंखार अपराधी हों, सबसे बड़े शर्म की बात है।
लेकिन हम सभी जानते हैं कि विरोध को सत्ता जितना भी दबाने की कोशिश करती है, लोगों को सत्ता संगीनों से डराने की जितनी कोशिश करती है, विरोध उतनी ही शिद्दत से उतनी ही तीक्ष्णता से नयी ऊंचाईयों को छूने लगता है। और यही जेएमआई में छात्रों के दमन के बाद हुआ। इतने भीषण दमन के बाद भी जेएमआई के बहादुर छात्र-छात्राएं डरे नहीं बल्कि इस दमन के खिलाफ और सीएए कानून के खिलाफ और सीना चौड़ा कर खड़े हो गये। गिरफ्तार छात्रों की रिहाई की मांग को लेकर डीयू और जेएनयू के छात्रों के बडे़ हुजूम ने रात में ही दिल्ली पुलिस का मुख्यालय घेर लिया। पुलिस को मजबूर होकर गिरफ्तार छात्रों को छोड़ना पड़ा।
जेएमआई के छात्रों पर हुए बर्बर लाठीचार्ज के विरोध में हिन्दुस्तान के कई कालेजों-विश्वविद्यालयों के छात्र उठ खड़े हुए। संघ-भाजपा ने सोचा होगा कि वे जामिया में बर्बरता के दम पर विरोध की आवाज को दबा देंगे परंतु उनका यह दांव उल्टा पड़ गया। इस दमन से यह हुआ कि जेएमआई के वे छात्र जो अभी तक विरोध प्रदर्शन में शामिल नहीं थे या जो अपनी पढ़ाई करने में लगे हुए थे, वे भी विरोध प्रदर्शनों में आ शामिल हुए। दमन ने अराजनीतिक और ‘तटस्थ’ लोगों को भी राजनीतिक और पक्ष लेने पर मजबूर कर दिया। जेएमआई में हुए छात्रों के दमन के विरोध में आईआईटी दिल्ली, बम्बई व कानपुर, टाटा इंस्टीटयूट आफ सोशल साइंसेज (टिस), जादवपुर यूनि. कोलकाता, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनि. हैदराबाद (तेलंगाना), लखनऊ के नदवा कालेज, बनारस हिन्दू यूनि., केरल, पाण्डुचेरी और कसारगोड के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों, पंजाब यूनिवर्सिटी, पटना यूनिवर्सिटी, चेन्नई के लोयोला कालेज, आईआईएम सहित देश के अन्य कालेजों, विश्वविद्यालयों के छात्रों ने इस दमन का विरोध किया।
डीयू के छात्रों ने सीएए के खिलाफ अपनी एकजुटता को प्रदर्शित करते हुए विरोध प्रदर्शन किया। डीयू छात्र संघ अध्यक्ष जो एबीवीपी से हैं, ने सीएए के समर्थन में पत्र जारी किया लेकिन डीयू के अलग- अलग कालेजों के छात्रों ने इसका प्रतिवाद किया और कहा कि डीयू छात्र संघ उनकी आवाजों का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। इसके बाद उन्होंने एक संयुक्त बयान जारी कर सीएए का विरोध किया। डीयू के छात्रों ने बता दिया कि वे धर्म के आधार पर नागरिकता देने वाले इस काले कानून के खिलाफ हैं। छात्रों ने अपनी परीक्षाओं का भी बहिष्कार किया और वे प्रदर्शन में शामिल हुए। एबीवीपी ने भी सीएए के समर्थन में प्रदर्शन की अपील की थी लेकिन उनके समर्थन में छात्र नहीं आये। इससे बोखलाये एबीवीपी ने दिल्ली विश्वविद्यालय में हुए छात्रों के प्रदर्शन पर हमला किया। विरोध को दबाने में पुलिस और एबीवीपी एक साथ ही खड़े नजर आये। एबीवीपी की इस गुण्डागर्दी पर पुलिस मौन थी।
इसके बाद दिल्ली में सीएए, छात्रों के पुलिसिया दमन और एबीवीपी की गुण्डागर्दी के विरोध में एक प्रदर्शन और रखा गया। एबीवीपी ने अपनी बहादुरी दिखाते हुए प्रदर्शनकारी छात्रों पर दो बार पत्थरबाजी कर अपने चरित्र को पुनः उजागर किया। तीन प्रदर्शनकारियों को एबीवीपी द्वारा पीटा गया। शर्म की बात यह है कि पुलिस ने एबीवीपी के गुण्डों को गिरफ्तार करने के बजाय पीटे गये छात्रों को ही पकड़ लिया। पुलिस प्रदर्शनकारियों को रोकने की कोशिश करती रही लेकिन प्रदर्शनकरी छात्र-छात्राएं आगे बढ़ते रहे। सभा और जबरदस्त नारेबाजी करते हुए छात्रों ने अपना आक्रोश व्यक्त किया। जिसके दबाव में आकर पुलिस को गिरफ्तार छात्रों को रिहा करने पर मजबूर होना पड़ा। इसके बाद भी इस काले कानून और पुलिसिया दमन के विरोध में छात्रों-बुद्धिजीवियों ने दिल्ली में प्रदर्शन किये। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किये जा रहे दमन के खिलाफ दिल्ली भवन में भी प्रदर्शन किये गये।
