रविवार, 26 जनवरी 2020

इसाई धर्म

666 एक संख्या है, थोड़ी अजीब सी संख्या। पर इसाई धर्म में इसका खास महत्च है। इसके विश्वासों के अनुसार यह शैतान की संख्या है यानी 666 का मतलब शैतान है। इसका जिक्र बाइबिल के न्यू टेस्टामैन्ट के प्रकाशन ग्रंथ में मिलता है।


लम्बे समय तक लोग इसकी व्याख्या करने में लगे रहे कि आखिर 666 की संख्या वाला शैतान है कौन? यानी इसके द्वारा किस ऐतिहासिक व्यक्ति की ओर इंगित किया गया है। अंत में उन्नीसवीं सदी में विद्वान लोग इस नतीजे पर पहुंचे कि 666 की संख्या वाला शैतान असल में रोमन सम्राट नीरो है, जिसने 54 से 68 ई0 के बीच शासन किया था। यह वही नीरो है जिसके बारे में मुहावरा है कि रोम जलता रहा और नीरो बांसुरी बजाता रहा। कहा जाता है कि नीरो ने रोम में आग लगाने का दोष इसाईयों पर मढ़ा था और फिर इस बहाने उनका क्रूर दमन किया था।

प्रकाशन ग्रंथ में वर्णन है (प्रकाशन या रीवीलेशन ग्रंथ में इसाई धर्म और दुनिया के बारे में भविष्यवाणी की गई है तथा इसे इस रूप में प्रस्तुत किया गया है मानो स्वयं ईश्वर ने ही धर्मप्रचारक जान के सामने इस भविष्य को उजागर किया था।) कि शैतान ईश्वर के साथ युद्ध में घायल हुआ है और कहीं छिप गया है। जल्दी ही वह बाहर आयेगा और इसकी ईश्वर के साथ लड़ाई होगी। उसे पराजित कर पाताल में बन्द कर दिया जायेगा। फिर शुरू होगा सुख-समिद्ध का एक हजार साल (मिलेनियम)। इसके बाद शैतान एक बार फिर बाहर आयेगा और ईश्वर के साथ अंतिम युद्ध होगा। वह इसमें अंतिम तौर पर पराजित होगा। वह कयामत का दिन होगा। मुर्दे जी उठेंगे। सारे ईश्वर के दरबार में पेश होंगे। सबका लेखा-जोखा लिया जायेगा। जिन्होंने ईश्वर के पुत्र इशु को स्वीकार किया होगा वे स्वर्ग में जायेंगे (जहां ईश्वर रहता है) और बाकी नर्क में। कहने की बात नहीं कि प्रकाशन ग्रंथ की यह भविष्यवाणी तब प्रताड़ित इसाई सम्प्रदाय के लोगों को कितनी ताकत देती रही होगी।

नीरो का शैतान के रूप में रहस्यमय वर्णन यूं ही नहीं था। नीरो ने तब नये उभरते इसाई सम्प्रदाय का क्रूर दमन किया था। यही नहीं इसके पहले और बाद के रोमन शासकों ने भी यही किया। यह लगभग तीन सदियों तक चलता रहा। हालांकि इसकी व्यापकता और तीव्रता अलग-अलग समय पर अलग-अलग रही।

इसाई धर्म की उत्पत्ति रोमन साम्राज्य के जमाने में हुयी थी जो यूरोप, एशिया और अफ्रीका के विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ था। स्वयं रोमन शासक (और जनता) देवी-देवताओं की पूजा वाले धर्म को मानते थे पर साम्राज्य के मामले में उन्होंने प्राचीन काल से चले आ रहे अन्य धार्मिक विश्वासों में दखल न देने की नीति अपना रखी थी। यहूदी चूंकि एक लम्बे समय से एक अलग धर्म को मानते चले आ रहे थे, इसीलिए रोमन साम्राज्य ने उन्हें अपनी धार्मिक मान्यता की छूट दे रखी थी। बस उन्हें अपने येरूशलम के मंदिर में समय-समय पर रोमन सम्राट के सम्मान में बलि देनी होती थी। प्राचीन धार्मिक विश्वासों के विपरीत नये उभरते धार्मिक सम्प्रदायों के प्रति रोमन साम्राज्य जरा भी सहिष्णु नहीं था। क्योंकि वह उन्हें शासन में विघ्न के रूप में देखता था। यदि पुराने धार्मिक विश्वासों को न छेड़ना रोमन शासकों को ज्यादा बेहतर नीति लगती थी तो नये विश्वासों को दबाना भी उन्हें अपने शासन के लिए मुफीद लगता था और इसाई धर्म एक नया धार्मिक सम्प्रदाय था।

