छल-प्रपंच और रेलवे का निजीकरण
भाजपा-मोदी के शासनकाल में रेलवे के निजीकरण की गति तेज हुई है। रेलवे का निजीकरण करते हुए कई बड़े कदम अपने पहले कार्यकाल में मोदी सरकार द्वारा उठाये गये। जिसके तहत रेलवे में एफ.डी.आई. की मंजूरी से लेकर रेलवे स्टेशनों तक को बेच देना रहा। अपने दूसरे कार्यकाल में निजी ट्रेन तेजस चलाने की अनुमति देने जैसे फैसलों से रेल के निजीकरण को और आगे बढ़ाया जा रहा है।
वैसे रेलवे का निजीकरण कोई नयी बात नहीं है। यह प्रक्रिया लगभग तीन दशक से जारी है। रेलवे के निजीकरण से पूंजीपति वर्ग को होने वाले मुनाफे पर पूंजीपति वर्ग लम्बे समय से लार टपका रहा है। तीन दशकों से विभिन्न पार्टियां धीरे-धीरे यह काम कर रही थीं। रेलवे के छोटे-बड़े कामों को ठेके पर देना, ब्रांडेट स्टोरों को खुलवाना आदि-आदि। किन्तु मोदी सरकार के आने के बाद निजीकरण की गाड़ी तेज रफ्तार से चल पड़ी है।
मोदी सरकार द्वारा सितम्बर 2014 में विवेक देवराय समिति गठित की गयी। जिसे ‘भारतीय रेल की वित्तीय हालात एवं कामकाज को सुधारने’ पर सुझाव के लिए बनाया गया था। इस समिति में भूतपूर्व कैबिनेट सचिव, शैम्पू-डिटरजैन्ट बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनी के पूर्व चैयरमैन, राष्ट्रीय स्टॉक एक्सचैंज के भूतपूर्व मैनेजिंग डारेक्टर और भारतीय रेल के पूर्व आर्थिक कमिश्नर को शामिल किया गया है। समिति के सदस्यों को देखकर ही अंदाज लग जाता है कि इन्हें क्यों चुना गया और ये क्या सिफारिशें करेंगे? समिति ने पूरी रिपोर्ट जून 2015 में सरकार को सौंपी। जिसे सरकार द्वारा स्वीकार भी कर लिया गया। यह रिपोर्ट रेलवे के निजीकरण की पूरी पटरी बिछा देती है जिस पर निजीकरण की रेल सरपट दौड़ेगी।
मोदी सरकार पूंजीपतियों की सेवा में इस कदर डूबी हुई है कि उसने रिपोर्ट आने तक का भी इंतजार नहीं किया। उससे पहले ही वह दोनां हाथों से रेलवे को लुटाने लगी। 2014 में ही मोदी सरकार द्वारा रेलवे के 17 क्षेत्रों में 100 प्रतिशत एफ.डी.आई. की मंजूदी दे दी गयी। मोटे तौर पर ये 17 क्षेत्र ये हैं- तेज गति की रेलगाड़ियों की पटरी बिछाना, कोरिडोर में रेल लाइनें बिछाना, सरकारी व निजी साझेदारी से रेल गाड़ियां चलाना, डीजल, बिजली चालित इंजन व कोचों का निर्माण निजी कम्पनियों से करवाना, रेलवे क्रासिंगों पर पुल या अंडरपास का निर्माण, स्टेशनों के नवीनीकरण, आधुनिकरण में निजी कम्पनियों का निवेश करवाना आदि।
मोदी सरकार द्वारा अपने पिछले कार्यकाल में ही भोपाल के स्टेशन सहित 23 स्टेशन बेच दिये थे। 50 स्टेशनों की नीलामी की प्रक्रिया जारी है। 100 फीसदी एफ.डी.आई. से उत्साहित पीयूष गोयल ने बिहार में मधेपुरा और महरोरा में दो इंजन निर्माण कारखाने 100 प्रतिशत एफ.डी.आई. निवेश से खोलने की घोषणा कर दी। सरकार के ये कारनामें दिखा देते हैं कि वे भारतीय रेल को किस दिशा में दौड़ाना चाहते हैं।