जहां-जहां भी छात्र इस काले कानून के विरोध में आवाज उठा रहे थे, वहां-वहां उनका भीषण पुलिसिया दमन किया गया। उत्तर प्रदेश की सरकार और पुलिस दमन के मामले में अन्य राज्यों से काफी आगे निकल गयी। अलीगढ़ मुस्लिम यूनि. और लखनऊ स्थित दारूल उलूम नदवा तुल उलेमा के छात्रों पर पुलिस का कहर टूटा। नदवा के छात्रों को पुलिस ने गेट के अंदर ही बंद करके रख दिया। उन्हें बाहर निकल कर प्रदर्शन करने ही नहीं दिया। यही व्यवहार अलीगढ़ मुस्लिम यूनि. के छात्रों के साथ भी किया गया। लगभग 15 छात्रों पर मुकदमें दर्ज कर दिये गये। पूरी यूनि. को खाली करवा दिया गया और छात्रां को जबरन घर भेज दिया गया। विरोध से सरकार इतना डर गयी कि उसने कालेज-यूनिवर्सिटी को बंद करवा दिया। बनारस में भी 56 लोगों पर विभिन्न धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया जिनमें से 20 छात्र हैं।
उत्तर प्रदेश सरकार और पुलिस द्वारा किये गये भीषण दमन के बावजूद भी छात्रों के प्रदर्शन रूके नहीं। सरकार द्वारा प्रदर्शनों को रोकने के लिए धारा 144 लगा दी गयी, लेकिन छात्र और आम लोग धारा 144 को तोड़कर प्रदर्शनों में शामिल हुए। सरकार और पुलिस उन्हें डराकर घरों में कैद करना चाहती थी लेकिन इनके इरादों पर तब पानी फिर गया जब छात्र और अन्य लोग इनके डर में नहीं आये और बहादुरी के साथ अपनी आवाज को बुलंद किया। उन्होंने सीएए और पुलिस दमन का पुरजोर विरोध किया।
सीएए कानून और उसका विरोध करने पर हुए दमन ने दिखा दिया है कि संघी फासीवादी हमारे समाज को किधर ले जाना चाहते हैं। एक तरह से तानाशाही को छात्रों-युवाओं ने शिद्दत के साथ महसूस किया। जब उन्होंने देखा कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने से भी उनको रोका जा रहा है। मौलिक अधिकारों जिसमें विरोध-प्रदर्शन करना भी शामिल है को किस कदर संघी फासीवादी अपनी संगीनों के साये में दफन कर दे रहे हैं। अगर किसी को भी पूंजीवादी लोकतंत्र के प्रति कोई खुशफहमी रही होगी तो वह अब दूर हो गयी होगी। यही आज के पतनशील संकटग्रस्त पूंजीवाद की निशानी है कि एक तरफ वह जनता को उत्पीड़ित करने और उनके बीच सांप्रदायिक विभाजन को और तीखा करने के लिए काले कानून लाता है और वहीं दूसरी तरफ इसके विरोध के किसी भी स्वर को बर्दाश्त नहीं करता। यह देश के फासीवादी तानाशाही की ओर बढ़ने की एक निशानी है।
लेकिन इस काले दौर में छात्रों ने भी अपनी मिसाल पेश की है। यह मिशाल दमन के खिलाफ बिना डरे तन कर खडे़ होने की है। यह मिसाल घोर सांप्रदायिक और विभाजनकारी काले कानून को अस्वीकार करने और मेहनतकशों की एकता को बुलंद करने की है। यह मिसाल किसी एक यूनि. में हुए छात्रों के दमन के खिलाफ दूसरी यूनि. के छात्रों द्वारा अपनी एकजुटता दिखाने की है। यह मिसाल हिन्दु-मुस्लिम भाईचारे की विरासत- जिसे अशफाक-बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों ने हमें सौंपा था- को जिंदा रखने की है। यह मिसाल इस रूप में भी है कि छात्रों-युवाओं ने संघ-भाजपा के घृणित एजेण्डे को न सिर्फ नकारा बल्कि उसका जबरदस्त प्रतिरोध भी किया। यह अच्छा संकेत है कि देश के युवा सांप्रदायिक आधार पर बंटने के बजाय महान क्रांतिकारियों के दिखाये रास्ते पर चलकर हिन्दू-मुस्लिम एकता की वकालत करने उतरे। ज्ञात हो कि 19 दिसंबर, 2019 को काकोरी शहीदों के बलिदान दिवस को इस काले कानून के विरोध दिवस में मनाया गया था। इसमें छात्रों-युवाओं की भागीदारी बड़ी संख्या में रही और उन्होंने ‘अशफाक- बिस्मिल का संदेश, हिन्दू-मुस्लिम सबका देश’ सरीखे नारे लगाकर प्रदर्शन में भागीदारी की गयी।
