आतंकवाद के नाम पर आतंकी तानाशाही की ओर बढ़ते कदम
मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में जुलाई माह खत्म होते-होते राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी को और ज्यादा अधिकार दे दिए हैं तो वहीं गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम 1963 में कुछ खतरनाक संशोधन कर दिए हैं। सबसे बढ़कर तो यह कि अब किसी भी व्यक्ति को केवल संदेह के आधार पर आतंकी घोषित किया जा सकेगा। उसे बिना सुनवाई के जेल में ठूंसा जा सकेगा। इन संशोधनों के जरिये भारतीय राज्य और ज्यादा दमनकारी और प्रतिक्रियावादी हो गया है। इन संशोधनों के पीछे भी हर बार की तरह इस बार भी वही पुराना घिसा-पिटा तर्क दिया गया कि यह सब आतंकवाद से निपटने के लिए है। वैसे भी आतंकवाद भाजपा व संघ का प्रिय मुद्दा है। ये संशोधन फासीवाद की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ जाना है। लेकिन आतंकवाद कम होना तो दूर इन काले कानूनों के साथ-साथ आतंकवाद भी बढ़ता चला गया है। हां ! एक चीज ऐतिहासिक तौर पर जरूर हुई है कि ‘भगवा आतंकवाद’ के आरोपी संसद जरूर पहुंच गए हैं।
जहां तक बिल की बात है तो यह लोक सभा व राज्य सभा दोनों ही जगहों से पास हो चुका है। अतीत की तरह ही सभी पूंजीवादी पार्टियां इन संशोधनों के विरोध का नाटक भी कर रही थीं और इस बिल के समर्थन में भी थीं। चुनाव के वक्त ‘राजद्रोह’ को खत्म करने व ‘अफ्सपा’ को खत्म कर देने की घोषणा करने वाले कांग्रेस के सुल्तान राहुल कहीं दूर-दूर तक भी इन संशोधनों के विरोध में नजर नहीं आये।
काले कानून बनाना या इसमें खतरनाक प्रावधान जोड़ना कोई आज की बात नहीं है खुद अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के जमाने में आतंकवाद से निपटने के नाम पर कुख्यात पोटा कानून बनाया गया था। आतंकवाद, उग्रवाद, आतंरिक व बाहरी सुरक्षा आदि-आदि के नाम पर आजादी के बाद से ही देश में एक से बढ़कर एक खतरनाक काले कानून बनाये जाते रहे हैं या फिर अंग्रेजों के जमाने के काले कानूनों को बना कर रखा गया है या फिर इन्हें और ज्यादा खतरनाक बनाया गया है। वैसे तो संविधान में ही बकायदा तानाशाही कायम करने के लिए आपात उपबंधों की व्यवस्था की गई है। अनुच्छेद 352 से 360 तक में ऐसे प्रावधान हैं। संविधान से हटकर फिर भारतीय दंड संहिता(आई.पी.सी.) एवं आपराधिक दंड प्रकिया संहिता (सी.आर.पी.सी.) भी हैं। आई.पी.सी. और सी.आर.पी.सी. भी अंग्रेजी हुकूमत की ही देन हैं। ये तब से चली आ रही हैं। इनके ऊपर फिर और ज्यादा काले कानूनों की भरमार है।