इसाई धर्म की उत्पत्ति यहूदियों के बीच उसके एक सम्प्रदाय के रूप में हुई थी (आज भी इसाई प्राचीन यहूदी परंपरा को मानते हैं तथा उनकी बाइबिल का ओल्ड टेस्टामैन्ट यहूदी धर्म का ही पुराना धर्म ग्रंथ है-तोराह एवं अन्य)। ईसा मसीह स्वयं यहूदी थे जो संभवतः ईसा पूर्व सन् चार में पैदा हुए थे। इनका जन्म यरूशलम के बेतलहम कस्बे में एक बढ़ई जोसेफ के घर में हुआ था। उनकी मां का नाम मैरी था। इसाई मान्यता के अनुसार ईसा मसीह अपने पिता की संतान नहीं थे। बल्कि पवित्र आत्मा (जो पिता, पुत्र के साथ इसाई धर्म की त्रयी का तीसरा है) ने मैरी को गर्भित किया था इसीलिए वे ईश्वर के पुत्र माने जाते हैं।

विद्वानों में ईसा मसीह की ऐतिहासिकता को लेकर मतभेद हैं। हालांकि ज्यादातर उन्हें एक ऐतिहासिक व्यक्ति मानते हैं। यानी वे वास्तव में हुये थे। उनका नाम जीसस था। यह जीसस पूरब के इलाके में इसस या ईसा हो गया। क्राइस्ट शब्द उनके साथ बाद में जुड़ा जब इसाई सम्प्रदाय के लोगों ने उन्हें यहूदी धर्म का चिर-प्रतिक्षित मसीहा मान लिया। तब यहूदियों में यूनानी भाषा प्रचलित थी (हिब्रू के बदले) तथा यूनानी भाषा में मसीहा को क्रिस्टो कहते हैं। यहीं से जीसस क्राइस्ट शब्द पैदा हुआ और उन्हें मानने वाले क्रिस्टियन कहलाये। पूरब में उनका नाम ईसा मसीह पड़ा और उनके धर्म को इसाई धर्म के रूप में जाना गया (तब पूरब का मतलब आज का पश्चिम एशिया है जो तब रोमन साम्राज्य का हिस्सा था)।

यहूदी धर्म के लोग छठी शताब्दी ईसा पूर्व से ही संकट का सामना कर रहे थे। उनकी धार्मिक मान्यता के अनुसार वे ईश्वर के चुने हुए लोग थे तथा ईश्वर को उन्हीं के द्वारा सारी मानवता को रास्ता दिखाना था। पर छठी शताब्दी ईसा पूर्व में बेबीलोन निर्वासित कर दिया। कुछ समय बाद फारस के शासकों ने उस इलाके को जीतकर यहूदियों को वापस लौटने की इजाजत दी तथा मंदिर का पुनरूद्धार किया पर यहूदी उनके अधीन बने रहे। फिर वे सिकन्दर के समय से यूनानी शासकों तथा बाद में रोमन साम्राज्य के अधीन आ गये। इन दोनों शासकों के अधीन न केवल उनकी राजनीतिक अधीनता रही बल्कि भाषा और संस्कृति के मामले में भी वे काफी बदल गये। वे काफी हद तक यूनानी हो गये। यह ध्यान रखना होगा कि न्यू टेस्टामैन्ट शुरू में यूनानी भाषा में ही था। बाद में उसका लैटिन में अनुवाद हुआ। (रोमन साम्राज्य के दौर में भी यूनान और उसके पूरब के इलाकों में भाषा व संस्कृति काफी हद तक यूनानी थी जो लम्बे यूनानी शासन का परिणाम था।)

