नई शिक्षा नीति 2019
पूंजीपतियों और फासिस्टों की जरूरत को एक साथ पूरा करने की परियोजना
आखिरकार 4 साल के लंबे इंतजार के बाद नई शिक्षा नीति (न्यू एजुकेशन पॉलिशी एन.ई.पी.) 2019 का मसौदा तैयार हो चुका है। सरकार ने 31 जुलाई, 2019 तक इस मसौदे पर सुझाव आमंत्रित करने के लिए इसे जनता के बीच में जारी किया है। 2014 में मोदी सरकार आने के बाद से ही नई शिक्षा नीति की बहुत चर्चा थी। जनवरी 2015 में नई शिक्षा नीति के निर्माण की प्रक्रिया शुरू करने के लिए एचआरडी मंत्रालय ने पूर्व केबिनेट सेक्रेटी सुब्रमणियन के नेतृत्व में एक कमेटी का गठन किया। जिसने मई 2016 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। इस रिपोर्ट पर अपने सुझाव देते हुए मंत्रालय ने जून 2017 में वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंजन की अध्यक्षता में एक नई कमेटी का निर्माण किया। इस कमेटी ने दिसम्बर 2018 में अपनी रिपोर्ट मंत्रालय को सौंप दी। इसके 5 महीने बाद सरकार ने उक्त मसौदे को जनता के सामने रखते हुए इस पर सुझाव आमंत्रित किए।
भारत में आजादी के बाद से शिक्षा के क्षेत्र में कई कमीशन और कमेटियों का निर्माण किया गया है। अंतिम शिक्षा नीति 1986 में राजीव गांधी सरकार के समय पास की गयी थी। भिन्न-भिन्न समयों में बनी इन कमेटियों और कमीशनों ने बदलते भारत के साथ शिक्षा को बदलने के प्रस्ताव रिपोर्टां में दिए थे। स्पष्ट है कि ये बदलाव आम जनता की जरूरतों के बजाए पूंजीपतियों के हितों को ध्यान में रखकर किए गए क्योंकि यदि पिछली रिपोर्टां का केन्द्र जनता होती तो आज भारत की शिक्षा का इतना बुरा हश्र न होता। हां, इन सभी रिपोर्टां में भारत सरकार से शिक्षा पर बजट का छठा हिस्सा खर्च करने का प्रस्ताव रखा गया था जिन्हें किसी भी सरकार ने कभी भी पूरा नहीं किया। बल्कि तमाम प्रस्तावों के बाद शिक्षा में बजट का हिस्सा घटता ही गया है।
2014 में मोदी सरकार ने आते ही नॉन नेट फेलोशिप को बंद करने की कोशिश की। आई.आई.एम., आई.आई.टी., मेडिकल, विभिन्न कोर्सो की फीसें पिछले 5 साल में बेतहाशा बढ़ी हैं। ये सरकार कालेजों को फण्ड देने वाली संस्था यू.जी.सी. को खत्म कर उसकी जगह पर हेफा (हायर एजुकेशन फाइनेंसिंग एजेंसी) का गठन करना चाहती है। जिसका काम कालेजों को फण्ड देना नहीं बल्कि लोन देना होगा। शिक्षा संस्थानों में जनवाद को पिछले सालों में सरकार द्वारा रौंदा गया है। छात्रों के बोलने, विरोध करने, सवाल करने जैसे मूलभूत अधिकारों पर ‘देशद्रोह’ का तमगा लगाकर कुचलने की कोशिश की गयी है। भिन्न-भिन्न तरीकों से शिक्षा संस्थानों में मिल रहे आरक्षण पर सरकार कैंची चला रही है। शिक्षकों को निरंतर ठेके पर रखकर उनकी मांगों को कुचला गया है। कुल मिलाकर बीते 5 सालों में शिक्षा व शिक्षा संस्थानों को बर्बाद करने में इस सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। अब यही सरकार नई शिक्षा नीति के जरिए देश की शिक्षा में आमूलचूल बदलाव का दावा कर रही है। इन दावों के परिणाम तो भविष्य में छिपे हैं पर सरकार का अब तक का कार्यकाल उसके दावों की हकीकत बयां कर देता है।
फिर भी हम नई शिक्षा नीति में सरकार द्वारा किए गए दावों की पड़ताल जरूर करेंगे। उन दावों की चीर-फाड़ से समझने की कोशिश करेंगे कि सरकार किस दिशा में शिक्षा को बढ़ाना चाहती है। पर सबसे पहले एक सवाल लेते हैं उम्मीद हैं पाठकगण इस पर जरूर सोचेंगे। आखिर तमाम तरह की नीतियां होने के बाद भी मोदी सरकार को नई शिक्षा नीति की जरूरत क्यों पड़ी?