छात्रों-नौजवानों की एकजुटता और जुझारूपन का परिणाम है कि सरकार अपने मन की पूरी तरह कर पाने में असफल रही। वह सीएए-एनआरसी को लाकर पूरे समाज को हिन्दू-मुसलमान में बांट देना चाहती थी। इनकी पूरे समाज में हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर धु्रवीकरण करने की चाहत पर छात्रों के जुझारू तेवरों ने ही पानी डाला। वह छात्र-युवा ही थे जिन्होंने इस मुद्दे को केन्द्र सरकार बनाम छात्र बना दिया। और आगे चलकर समाज के बुद्धिजीवी और अन्य तबके इनके साथ जुड़ गये। पूरे देश में व्यापक विरोध की शायद मोदी-शाह ने कल्पना नहीं की होगी। एक लंबे समय तक चुप्पी साधे रहे मोदी-शाह को झूठ का सहारा लेना पड़ा। देश की राजधानी से मोदी को खुले आम दिन के उजाले में झूठ बोलने पर मजबूर होना पड़ा। कुछ दिन पहले देश के गृह मंत्री सीना फाड़-फाड़कर देश में सीएए व एनआरसी लागू करने की बातें कर रहे थे। और अब देश के प्रधानमंत्री राजधानी में एक सभा में यह झूठ बोल रहे थे कि देश में एनआरसी पर कोई बात ही नहीं हुई। कि देश में कोई डिटेंशन कैंप नहीं। छात्रों-नागरिकों के व्यापक विरोध प्रदर्शनों के दबाव में देश के प्रधानमंत्री को यह झूठ बोलना पड़ा। कोई कह सकता है कि प्रधानमंत्री के झूठ बोलने में क्या है? वे तो अक्सर ही ऐसा करते हैं परंतु इतना सच है कि इतना व्यापक विरोध नहीं होता तो इस मुद्दे पर खुलेआम झूठ बोलने की जरूरत नहीं पड़ती। ऐसा भी कहा जा सकता है कि यह झूठ बोलने के लिए ही दिल्ली के रामलीला ग्राउंड में यह सभा रखी गयी थी। जिसका देश के गोदी मीडिया ने पूरा सजीव प्रसारण किया।
छात्रों ने ये जो मिसाल पेश की संघ-भाजपा को इसी का डर था। यही डर उनको विरोध को होने से पहले रोकने या विरोध को अखबारों-टीवी में प्रसारित न करने के आदेश देने की ओर बढ़ा देता है। यही वह डर है जो हजारों-हजार लोगों पर मुकदमें दर्ज कर उनकों जेलों में डाल देता है। शासकों को बेशक डरना चाहिए क्योंकि वे ऐसे वर्ग के प्रतिनिधि हैं जिसकी प्रगतिशीलता समाप्त हो गयी है, जो अब यही सब कुछ छात्रों व मेहनतकशों को दे सकता है जो वो दे रहा है-काला कानून और खूनी दमन।
ऐसा नहीं है कि दमन और अंधेरे का यह सिलसिला यही रुक जायेगा। आगे और बड़ी चुनौतियां हमारे रास्ते में खड़ी होगी। संघी फासीवादी यहीं नहीं रुकने वाले हैं। जब से संघी फासीवादी सत्ता में आये हैं वे एक के बाद एक ऐसे कदम उठाते रहे हैं जो मजदूर-मेहनतकशों, छात्रों को बांटने का काम करते हैं। हर वर्ष 2 करोड़ बेरोजगारों को रोजगार देने की घोषणा करने वाले रोजगार देना तो दूर विश्वविद्यालयों पर हमला बोल रहे हैं। शिक्षा-रोजगार-सुरक्षा की मांग का जवाब धर्म और सांप्रदायिक मुद्दों को भड़काकर दिया जा रहा है। इसका एक मुख्य कारण यह है कि एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग का इनको पूर्ण समर्थन है और भारतीय पूंजीवाद संकट के दौर में है। आर्थिक मंदी, बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई पूंजीवाद के संकट और संघी फासीवादियों की नाकामयाबियों की निशानी है। इनका मुकाबला हम ऐसे ही कर सकते हैं जैसे कि वर्तमान में हम सीएए-एनआरसी का मुकाबला कर रहे हैं। ऐसी ही बहादुरी और साहस की जरूरत आगे भी पड़ेगी। तभी संघी फासीवादियों के हर हमले का जवाब दिया जा सकता है। बल्कि सच बात तो यह है कि इससे भी बड़े संघर्ष और इससे भी बड़ी कुर्बानियां हमें भविष्य में देनी पडे़ंगी। तभी और सिर्फ तभी इन संघी फासीवादियों को पराजित किया जा सकता है और राज्य दमन का खात्मा किया जा सकता है। (वर्ष- 11 अंक- 2 जनवरी-मार्च, 2020)
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