रविवार, 26 जनवरी 2020

CAA/NRC/NPR
देश की मेहनतकश जनता पर एक और हमला

भारत में अल्पसंख्यकों पर हमले कोई नई बात नहीं है। आजादी के बाद से अलग-अलग सरकारों में अल्पसंख्यकों पर अलग-अलग रूपों में हमले होते ही रहे। परंतु 2014 में बहुमत से केन्द्र में मोदी सरकार आने के बाद अल्पसंख्यकों पर हमले बेतहाशा बढ़े हैं। पिछले 6 सालों में पूरे समाज में मुस्लिम विरोधी माहौल बनाया गया। जगह-जगह पर मुस्लिमों की गाय के नाम पर हत्याएं की गयीं। जगह-जगह पर मुस्लिमों-दलितों को प्रताड़ित किया गया। इन सब से बीजेपी सरकार द्वारा हिन्दू-मुस्लिमों को बांटने का प्रयास किया गया। परंतु सरकार की आर्थिक असफलताएं सच को छुपा नहीं सकी। सच ये है कि नौजवान चाहे हिन्दू हों या मुस्लिम दोनों आज बेरोजगार हैं, देश में पिछने 45 सालों में सबसे अधिक बेरोजगारी है। चाहे हिन्दू हों या मुस्लिम दोनों ही मजदूर फैक्ट्रियों में जल कर मर रहे हैं, मजदूरों के सारे अधिकार मोदी सरकार ने छीन लिए हैं। हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही धर्मों के किसान व्यवस्था की मार सहकर या तो आत्महत्या कर रहे हैं या खेती छोड़कर नारकीय जीवन जी रहे हैं। ये ही वो सच्चाईयां हैं जिनसे मोदी सरकार हमारा ध्यान भटकाना चाहती है। वो चाहती है कि हम इन सच्चाईयों से मुंह फेरकर हिन्दू-मुस्लमान के नाम पर लड़ते रहें।


मोदी सरकार के ये प्रयास जारी हैं। और इस बार तरकश में से CAA और NRC/NPR नाम का नया तीर निकाला गया है।

NRC (नेशनल रजिस्टर फॉर सिटीजन)

NRC का इतिहास असम से शुरू होता है। असम ब्रिटिश साम्राज्य के समय बंगाल प्रान्त का हिस्सा था। अंग्रेजों ने असम के पहाड़ों में चाय आदि की खेती करवाने के लिए बड़ी संख्या में बंगाल (जिसमें वर्तमान बांग्लादेश भी शामिल है) से मजदूरों को यहां लाकर बसाया। आजादी से पहले और बाद में भी इन क्षेत्रों से लोग असम आते रहे। परंतु इन क्षेत्रों से दूसरा बड़ा पलायन बांग्लादेश युद्ध के समय हुआ। 1971 में बांग्लादेश युद्ध के समय लाखों बांग्लादेशी अपनी जान बचाने व रोजी-रोटी की तलाश के लिए भारत आए और भारत के अलग-अलग हिस्सों में बस गए। इनमें से कुछ लोग असम में भी बसे। यही नहीं भारत के भी अलग-अलग क्षेत्रों से अलग-अलग समयों में बेहतर रोजगार और बेहतर जिंदगी की तलाश में लोग असम आए और यहीं के होकर रह गए। 

इस प्रक्रिया ने असम की जनसंख्या को तेजी से बढ़ाया। यही नहीं साम्प्रदायिक राजनीति के प्रभाव में आकर असमिया लोग इन बाहरी लोगों को ही अपनी समस्याओं का कारण मानने लगे। ये गुस्सा तब और अधिक बढ़ गया जब 1978 के उपचुनाव के समय असम में 50 हजार अतिरिक्त वोटर पाए गए। ऐसे में समस्या को सही से न देख पाने के कारण असम में इन बाहरी लोगों के खिलाफ आंदोलन फूट पड़ा। इस आंदोलन की मांग थी कि बाहरी लोगों को चिन्हित कर उन्हें असम से बाहर निकाला जाए। इसी आंदोलन के दौरान तथाकथित बाहरी लोगों पर हमले भी हुए। 1983 का नेल्ली दंगा हुआ जिसमें 2000 के लगभग मुस्लिमों की हत्या की गयी। ये आंदोलन इतना व्यापक था कि 1985 तक असम में चुनाव भी नही हुए। सरकार द्वारा इस आंदोलन का भयंकर दमन किया गया जिसमें 800 से अधिक आंदोलनकारी मारे गए। इसी आंदोलन के फलस्वरूप असम गण परिषद और आसू जैसे संगठन अस्तित्व में आए जो आज भाजपा के साथ असम की सत्ता में शामिल हैं।

