शनिवार, 25 जनवरी 2020

ईरान पर अपनी मनमर्जी थोपते धूर्त अमेरिकी साम्राज्यवादी

ईरान पर अमेरिकी साम्राज्यवादियों का आक्रामक रुख   पिछले समय लगातार चर्चा में रहा है। अमेरिका के ईरान के साथ परमाणु कार्यक्रम समझौते से पीछे हटने की घटना हो, ईरान द्वारा अमेरिका के जासूसी ड्रोन को गिरा देने का मामला रहा हो या अब ईरान की परमाणु समझौते के अन्य देशों से शर्तों को मनवाने के लिए परमाणु प्रसार की धमकी, आदि। इस दौरान भारत ने ईरान के साथ तेल व्यापार (जो कि भारत को किफायती पड़ता था) अमेरिका के प्रभाव व दबाव में बन्द कर दिया। वहीं यूरोप के जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन जैसे देश ईरान को समझाने-बुझाने में लगे हैं, बीच का रास्ता निकालने की कोशिश कर रहे हैं। 


ईरान के परमाणु कार्यक्रम और अमेरिका-ईरान के विवाद की नींव पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति आइजेनहावर ने 1953 में रख दी थी। जब उन्होंने ईरान की चुनी हुई मोसादे सरकार को गिरा कर उसकी जगह अमेरिका समर्थित रजा पहलवी की सरकार कायम करवाई। इसी साल अमेरिका ने ‘एटम्स फॉर पीस’ कार्यक्रम की शुरूआत की। शीत युद्ध के काल में अमेरिका ने परमाणु तकनीक को अपने समर्थित सरकारों को देने में रणनीतिक बढ़त को ध्यान में रखते हुए ‘एटम्स फॉर पीस’ कार्यक्रम की शुरूआत की थी। आइजेनहावर ने इसके समर्थन में कहा कि ‘‘इससे मानवता के लिए एक शांतिपूर्ण माहौल बनेगा।’’ हालांकि पश्चिमी रणनीतिकारों के अलावा हर किसी ने आइजेनहावर की बात का विश्वास नहीं किया। द्वितीय विश्वयुद्ध में परमाणु हथियारों के अमेरिका द्वारा इस्तेमाल के बाद सबके लिए परमाणु शक्ति सम्पन्न होने के दुष्परिणाम सामने थे।


अमेरिका की इस योजना के बाद उसने अपनी समर्थक कई सरकारों को ऐसी तकनीक उपलब्ध कराई जिसमें देश परमाणु हथियार न बना सकें पर ऐसी स्थिति में हों कि जरूरत पड़ने पर तुरंत बना सकें। इसके जरिये अमेरिका उन सरकारों को अपने पक्ष में करने और नियंत्रण में रखने, दोनों काम एक साथ कर सकता था। इस योजना में परमाणु तकनीक सम्पन्न व्यवसायिक धड़ों का भी हित था, जो दुनियाभर में नाभिकीय रियेक्टरों की तकनीक को बेचकर भारी मुनाफा कमाना चाहते थे।

अमेरिका के ‘एटम्स फॉर पीस’ कार्यक्रम के बाद शाह पहलवी के काल में कई यूरोपीय देश भी इस परमाणु संधि का हिस्सा बनने के लिए आगे आये। 1967 में अमेरिका ने ईरान को पहला नाभिकीय रियेक्टर दिया। इसी दौरान ईरान ने फ्रांस, जर्मनी व अन्य यूरोपीय देशों की कम्पनियों के जरिये अपने परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ाया। साथ ही ईरान ने 1968 में परमाणु अप्रसार संधि पर भी हस्ताक्षर कर दिये। अभी ईरानी परमाणु कार्यक्रम नागरिक जरूरतों के लिए ही उपयोग में लाया जा रहा था। 

1979 में ईरान में ‘इस्लामिक क्रांति’ होने के बाद शाह पहलवी के शासन का अंत हुआ। नयी सरकार ने ईरानी परमाणु कार्यक्रम पर रोक लगा दी और बीस नाभिकीय रियेक्टर बनाने की शाह की योजना को बंद कर दिया। अयातुल्लाह खोमैनी ने परमाणु कार्यक्रम को ‘शैतानों का काम’ करार दिया और बाद में परमाणु हथियारों के खिलाफ एक फतवा जारी किया। 