‘ईश्वर द्वारा चुने नये लोगों’ में यह स्थिति स्वभावतः ही गहरे संकट को जन्म देती। ऐसे में पैगंबरों और मसीहाओं की भरमार हो गई जो यहूदियों की इस स्थिति से निजात दिलाने का दावा करते थे। स्थिति ईसा के ठीक पहले और बाद की सदियों में सबसे विकट हो गई। न केवल धार्मिक बल्कि आर्थिक-राजनीतिक असंतोष चरम पर पहुंचने लगे। यहूदियों के आम शोषित-उत्पीड़ित जन अपने अभिजात शोषकों के खिलाफ विद्रोह करने लगे। उनके संगठन (सम्प्रदाय) भी बन गये जो शोषकां की सीधे-सीधे हत्या तक जाते थे। यह ध्यान रखना होगा कि इसाई सम्प्रदाय के पैदा होने के बाद यहूदियों के दो विद्रोह रोमन साम्राज्य और उसके समर्थक यहूदी अभिजातां के खिलाफ हुए थे- पहला 69-70 ईस्वी में तथा दूसरा 132-35 ईस्वी में। दूसरे विद्रोह के बाद यहूदियों का जो दमन हुआ उससे न केवल यहूदी सारी दुनिया में बिखर गये बल्कि यहूदी धर्म का नया स्वरूप पैदा हुआ जो आज का स्वरूप है।  

यहूदियों की इस संकटपूर्ण स्थिति में ही अब इससे निजात दिलाने वाले पैगंबरों और मसीहाओं की भरमार थी, ईसा मसीह पैदा हुए। उन्होंने स्वयं को यहूदियों के चिर-प्रतिक्षित मसीहा के रूप में पेश किया। व्यावहारिक तौर पर वे अपने जमाने के ओझा-सोखा से ज्यादा नहीं थे। खासियत थी तो यह कि उन्होंने स्वयं को ईश्वर का दूत नहीं बल्कि स्वयं ईश्वर का पुत्र घोषित किया। मानवता के उद्धार की खातिर स्वयं ईश्वर ने अपना इकलौता पुत्र भेज दिया था। वे वह मसीहा थे जिसकी यहूदी धर्म ग्रन्थ में भविष्यवाणी की गई थी। ईसा मसीह ने ईश्वर की इच्छा के सामने पूर्ण समर्पण तथा अन्याय-अत्याचार के किसी भी प्रतिरोध से इंकार की शिक्षा दी। इस दुनिया का सारा कष्ट दूसरी दुनिया में स्वर्ग में प्रवेश के रूप में प्रतिफलित होना था। धन्य है गरीब क्योंकि स्वर्ग का राज उन्हीं का है। ‘सुई के छेद से भले ऊंट गुजर जाये पर स्वर्ग में अमीरों को प्रवेश नहीं मिलेगा’। ईसा मसीह ने भले स्वयं ये बातें न कहीं हों पर ईशु संदेश इसी रूप में प्रचलित हुआ।

इस संदेश ने कुछ लोगों को आकर्षित किया और ईसा मसीह का नया यहूदी संप्रदाय पैदा हुआ। यह नया सम्प्रदाय जो अन्याय-अत्याचार का सक्रिय प्रतिरोध न करके भी असल में प्रतिरोध करता था न तो यहूदी अभिजातों को स्वीकार था और न ही रोमन शासकों को। दोनों ने इसका दमन किया और इसी कड़ी में ईसा मसीह को सूली चढ़ा दिया गया। यहां ध्यान रखना होगा कि सूली चढ़ाने वाली क्रूर सजा विद्रोह जैसे गंभीर राजनीतिक अपराधों के लिए ही दी जाती थी।

पर ईसा मसीह के सूली चढ़ाये जाने के बाद भी इसाई सम्प्रदाय खत्म नहीं हुआ। नये अनुयाईयों ने इस सम्प्रदाय की शिक्षाओं का प्रचार जारी रखा तथा इसमें नये-नये लोग जुड़ते गये।