आंदोलन के आगे झुकते हुए तब की राजीव गांधी सरकार ने 15 अगस्त 1985 को आंदोलनकारियों के साथ समझौता किया जिसे असम अकॉर्ड कहा जाता है। इसके अनुसार असम में नागरिकता का एक रजिस्टर बनाया जाएगा। जो लोग 1961 से पहले असम में आए हैं उन्हें पूरी नागरिकता दी जाएगी। जो लागे 1961 से 71 के बीच आएं हैं उन्हें अधूरी नागरिकता दी जाएगी अर्थात् सारे अधिकारों के साथ उन्हें वोट देने का अधिकार नहीं होगा। और जो लोग 1971 के बाद आएं हैं उन्हें वापस उनके देशों में भेज दिया जाएगा। इस समझौते के बाद आयी सभी सरकारें, इसकी जटिलता को देखते हुए इस मुद्दे को टालती रहीं। परंतु विभाजनकारी भाजपा के लिए ये मुद्दा जनता को बांटने का एक नया हथियार था इसलिए केन्द्र में मोदी सरकार आने के बाद इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ा जाने लगा।

2015 में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में नागरिकता रजिस्टर का काम असम में शुरू हो गया। इस बीच बीजेपी अपने पुराने झूठ को फिर से दोहराती रही कि असम सहित पूरे देश में करोड़ों घुसपैठिये हैं। कि उन्हें खोजकर बाहर करना बेहद जरूरी है। NRC के पहले ड्राफ्ट में 40 लाख लोग बाहर रहे। परंतु इसमें कई गलतियां पाई गयी जैसे कि इसमें भारत के 5वें राष्ट्रपति फखरूद्दीन के परिवार का नाम भी नहीं शामिल था। फिर इसमें संशोधन करते हुए दूसरा ड्रॉफ्ट निकाला गया। NRC का दूसरा ड्राफ्ट सबके लिए चौंकाने वाला था खुद सत्ताधारी दल बीजेपी को भी। इस दूसरे ड्रॉफ्ट में 19 लाख लोग छत्ब् से बाहर रहे। जिसमें लगभग 14 लाख लोग गैर मुस्लिम और लगभग 5 लाख मुस्लिम थे।

इस पूरी परियोजना को पूरा होने में सालों लग गए। लगभग 1600 करोड़ रुपये सरकार द्वारा NRC को बनाने में खर्च किए गए। परंतु इसका अंतिम उद्देश्य बीजेपी और असमिया लोगों दोनों के लिए निराशाजनक था। असमिया लोगों का मानना था कि 3 करोड़ 30 लाख की आबादी में से बड़ी संख्या NRC से बाहर रहेगी परंतु ऐसा नहीं हो सका। ऐसे ही बीजेपी का मानना था कि बाहर रहे लोगों में अधिकांश मुस्लिम होंगे। जिसके आधार पर वो अपनी विभाजनकारी राजनीति को पूरे देश में आगे बढ़ा सकेगी। परंतु आंकड़े कुछ और ही बयान कर रहे थे। इसलिए असमिया और बीजेपी दोनों ने ही इस को नकार दिया और फिर से NRC की मांग करने लगे।

परंतु NRC से बाहर रहे 19 लाख लोगों का क्या हुआ? इस सवाल के जवाब में पूरी मोदी सरकार और उसका मीडिया जनता से झूठ बोलता रहा। इनमें से कुछ लोगों को डिटेंशन कैंप (एक तरह की जेल) में रखने की प्रक्रिया शुरू हो गयी। असम में एक अच्छी खासी आबादी पहले से डिटेंशन कैंप में रह रही है। असम में लगभग 6 डिटेंशन कैंप का निर्माण हो चुका है और पूरे देश में भिन्न-भिन्न जगहों पर डिटेंशन कैंप बनाए जा रहे हैं। इन डिटेंशन कैंपों की हालत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अब तक इसमें 28 लोगों की मौत हो चुकी है। इसके बावजूद हमारे देश का प्रधानमंत्री रामलीला मैदान से खुलेआम झूठ बोलता है कि देश में एक भी डिटेंशन कैंप नहीं है। कितना निर्लज्ज है ये निजाम। जो अपने देश की जनता के लिए घर नहीं बल्कि डिटेंशन कैंप का निर्माण कर रहा है और ऊपर से बेशर्मी ये कि देश की जनता के सामने खड़े होकर सफेद झूठ भी बोल रहा है। थू है ऐसे निजाम और उसके झूठ पर।