नई शिक्षा नीति के मुख्य बिन्दुओं को उठाते हुए इस सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश करते हैं। 648 पृष्ठों में जारी की गयी सिफारिशों को मुख्यतः 4 भागों में बांटा गया है। प्रथम भाग में स्कूली शिक्षा, दूसरे भाग में उच्च शिक्षा, तीसरे भाग में अतिरिक्त प्रमुख फोकस क्षेत्र व चौथे भाग में शिक्षा में बदलाव पर बात की गयी है।
पूंजीपतियों और बाजार की जरूरत को पूरा करने वाली नीति
किसी पूंजीपति को सिर्फ मुनाफे से मतलब होता है। वह यह कभी नहीं सोचता कि काम करने वाले मजदूरों की क्या स्थिति है। अगर उसकी कोई कंपनी मुनाफा नहीं दे पाती तो वह बेहिचक उसे बंद कर अपनी पूंजी किसी मुनाफा देने वाले संस्थान में लगा देता है। चाहे वो बंद किया गया संस्थान समाज के लिए कितना ही उपयोगी हो उसे वो बंद कर देता है। यही पूंजीवादी न्याय है और यही न्याय नई शिक्षा नीति में भी व्यक्त किया गया है।
उच्च शिक्षण संस्थानों पर बात करते हुए एन.ई.पी. कहती है कि संस्थानों पर ‘परिणाम आधारित मॉडल’ को लागू किया जाना चाहिए। मतलब जो संस्थान परिणाम देने में अक्षम हैं उसे निजी हाथों में दे देना चाहिए अथवा उसे बंद कर देना चाहिए। आखिर कोई संस्थान परिणाम क्यों नहीं दे पा रहा है? वहां पर शिक्षकों, कर्मचारियों की क्या स्थिति है? वहां पढ़ने वाले छात्र किस पृष्ठभूमि से आते हैं? इस पर एन.ई.पी. कोई बात नहीं करता। जाहिर सी बात है ग्रामीण इलाकों में मौजूद जर्जर उच्च शिक्षण संस्थान उचित परिणाम कभी नहीं दे सकते। जरूरत इन्हें और ज्यादा संसाधन सम्पन्न बनाने की है पर एन.ई.पी. ठीक उल्टी सिफारिश करती है। वह उन्हें निजी करने अथवा बंद कर देने का समाधान सुझाता है। ‘अगली बार आपके पैर में फोड़ा हो तो उसका इलाज करवाने के बजाए डॉक्टर के पास जाकर अपने पैर कटवा लीजिए’ ये हम नहीं एन.ई.पी. बोलती है।
यही नहीं हर संस्थान को ‘संस्थान के विकास की योजना’ (आई.डी.पी.) बनानी होगी। इन योजनाओं के आधार पर ही संस्थान को फण्ड और स्वायत्ता दी जाएगी। मतलब साफ है फण्ड, संस्थान की जरूरत को ध्यान में रखकर नहीं दिया जाएगा बल्कि उसकी योजनाओं को आधार बनाकर दिया जाएगा। और क्या होगा यदि कोई संस्थान सरकार के मनमुताबिक योजना नहीं बना पाता? ये एक रहस्य है जिसका उत्तर विद्वान पाठकों को पता है।
एन.ई.पी. के मौजूदा प्रस्ताव में बदनाम ‘चार वर्षीय स्नातक प्रोग्राम’ (एफ.वाई.यू.पी.) लागू करने की सिफारिश की गयी है। एफ.वाई.यू.