दूसरी तरफ अमेरिका व अन्य साम्राज्यवादी सरकारों ने परमाणु तकनीक के अच्छे और बुरे दोनों पहलुओं की बात करना शुरू कर दिया। साम्राज्यवादी सरकारों और कम्पनियों ने पुराने समझौतों को भी पूरा नहीं किया। जर्मन कम्पनी ने बुशहर प्लांट के निर्माण का काम पूरा नहीं किया जिसमें ईरान 8 अरब जर्मन मार्क खर्च कर चुका था। अमेरिका ने नाभिकीय ईंधन देने से इंकार कर दिया। फ्रांस ने ट्राईकास्टिन प्लांट (फ्रांस) के लिए मिले ईरानी कर्ज को चुकाने से इंकार कर दिया। जबकि ईरानी शासकों का पक्ष था कि व्यवसायिक हिसाब से बुशहर प्लांट का काम पूरा होना चाहिए और टी.आर.आर. (तेहरान रिसर्च रियेक्टर) जो कि मेडिकल उपकरणों के लिए, ईंधन उपलब्ध कराया जाये। कई सालों के बाद रूस की मदद से 1995 में ईरान का बुशहर प्लांट पूरा हुआ। नाभिकीय ईंधन की बात तो 2005 में पूरी हो सकी। इस दौरान ईरान ने यूरेनियम से ईंधन संवर्द्धन की अपनी तकनीक विकसित कर ली थी। 

2002 में अमेरिका इराक पर ‘विनाशक हथियारों’ के झूठे आरोप के साथ हमला करने की तैयारी कर रहा था। इसी दौरान उसने ईरान पर भी नाभिकीय हथियार बनाने का आरोप लगाया।

ईरान पर ये आरोप नातान्ज में यूरेनियम संवर्द्धन इकाई बनाये जाने के सेटेलाइट डाटा के आधार पर लगाए गए। हालांकि परमाणु अप्रसार संधि व अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी (आई.ए.ई.ए.) के अनुसार संवर्द्धन इकाई चालू होने से 180 दिन पूर्व सूचित किया जाना चाहिए। अतः ईरान पर यह आरोप लागू नहीं होते थे। ईरान ने अमेरिकी विरोध के कारण इकाई को गोपनीय ढंग से बनाये जाने की बात कही। ईरान का कहना था कि यदि ऐसा नहीं किया जाता तो अमेरिका हमारी आपूर्ति श्रृंखला को बाधिक करता।

2004 में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सी.आई.ए. ने एक लैपटॉप के आधार पर पुनः ईरान पर नाभिकीय हथियार तकनीक विकसित करने का आरोप लगाया। हालांकि सी.आई.ए. ने इन सबूतों के स्रोत की जानकारी नहीं दी। सी.आई.ए. का दुनियाभर में द्वेषपूर्ण कामों का इतिहास रहा है, बावजूद इसके इस डाटा को गंभीरता से लिया गया और आई.ए.ई.ए. ने इस डाटा को जांच के लिए रखा। तत्कालीन आई.ए.ई.ए. के निदेशक मोहम्मद अलबरादे ने अपने एक संस्मरण में अपने संदेह जाहिर किए और बताया कि ‘‘मैं भी ऐसे डाटा गढ़ सकता हूं। ये सुन्दर लगते हैं, लेकिन संदेहों को जगाते हैं।’’

2009 में अलबरादे का कार्यकाल खत्म होने के बाद जापान के यूकिया अमानो आई.ए.ई.ए. के नये निदेशक बने। इसके बाद आई.ए.ई.ए. का नजरिया एकदम बदला और उसने सी.आई.ए. के लैपटॉप को महत्वपूर्ण तथ्य माना। परन्तु कोई ठोस तथ्य न मिलने के चलते कोई कार्यवाही नहीं हो सकी। अन्ततः सी.आई.ए. ने 2008 में अमरीकी कांग्रेस में कहा कि ‘‘2003 के अंत तक ईरान ने अपना नाभिकीय हथियार प्रारूप और हथियार बनाने की कार्यवाहियों को रोक दिया’’। 2015 में आई.ए.ई.ए. ने अपने निष्कर्ष में कहा ‘‘संभवतः 2003 के अंत तक परमाणु हथियार बनाने की कार्यवाहियां वैज्ञानिक शोध, आवश्यक योग्यता और क्षमता के अभाव में व्यवहारतः आगे नहीं बढ़ सकीं।’’