विवेक देवराय समिति द्वारा भी जो सुझाव दिये गये वो भारतीय पूंजीपति वर्ग की मंशा को बेहद स्पष्ट ढंग से रख देता है। (बॉक्स देखें)। समिति के सुझावों से स्पष्ट है कि वे रेल को एक व्यवसायिक क्षेत्र के तौर पर विकसित करना चाहती है। जिसका उद्देश्य मुनाफा कमाना होगा। कम से कम लोगों से काम करवाया जाएगा ताकि खर्च कम हो और मुनाफा अधिक। माल भाडे़ व किराये को भी इतना बड़ाया जायेगा जिससे मुनाफा हो। समिति के सुझावों का मूल मंत्र है मुनाफा। रेलवे का निजीकरण।
इस सब के बावजूद छल-प्रपंच में माहिर भाजपा सरकार रेलवे के निजीकरण न करने की बात कह रही है। बनारस में 2015 में रेलवे कर्मचारियों के सामने भाषण देते हुए मोदी ने कहा ‘‘भाईयों-बहनों रेलवे का निजीकरण नहीं किया जा रहा है। आप ऐसी अफवाहों पर विश्वास मत करो’’। 2019 के बजट में रेलवे की पूरी पटकथा लिखने के बाद जब देश में बड़े-बडे़ प्रदर्शन आयोजित हुए तो रेल मंत्री पीयूष गोयल ने कहा ‘‘कोई रेलवे का निजीकरण नहीं कर रहा है। हम तो रेलवे के हालात को सुधारना चाहते हैं और इसमें निजी क्षेत्र का सहयोग चाहते हैं’’। झूठी सरकार रेल बेच रही है, पटरियां बेच रही है, रेल के कारखाने बेच रही है, स्टेशन बेच रही है, रेलवे की जमीन बेच रही है और कह रही है, निजीकरण नहीं है। आप नाम कुछ भी दें पर यह वही सब कुछ हो रहा है जिससे रेल मजदूर-कर्मचारी हैरान परेशान है।
रेल मंत्री कहते हैं रेलवे का निजीकरण नहीं किया जा रहा है हम तो इसका निगमीकरण कर रहे हैं। रेलवे की मालिक हमेशा सरकार ही बनी रहेगी। वे कहते हैं रेलवे के विकास के लिए पूंजी निवेश की आवश्यकता है और सरकार यह निवेश नहीं कर सकती इसलिए निजी क्षेत्र की भागीदारी आवश्यक है। रेलवे के विकास के लिए अगले 5 सालों में 8.5 लाख करोड़ रूपये इक्ट्ठा किये जायेंगे। यह पैसा एल.आई.सी., विश्व बैंक, निजी कारोबारियों से और लगभग 400 स्टेशन बेचकर हासिल किये जायेंगे।
मौजूदा बजट के बाद मोदी के खास निर्देशन में मंत्रियों को रेलवे निजीकरण के लिए 100 दिन का प्लान बनाने के निर्देश दिये गये। 100 दिन के प्लान में देवराय समिति की सिफारिशों को लागू करने का प्लान बनाया गया है। इस पर अमल भी शुरू हो गया है। 100 दिन के एक्शन प्लान के तहत ‘तेजस’ के समान एक और निजी रेल चलाने का फैसला लिया गया। 50 रेलवे स्टेशनों को चिन्हित कर उनकी बोली लगवाकर उन्हें बेचा जायेगा। आने वाले समय में 400 स्टेशनों को बेचने की योजना है। इन स्टेशनों को खरीदने वाला कारोबारी यहां खाने-पीने की दुकानों से लेकर शौचालय सभी के लिए पैसा वसूलेगा। स्टेशनों की जमीनों का व्यवसायिक इस्तेमाल कर मोटा मुनाफा कमायेगा। जिस तरह मोदी के पहले कार्यकाल में भोपाल का हबीबगंज स्टेशन कर रहा है।