शुरू में तो इस नये सम्प्रदाय में केवल यहूदी ही थे पर बाद में इसमें आस-पास के अन्य लोग भी जुड़ने लगे। (यह ध्यान रखना होगा कि प्रकाशन ग्रंथ में सारा सम्बोधन यहूदियों को है-यहूदी धर्म के सारे बारह कबीलों को) तब इसाई सम्प्रदाय में यह बहस खड़ी हो गई कि क्या गैर-यहूदी (उनके अनुसार जेन्टाइल) लोगों को भी इसमें जोड़ा जाये? समय के साथ यह अनिवार्यता बन गई और दूसरी सदी में ही इसाई सम्प्रदाय में गैर-यहूदियों का बहुमत हो गया।

यहूदियों के इस नये इसाई सम्प्रदाय में गैर-यहूदियों का जुड़ना धार्मिक व राजनीतिक-आर्थिक वजहों से लाजिमी था। शुरू में केवल यहूदियों को संबोधित करने के बावजूद नया सम्प्रदाय अपनी शिक्षा और कार्यपद्धति में सार्विक था।  चूंकि इसमें बपतिस्मा के जरिये शामिल किया जाता था इसलिए इसमें कोई भी शामिल हो सकता था। अमीरों की भर्त्सना के बावजूद वह उन्हें अपने में शामिल होने से रोकता नहीं था।   

जहां तक आर्थिक-राजनीतिक अवस्था की बात है, रोमन साम्राज्य की भारी आबादी गुलाम थी जिन्हें इंसान भी नहीं माना जाता था। जो स्वतंत्र भी थे उनकी स्थिति बहुत खराब थी। दस्तकार-किसान भारी बोझ के नीचे दबे हुए थे। रोमन साम्राज्य के क्रमशः पतन के साथ उनकी स्थिति और भी विकट होती चली जा रही थी। ऐसे में शोषितों-उत्पीड़ितों को स्वर्ग का राज दिखाने वाले सम्प्रदाय की ओर लोगों का आकर्षित होना स्वाभाविक था। इसीलिए समय-समय पर होने वाले दमन के बावजूद इसमें लोग जुड़ते गये।

अंत में चौथी सदी आते-आते इसाई सम्प्रदाय इतना मजबूत हो गया कि दमन के द्वारा इसका खात्मा संभव नहीं रह गया। तब रोमन शासकों ने इसे स्वीकार कर लेना ही उचित समझा। सम्राट कन्सुंताइन वह पहला रोमन सम्राट था जिसने इसाई धर्म स्वीकार किया। इसके बाद एकाध को छोड़कर सारे रोमर साम्राज्य इसाई ही रहे। चौथी सदी का अन्त होते-होते इसाई धर्म रोमन साम्राज्य का राजकीय धर्म घोषित कर दिया गया। अब वह एक प्रताड़ित धार्मिक सम्प्रदाय होने के बदले उत्पीड़क धर्म बन गया जो न केवल एक शोषक-उत्पीड़क साम्राज्य का राजकीय धर्म था बल्कि स्वयं अन्य धर्मां व सम्प्रदायों का उत्पीड़क भी था।

रोमन साम्राज्य के संरक्षण में इसाई धर्म ने एक व्यवस्थित संस्थागत रूप ग्रहण किया। इसाई सम्प्रदाय के विस्तार के साथ सारे रोमन साम्राज्य में फैले इसके अनुयाईयों को एक सूत्र में बांधने के लिए एक संस्थागत ढांचा खड़ा हुआ था। चर्च, पादरी और विशप का ढांचा एक ढीला-ढाला ढांचा था। अब इसको ज्यादा व्यवस्थित किया गया। नये धर्म के धर्म ग्रंथ तथा  नियमों-कानूनों को व्यवस्थित करने के  लिए सम्राट कन्सुंताइन द्वारा सन् 325 में इसाई विशपों की एक बैठक नाइसीन में बुलाई गई जिसे नाइसीन परिषद के नाम से जाना जाता है। इसने कुछ को स्वीकार कर तथा कुछ को अस्वीकार कर न्यू टेस्टामैन्ट के आधिकारिक स्वरूप को मान्यता दी। ईश्वर, ईश्वर का पुत्र तथा पवित्र आत्मा की त्रयी को मान्यता, ईशु को मसीहा के रूप में मान्यता, ईशु की जन्म-मृत्यु व पुनरूत्थान की कथा को मान्यता इस नये धर्म के प्रमुख तत्व थे। नये व्यवस्थित चर्च ने (जिसे बाद में कैथोलिक या सार्विक चर्च कहा गया) अपनी वैधानिकता स्वयं ईसा मसीह के साथ निरंतरता से ग्रहण की- ईसा मसीह के प्रथम शिष्यों से शुरू होकर निरंतर चलने वाली परंपरा। जो कुछ भी इस चर्च से स्वतंत्र और भिन्न था वह विधर्मी था और उसका दमन किया जाता था।