बुश व ओबामा के राष्ट्रपति काल में ईरान पर लगातार दबाव बनाये रखा गया। अमेरिका ने अपनी रणनीति के तहत ईरान के सामने दो ऐसी मांगें रखीं जिन्हें वह नहीं मानता। पहली कि ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम को पूरी तरह से बन्द करे। दूसरा ईरान अपने संयंत्रों में अंतर्राष्ट्रीय जांचकर्ताओं को आने दे। जिसमें ईरान का पारचिन सैन्य संयंत्र भी शामिल था। यह जगजाहिर है कि इराक में यू.एन. के जांचकर्ताओं में अमेरिकी खुफिया एजेंट भी शामिल हो गए थे जिन्होंने इसके जरिये इराकी सेना की खुफिया जानकारी भी हासिल की थी। ऐसे में ईरान ने दोनों मांगें मानने से मना कर दिया। 

ईरान के इस रुख से अमेरिका ने 2005 में आई.ए.ई.ए. बोर्ड ऑफ गर्वनर को ईरान का मामला संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भेजने का दबाव डाला। सुरक्षा परिषद ने ईरान के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया जिसमें ईरान के परमाणु कार्यक्रम में सूचनाओं को छुपाने की बात कही गयी। ईरान से मांग की गयी कि वह अपने शोध सहित परमाणु कार्यक्रम को तुरंत रद्द करे। ईरान के न मानने पर सुरक्षा परिषद ने एक अन्य प्रस्ताव पारित कर ईरान पर प्रतिबंध लगा दिये। अगले दस सालों के दौरान अमेरिका और अन्य साम्राज्यवादी देशों ने ईरान परमाणु मामले को सुलझाने के कई मौकों को दरकिनार किया।

2010 में ब्राजील व तुर्की; ईरान से 80 प्रतिशत शुद्ध यूरेनियम लेने, जो कि ईरान से बाहर कहीं लिया जायेगा व बदले में तेहरान रिसर्च रिएक्टर के लिए ईंधन छोड़ देने के लिए राजी थे। अमेरिका व अन्य देश भी ईरान से कुछ समय पहले तक यही मांग कर रहे थे कि वह अपने यूरेनियम संवर्द्धन की जानकारी दे। परंतु अमेरिका ने सुरक्षा परिषद में इस सौदे को नामंजूर कर दिया और सुरक्षा परिषद से ईरान पर प्रतिबंध बढ़ाने की मांग की।

इस कूटनीतिक आक्रामकता के अलावा अमेरिका ने ईरान के परमाणु संयंत्रों और वैज्ञानिकों पर हमला भी किया। 2010 में ईरान के नातान्ज केन्द्र के कई सेन्ट्रिफ्यूज के कंट्रोल सिस्टम में ‘स्टक्सनेट’ वाइरस डालकर खराब कर दिया गया। इजरायल के सहयोग से कई ईरानी वैज्ञानिकों की आतंकी हमलों में हत्या कर दी गयी। 2002 से 2013 के बीच अमेरिका ने ईरान परमाणु कार्यक्रम के मसले को हल करने के बदले ईरान पर दबाव बनाने का ही काम किया। 

अंततः ईरान, अमेरिका व अन्य पश्चिमी साम्राज्यवादी 2015 में एक समझौते तक पहुंचे जिसे ज्वाइन्ट कम्प्रेहेन्सिव प्लान ऑफ एक्शन (जे.सी.पी.ओ.ए) कहा गया। इसमें सुरक्षा परिषद के पांच स्थाई सदस्य देश व जर्मनी था, जिसे पी 5$1 समझौता भी कहा गया। इसके पीछे का राजनीतिक परिदृश्य यह था कि ईरान में अहमदीनेजाद की जगह 2013 में हसन रूहानी राष्ट्रपति बने और पश्चिमी एशिया में ‘अरब विद्रोह’ के बाद समीकरण बदल रहे थे। इसके अलावा इराक में स्थिति नियंत्रण में रखने में भी ईरान अमेरिका का सहयोगी हो सकता था। 

अरब विद्रोह में अमेरिका के समर्थक देश ट्यूनीशिया व मिश्र में सैन्य तानाशाहों के तख्त उलट दिये गये। इससे पश्चिमी एशिया में अमेरिकी नीति प्रभावित हुई।

इसके अलावा 2014 में इस्लामिक स्टेट (आई.एस.) इराक व सीरिया की सरकारों पर हमलावर हो गया। 2015 में आई.एस. ने दोनों देशों के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया। अमेरिका को ईरान से खुले तौर पर आई.एस. के खिलाफ लड़ने की अपील करनी पड़ी। ओबामा के रक्षा सचिव जॉन कैरी ने ईरान को आई.एस. पर कार्यवाही करने के लिए इराक के वायु क्षेत्र का भी उपयोग करने के लिए स्वतंत्र किया। 