100 दिन के प्लान के तहत ही रेलवे की 7 उत्पादन इकाईयों को इंडियन रेलवे स्टॉक कम्पनी के तौर पर मिला दिया जायेगा। इनका निगमीकरण कर दिया जायेगा। इसके कर्मचारी रेल के कर्मचारी नहीं रह जायेंगे। ये निगम के कर्मचारी हांगे। ग्रुप सी और डी के कर्मचारी रेल के कर्मचारी नहीं माने जायेंगे। ये 7 उत्पादन इकाईयां बनारस में लोको इंजन कारखाना, प.बंगाल का चितरंजन लोको मोटिव वर्कर्स, रायबरेली में मॉर्डन कोच फैक्टरी, पंजाब की कपूरथला रेलवे कोच फैक्टरी, पटियाला का डीजल कारखाना, चेन्नई कोच फैक्टरी, बैंगलोर में व्हील एंड एक्सल प्लांट है। जिन्हें मिलाकर एक निगम बनाया जायेगा।
इसी प्लान के तहत दिल्ली-मुंबई राजधानी और दिल्ली-सियालदाह राजधानी ट्रेनों में पार्सल ढुलाई का काम बिना टेंडर निकाले अमेजन इंडिया को दे दिया गया। स्टेशनों में इंटरनेट सेवा देने के लिए टाटा को ठेका दे दिया गया। रेलवे जिसमें पहले ही 2 से 3 लाख पद खाली पडे़ हैं। इन्हें भरने के स्थान पर इस प्लान में कर्मचारियों की संख्या लगातार कम करने का प्लान है। मई में मोदी के शपथ लेते ही उत्तर रेलवे के 26000 पदों को खत्म कर दिया गया।
इस सब के बावजूद पीयूष गोयल इसे निजीकरण नहीं कह रहे हैं। वे कहते हैं सार्वजनिक व निजी साझेदारी से ही रेलवे का विकास होगा। और इसके लिए रिलाएंस इन्फ्रांस्ट्रक्चर, लारसेन एंड टुबो, सीमेन्स, अदानी पोर्टस, जी.एस.आर., टाटा इन्फ्रास्ट्रक्चर, जिन्दल स्टील एंड पावर आदि सहयोग के लिए तैयार हैं। पूंजीपतियों के एकाधिकारी घराने लम्बे समय से रेलवे पर अपनी गिद्ध दृष्टि जमाये हुए हैं। इनका मकसद सहयोग नहीं बल्कि ये रेलवे से मुनाफा, भारी मुनाफा कमाना चाहते हैं।
आजादी के बाद कई दशकों तक भारतीय पूंजीपति वर्ग की यह स्थिति नहीं थी कि वह रेलवे जैसे बडे़ क्षेत्र को खड़ा कर सके, चला सके। इसलिए यह काम उसकी सरकार ने उठाया। जनता पर भारी कर का बोझ लादकर, गरीब किसानों, मजदूरों को भुखमरी की कगार पर धकेलकर देश में ऐसे संस्थान खडे़ किये गये। रेलवे, पूंजीपतियों के मालों को इधर से उधर पहुंचाने का एक सस्ता साधन सरकार द्वारा उपलब्ध करवाया गया। यह संस्थान अपने आप में एक बड़ा बाजार पूंजीपति वर्ग को उपलब्ध करवाता रहा है। रेल में इस्तेमाल होने वाले छोटे-बडे़ सामानों को बनाकर पूंजीपति रेलवे में बेचकर मुनाफा कमा रहे हैं।
देश के किसानों, मजदूरों को पूंजीपति वर्ग लूट-लूट कर अमीर बनता चला गया। 80 का दशक आते-आते अब उसके मुनाफे की भूख और बढ़ती गयी। अब वह महसूस करने लगा कि 1947 में अपनायी गयी संरक्षणवादी नीतियां जो पूंजीपति के लिए, एक संरक्षित बाजार के लिए बनायी गयी थी, अब उसके विकास में बाधक हैं। अब वह महसूस करने लगा कि वह विदेशी कम्पनियों से प्रतिस्पर्धा कर सकता है और इसी से ही वह और अधिक मुनाफा कमा सकता है। विदेशी पूंजी और तकनीक से वह अपने बाजार का विस्तार कर सकता है, जो कि हुआ भी। विदेशी कम्पनियां तो लम्बे समय से भारत के बडे़ बाजार की ताक में बैठी ही हुई थीं।