इस नये धर्म को दार्शनिक आधार प्रदान करने की भी कोशिशें की गईं जो सबसे व्यवस्थित रूप में संत अगस्तीन के ‘ईश्वर का नगर’ में अभिव्यक्त हुई। इसका मूल तत्व नव-प्लेटोवादी दर्शन था। इसी के आधार पर त्रयी इत्यादि की व्याख्या की गई। यहां यह महत्वपूर्ण है कि अपने शुरूआती साम्प्रदायिक रूप में इसमें स्टोइकों के समर्पणवादी तत्व (सुख-दुख एक समान) ज्यादा थे। यह कुछ ऐसे ही था जैसे भारत में गीता के खिचड़ी दार्शनिक आधार को किनारे कर बाद में इसकी वेदान्ती व्याख्या की जाने लगी।

जैसा कि स्वाभाविक ही था जब शुरूआती इसाई सम्प्रदाय फैलना शुरू हुआ तो इसमें बहुत विविधता पैदा हुई। ईसा मसीह, उनकी शिक्षाओं तथा नये धर्म के स्वरूप को लेकर भांति-भांति की धारणाएं थीं। आज प्रचलित न्यू टेस्टामैन्ट के अलावा भी अन्य धर्म गं्रथ तब चलन में थे। समय के साथ इसमें एक ज्यादा प्रभावशाली होता गया और जब रोमन साम्राज्य ने इसे अपना लिया तो यह औपचारिक और मानक हो गया। अन्य सभी विधर्मी हो गये।

पर इतिहास को यहीं नहीं रूकना था। समय के साथ रोमन साम्राज्य दो हिस्सों में बंट गया-पूरबी और पश्चिमी। पूरबी रोमन साम्राज्य की राजधानी कंन्सुंतिनोपोल थी तो पश्चिमी की रोम। इसी के साथ इसाई चर्च में भी विभाजन हो गया। काफी लम्बे समय के झगड़े के बाद ग्यारहवीं सदी में दोनों एकदम अलग हो गये। अब दोनों ने एक-दूसरे को धर्म-विरोधी घोषित कर चर्च से निष्कासित कर दिया। पश्चिमी हिस्सा रोमन कैथोलिक चर्च कहलाया तथा पूरबी ग्रीक अर्थोडाक्स चर्च। पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अफ्रीका पहले के हिस्से में थे तो पूर्वी यूरोप व पश्चिम एशिया (मिश्र सहित) दूसरे के हिस्से में। जहां पहले का ढांचा केन्द्रीकृत था (इटली के वेटिकन स्थित पोप के नेतृत्व में) वहीं दूसरे का अपेक्षाकृत विकेन्द्रित।

पांचवीं सदी में रोम के पतन के साथ ही यूरोप में नयी सामंती व्यवस्था की शुरूआत हुयी थी जिसने पुरानी गुलामी व्यवस्था को प्रतिस्थापित कर दिया। आज इसाई धर्म और चर्च इस नयी व्यवस्था  तथा इसके शासकों-शोषकों की सेवा में लग गया। इसका स्वयं का ढांचा इसी के हिसाब से ढल गया। चर्च में ऊपर से नीचे तक एक पूरा श्रेणीक्रम पैदा हो गया जो उतना ही सामन्ती और निरंकुश था  जितना राजनीतिक व्यवस्था। स्वयं चर्च सबसे बड़ा भूस्वामी बन गया। एक समय यूरोप की विशाल भूमि चर्च के कब्जे में थी।