छत्ब् से बाहर रहे 19 लाख लोग कौन है? ये 19 लाख लोग हिन्दू-मुस्लिम नहीं बल्कि मेहनत-मजदूरी करने वाले गरीब लोग हैं। इनमें से सभी बाहर से नहीं आए हैं। बल्कि 50 साल पुराने कागज ना होने के कारण डिटेंशन कैंप की सजा भुगत रहे हैं। इनमें से अधिकांश अपने कागज नहीं दिखा पाने के कारण बाहरी घोषित किए जा रहे हैं। ये लोग कागज क्यों नहीं दिखा पाए? क्योंकि इन गरीब लोगों के पास जमीन नहीं, पैसा नहीं (जिससे घूस देकर फर्जी कागज बनवाए जा सकें)। यानी की अधिकांश गरीब लोग ही असम में छत्ब् की भेंट चढ़े। अब हमारा गृहमंत्री संसद से दहाड़ रहा है कि पूरे देश में छत्ब् लागू की जाएगी। गरीबों, मजदूरों को समझ लेना चाहिए कि उन पर एक और नया हमला होने वाला है।

CAA (नागरिकता संशोधन कानून)

संसद से CAA (नागरिकता संसोधन कानून) नाम का एक कानून पास किया गया। जिसके अनुसार 31 दिसम्बर 2014 से पहले पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आए हिन्दू, सिख, इसाई, पारसी, जैन, बौद्ध (मुस्लिमों को छोड़कर) को भारत की नागरिकता दे दी जाएगी। इसके पीछे सरकार द्वारा तर्क दिया गया कि उक्त तीन देशों की सीमा भारत से लगती है और ये देश मुस्लिम बहुल हैं। इसलिए वहां अल्पसंख्यकों पर हमला होता है। इस बात की सच्चाई को हम आगे देखेंगे। पर म्यांमार, चीन, नेपाल की सीमा भी भारत से लगती है। श्रीलंका भी हमारा निकट पडोसी है। म्यांमार में बौद्धों द्वारा लाखों हिन्दू-मुस्लिमों पर हमले किए गए। श्रीलंका में लाखों तमिल हमलों के बाद भारत में शरण लेकर रह रहे हैं। खुद पाकिस्तान में अहमदियों पर हमले होते रहे हैं। पर मौजूदा कानून में केवल मुस्लिमों को बाहर नहीं रखा गया है बल्कि श्रीलंका से आए तमिलों, पाकिस्तान से आए अहमदियों, म्यांमार से आए हिन्दू-मुस्लिमों को भी बाहर रखा गया है। अगर मामला धार्मिक प्रताड़ना का है तो इन्हें भी नागरिकता मिलनी चाहिए थी। पर भाजपा सरकार द्वारा ऐसा नहीं किया गया। स्पष्ट है कि मामला केवल धार्मिक प्रताड़ना का नहीं है बल्कि भाजपा इस कानून से भी अपने विभाजनकारी एजेण्डे को पूरा करना चाहती है।

उपरोक्त तीन देशों का जिक्र करके भाजपा पूरे देश में ये संदेश देना चाहती है कि मुस्लिम बहुल देश होने के कारण वहां अल्पसंख्यकों पर हमले होते हैं। ये बात सच नहीं है। बल्कि हर देश में अल्पसंख्यकों पर हमले होते हैं। क्या हमारे देश में सालों से मुस्लिम, इसाईयों पर हमले नहीं होते रहे? 

भाजपा द्वारा किए गए प्रचार से ऐसा लगता है कि उक्त तीन देशों में लाखों अल्पसंख्यकों पर हमले हुए हैं और वो भारत में शरण चाहते हैं। ये बात भी सच नहीं है। संसदीय समिति की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016 तक भारत में कुल 31,313 बाहर से आए लोग (25,447 हिन्दू, 5,807 सिख, 55 इसाई, 2 बौद्ध, और 2 पारसी) ही नागरिकता के लिए आवेदन कर रहे हैं। इसका मतलब लाखों-करोड़ों लोगों को इस कानून से मिल रहे फायदे का तर्क भी झूठा है। और इस कानून का विरोध कर रही ताकतें इन लोगों को नागरिकता देने का विरोध भी नहीं कर रही हैं। उनका तर्क केवल ये है कि इस कानून से मुस्लिमों को ही दूर क्यों रखा गया है?