कुछ हिचकिचाहट के साथ भारत ने संरक्षणवादी नीतियों का अंत कर उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियां अपनायी। 1991 में यह नीतियां जोर-शोर से लागू की गयीं। देश का विकास होगा, बेरोजगारी-गरीबी से देश मुक्त होगा आदि सब्जबाग दिखाये गये। 1991 में नयी आर्थिक नीतियां लागू होने के बावजूद भारतीय शासक इस राह में सधे हुए कदमों से चले। उनकी पूरी कोशिश रही कि वे इन नीतियों का सर्वोत्तम लाभ देशी पूंजीपतियों को उठाने दें। और हुआ भी यही। देश के औद्योगिक घराने इस दौर में भी सरकारी संरक्षण से खूब फले-फूले। इन नीतियों के प्रभाव में ही तमाम सरकारी संस्थानों में निजी पूंजी निवेश करवाया गया। सरकार द्वारा इस काम के लिए पूरा मंत्रालय विनिवेश मंत्रालय खड़ा कर दिया गया। सोची समझी साजिश के तहत सरकारी संस्थानों को बदनाम किया गया। उनके घाटे को बढ़ाया गया। ‘यह संस्थान सरकार पर बोझ हैं’ की सोच समाज में पैदा की गयी। फिर उन्हें बेच दिया गया। सरकारी चीनी मिलों से लेकर एल.आई.सी., नवरत्न कम्पनियों सभी में इस योजनाबद्ध नीजिकरण को देखा जा सकता है। हाल ही में बी.एस.एन.एल. का उदाहरण भी हमारे सामने है। किस तरह सरकार लम्बे प्रयासों के बाद इस कम्पनी को घाटे में लायी और अब इसे लगभग बेच चुकी है। रेलवे के साथ भी सरकार की यही प्रक्रिया जारी है।
पूंजीपति वर्ग की सरकारी संस्थानों को हड़पने की भूख और सरकारों की आतुरता का एक कारण और है। यह कारण है संकटग्रस्त भारतीय अर्थव्यवस्था। पिछले लम्बे समय से वैश्विक अर्थव्यवस्था और भारतीय अर्थव्यवस्था गंभीर आर्थिक संकट से घिरी है। पूंजीपति वर्ग की पूंजी वह मुनाफा नहीं कमा पा रही है जो उसे कमाना चाहिए। ना ही पूंजी निवेश के कोई बडे़ क्षेत्र ही सामने हैं। जहां यह लगकर मुनाफा कमा सकें। बाजार की क्रयशक्ति कम होने से पूंजीपति का माल बिक नहीं रहा है। इस तरह से उसकी पूंजी मुनाफा नहीं पीट पा रही है। ऐसे हालात में वह पूंजी निवेश के नये क्षेत्रों के तौर पर सरकारी संस्थानों पर अपनी गिद्धदृष्टि जमा रहा है। और सरकार इन गिद्धों के लिए सारी बाधाएं समाप्त कर रही है।
रेलवे जैसे संस्थान का निजीकरण जहां एक तरफ पूंजीपति वर्ग की पौबारह कर देगा वहीं यह देश की मेहनतकश आबादी के लिए बेहद खतरनाक परिणाम सामने लायेगा। एक तो यह कि जनता की गाड़ी कमाई से खडे़ किये संस्थान को सरकार पूंजीपतियों को सौंपेगी जिससे वे इन संस्थानों को मुनाफा कमाने के एक औजार की तरह बना देंगे। जनता का आवागमन से लेकर तमाम वस्तुओं की महंगाई हो जायेगी। सबसे बड़ा प्रभाव रेल कर्मचारियों पर पडे़गा। अत्यधिक काम के दबाव में काम कर रहे मजदूर-कर्मचारी पर काम का और अधिक बोझ बढ़ेगा। खर्च कम करने के नाम पर की जाने वाली छटनी की तलवार हमेशा रेल मजदूरों-कर्मचारियों के सर पर लटकी रहेगी। खर्च कम करने के नाम पर तमाम तरह के भत्तों व सुविधाओं में भारी कटौती होगी। इस भविष्य को देखते हुए रेल के मजदूर-कर्मचारियों के बीच खासा असंतोष भी है, आक्रोश है।