आजादी के तत्काल बाद मद्रास सप्रेशन ऑफ डिस्टर्बेंस एक्ट, निवारक नजरबन्दी कानून, तेलंगाना आंदोलन के क्रूर दमन के लिए बनाया गया जिसमें हजारों लोगों का कत्लेआम किया गया। मजदूर-किसानों का आंदोलन यहां इस दौर में चरम पर था। यह तेलंगाना आंदोलन के नाम से प्रसिद्ध है। इस नरसंहार की जांच के लिए जो कमेटी गठित की गई थी उसे अपनी रिपोर्ट जारी करने में ही 60 साल लग गए। इसके बाद तो फिर सिलसिला थमा नहीं। नेहरू कितने प्रगतिशील, जनवादी व जनपक्षधर थे ! ये इनके दौर के बनाये काले कानूनों से ही पता चल जाता है।
आजादी के बाद एक वक्त तक देश में कुछ रियासतों का छल-बल से, उनकी मर्जी के खिलाफ भारत में विलय किया गया। जिसने यहां एक भारी असंतोष व संघर्ष को जन्म दिया। यह संघर्ष आज भी भांति-भांति के रूप ग्रहण कर चुका है। पूर्वोत्तर व कश्मीर में आज भी यह संघर्ष किसी न किसी रूप में जारी है। इन संघर्षों के भारी दमन के लिए फिर इन क्षेत्रों में पब्लिक सेफ्टी बिल, अफ्सपा, टाडा जैसे काले कानून बनाये गए। आज भी टाडा को छोड़कर ये काले कानून इन क्षेत्रों में बने हुए हैं।
दूसरी ओर कल्याणकारी राज्य के रूप में टाटा-बिड़ला एक्शन प्लान अर्थव्यवस्था में लागू हुआ। यह पूंजीवाद की ओर बढ़ने का सुधारवादी रास्ता था। इसलिए अर्थव्यवस्था संकटों से गुजरकर ही आगे बढ़ पाती थी। इसने आम तौर पर मजदूर मेहनतकश आवाम की जिंदगी के दुख-दर्दों को बढ़ाया व आकांक्षाओं का गला घोंट दिया। बेरोजगारी, महंगाई आदि-आदि जैसी समस्याएं बनी रही। कभी-कभी ये समस्याएं विकराल हो जाती थीं। इसके अलावा भूमि वितरण का सवाल बना रहा। अलग-अलग वक्त पर इन समस्याओं से त्रस्त जनता के अलग-अलग हिस्से संघर्ष के मैदान में उतरते रहते थे। आंदोलन की ताकत, धार व उसके लक्ष्य को देखकर ही फिर दमन का स्वरूप भी निर्धारित होता था। यही नहीं अन्धराष्ट्रवादी उन्माद का खेल इसी दौर से खेला जाने लगा था। पाकिस्तान और चीन दोनों के मामले में देशभक्ति का उन्माद पैदा किया जाता था। इसकी मूल वजह आम तौर पर आंतरिक संकट से पार पाना होता था।
इसी पृष्ठभूमि में देश में 60 के दशक में अर्थव्यवस्था फिर संकट में फंस गई। एक तरफ खाद्यान्न संकट पैदा हो गया। बेरोजगारी दर व महंगाई दर में भारी वृद्धि हुई। पूंजी निर्माण व औद्योगिक उत्पादन दर काफी गिरने लगी। जनसंघर्षों की स्थिति काफी मजबूत थी। यही वक्त था जब 62 का भारत-चीन युद्ध हुआ। इस युद्ध के हालात पैदा करने के आरोप नेहरू सरकार पर लगे जो कि सही बात थी। आंतरिक संकटों व जनसंघर्षों से निपटने में शासकों द्वारा इसे बाहरी संकट यानी पड़ोसी मुल्कों से युद्ध या छद्म युद्ध में रूपांतरित कर देना कोई नई बात नहीं थी। 65 में फिर भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ फिर 1971 में।
यही वक्त था जब एक तरफ भारत सरकार द्वारा 1966 में मुद्रा का डॉलर के सापेक्ष भारी अवमूल्यन किया व आई.एम.एफ. से कर्ज लिया था। दूसरी तरफ देश में जनसंघर्षों के दमन के लिए ‘गैर कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यू.ए.पी.ए. 1967) बन गया। 30 दिसम्बर 1967 को इस पर राष्ट्रपति के दस्तखत हो गए।
इस एक्ट को देश की अखण्डता व एकता के नाम पर लागू किया गया था। इसके जरिये अब संविधान में दर्ज मौलिक अधिकार ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’, ‘शांतिपूर्ण ढंग से भी सभा करने की स्वतंत्रता’ तथा ‘यूनियन या एसोसिएशन बनाने की स्वतंत्रता’ पर हमला किया गया।
इस एक्ट में अब तक कई संशोधन हो चुके हैं। पहला संशोधन 1969, दूसरा 1972, तीसरा 1986, चौथा 2004, पांचवा 2008 , छठा 2012 तथा सातवां संशोधन 2019 में हुआ है। इस एक्ट में राजद्रोह की धाराएं शामिल हैं। जिसके चलते सरकार की किसी नीति की आलोचना, उससे असहमति जताना चाहे वह मौखिक, लिखित या अन्य रूप में हो वह देश की अखंडता व संप्रभुता पर हमला माना जायेगा। इस प्रकार इस एक्ट में ‘गैरकानूनी गतिविधि’ की व्याख्या उस ढंग की है कि यह अपनी व्यापकता में सरकार की सामान्य आलोचना को भी समेट लेता है। इस एक्ट के मुताबिक किसी भी व्यक्ति को 180 दिन तक बिना किसी चार्जशीट के जेल में रखा जा सकता है और 30 दिन की पुलिस हिरासत में रखा जा सकता है।
1999-2004 के बीच बाजपेयी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने कुख्यात पोटा (आतंकवाद निरोधक कानून) बनाया था जिसकी बहुत ज्यादा आलोचना हुई थी। जिसमें यह प्रावधान भी था कि जिस व्यक्ति पर आतंकवाद का आरोप लगेगा उसी व्यक्ति की यह जिम्मेदारी होगी कि वह खुद को निर्दोष साबित करे। इसमें पुलिस द्वारा लिए गए बयान को ही प्रमाण मान लेने का प्रावधान था। इसने न्याय के इस बुनियादी सिद्धांत को ही खारिज कर दिया कि यह आरोप लगाने वाले पक्ष की जिम्मेदारी है कि वह आरोप साबित करे। पुलिस को अत्यधिक अधिकार देने के अलावा जमानत को बेहद कठिन बना दिया गया था।
पोटा के अंतर्गत 4,349 मामले दर्ज किए गए; 1,031 लोग गिरफ्तार हुए जबकि मात्र 13 लोगों पर ही दोष साबित हुआ। इसी प्रकार टाडा (आतंकवाद एवं विध्वंसात्मक निवारण अधिनियम) में 76166 लोगों पर मामले दर्ज हुए जबकि 843(1.1 प्रतिशत) लोग ही दोषी पाए गए। कई हजार लोगों को सालों-साल जेलों में रखकर उनकी जिंदगी तबाह-बर्बाद कर दी गई। यह इन कानूनों के मकसद को साफ-साफ बता देता है।
टाडा व पोटा एक्ट खत्म कर दिए गए मगर शासकों की धूर्तता यह है कि इनके विशेषकर पोटा के प्रावधानों को कांग्रेस सरकार ने 2008 व 2012 के यू.ए.पी.ए. 1967 के संशोधन में शामिल कर लिया।
यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि एक ओर 2007-08 के दौरान वैश्विक स्तर पर आर्थिक संकट का बिस्फोट हुआ, दूसरी ओर भारत में एक ओर नंदीग्राम-सिंगूर और फिर मध्य भारत का पूरा आदिवासी क्षेत्र जहां भूमि अधिग्रहण के खिलाफ जुझारू संघर्ष हुए थे, इसी दौर में एक ओर यू.ए.पी.ए. में संशोधन किया गया तो दूसरी ओर 2008 में ही आतंकवाद से लड़ने के नाम पर एक नई केंद्रीय जांच एजेंसी बना दी गई। इस एजंसी को मुंबई बम ब्लास्ट के बाद बनाया गया। इसका नाम रखा गया ‘राष्ट्रीय जांच एजेंसी ’ (एन.आई.ए.)। एन.आई.ए. एक्ट के अंतर्गत उन अपराधों को भी शामिल कर लिया गया जो कि यू.ए.पी.ए. 1967 तथा परमाणविक ऊर्जा कानून 1962 के अंतर्गत अपराध हैं। इसके अंन्तर्गत एन.आई.ए.को पूरे देश में कहीं भी जांच व गिरफ्तारी के पुलिस अधिकार मिल गए। इस वक्त यू.ए.पी.ए. 2008 में भी संशोधन किये गए।
इस एजेन्सी को दिए गए अधिकारों के जरिये भारत सरकार ने राज्यों के अधिकार को भी कमजोर कर दिया।
2014 से देश में केंद्र की सत्ता पर फासीवादी ताकतें काबिज हो गईं। जहां इस वक्त एन.आई.ए. का जमकर दुरुपयोग किया गया वहीं इनके फासीवादी दस्तों द्वारा दलितों-मुस्लिमों की हत्याएं करना व इन्हें आतंकित करना आम बात है। मगर यहां ‘‘आतंकवाद“ इन्हें नहीं दिखाई देगा।
अब 2019 में जब ये दोबारा एकाधिकारी पूंजी के दम पर सत्ता पर काबिज हो गए हैं तब इन्होंने एन.आई.ए. को और ज्यादा अधिकार दे दिए हैं साथ ही गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम में भी इन्होंने संशोधन कर दिया है। इसके मुताबिक अब संगठन ही नहीं किसी व्यक्ति को भी मात्र संदेह के आधार पर आतंकी घोषित किया जा सकेगा। इस प्रकार न्यायिक प्रक्रिया का उल्लंघन भी किया गया है।
देखा जाय तो यह ऐसा वक्त है जब कि एक ओर अर्थव्यवस्था की रफ्तार सुस्त पड़ गयी है, बेरोजगारी 45 सालों के रिकार्ड स्तर पर है, विकास दर वास्तविकता में 4.5 प्रतिशत के आस-पास बताई जा रही है, बजट जारी होते-होते शेयर मार्केट में निवेशकों के 12-14 लाख करोड़ रुपये डूब चुके हैं, निर्यात में गिरावट है, उद्योग मंदी की गिरफ्त है और वहां छटनियां हो रही हैं, खुद सरकार कर्मचारियों की बढ़ती तादाद कम करने की बात कर रही है। इन स्थितियों की रोशनी में ही सरकार के इन दमनकारी व घोर प्रतिक्रियावादी संशोधनों को समझा जा सकता है।
स्पष्ट है कि जबकि एक ओर फासीवादी ताकतों ने फासीवादी आंदोलन के जरिये जनवादी संघर्षों, आर्थिक संघर्षों तथा सुधार के संघर्षों की स्थिति को बेहद कमजोर कर दिया है तो दूसरी तरफ राज्य को पुलिस राज्य में बदलने, इसे ज्यादा निरंकुश व दमनकारी बनाने की दिशा में बढ़ रहे हैं।
लेकिन जैसा कि कहावत है पानी के बहाव को बांध बनाकर कुछ वक्त के लिए तो रोका जा सकता है, बांधा व नियंत्रित किया जा सकता है मगर वक्त गुजरते ही पानी का आवेग अपने लिए फिर से अपना रास्ता तैयार कर लेता है, वह सब कुछ बहा ले जाता है। बात यही है चाहे संघर्षों के ज्वार को रोकने की तैयारी में लाख कोशिशें इन काले कानून के जरिये करें! एक दिन इन्हें भी इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया जाना तय है।
(वर्ष- 10 अंक-4 जुलाई-सितम्बर, 2019)
(वर्ष- 10 अंक-4 जुलाई-सितम्बर, 2019)
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