शनिवार, 25 जनवरी 2020

पारसी धर्म

हिन्दू पुराण कथाओं में देवों के साथ असुरों की काफी चर्चा है। यह चर्चा वेदों की निरंतरता में है जिसमें असुर देवों के विरोधी और दुश्मन हैं। पुराण कथाओं में तो देवासुर संग्राम यानी देवों व असुरों के बीच युद्ध की भरमार है। अक्सर ही असुर देवों के स्वर्ग लोक पर धावा बोलते हैं और देव खुद को हारता हुआ पाकर मनुष्यों का सहारा लेते हैं। देवों और असुरों का मिलकर समुद्र मंथन करना तो बच्चे-बच्चे को पता है।

देवों और असुरों की इन कथाओं से हिन्दुओं के मन में जो तस्वीर बनती है उसमें देव अच्छे होते हैं और असुर बुरे। ऐसे में एक आम हिन्दू को यह जानकर आश्चर्य होगा कि दुनिया में एक ऐसा भी धर्म है जिसमें असुर अच्छे हैं और देव बुरे। और यह धर्म कोई कम पुराना नहीं है। यह धर्म है पारसी धर्म जिसे पश्चिम में जोरोस्टरवाद कहा जाता है।


पारसी धर्म एक ऐसा धर्म है जो एक ओर तो हिन्दू धर्म से मिलता है(अपनी आदिम उत्पत्ति में), दूसरी ओर यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म से(अपने उत्तरवर्ती प्रभाव में)। इसलिए आज यह लुप्तप्रायः होते हुए भी(सारी दुनिया में इसके बमुश्किल एक-डेढ़ लाख अनुयायी हैं, जिसमें करीब 50 हजार भारत में हैं) ऐतिहासिक तौर पर यह काफी महत्वपूर्ण है। 

जोरोस्टरवाद की उत्पत्ति के समय के बारे में इतिहासकारों में एकमत नहीं है। कुछ इसे 1500 से 1200 ईसा पूर्व के बीच मानते हैं तो कुछ छठी शताब्दी ईसा पूर्व में। इस पर लगभग सहमति है। इसका व्यापक प्रसार छठी शताब्दी ईसा पूर्व में अखमनी साम्राज्य के शासक साइरस महान के काल में हुआ। 

ज्यादा पहले उत्पत्ति का कयास का कारण यह है कि पारसी धर्म ग्रंथ अवेस्ता में पैगंबर जरस्थ्रु के बारे में तथा अन्य जगहों के बारे में जो जिक्र है वह भाषायी और अन्य आधार पर काफी पहले का बैठता है। मसलन देवों और असुरों के संबंध को लिया जाये। 

हिन्दू और पारसी दोनों धर्मों में देवों और असुरों का जो चरित्र चित्रण मिलता है वह एकदम विपरीत है। पर विपरीत होने के बावजूद इतना तो तय है कि दोनों में कोई संबंध था। इतना ही नहीं ऋग्वेद के सबसे प्राचीन देवता वरूण जो ऋत यानी व्यवस्था के देवता हैं, अवेस्ता में भी एक सम्मानित असुर हैं। यही बात मित्र के बारे में भी है। ऋग्वेद में वरूण और मित्र साथ-साथ हैं और इन्द्र से पहले सबसे सम्मानित। इसके विपरीत अवेस्ता में इन्द्र एक दुष्ट देव है जो लूट-पाट और मार-काट में लिप्त रहता है। मजे की बात यह है कि ऋग्वेद का सबसे प्रमुख देव होने के बावजूद इसमें भी इन्द्र का ठीक यही चित्र मौजूद है। यानी अवेस्ता और ऋग्वेद में इन्द्र का चरित्र चित्रण एक है हालांकि पहले में इसकी भर्त्सना है तो दूसरे में इसकी प्रशंसा। 