पी. कांग्रेस के शासनकाल में 2012 में डीयू में लागू किया गया था। जिसके तहत स्नातक डिग्री का समयकाल 3 से बढ़ाकर 4 वर्ष किया गया था। साथ ही इसमें मेन कोर्स के साथ छात्रों को कम्प्यूटर, मार्केटिंग, गणना आदि की भी बेसिक नॉलेज दी जा रही थी। इस चार वर्षीय प्रोग्राम के ‘अतिरिक्त एक वर्ष’ और सतही पाठ्यक्रम पर छात्रों व शिक्षकों का गुस्सा फूट पड़ा था। जिसके बाद हुए प्रदर्शनों ने नयी बीजेपी सरकार को इसे हटाने पर मजबूर कर दिया था। इसकी जगह पर बीजेपी ने ‘च्वाइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम’ (सी.बी.सी.एस.) लागू किया था। मजेदार बात यह है कि खुद बीजेपी ने उस समय एफ.वाई.यू.पी. का विरोध किया था। परंतु अब इसके शासनकाल में ही फिर से इसका जिन्न निकाला गया है। दरअसल एफ.वाई.यू.पी. का पूरा प्रोग्राम पूंजीपतियों और बाजार की जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाया गया था। इसके तहत ऐसे वाइट कॉलर कर्मचारियों को तैयार किया जाना था जो अकेले ही कई तरह के काम कर सकते हों। जो बाजार की नई मांगों के हिसाब से खुद को ढाल सकते हों। जन दवाब में मोदी सरकार भले ही इसे वापस लेने को मजबूर हो गयी थी परंतु वो अपने आका पूंजीपतियों को कैसे नाराज कर सकती थी। इसलिए बदनाम एफ.वाई.यू.पी. एक बार फिर से लौट आया है। ये दिखाता है कि पूंजीपरस्त नीतियों के मामले में बीजेपी-कांग्रेस में कोई अंतर नहीं है।
संस्थानों के निजीकरण को बढ़ावा मिलेगा
30 से कम विद्यार्थी वाले स्कूलों को धीरे-धीरे बंद करने अथवा उन्हें पास के विद्यालयों के साथ मिलाने की अनुशंसा एन.ई.पी. में की गयी है। एक माध्यमिक स्कूल (कक्षा 12 तक) व उसके आसपास 5 से 10 मील के दायरे में स्थित कक्षा 1 से 8 तक के स्कूलों को मिलाकर एक स्कूल काम्पलैक्स गठित किया जाएगा। आंगनबाड़ी, प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र व व्यवसायिक शिक्षा की सुविधाएं आदि भी इससे सम्बद्ध होंगी। शिक्षकों की नियुक्ति स्कूल काम्पलैक्स स्तर पर की जाएगी। काम्पलैक्स के शिक्षकों को सभी स्कूलों में पढ़ाने की जिम्मेदारी होगी। उनका ट्रांसफर 5 वर्ष से पहले नहीं किया जाएगा। इसमें पुस्तकालय, कम्यूटर व विज्ञान प्रयोगशालाओं व खेल सुविधाओं आदि का सांझा उपयोग किया जाएगा।
स्कूल काम्पलैक्स की अनुशंसा सुनने में भले ही बड़ी बेहतर लगे परंतु ये सरकारी स्कूली शिक्षा से सरकार के हाथ खींचने और उन्हें बंद करने की परियोजना है। यूनाइटेड डिस्ट्रिक्ट इनफारमेशन ऑन स्कूल एजुकेशन के आंकड़ां के अनुसार देश में 40 प्रतिशत प्राइमरी स्कूलों में बच्चों की संख्या 30 से कम है। एन.ई.पी. के अनुसार इन स्कूलों को या तो बंद कर दिया जाएगा या फिर आस-पास के स्कूलों के साथ मिलाकर स्कूल काम्पलैक्स बना दिया जाएगा। 2011 के जनसंख्या आंकड़ों के अनुसार भारत के 500 से कम जनसंख्या वाले गांवों की संख्या 37.5 प्रतिशत है। 30 से कम बच्चों की संख्या वाले ये स्कूल ज्यादातर इन्हीं गांवो में स्थित हैं। इन स्कूलों के चलते इन गांवों के छोटे बच्चों को अपने घर के आस-पास ही शिक्षा मिल जाती है। इन्हें पढ़ने के लिए दूर नहीं जाना होता। परंतु शायद हमारी सरकार इन बच्चों से ये हक भी छीन लेना चाहती है। यह तय है कि नई योजना लागू होने के बाद से इन बच्चों को ज्ञान प्राप्त करने के लिए मीलों भटकना पड़ेगा।