इन हालातों में अमेरिका को ईरान के यूरेनियम संवर्द्धन को पूर्णतः बन्द करने की मांग से पीछे हटना पड़ा और परमाणु कार्यक्रम के मुद्दे पर समझौता करने की इच्छा दिखाई। इससे 2013 में ज्वाइंट प्लान ऑफ एक्शन पर बातचीत शुरू हुई और 2015 में ईरान और पी 5$1 का जे.सी.पी.ओ.ए. पर समझौता हुआ।

जे.सी.पी.ओ.ए. के तहत ईरान ने तमाम परमाणु हथियार प्रतिबंधों को स्वीकार किया। समझौते में लिखा गया कि ‘‘ईरान इस बात की पुष्टि करता है कि वह किसी भी परिस्थिति में परमाणु हथियार नहीं विकसित करेगा।’’ इसी क्रम में ईरान ने 2017 में परमाणु हथियार प्रतिबंध संधि पर हस्ताक्षर किए। यहां ध्यान देने वाली बात है कि पी 5$1 के अमेरिका सहित किसी भी देश ने अब तक इस संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। 

इसके बावजूद अमेरिका में ईरान के साथ परमाणु समझौते का तीखा विरोध हुआ। 2016 के अमेरिकी चुनाव के दौरान रिपब्लिकन पार्टी के कई नेताओं ने आक्रामक बयान दिये। खुद ट्रम्प 2015 में कह चुके थे कि ‘‘ईरान परमाणु समझौता अमेरिका और पूरी दुनिया के लिए बहुत खतरनाक है। यह ईरान को सम्पन्न बनाने के अलावा कुछ नहीं है।’’ अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान कई बार ट्रम्प ने यही अवस्थिति रखी। ईरान पर कई बार ‘अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी अभियान’ का हिस्सा होने जैसे तमाम आक्रामक आरोपों के बावजूद कभी अमेरिका ने इन्हें साबित नहीं किया। 

अमेरिका ने पश्चिमी एशिया में आतंक को समर्थन का आरोप लगाते हुए लेबनान में हिजबुल्ला, फिलिस्तीन में हमास और यमन में हौथी को ईरान द्वारा मदद करने का आरोप लगाया। ये सभी समूह अपने-अपने देशों में प्रमुख राजनीतिक शक्तियां हैं। इनमें एक ही समानता है कि ये तीनों पश्चिमी एशिया में अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप का सैन्य प्रतिरोध करते हैं। 

इस अमेरिकी आक्रामकता से पश्चिमी एशिया में ईरान से सहयोग करने की योजना को नकारा गया और सीधे विवाद की स्थिति के हालात बनाये गये।

डोनाल्ड ट्रम्प के जीतने के साथ ही अमेरिका के आक्रामक तेवरों की भी जीत हुई। राष्ट्रपति बनने के साथ ही ट्रम्प ने तेजी से ईरान के साथ झगड़े के हालात पैदा किये। मई 2018 में अमेरिका औपचारिक तौर पर मनमाने तरीके से ईरानी परमाणु समझौते से बाहर हो गया। जबकि मार्च 2018 में ही आई.ए.ई.ए. के निदेशक अमानो ने कहा था कि ‘‘मैं कह सकता हूं कि ईरान अपने परमाणु समझौते के वायदों को लागू कर रहा है।’’

अमेरिका ने समझौते से बाहर आने के साथ ही एकतरफा तौर पर ईरान पर प्रतिबंध लगा दिये। ईरान के तेल निर्यात पर पाबंदी लगा दी। इसके तहत भारत, चीन सहित 8 देशों को छह माह के लिए तेल खरीदने की छूट दी। अन्य देशों पर 90 से 180 दिनों के अंदर ईरान से कारोबार बंद करने की बात कही। इससे ईरान के तेल निर्यात में भारी कमी आयी जो की उसकी आय का मुख्य स्रोत था। अप्रैल 2018 में 25 लाख बैरल प्रति दिन उत्पादन, मई 2019 में 5 लाख बैरल प्रतिदिन तक नीचे आ गया।

प्रतिबंधों के इस क्रम के बाद अमेरिका ने सीधे हमले की धमकियां देना शुरू किया। जून 2019 में अमेरिकी रक्षा केन्द्र पेंटागन ने घोषणा की कि वह ‘सुरक्षा कारणों’ से पश्चिमी एशिया में 1000 अन्य सैन्य दलों को भेजेगा। इसका कारण ओमान की खाड़ी से जा रहे दो तेल के जहाजों पर हमले को बताया। अमेरिका ने इस हमले का आरोप ईरान पर लगाया। 