इस समानता के कारण यह संभावना बनती है कि ऋग्वेद और अवेस्ता की बातों का काल एक ही हो। अब इतिहासकारों में यह आम मान्यता है कि भारतीय-यूरोपीय आर्यों का मूल स्थान मध्य एशिया था। यहां से जब वे दक्षिण की ओर चले तो एक शाखा ईरान की ओर चली गयी और दूसरी भारत की ओर। अवेस्ता औैर ऋग्वेद का काल इन दोनों शाखाओं का संधिकाल हो सकता है। यह 1200 ईसा पूर्व आस-पास बैठता है। हो सकता है कि आर्यों के दो कबीलाई समूहों के बीच भीषण टकराव के चलते ही उन्होंने दो भिन्न-भिन्न दिशाओं में प्रस्थान कर दिया हो। इस टकराव ने ही उनके बाद के पूज्यों को देवों और असुरों विभाजित कर एकदम विरोधी चरित्र प्रदान कर दिया हो जबकि आदि पूज्य वरूण और मित्र दोनों के लिए सम्मानित पूज्य बने रहे हों। हांलाकि दोनों में ही वरूण और मित्र बाद में दोयम दर्जे पर चले गये। यह याद रखना होगा कि परंपरा में जरस्थ्रु का जन्म स्थान उत्तर पूर्व ईरान या उत्तर पश्चिम अफगानिस्तान माना जाता है। यह ईरान और भारत की ओर जाने वाली आर्य शाखाओं का संधि-स्थल हो सकता है। 

पैगंबर जरस्थ्रु(माना जाता है कि यहूदी, ईसाई और इस्लाम में जो ईश्वर के पैगंबर की परंपरा है उसका आदि स्रोत यही है) एक पुरोहित खानदान में पैदा हुए थे और स्वयं भी पुरोहित थे। यह वैसे ही रहा होगा जैसे वेदों के पुरोहित थे। कहा जाता है कि तीस साल की उम्र में जब वे एक बार नदी में नहा रहे थे तब उनके सामने छः पावन अमृत्य में से एक ‘अच्छा मन’ प्रकट हुआ और उसने उन्हें असुर मजदा का ज्ञान दिया। ऐसा और भी कई बार हुआ। इस नये ज्ञान को जरस्थ्रु ने लोगों को बताया पर लोगों ने उन पर विश्वास नहीं किया। तब जरस्थ्रु उन्हें छोड़कर चले गये। उन्हें बैक्ट्रिया(अफगानिस्तान) के राजा विश्तास्या ने शरण दी और उसने तथा रानी हुतोक्षा ने उनके विश्वासों को अपनाकर उसे राजकीय धर्म घोषित कर दिया। कुछ इतिहासकारों का मत है कि विश्तास्या छठी या सातवीं सदी ईसा पूर्व का राजा हो सकता है। जो भी हो, पर यह सच है कि जरस्थ्रु के विश्वासों का असली प्रसार छठी शताब्दी ईसा पूर्व के अखमनी राज में हुआ। अखमनी साम्राज्य परसिया(ईरान) आधारित था जो आस-पास के इलाकों पर भी राज करता था। साइरस और दारा इसके प्रसिद्ध शासक हुए। 

ईरान के आर्यों में जरस्थ्रु के विचारों की शुरुआती अस्वीकार्यता के पर्याप्त कारण थे। ये पुराने विश्वासों के एकदम विपरीत थे। इसमें देवों को नीचे गिराकर बुरी आत्माओं तक पहुंचा दिया गया था। इसमें एक ईश्वर(असुर मजदा) तथा एक शैतान(अंग्रा मैन्यु अथवा अद्विर्मान) की धारणा थी। इसमें स्वर्ग-नरक की धारणा और साथ में थी कयामत के दिन की धारणा। इसमें मृत्यु के बाद के आत्माओं के स्वर्ग की और जाने वाले पुल को पार करने की धारणा थी। (पैगंबर सहित ये सारी धारणाएं बाद में यहूदी, ईसाई व इस्लाम की परंपरागत धारणाएं बनीं। कुछ लोगों का मानना है कि साइसर महान ने यहूदियों को बेबीलोन की कैद से आजाद कराया था। इसलिए एहसानमंद यहूदियों ने जोरोस्टरवाद की इन धारणाओं को अपना लिया जो फिर परंपरा में ईसाई धर्म और इस्लाम में भी चली गईं।)