इस सामंती जमाने में चर्च और राजाओं के बीच प्रधानता को लेकर लगातार संघर्ष होते रहे। जहां पूरबी साम्राज्य (बैजन्तिया) ज्यादा केन्द्रीकृत व ताकतवर था वहां यह समस्या कम थी। पर पश्चिम में रोम के पांचवीं सदी में पतन के बाद केन्द्रीकृत शासन नहीं रह गया। नये सांमती राजा स्थानीय थे। ऐसे में पवित्र रोमन साम्राज्य के नाम पर राजाओं का एक अस्थाई गठबंधन ही अस्तित्वमान रहा जो पोप को अच्छा-खासा अवसर प्रदान करता था। नतीजन पोप राजनीति में खूब दखल देता था और पवित्र रोमन साम्राज्य और रोमन कैथोलिक चर्च के बीच प्रभुत्व को लेकर जंग चलती रहती थी। 

ग्यारहवीं सदी में स्पष्ट विलगाव के बाद रोमन कैथोलिक चर्च और ग्रीक आर्थोडाक्स चर्च दोनों ने यह स्पष्ट रूप ग्रहण किया जिसने पूंजीवाद की उत्पत्ति के साथ सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में नये जमाने का सामना किया। पश्चिम में इस मध्यकालीन सामंती इसाई धर्म को दार्शनिक आधार तेरहवीं सदी में संत थामस अक्विनास ने प्रदान किया था जो नव प्लेटोवाद के बदले नव-अरस्तूवाद पर आधारित था। 

मध्यकाल के उत्तरार्द्ध में सामंती व्यवस्था के पतन के साथ इसाई धर्म भी पतित होता गया था। अंत में वह हर सड़ी-गली चीज का रक्षक बनकर सामने आया। विधर्मियों के क्रूर दमन-उत्पीड़न से लेकर अपने अनुयाईयों का भयंकर शोषण करने व शोषकों-शासकों का हर संभव समर्थन करना उसका पेशा बन गया। स्थिति कितनी भयावह बन गई उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि महान फ्रांसीसी क्रांति के दौरान सामंतों पर उतने हमले नहीं हुए जितने चर्च और पादरियों पर।

ठीक इसी कारण पूंजीवाद की पैदाइश के शुरूआती दौर में नये सामाजिक सुधार प्रथमतः धार्मिक सुधार के रूप में सामने आये। जर्मनी में इसने मार्टिन लूथर के रूप में स्वयं को अभिव्यक्त किया जो उसके बाद काल्विन के सुधारों के रूप में सामने आया। इन्होंने मिलकर उस धारा को जन्म दिया जो बाद में प्रोटेस्टैन्ट के रूप में जानी गई। 

पूंजीवाद की आम गति तथा धर्म सुधार आंदोलनों के दबाव में इसाई धर्म के पूरबी व पश्चिमी दोनों हिस्सों में बदलाव के लिए मजबूर होना पड़ा। पर इनमें असली गति पूंजीवादी क्रांतियों-पूंजीवादी जनवादी क्रांतियों-के जरिये आयी जिन्होंने सामंती जमाने के धर्म और राज्य के निकट सम्बंधों को समाप्त कर धर्म निरपेक्ष राज्य की नींव डाली। अब धर्म जिन्दगी का आम नियामक होने के बदले महज निजी विश्वासों का मामला घोषित कर दिया गया। सामाजिक-राजनीतिक जीवन से इसे बहिष्कृत करने की घोषणा कर दी गई। पर यहां पर रेखांकित करना होगा कि व्यवहार में यह बहुत धीमे-धीमे ही हो पाया। व्यवहार में धर्म और राज्य का तालमेल, लेन-देन चलता रहा।