इन तेल के जहाजों में से एक जापान का था। जिस समय जहाजों पर हमला हुआ उस समय जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे ईरान के प्रमुख नेता अयातुल्ला खोमैनी से मुलाकात कर रहे थे। जापानी जहाज के मालिकों ने जहाज को टाइम बम से उड़ाये जाने के अमेरिकी दावे को भी मानने से इंकार कर दिया। ऐसे में जापानी जहाज व अन्य दूसरे जहाज पर हमले की घटना का संदेह भी अमेरिका की ओर जाता है कि उसने यह हमला प्रायोजित किया हो। 

इसके कुछ दिन बाद ही ईरानी हवाई सीमा के अन्दर जासूसी कर रहे अमेरिकी ड्रोन को ईरान ने मार गिराया। इसके बाद अमेरिका ने फिर हमला करने की धमकी दे दी। ट्रम्प ने 21 जून को बयान दिया कि ‘‘मैंने 10 मिनट पहले ही हमले को रोक दिया क्योंकि इसमें 150 आम लोग मारे जाते’’।

अमेरिका के साथ तनाव बरकरार है। अमेरिकी प्रशासन की आक्रामकता इसके सुधरने के भी कोई लक्षण नहीं दिखा रही है। अमेरिका में अगले साल राष्ट्रपति चुनाव होने हैं। ऐसे में पुनः ईरान के खिलाफ आक्रामक बयानबाजी जारी है। संभव है ईरान के खिलाफ फिर से कोई षड्यंत्र किया जाये। 

ईरान-अमेरिका परमाणु विवाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों के प्रभुत्वकारी मंसूबों को साफ तौर पर जाहिर करता है। पश्चिमी एशिया में अपने प्रभाव को बनाये रखने के लिए वह कभी ईरान को परमाणु तकनीक देने को तैयार था तो कभी वह मना कर देता है। और फिर वह ईरान को कहीं से भी तकनीक न मिल सके इसके लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देता है। यहां सब कुछ अमेरिकी साम्राज्यवादी हितों के अनुरूप है। विश्व समुदाय का तो केवल ढोंग है। अमेरिका के इन ढोंगों में जनतंत्र, मानवाधिकार भी हैं। 

भारतीय शासक भी अमेरिका की धुन पर नाचने को तैयार हैं। वे अमेरिकी प्रभाव में ईरान के खिलाफ आई.ए.ई.ए. के बोर्ड ऑफ गर्वनर में 2005 में मामले को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ले जाने के लिए वोट करते हैं। जो ईरान-पाकिस्तान-भारत गैस पाइप लाइन की अपनी योजना को ठण्डे बस्ते में डाल देती है। और चाबाहार बंदरगाह पर अपने निवेश को भी रोक देती है। जबकि ये दोनों भारत के आर्थिक हितों के मुद्दे थे। आज वह अमेरिकी प्रतिबंधों को मानते हुए ईरान से तेल खरीद भी बंद कर रहा है और बदले में अन्य स्रोतों से महंगा तेल खरीद रहा है। 

निश्चित ही ईरानी शासक भी जनता के हितैषी नहीं हैं। वे भी पश्चिमी एशिया में अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए ही लालायित हैं। इसके लिए वे अपनी जनता पर ही सर्वाधिक बोझ डालते हैं। अमेरिका द्वारा लगाये गये आर्थिक प्रतिबंधों से सबसे ज्यादा वहां की जनता ही प्रभावित हुई है। अमेरिका इन प्रतिबंधों के जरिये ईरान में अस्थिरता लाना चाहता है। ताकि सरकार से असंतुष्ट जनता लड़े और वह हस्तक्षेप करने का कोई बहाना ढूंढ निकाले। 

ऐसे में अमेरिका के किसी भी तरह के उकसावे व हस्तक्षेप का विरोध किया जाना चाहिए। ईरानी जनता भी देश में साम्राज्यवादी हमले का खतरा होने की स्थिति में अपने कष्टों को झेलते हुए भी अपने शासकों के साथ खड़ी होगी। यह हालात उसके लिए और अधिक दुर्दिन ही लेकर आयेंगे। ईरानी जनता व दुनियाभर की मेहनतकश जनता साम्राज्यवादियों के इन कुचक्रों के खिलाफ एकजुट होकर खड़ी होगी। साथ ही खड़ी होगी अपने देशों के लुटेरे शासकों के खिलाफ।  
                                              (वर्ष- 10 अंक-4 जुलाई-सितम्बर, 2019)

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