शिक्षा के अधिकार कानून की समीक्षा की बात भी एन.ई.पी. में की गयी है तथा इस कानून की धारा 12(1) सी में सभी निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें निर्धन बच्चों के लिए आरक्षित करने के कानून को भ्रष्टाचार का कारण बताते हुए इस धन को सार्वजनिक शिक्षा में खर्च करने की अनुसंशा की गयी है।
एन.ई.पी. में 2035 तक उच्च शिक्षा में छात्रों का प्रतिशत 50 करने का लक्ष्य लिया गया है। ये लक्ष्य तो बहुत अच्छा है और कोई भी आदमी जो इस बात को सुनेगा वो ये ही बोलेगा कि इसे पाने के लिए सरकार को अधिक से अधिक कालेज खोलने होंगे, शिक्षकों की भर्ती बढ़ानी होगी, शिक्षा में बजट बढ़ाना होगा। पर एन.ई.पी. ऐसा कुछ नहीं सोचती उसके पास एक नायाब नुस्खा है। आइए उसे देखते हैं। ‘जी.ई.आर. (ग्रास इनरोलमेंट रेसियो) को 50 प्रतिशत तक बढ़ाने के लिए ऑनलाइन डिस्टेंस लर्निंग (ओ.डी.एल.) की महत्वपूर्ण भूमिका है। गुणवत्ता पर जोर देते हुए ओ.डी.एल. के प्रसार और विकास पर जोर देना चाहिए।’ एन.ई.पी. के पास उच्च शिक्षा में छात्रों की नामांकन संख्या बढ़ाने का बस एक ही नुस्खा है और वो है ऑनलाइन डिस्टेंस लर्निंग और मेसिव ऑनलाइन कोर्स। इसके जरिए बिना शिक्षकों की भर्ती किए, बिना कोई कालेज बनाए, बिना बजट बढ़ाए सरकार नामांकन संख्या को आसानी से बढ़ा सकती है। इस परियोजना में छात्र कालेज में या फिर घर बैठे ही वीडियो कांफ्रेसिंग व अन्य माध्यमों से शिक्षा प्राप्त कर लेगा।
यह पूरी परियोजना शिक्षकों को बस किताबी ज्ञान देने का एक यंत्र समझती है। जिनको हटाकर उनकी जगह ऑनलाअन कोर्सेज शुरू करने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। शिक्षकों का काम तो सिर्फ पड़ाना है और वो ऑनलाइन कोर्सेज के जरिए भी हो सकता है तो शिक्षकों की जरूरत ही क्या है? शिक्षकों की जरूरत है! हम सभी जो किसी न किसी प्रकार की शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं जानते हैं कि हम सब के जीवन पर किसी न किसी शिक्षक का कितना प्रभाव है। कक्षा में शिक्षक सिर्फ हमें पढ़ाता नहीं है बल्कि वो अपने जीवन के अनुभवों से हमें भविष्य की मुश्किलों से सचेत भी करता है। कई बार हमारे जीवन में आ रही व्यक्तिगत परेशानियों में भी वो हमें राह दिखाने की कोशिश करता है। कक्षा में शिक्षक के सामने हम अपने सारे सवालों-जवाबों को बेहिचक रख सकते हैं। परंतु एन.ई.पी. की ऑनलाइन परियोजना आने वाले छात्रों के जीवन से शिक्षकों की इस भूमिका को काट देना चाहती है। और ये सब इसलिए ताकि शिक्षकों की भर्ती में होने वाले खर्च को सरकार बचा सके। हाय! हमारी सरकार कितनी गरीब है।