अवेस्ता में प्रस्तुत जोरोस्टरवाद के अनुसार समूची कायनात, कुल मिलाकर 12000 साल की है जो तीन-तीन हजार के चार चरणों में विभाजित है। असुर मजदा और अंग्रा मैन्यु शुरू से हैं। असुर मजदा रचना और व्यवस्था के मालिक हैं जबकि अंग्रा मैन्यु विध्वंस और अराजकता का। एक नेकी और अच्छाई का स्रोत है तो दूसरा बुराई का। असुर मजदा प्रकाश में रहते हैं जबकि अंग्रा मैन्यु अंधकार में। इस तरह तीन हजार साल रहने के बाद अंग्रा मैन्यु ने अंधकार से निकलकर असुर मजदा पर हमला किया पर असुर मजदा ने उसे पराजित कर वापस अंधकार में धकेल दिया। अगले तीन हजार साल तक अंग्रा मैन्यु वहीं रहा। इस बीच असुर मजदा ने फरिश्तों सरीखी आत्माओं सहित एक सांड और एक आदर्श मनुष्य गायोमार्द की रचना की। साथ ही धातुआें की भी। सब उसने एक अण्डाकार ब्रह्माण्ड की रचना करके किया। तीन हजार साल बाद अंग्रा मैन्यु फिर अंधकार से निकला और उसने इस रचना पर हमला कर दिया। सांड और मनुष्य मारे गये पर स्वयं अंग्रा मैन्यु धातुओं में कैद हो गया। मरने से पहले सांड और मनुष्य दोनों ने अपने बीज छोड़ दिये थे। सांड के बीजों से सारे पेड़-पौधे और जानवर पैदा हुए जबकि मनुष्य के बीजों से सारे मनुष्य। लेकिन अब यह रचना पहले जैसे नहीं रह गयी थी। हमेशा प्रकाश के बदले दिन-रात पैदा हो गये थे। समस्त जमीन के बदले पहाड़ और समुद्र पैदा हो गये थे। स्वर्ग और नर्क भी बन गये थे। हर मनुष्य अच्छाई और बुराई में चुनाव के लिए स्वतंत्र था। मरने के बाद उसके कार्यों का मूल्यांकन होता था। यदि उसकी अच्छाईयां बुराईयों से ज्यादा होती थीं तो उसकी आत्मा के लिए स्वर्ग का पुल चौड़ा हो जाता था और वह पुल पार कर स्वर्ग चली जाती थी। यदि बुराईयां ज्यादा होती थीं तो पुल संकरा हो जाता था और वह पुल के नीचे से गिरकर नर्क में चली जाती थी। ऐसा अगले तीन हजार सालों तक होना था। अंतिम तीन हजार साल की शुरुआत में पैगंबर जरस्थ्रु को पैदा होना था जिन्हें अंग्रा मैन्यु से संघर्ष करना था। अगले हजार-हजार साल पर ऐसे दो और लोग पैदा होने थे। अंत में बारह हजार साल बीत जाने पर असुर  मजदा और अंग्रा मैन्यु में अंतिम संघर्ष होना था जिसमें अंग्रा मैन्यु हमेशा के लिए पराजित हो जाता। इस पराजय के साथ एक बार फिर प्रकाश का पूर्ण राज हो जाता। समुद्र और पहाड़ खत्म होकर एक बार फिर सब समतल हो जाता। नर्क की आत्माएं भी वहां से निकलकर स्वर्ग चली जातीं। 

जेरोस्टरवाद की इस रचना कथा में अन्य धार्मिक मान्यताएं भी जुड़ी हुई हैं। मसलन असुर मजदा ने अंग्रा मैन्यु से लड़ने के लिए छः पावन अमर्त्य की रचना की जो उसी तरह हैं जैसे सूरज के लिए प्रकाश है। 

पारसी धर्म या जोरोस्टरवाद में पवित्रता का खास खयाल है। अग्नि, धरती, जल और वायु चारों पवित्र हैं खासकर अग्नि। यह गौरतलब है कि अग्नि ऋग्वेद का भी एक प्रमुख देवता है। उसमें इन्द्र के बाद सबसे ज्यादा ऋचाएं अग्नि को ही समर्पित हैं। अग्नि को निरंतर प्रज्वलित रखने की अनेक विधियां और आह्वान ऋग्वेद में वर्णित हैं। जोरोस्टरवाद में भी ऐसा ही है। जोरोस्टर परंपरा के अनुसार प्राचीन काल में तीन प्रसिद्ध मंदिरों में प्रज्वलित अग्नि स्वयं असुर मजदा से आई थी। कहा जाता है कि प्राचीन परसिया(ईरान) में एक मंदिर में सैकड़ों साल तक अग्नि निरंतर प्रज्वलित रखी गई थी।

पवित्रता की इसी धारणा के कारण पारसी या जोरोस्टरवादी अपने परिजनों के शवों को न तो जलाते थे और न ही गाड़ते थे। शव अत्यंत अपवित्र माना जाता था तथा इसके संपर्क में आने पर अग्नि और धरती के अपवित्र हो जाने का खतरा था। इसलिए शव को एक ऊंचे मचान पर (अक्सर ऊंचे गोल चबूतरे पर) रख दिया था जिसे चील-कौवे नोंच खाते थे। अंत में बची हुई हडिडयों को गहरे कुएं में फेंक दिया जाता था। आज भी भारत में पारसी इसी परंपरा का पालन करते हैं हालांकि इस्लामी ईरान में इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। यह अजीबो गरीब तथ्य है कि भारत में इस पारसी परंपरा पर एकदम भिन्न कोण से खतरा पैदा हो गया है। यहां पशुओं की दर्द की दवा के तौर पर प्रतिबंधित डाईक्लोफिनाक का इस्तेमाल होता है। इसे खाने वाले पशु जब मरते हैं तो उनके शवों का भक्षण करने वालों में गिद्ध भी होते हैं। गिद्धों की किडनी इस रसायन से फेल हो जाती है और वे मर जाते हैं। इसीलिए पिछले 15 सालों में भारत में गिद्धों की संख्या तेजी से घटी है। अब काफी ऊंचे मचान पर रखे जाने वाले पारसी शवों को खाने के लिए गिद्ध उपलब्ध नहीं हो रहे हैं।

भारत और ईरान(आर्यन का इलाका) में जो आर्य आये वे पुरूष प्रधानता वाले कबीलाई लोग थे। उनके ढेरों देवी-देवता थे जिनके लिए यज्ञ अनुष्ठान थे। इस तरह के आर्यों का भारत और ईरान में बाद में अलग-अलग तरह से धार्मिक विकास हुआ। भारत में एक लंबे समय में पुराने आर्य धार्मिक विश्वास और रीति-रिवाज धीमे-धीमे बदलते हुए उस रूप में सामने आये जिसे बाद में हिन्दू धर्म के नाम से जाना गया। इसमें बीच में पैदा हुए बौद्ध और जैन धर्म का महत्वपूर्ण योगदान था। भारत एक बहुत बड़ा देश था जिसमें छोटे-बड़े राज्यों का विकास भी आर्य कबीलों के विघटन से हुआ। यहां के स्थानीय गैर आर्य कबीले तो और भी पिछड़े थे जबकि हड़प्पा की सभ्यता पहले ही विलोपन की ओर बढ़ चली थी। इन सब वजहों से भारत में कालांतर में अस्तित्व में आये हिन्दू धर्म की प्राचीन आर्य धार्मिक अनुष्ठानों से निरंतरता बनी रही। इसमें देवों से अलग और उनसे ऊपर एक सर्वशक्तिमान ईश्वर की धारणा भी बहुत धीमे-धीमे विकसित हुई। 

इसके विपरीत ईरान में आर्यों का विकास भिन्न रूप में हुआ। उसमें न केवल वर्ण व जाति व्यवस्था नहीं पैदा हुई बल्कि एक पैगंबर के तहत नया धर्म अस्तित्व में आ गया जिसमें पुराने आर्य धार्मिक अनुष्ठानों की निरंतरता के साथ एक विलगाव भी था। ईरान के इर्द-गिर्द पहले से बड़े राज्य मौजूद थे। इसमें असीरिया, बेबीलोन और मिश्र के राज्य प्रमुख थे। ईरान के नये आर्य बाशिन्दों पर इनका प्रभाव पड़ना ही था। ईरान में बसने के बाद आर्य पशुचारी कबीलों का पुरोहितों, लड़ाकों, किसानों तथा दस्तकारों में विभाजन हो गया। इस वर्गीय विभाजन के राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परिणाम होने ही थे खासकर तब जब आस-पास बड़े राज्य मौजूद हों। ऐसे में यह आश्चर्य की बात नहीं थी कि पुराने धार्मिक विश्वास बहुत कारगर न रह जायें। इनसे विलगाव करते हुए सर्वशक्तिमान ईश्वर, उसके पैगंबर तथा स्वर्ग-नरक की कल्पना कर लेना तब इतना मुश्किल नहीं रह गया था। पुरोहित जरस्थ्रु ने यही किया। पर, जैसा कि होता है, उनके नये विचारों को तुरंत स्वीकार्यता नहीं मिली। यही नहीं उनका भारी विरोध हुआ और उन्हें पलायन करना पड़ा। केवल बाद में जाकर ही, जब स्वयं ईरान में एक बड़ा राज्य पैदा हो गया तब जरस्थ्रु के विचारों को व्यापक मान्यता मिली। केवल अखमनी राज के उदय के बाद ही यह हो पाया। इसलिए भले ही जरस्थ्रु पहले पैदा हुए हों पर उनके नये धार्मिक विचारों को समाज में व्यापक मान्यता तभी मिली जब वह उनके अनुकूल हो गया। यहां यह याद रखना होगा कि अखमनी राज व बाद में भी ईरान में जेरोस्टरवाद के साथ मगियों का धार्मिक मत व्यापक रूप में प्रचलित रहा। जेरोस्टरवाद को एकक्षत्र प्रमुखता केवल सासानी साम्राज्य के काल में ही मिली जब अन्य मतों के मानने वालों का दमन किया गया।

जैसा कि पहले कहा गया है, जेरोस्टरवाद ने पहले-पहल व्यापक प्रसार अखमनी साम्राज्य के दौरान हासिल किया जब साइरस महान ने इसे प्रोत्साहित किया। अखमनी साम्राज्य के दौरान अगले दो सौ साल तक यह फला-फुला। बाद में पार्थीय और सासानी साम्राज्यों के दौरान भी यह आगे बढ़ा खासकर सासानी साम्राज्य में। सासानी शासन के दौरान जोरोस्टरवाद ने थोड़ा भिन्न किन्तु ज्यादा सुसंगत रूप ग्रहण किया। पहली बार पहलवी भाषा में इसकी मूल्य-मान्यताओं का व्यापक संग्रह किया गया। (अवेस्ता की भाषा अवेस्तन थी) हालांकि अखमनी राज के विपरीत इस दौरान भिन्न संप्रदायों का दमन भी किया गया। 

सासानी राज का अंत इस्लामी राज ने किया। मुहम्मद साहब के जिन्दा रहते ही नये उभरते इस्लामी राज ने ईरान पर कब्जा कर सासानी राज को समाप्त कर दिया। जो सासानी साम्राज्य रोमन साम्राज्य के सामने भी टिका रहा था अब वह ध्वस्त हो गया। नये इस्लामी राज ने केवल खिराज और कर वसूली तक स्वयं को सीमित रखा और ईरानी जनता की जोरोस्टरवादी मान्यताओं में कोई दखल नहीं दिया। पर नये इस्लामी शासन के तहत लोगों ने नया धर्म स्वीकार करना शुरू कर दिया। धीमे-धीमे ऐसे लोग बहुमत में हो गये। यही नहीं जब इस्लामी खिलाफत उमैय्या खानदान से अब्बासी खानदान में चली गई तो उसमें ईरानी अमीर-उमरा का अच्छा-खासा प्रभुप्त हो गया। अब्बासी खलीफाओं ने बगदाद को अपनी राजधानी बनाया और वहां ईरानियों का बोलबाला रहा। 

अब तक ईरान में जोरोस्टरवादियों की आबादी घटते-घटते बहुत कम रह गयी थी। इसी काल में कभी नवीं या दसवीं सदी में जोरोस्टरवादियों का एक समूह ईरान से चलकर भारत के गुजरात में आ गया। परसिया से आने के कारण ये यहां पारसी कहलाये। ये यहां गांवों में बस गये। बाद में जब अंग्रेजों ने सूरत को बन्दरगाह के रूप में विकसित किया तो पारसी धीमे-धीमे वहां चले गये और व्यापार में लग गये। अब वे गवईं के बदले शहरी तथा किसान के बदले व्यापारी-व्यवसाई हो गये थे। आज इसीलिए इतने आश्चर्य की बात नहीं है कि इतनी कम आबादी के बावजूद पारसी भारत के व्यावसायिक घरानों में इतने प्रमुख हैं। संघी फासीवादियों में से ज्यादातर को यह नहीं पता कि राहुल गांधी के दादा फिरोज जहांगीर गान्धी मुसलमान नहीं बल्कि पारसी थे।

समय के साथ पूरी दुनिया में ही पारसियों की आबादी घटती गयी है। अपने जन्म स्थान ईरान में तो वे बस चन्द हजार ही हैं। एक समूह के तौर पर वे सबसे ज्यादा भारत में हैं। 2011 की जनगणना में उनकी आबादी साठ हजार के आस-पास थी जिसमें अब घट जाने का अनुमान लगाया जा रहा है। भारत में पारसियों की जनसंख्या घटने का प्रमुख कारण विवाह न करना या बच्चे नहीं पैदा करना है। जोरोस्टरवादी परंपरा में धर्मान्तरण नहीं रहा है हालांकि अमेरिका वगैरह में इसे अब स्वीकार किया जाने लगा है। जोरोस्टरवादी उम्मीद करते हैं कि इससे शायद उनके मतावलंबियों की संख्या बढ़े। 

जैसा कि पहले कहा गया है जोरोस्टरवाद ने दुनिया के तीन महान धर्मों- यहूदी, ईसाई और इस्लाम- की  धारणाओं में महत्वपूर्ण योगदान किया है। अनकहे ही ये तीनों उसके महती ऋणी हैं। जोरोस्टरवाद स्वयं एक समय खूब फला-फूला पर अन्य समय में वह नये ऊर्जावान इस्लाम के सामने नहीं टिक पाया। अन्य जगहों पर भी अपनी जड़ प्रकृति के कारण वह फैलने के बदले क्षरित होता गया और आज लुप्तप्राय है। धर्मों के इतिहास में जोरोस्टरवाद इसका उदाहरण है कि कैसे कोई व्यापक धर्म बदलते समय के अनुरूप स्वयं को न ढाल पाने के कारण क्रमशः लुप्त होता चला जाता है।                                 (वर्ष- 10 अंक-4 जुलाई-सितम्बर, 2019)

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