CAA कानून से पहले भी भारत सरकार के पास नागरिकता देने के कानून मौजूद थे, जिसका इस्तेमाल करके; वो प्रार्थी लोग जो 11 साल से भारत में रह रहे हैं; को नागरिकता देती थी। अदनान सामी जैसे कई लोगों को पुराने कानून के आधार पर ही भारत की नागरिकता दी गयी। फिर इस CAA की जरूरत क्यों पड़ी? इस सवाल का जवाब छत्ब् से जुड़ जाता है। मतलब ये कि असम और पूरे भारत (लागू होने के बाद) में NRC से बाहर रहे लोगों में से नागरिकता के सबूत न दिखा पाने वाले गैरमुस्लिमों को CAA के तहत नागरिकता दे दी जाएगी परंतु मुस्लिमों को नहीं दी जाएगी। यही इसका असली मकसद भी है। सरकार औपचारिक बयानों में इसे कितना भी नकारती रहे परंतु पूरी संघ मण्डली और भक्त जन इस बात को जानते हैं और इसीलिए वो इस कानून के पक्ष में खड़े हैं। नहीं तो अपने ही देशवासियों की हत्या करने वाले, दंगे कराने वाले, महिलाओं को सोशल मीडिया पर बलात्कार की धमकी देने वाले संघी गुण्डे दूसरे देश से आए लोगों से कैसे प्यार कर सकते हैं। 

NPR (राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर)

पूरे देश में NRC का सच बाहर आ जाने और इसके खिलाफ चले व्यापक आंदोलनों के दबाव में रंगा-बिल्ला की सरकार ने फिर रंग बदला। पहले चीख-चीखकर NRC की धमकी देने वाली सरकार कहने लगी कि हमने तो NRC पर कभी बात ही नहीं की। हम NRC नहीं बल्कि NPR लाना चाहते हैं। कि NPR, NRC से अलग है। कि NPR को तो खुद कांग्रेस सरकार लायी थी परंतु आज वो खुद इसका विरोध कर जनता को बेवकूफ बना रही है। क्या सरकार के तर्को में थोड़ी भी सच्चाई है? आइए समझते हैं।

ये बात सच है कि सबसे पहले NPR कांग्रेस सरकार ही लाई थी। इसके पीछे तर्क था कि भारत में 6 माह से रह रहे या फिर 6 माह तक रहने वाले लोगों (चाहे वो नागरिक हो या नहीं) का एक रजिस्टर बनाया जाएगा। इसे ही NPR (राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर) कहा गया। इसके पीछे कांग्रेस सरकार का तर्क था कि इससे हमें जरूरतमंद लोगों के पक्ष में नीतियां बनाने में सुविधा होगी और सरकार की योजनाएं सीधे ही जरूरतमंद लोगों तक पहुंचायी जा सकेंगी। परंतु 2011 में आधार परियोजना आने के बाद कांग्रेस ने तर्क दिया कि अब आधार के जरिए उपरोक्त लक्ष्यों की पूर्ति की जा सकती है। इसलिए उसने NPR की परियोजना को आगे नहीं बढ़ाया। मजेदार बात ये है कि मोदी सरकार केवल कांग्रेस की परियोजना को ही नहीं चला रही बल्कि इसे सही साबित करने के लिए तर्क भी कांग्रेस वाले ही दे रही है। NPR से जनता को होने वाले फायदे के सारे तर्क मोदी सरकार ने आधार के समय भी दिए थे। परंतु अपना काम-धंधा छोड़कर लाइन में खड़े होकर आधार बनाने वाली जनता को अब तक उसके फायदों का इंतजार है।

NPR भारत की जनसंख्या जानने का रजिस्टर नहीं है। जनसंख्या की प्रक्रिया बिल्कुल अलग है और वो हर दस साल में की जाती है। कांग्रेस की परियोजना का तर्क दे रही मोदी सरकार यहां भी झूठ बोल रही है। कांग्रेस वाले छच्त् में जनता से केवल 14 सवाल पूछे जाते थे परंतु अब के NPR में सरकारी कर्मचारी आप से 21 सवाल पूछेगा। इन अतिरिक्त 7 सवालों में मां-बाप की जन्म तिथि और जन्म स्थान जैसे सवाल भी शामिल हैं। पर NPR तो केवल 6 माह की अवधि में भारत में रह रहे लोगों की संख्या जानने के लिए है तो फिर इसमें मां-बाप का जन्म स्थान और बाकि सवाल क्यों पूछे जा रहे हैं। यही सवाल NPR में भी पूछे जाते। स्पष्ट है कि रंगा-बिल्ला की जोड़ी NPR के जरिए उपलब्ध आंकड़ों से ही NPR तैयार करना चाहती है। खुद सरकार 9 बार संसद में दिए गए अपने जवाबों में इस बात का लिखित जिक्र कर चुकी है कि NPR, NRC का प्रथम चरण है। बस सरकार इसे खुलकर बोलने से डर रही है।
                                                    (वर्ष- 11 अंक- 2 जनवरी-मार्च, 2020)

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