रेलवे के निजीकरण का एक बड़ा प्रभाव देश के नौजवान आबादी पर पड़ेगा। पहले से भयानक बेरोजगारी से जूझ रहे नौजवानों के सामने रोजगार के अवसर और अधिक सीमित हो जायेंगे। रेलवे में जब से निजीकरण की प्रक्रिया चल रही है तब से यहां लाखों नौकरियां समाप्त हो चुकी हैं। 10-15 साल पहले रेलवे में 19 लाख लोग कार्यरत थे। इन वर्षों में पटरियां भी कई किलोमीटर बिछी, नयी रेलें भी चलायी गयीं। किन्तु रेलवे में लगभग 5 लाख से अधिक नौकरियां समाप्त हो गयीं। अब, जब निजीकरण की प्रक्रिया अपने ऊंचे मुकाम पर है जहां सरकार अपने आपको उच्च मैनेजमैंट तक सीमित कर सम्पूर्ण रेलवे का निजीकरण कर देना चाहती है। जब मुनाफा रेल का मूल घोषित मंत्र बन जायेगा तब कितनी नौकरियां बचेंगी हम स्वतः ही अंदाजा लगा सकते हैं। देवराय समिति भी रेलवे का खर्च कम करने के नाम पर नौकरियां खत्म करने की सिफारिश कर चुकी है। और मोदी भी रेलवे में भारी पैमाने पर नौकरियां खत्म करने की बात पहले ही कर चुके हैं। जो नौकरियां यहां मिलेंगी भी वे भी अधिकतर ठेका, संविदा या इससे भी बुरी शर्तां पर मिलेंगी। जैसा कि निजी क्षेत्रों में इन दिनों मिल रही है।
रेलवे के निजीकरण के खिलाफ रेल मजदूरों-कर्मचारियों के बीच काफी आक्रोश है। कई जगहों पर बड़े प्रदर्शन भी आयोजित हुए। किन्तु ये प्रदर्शन कितना आगे बढें़गे यह भविष्य ही बतायेगा। संघर्षों के सामने एक प्रमुख बाधा खुद रेल यूनियनें हैं। पुरानी समझौता परस्त, सुविधापरस्त यूनियनें आम तौर पर लड़ने का माद्दा खो चुकी हैं। इनकी सारी ऊर्जा सरकार से सांठ-गांठ करने और अपने निजी हितों के इर्द-गिर्द ही रहती हैं। इस कारण यह संघर्ष लड़ने, उन्हें आगे बढ़ाने में असमर्थ हैं। जरूरत इस बात की है कि नये सिरे से क्रांतिकारी विचारों पर खड़े होकर, नयी जमीन से नये संघर्षों को पैदा किया जाये। देश के सभी नौजवानों-मेहनतकशों को इन संघर्षों का अटूट हिस्सा बनना होगा। क्योंकि सवाल सिर्फ रेलवे के निजीकरण का नहीं है। सवाल इन लूटेरी पूंजीवादी व्यवस्था और लूटेरों की सहयोगी पूंजीवादी पार्टियों का है। इन्हें मिटाकर ही एक सुन्दर भारत का सपना साकार किया जा सकता है। यह सुन्दर भारत एक समाजवादी भारत ही हो सकता है। जिसका सपना शहीदे आजम भगत सिंह ने देखा था।
विवेक देवराय समिति द्वारा निजीकरण के रोड मैप
के कुछ महत्वपूर्ण बिन्दु
1. भारतीय रेल के साथ प्रतिस्पर्धा के लिए निजी क्षेत्र को सवारी तथा माल गाड़ियां चलाने की अनुमति देनी चाहिए। रेल सम्बंधित आधारभूत सेवाएं तथा उत्पादन और निर्माण कार्य जैसे काम, जो रेलवे के लिए मूलभूत नहीं है, उनमें निजी क्षेत्र के सहभाग को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