मजे की बात यह है कि पूंजीवाद के ठीक इसी दौर में जब पुराना इसाई धर्म परिवर्तन से गुजर रहा था, धर्म और राज्य का विलगाव हो रहा था तथा आम तौर पर ही लोगों का जीवन ज्यादा धर्म-निरपेक्ष होता जा रहा था, इसाई धर्म का सारी दुनिया में व्यापक प्रसार हुआ। दुनिया भर में पूंजीवाद के प्रसार के साथ इसाई धर्म का भी प्रसार हुआ। ऐसा इसलिए हुआ कि पहले पूंजीवादी देश इसाई देश थे। जब इस पूंजीपति वर्ग ने कच्चे माल और बाजार के लिए सारी दुनिया की खाक छानी तथा ज्यादातर हिस्सों पर कब्जा कर लिया तो उसके साथ इसाई मिशनरी भी पहुंचे। तलवार और सलीब साथ-साथ चले। पूंजीवादी आर्थिक तौर पर लोगों को ‘सभ्य’ बना रहे थे तो पादरी धार्मिक तौर पर। नतीजन आज सारी दुनिया में करीब दो अरब लोग इसाई धर्म को मानते हैं।

आज इसाई धर्म रोमन कैथोलिक चर्च, आर्थोडाक्स चर्च तथा प्रोटेस्टैन्ट धर्म के तीन प्रमुख हिस्सों में विभाजित है। इसमें भी भांति-भांति के सम्प्रदाय हैं खासकर प्रोटेस्टैन्टों में। अनुमान लगाया गया है कि आज इसाई धर्म में कुल करीब तीस हजार संप्रदाय मौजूद हैं।

आज इसाई धर्म वह बिल्कुल नहीं है जो ईसा मसीह का इसाई संप्रदाय था। यह कुन्सुंताइन के जमाने का मान्यता प्राप्त इसाई धर्म भी नहीं है। न ही यह बारहवीं सदी का इसाई धर्म है जिसके पतित स्वरूप के खिलाफ प्रोटेस्टैन्टों ने विद्रोह किया था। यह वह इसाई धर्म है जिसने आज के पूंजीवाद के हिसाब से ताल-मेल बैठा लिया है। जिसने विज्ञान से लड़ने के बदले उसे स्वीकार कर लिया है। जो अपने अधिकाधिक अनुयाईयों को आस्थाविहीन होते देख रहा है।

लेकिन शासक वर्गों की सेवा करने का उसका गुण यथावत बना हुआ है। वह आज भी पूंजीवाद की शोषक-उत्पीड़क व्यवस्था को जायज ठहराने का न केवल साधन बना हुआ है बल्कि उसमें सक्रीय है। नास्तिक कम्युनिस्टों के प्रति पूंजीपति वर्ग के अभियान में वह हमेशा अगली कतार में रहा है। इसीलिए वह अमेरिकी साम्राज्यवादियों के देश में सबसे प्रतिक्रियावादी रूप में मुखर है।

यह बिलकुल भी अजीब नहीं है क्योंकि शोषक-उत्पीड़क व्यवस्था के खिलाफ निष्क्रिय विद्रोह के रूप में पैदा हुआ इसाई धर्म अपने ज्यादातर समय में ठीक उलटा व्यवहार करता रहा है। सामाजिक आंदोलनों के रूप में पैदा हुए धर्मों की यह आम गति और नियति है। वो हजार साल पहले गुलामी व्यवस्था के दौर में पैदा हुआ इसाई धर्म न तो इस गति न नियति से बच सकता था और न बचा। आज मूल इसाई धर्म की ओर लौटने की कोई भी कोशिश केवल बचकानापन ही हो सकता है। इसीलिए ‘लिबरेशन थियोलाजी’ जैसी सोच का कोई भविष्य नहीं है।

भविष्य बिलकुल ही भिन्न सोच का है। इसके तहत दुःखों-कष्टों से मुक्ति दूसरी दुनिया में नहीं बल्कि इसी दुनिया में मिलेगी। जरूरत अन्याय-अत्याचार के सामने मूक समर्थन की नहीं, इसके खिलाफ क्रांतिकारी संघर्ष की है।                (वर्ष- 11 अंक- 2 जनवरी-मार्च, 2020)

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