प्रारूप में यह भी कहा गया है कि हमारे उच्च शिक्षा कार्यक्रमों में भागीदारी करने के लिए दूसरे देशों से भी छात्रों को आकर्षित करना चाहिए। 700 ईसा पूर्व में हमारे यहां विश्व का पहला विश्वविद्यालय तक्षशिला में स्थापित हुआ था। 7वीं शताब्दी में नालन्दा विश्वविद्यालय में चीन, जापान, परसिया, टर्की आदि देशों के आए छात्र अध्ययन करते थे। भारत में आज केवल 45 हजार (11250 प्रतिवर्ष) विदेशी छात्र उच्च शिक्षा में अध्ययनरत हैं। हमारे देश में विश्व के अपने देश से बाहर पढ़ रहे 50 लाख छात्रों में से 1 प्रतिशत से भी कम विदेशी छात्र पढ़ रहे हैं। विदेशी छात्रों को आकर्षित करने के लिए विदेशी और भारतीय संस्थानों के बीच साझेदारी को बढ़ावा दिया जाएगा। इसके लिए वीजा प्रक्रियाओं आदि को सरल बनाया जाएगा। दुनिया के 200 श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों को भारत में संचालन की अनुमति दी जाएगी।
इसी तरह की बातें बजट 2019 में भी की गयी हैं। बकायदा विदेशी छात्रों को भारत में बुलाने के लिए बजट में ‘भारत में पढ़ो’ नाम की परियोजना भी सरकार द्वारा शुरू कर दी गयी है। अब सोचिए जो सरकार खुद अपने यहां के छात्रों को नहीं पढ़ा पा रही है, जो फीस वृद्धि आदि तरीकों से छात्रों को शिक्षा से बाहर का रास्ता दिखा रही है वो विदेशी छात्रों से कह रही है आइए जनाब हमारे देश में आकर पढ़िए। क्या उच्च कोटि का राष्ट्रवाद है?
ऐसे ही 200 श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों को भारत में खोलने का प्रस्ताव किसको फायदा पहुंचाएगा। देश में खुलने वाले इन विदेशी संस्थानों का लक्ष्य छात्रों को पढ़ाना नहीं बल्कि उनकी जेब खाली कर अपनी तिजोरियां भरना होगा। देश की 80 प्रतिशत आबादी से आने वाले छात्र तो इन वि.वि. में कभी पहुंच भी नही पाएंगे। हां, ये उन धन्ना सेठों के बच्चों के काम आएंगे जो शिक्षा लेने के लिए विदेश भाग जाते हैं।
जनवाद का खात्मा और ऊपर से नीचे तक एक केन्द्रीय ढांचा
एन.ई.पी. का मसौदा पूरी उच्च शिक्षा को एक केन्द्रीकृत संस्था ‘राष्ट्रीय शिक्षा आयोग’ (आर.एस.ए.) के अंर्तगत लाने का प्रस्ताव करता है। जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री करेंगे। आर.एस.ए. संस्थानों के नीतिगत फैसले, बजट आदि के बारे में सभी फैसले लेने के लिए आजाद होगा। यदि आवश्यक हो तो इसे संस्थानों को बंद करने का भी अधिकार होगा। इस संस्था को इतने अधिक अधिकार होने के बावजूद ये किसी के प्रति जवाबदेह नहीं होगी। (वर्ष- 10 अंक-4 जुलाई-सितम्बर, 2019)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें