जैन धर्म
जिस देश में पहनावे पर, खासकर लड़कियों-महिलाओं के पहनावे पर इतना ध्यान दिया जाता हो वहां एक नंग-धड़ंग व्यक्ति के पीछे सफेद साड़ी पहने महिलाओं तथा अन्य आम स्त्री-पुरुषों का एक छोटा-मोटा ‘जुलूस’ वास्तव में एक अजीबो-गरीब दृश्य उत्पन्न करता है। पर ऐसा दृश्य कई बार शहरों-कस्बों में देखने को मिल जाता है और आस-पास से गुजर रहे लोगों के लिए कुतूहल का विषय बन जाता है।
इस तरह का ‘जुलूस’ दिगंबर जैन मुनियों और उनके अनुयाईयों का होता है। नंग-धड़ंग व्यक्ति जैन मुनि होता है जबकि सफेद साड़ी में जैन साध्वियां। शेष लोग जैन धर्म के आम अनुयाई होते हैं। दिगंबर जैन विश्वासों के अनुसार दिगंबर जैन मुनि वस्त्रों का भी इसलिए त्याग कर देते हैं कि वे अपरिग्रह के सिद्धांत का पूर्णता से पालन कर सकें। इनके मुकाबले श्वेतांबर जैन मुनि बिना सिला हुआ वस्त्र धारण करते हैं।
दिगंबर और श्वेतांबर दोनों जैन धर्म के प्रमुख संप्रदाय हैं। इनके बीच विभाजन प्राचीन काल में ही हो गया था। इनके साथ जैन धर्म का एक छोटा सा संप्रदाय और भी है-स्थानकवासी। इसका जन्म 16वीं सदी में हुआ। दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदाय के विपरीत स्थानकवासी मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते।
आज लगभग 60 लाख की आबादी वाले जैन धर्म की उत्पत्ति खुद उनके धार्मिक विश्वासों के हिसाब से अति प्राचीन है। जैन परंपरा के हिसाब से वर्धमान महावीर जैन तीर्थांकरों की लंबी परंपरा के चौबीसवें और वर्तमान कल्प के अंतिम तीर्थांकर थे। (जैन समय चक्र के हिसाब से एक कल्प बारह हिस्सों में विभाजित होता है- 6 प्रगति के और 6 अवनति के। अवनति के पांचवें हिस्से में चौबीस तीर्थांकर आते हैं जिनका जीवनकाल और शरीर घटता जाता है।) तेइसवें तीर्थांकर पार्श्वनाथ थे जो संभवतः ऐतिहासिक व्यक्ति थे और आठवीं या सातवीं सदी ईसा पूर्व में पैदा हुए थे। पहले तीर्थांकर रिषभनाथ थे। इतिहासकारों के अनुसार महावीर ने किसी चली आती जैन परंपरा को सुधारकर उसे उस रूप में ढाला जिस रूप में वह जैन धर्म के नाम से प्रचलित हुआ। जैन शब्द जिना से निकला जिसका अर्थ था जीत या विजय- इच्छाओं, क्रोध इत्यादि पर विजय।
वर्धमान महावीर गौतम बुद्ध के ज्येष्ठ समकालीन थे। इनका समय छठी शताब्दी ईसा पूर्व का माना जाता था। इनका जन्म पटना से करीब साठ किलोमीटर दूर किसी जगह पर हुआ था और मृत्यु बिहार के ही पाव नगर में। जैन परंपरा के हिसाब से वर्धमान विदेह राज्य के क्षत्रिय परिवार में पैदा हुए थे। इसे राम के इच्छ्वाकु वंश से भी जोड़ा जाता है। उन्होंने 28 या 30 वर्ष की अवस्था में घर छोड़ा और सन्यासी बन गये। (उनके पिता का नाम सिद्धार्थ और मां का नाम त्रिशाला था। कुछ परंपराओं के अनुसार उन्होंने यशोदा नामक स्त्री से विवाह किया था और उनके प्रियदर्शना नाम की कन्या पैदा हुई थी।) बारह साल की कठोर तपस्या के बाद उन्हें सर्वज्ञान की प्राप्ती हुई और उन्होंने बारह ब्राह्मणों को प्रथम उपदेश दिया जिनका नेतृत्व गौतम कर रहे थे। इसके बाद वे 30 साल तक अपने धर्म का प्रचार करते रहे। कुछ परंपराओं के अनुसार वे एक ही जगह रहकर प्रचार करते रहे जबकि अन्य के अनुसार सारे देश में घूम-घूमकर। महावीर उनका बाद का नाम है जो महा विजय हासिल करने के कारण पड़ा।
वर्धमान महावीर का समयकाल और स्थान लगभग वही है जो गौतम बुद्ध का है। मजे की बात यह है कि जैन परंपरा में महावीर के बारे में दंतकथाएं भी लगभग वैसी ही हैं जैसे गौतम बुद्ध के बारे में। महावीर को मुनि, श्रमण या भगवान से संबोधित किया जाता था। बौद्ध साहित्य में उन्हें निगंठ नाथपुत्त नाम से भी संबोधित किया गया है। निगंठ शब्द निर्ग्रन्थ का प्राकृत है जिसका मतलब है बंधन मुक्त या अपरिग्रहित।
गौतम बुद्ध और अजित केशकांबली जैसे अपने अन्य समकालीनों की तरह ही वर्धमान महावीर भी अपने संक्रमणकालीन समय की समस्याओं का समाधान तलाश रहे थे। जहां गौतम बुद्ध अतियों को छोड़कर मध्यमार्ग के समाधान तक पहुंचे वहीं महावीर ने एक तरह से अति का समाधान चुना। मजे की बात यह है कि दार्शनिक तौर पर उन्होंने इसका ठीक विपरीत रूख अपनाया।
जैन धर्म का प्रमुख सिद्धांत अनेकांतवाद और स्यादवाद ‘शायदवाद’ है। अनेकांतवाद का कहना है कि चीजों के बहुत सारे पहलू होते हैं और सभी को ठीक-ठीक अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। और चूंकि चीजों को ठीक-ठीक अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता इसीलिए किसी भी अभिव्यक्ति में अपूर्णता की गुजांइश होती है। यहीं से यह निष्कर्ष निकलता है कि ‘शायद यह है भी’ और ‘शायद यह नहीं भी है’। बौद्ध धर्म के ‘है’ और ‘नहीं है’ के बीच के मार्ग के मुकाबले जैन धर्म ने ‘शायद है’ और ‘शायद नहीं है’ का मार्ग चुना। यह अजीबोगरीब दार्शनिक सिद्धांत था क्योंकि इस ‘शायद’ को पलटकर इस सिद्धांत पर भी लागू किया जा सकता था यानी शायद अनेकांतवाद और स्यादवाद सही है अथवा शायद यह सहीं नहीं है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद इस सिद्धांत पर दृढ़ता से खड़ा नहीं हुआ जा सकता। पर जैन दार्शनिक अपने ‘शायदवाद’ पर दृढता से खड़े हुए और इस पर खड़े होकर उन्होंने अन्य दार्शनिक मतों का खण्डन किया। प्रमाणशास्त्र (ज्ञानशास्त्र की एक शाखा) में जैन दर्शन का महत्वपूर्ण योगदान था। ‘शायद है’ और ‘शायद नहीं भी है’ की बात करते हुए जैन दार्शनिकों ने किसी हद तक द्वन्द्ववाद का भी परिचय दिया।
बौद्ध धर्म की तरह जैन धर्म भी किसी ईश्वर में विश्वास नहीं करता है। हांलाकि यह स्वर्ग और नरक (पृथ्वी को मिलाकर तीन लोक) में विश्वास करता है पर इसमें ईश्वर की कोई जगह नहीं है। बौद्ध धर्म के विपरीत जैन धर्म आत्मा में विश्वास करता है पर यह हिन्दुओं की आत्मा की तरह शाश्वत नहीं है। आत्मा जीवों में ही नहीं बल्कि जल, वायु और पृथ्वी में भी होती है। आत्मा इन सब में आती-जाती है पर वह जीवों के हिसाब से परिवर्तित भी होती रहती है- नन्हें जीवों में छोटी और बड़े जीवों में बड़ी। आत्मा का बंधनों से मुक्त हो जाना ही निर्वाण है।
प्रकृति और उसके ज्ञान के बारे में स्यादवाद यानी ‘शायदवाद’ का दार्शनिक सिद्धांत अपनाने के बावजूद अपने धार्मिक मतों के मामले में जैन धर्म ने ‘शायदवाद’ का परिचय नहीं दिया यानी यह नहीं कहा कि शायद इनसे मोक्ष मिल सकता है या शायद नहीं मिल सकता है। इसके विपरीत यहां उन्होंने अतिवाद का परिचय दिया और इसी अतिवाद ने जैन धर्म के व्यापक प्रचार को रोका।
जैन धर्म में पांच आचरणों को अनिवार्य माना गया। ये थे- सत्य, अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। अचौर्य का मतलब चोरी न करना था। ब्रह्मचर्य का मतलब जहां जैन मुनियों और साध्वियों के लिए यह था कि वे यौन संबंधों से पूर्णतया परहेज करें वहीं आम जैन अनुयाईयों के लिए इसका मतलब यह था कि स्त्री-पुरुष के वैवाहिक संबंधों के भीतर ही यौन संबंध बनाएं। अपरिग्रह का मतलब यह था कि किसी भी तरह के लगाव से मुक्ति। संपत्ति से लेकर भावनात्मक लगाव तक सब इसमें शामिल थे। इसी अपरिग्रह के मत को अति पर पहुंचाकर दिगंबर संप्रदाय ने तय किया कि दिगंबर मुनि वस्त्रों का भी त्याग कर देंगे और दिशाएं ही उनका वस्त्र होंगी। तब भी स्त्री साध्वियों के लिए यह इजाजत दी गयी कि वे सफेद साड़ी पहनेंगी।
जैन धर्म ने अहिंसा के मत को अति पर पहुंचाया। मुंह और नाक को कपड़े से ढकने से लेकर पानी उबालकर पीना तथा जमीन को देखते हुए चलना इत्यादि सब इसके लिए किये गये। इनके अलावा भी विभिन्न जैन संप्रदायों में भांति-भांति के प्रावधान किये गये।
हालांकि जैन धर्म ने स्त्रियों को पुरुषों के बराबर माना पर दिगंबर संप्रदाय ने घोषित किया कि स्त्रियां मोक्ष या निर्वाण को प्राप्त नहीं कर सकतीं। उन्हें पहले अपने सत्कर्मों के द्वारा पुरुष के रूप में जन्म लेना होगा और फिर वे मोक्ष हासिल कर सकती हैं। इसके विपरीत श्वेतांबर संप्रदाय ने स्त्री-पुरुष दोनों को यानी मुनियों और साध्वियों दोनों को मोक्ष प्राप्त करने के योग्य घोषित किया।
हालांकि परंपरा के हिसाब से महावीर की मृत्यु के समय जैन मुनियों और साध्वियों की संख्या बीसियों हजार थी पर यह अतिशयोक्ति लगती है। बौद्ध धर्म के मुकाबले जैन धर्म का प्रसार बहुत सीमित था। आम ग्रहस्थों के मुकाबले व्यापारिक समुदाय में इसका ज्यादा प्रसार हुआ। इसी के द्वारा यह व्यापारिक मार्गों से होते हुए पूरे देश में फैला। व्यापारिक समुदाय में इसके प्रभाव का यह ऐतिहासिक परिणाम निकला कि आज जैन मुख्यतः व्यापारिक लोगों का ही धर्म है। सामान्य धारणा के विपरीत यह धर्म भी आज जातिप्रथा से ग्रस्त है।
महावीर के बाद जैन धर्म दो संप्रदायों- दिगंबर और श्वेतांबर में विभाजित हो गया। परंपरा के अनुसार शुरू में सभी जैन मुनि दिगंबर ही थे। चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में इनके बीच यह भविष्यवाणी हुई कि बारह साल का अकाल पड़ने वाला है। इससे बचने के लिए ज्यादातर मुनि अपने गुरू के साथ दक्षिण भारत चले गये। बाद में लौटकर उन्होंने पाया कि पीछे रह गये मुनियों ने श्वेत वस्त्र धारण करना शुरू कर दिया था। यहीं से श्वेतांबर संप्रदाय का जन्म हुआ। संप्रदायों के विभाजन की यह कथा केवल दंतकथा हो सकती है क्योंकि कई मामलों में श्वेतांबर ज्यादा प्राचीन प्रतीत होते हैं। बहुत सारे विश्वासों में समानता होते हुए भी दोनों संप्रदायों के धार्मिक मतों और अनुष्ठानों में भिन्नता भी है।
बौद्ध धर्म के साथ जैन धर्म में भी मूर्तियों और मंदिरों का निर्माण शुरू हुआ। मूर्तियां आम तौर पर महावीर, पार्श्वनाथ और रिषभनाथ की होती थीं। मथुरा जैसी जगहों से पहली सदी ईसा पूर्व की मूर्तियां मिली हैं। ये मूर्तियां बैठी या खड़ी मुद्रा की हैं। ये मूर्तियां निर्वस्त्र हैं।
जैसा कि सभी धर्मों के साथ हुआ, न केवल जैन धर्म समय के साथ कई संप्रदायों में विभाजित हो गया बल्कि वह कई तरह के अंधविश्वासों से भी ग्रस्त हो गया। भांति-भांति के अजीबोगरीब अनुष्ठान इसमें शामिल हो गये। इन्हें जायज ठहराने और स्थापित करने के लिए कथाओं को गढ़ा गया। हद तो तब हो गयी जब इसमें हिन्दुओं के देवी-देवताओं और पुराणकथाओं को भी समाहित करने का प्रयास किया गया। महावीर को राम के इच्छ्वाकु वंश के साथ जोड़ना तथा रिषभनाथ के पुत्र को भरत के साथ जोड़ना इसी का हिस्सा है। यह सब आश्चर्यजनक नहीं लगता क्योंकि जैन धर्म भी उसी प्राचीन आर्य समुदाय में पैदा हुआ था जिसमें से बाद में हिन्दू धर्म विकसित हुआ तथा वह हिन्दू और बौद्ध धर्म के आम माहौल में बना रहा। विभिन्न धर्मां का आपस में आदान-प्रदान इसमें स्वाभाविक था। यदि बौद्धों और जैनियों ने हिन्दुओं की ढेर सारी पौराणिक कथाएं ले लीं तो हिन्दुओं ने इनसे मांस का त्याग तथा मूर्तियां और मंदिर। हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां और मंदिर बाद में बौद्धों और जैनों की देखा-देखी ही अस्तित्व में आये।
अपने समकालीन बौद्ध धर्म के विपरीत जैन धर्म भारत से बाहर ज्यादा नहीं फैल सका। आज भी इसके करीब साठ लाख अनुयाईयों में से ज्यादातर भारत में ही रहते हैं। इसका संभावित कारण इसके मतों की अतिवादिता ही थी। इसने देश-काल दोनों में इसके व्यापक प्रसार को रोका।
सही मायनों में जैन धर्म की उत्पत्ति एक तीखे संकटग्रस्त संक्रमणकालीन समाज में हुई थी। पार्श्वनाथ और महावीर दोनों इसी काल में हुए थे। पर बौद्ध धर्म के विपरीत जैन धर्म अपने संकटग्रस्त समाज की समस्याओं के हल के लिए किसी ऐसे बड़े विभ्रम का निर्माण नहीं कर सका जो व्यापक जन मानस को प्रभावित कर सके। जिस हद तक उसने यह हासिल किया उस हद तक वह समाज में अपनी जड़ जमा सका। पर यह एक खास समुदाय के ही उपयुक्त था। भला खेती-बाड़ी करने वाले किसान अहिंसा का अति से कैसे पालन कर सकते थे?
समय के साथ जैन धर्म पोंगापंथ और रूढ़ियों से ग्रस्त हो गया और उसी रूप में आज वह समाज के अत्यंत छोटे से हिस्से में प्रचलित है। वर्धमान महावीर ने शायद अपनी धार्मिक शिक्षाओं की यह परिणति और नियति कभी नहीं सोची होगी।
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