2. भारतीय रेल को दो स्वाधीन संगठनों में विभाजित करो- एक की जिम्मेदारी होगी रेल लाइनें तथा सब आधार भूत संरचना और दूसरे का काम होगा गाड़ियां चलाना। निजी क्षेत्र को रेल लाइनों तथा आधारभूत संरचना का किराया देकर इस्तेमाल करने की इजाजत होगी और इस तरह अनेक पूंजीपति इनका इस्तेमाल करके निजी गाड़ियां चला सकेंगे।
3. भारतीय रेलवे एक्ट में बदलाव लायें जिससे कि निजी क्षेत्र बाजार के अनुसार किराये तय कर सके और वह रेलवे द्वारा निर्धारित किराये, मानने के लिए बाध्य न हो।
4. राजधानी/शताब्दी गाड़ियों को चलाने का व्यवसायिक काम निजी क्षेत्र को दे दो और उसके लिए उनसे सालाना फीस ले लो।
5. मधेपुरा तथा मरहोरा कारखानों के अलावा रायबरेली, भिलवाड़ा, सोनीपत, छपरा, जलपाईगुड़ी, कन्चरापारा तथा केरल में प्रस्तावित फैक्टरियों में भी निजी कंपनियों को भाग लेने की अनुमति दो।
6. वेतन तथा सुविधा खर्चें को कम करने के लिए फौरन कदम उठाओ और उसके लिए भारतीय रेल में कर्मचारियों की संख्या सही तरह से तय करके कम करो।
7. कर्मचारियों की संख्या कम करने के लिये (क) कार्य प्रणाली का विस्तार से अध्ययन करके कर्मचारियों की संख्या की आदर्श मात्रा तय करो; (ख) चपरासियों, खलासियों तथा अन्य ऐसे कर्मचारी समूहों की संख्या कम करो तथा इन कामों को बाहर से सेवाएं प्राप्त करके कराओ; (ग) अनेक डी कैटेगरी के कामों को समाप्त करो जो अब गतकालीन हो गए हैं तथा जरूरी नहीं हैं (बॉक्स पोर्टर, इत्यादि)। निम्न श्रेणी की सुरक्षा से जुड़े कार्यो की उत्पादकता बढ़ाने के लिए कदम उठाओ (उदाहरण के लिये गैंगमैन, ट्राली-मैन, इत्यादि से अनेक तरह के कार्य कराकर, नवीन प्रौद्योगिकी को अपनाकर, दोबारा ट्रेनिंग, उत्पादकता बढ़ाने के कदम उठाकर, इत्यादि)
8. भारतीय रेल को अपने मूल कार्यो पर ही ध्यान देना चाहिये जिससे वह निजी क्षेत्र के साथ स्पर्धा कर सके। उसे अन्य कार्यो से अपने को दूर कर देना चाहिये, जैसे कि पुलिस, स्कूल, अस्पताल, उत्पादन, निर्माण, इत्यादि।
9. अनुदान केवल उनके लिए होने चाहिये जिन्हें इसकी जरूरत हैं। सवारी टिकट खरीदते समय उन्हें आधार कार्ड नंबर के साथ जोड़ दो। सवारी किराए पर जो भी अनुदान हो, वह सीधा बैंक खाते में जमा होना चाहिये और अनुदान केवल गरीबी रेखा के नीचे के लोगों के लिए होना चाहिये। अनुदान के लिए धन केंद्रीय सरकार से आना चाहिये।
10. उपनगरीय रेल सेवाओं को अलग करके राज्य को साझे उद्योग के रूप में सौंप देना चाहिये। जब तक यह नहीं किया जाता है, सस्ते उपनगरीय रेल किराये का आधा बोझ राज्य सरकार को भुगतना चाहिये और इसके लिए राज्य सरकार के साथ एक करार करना चाहिये। (वर्ष- 10 अंक-4 जुलाई-सितम्बर, 2019)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें