रविवार, 1 दिसंबर 2019

शहीद कर्तार सिंह सराभा
-भगत सिंह


(शहीद कर्तार सिंह सराभा का चित्र भगत सिंह अपने पास रखते थे और कहा करते थे, ‘‘यह मेरा गुरू, साथी व भाई है।’’ उनका प्रेरणा-स्रोत समझने के लिए यह लेख बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसका प्रकाशन ‘चांद’ (फांसी अंक में नवंबर, 1928 में हुआ था।)

रणचंडी के इस परम भक्त विद्रोही कर्तार सिंह की आयु अभी 20 वर्ष की भी नहीं हुई थी कि जब उन्होंने स्वतंत्रता देवी की बलिवेदी पर अपना बलिदान दे दिया। आंधी की तरह वह अचानक कहीं से आए, अग्नि प्रज्वलित की और सपनों में पड़ी रणचंडी को जगाने की कोशिश की। विद्रोह का यज्ञ रचा और आखिर वह स्वयं इसमें भस्म हो गए। वे क्या थे, किस दुनिया से अचानक आए और झट कहां चले गए, हम कुछ भी न जान सके। 19 वर्ष की आयु में ही उन्होंने इतने काम कर दिखाए कि सोच कर हैरानी होती है। इतनी जुर्रत, इतना आत्मविश्वास, इतना आत्मत्याग और ऐसी लगन बहुत कम देखने को मिलती है। भारतवर्ष में इन गिने-चुने नेताओं में ऐसे इंसान कर्तार सिंह का नाम सूची में सबसे ऊपर है। उनकी रग-रग में क्रांति का जज्बा समाया हुआ था। उनकी जिंदगी का एक ही लक्ष्य, एक ही इच्छा और एक ही आशा, जो भी था-क्रांति थी, इसलिए उन्होंने जिंदगी में पांव रखा और आखिर इसीलिए इस दुनिया से कूच कर गए। 


आपका जन्म 1896 में गांव सराभा, जिला लुधियाना में हुआ था। आप माता-पिता के इकलौते बेटे थे। अभी इनकी आयु बहुत कम थी कि पिताजी का देहावसान हो गया। परंतु आपके दादा ने बहुत प्रयत्न से आपको पाला। नवीं कक्षा पढ़ने के बाद आप अपने चाचा के यहां चले गए। वहां उन्होंने दसवीं की परीक्षा पास की और कालेज में पढ़ने लगे। यह 1910-11 के दिन थे। इधर आपको स्कूल और कालेज के पाठ्यक्रम के तंग दायरे से बाहर की बहुत-सी पुस्तकें पढ़ने का अवसर मिला। यह आंदोलन का जमाना था। इस वातावरण में रहकर आपकी देशप्रेम की भावना पल्लवित हुई। 

इसके बाद आपकी अमेरिका जाने की इच्छा हुई। घरवालों ने उनका कोई विरोध नहीं किया। आपको अमेरिका भेज दिया गया। सन् 1912 में सान फ्रांसिस्को के बंदरगाह पर पहुंचे। आजाद देश में पहुंचकर कदम-कदम पर आपके कोमल हृदय पर चोट पड़ने लगी। इन गोरों की जुबान से Damn hindu (तुच्छ हिंदू) और Black man (काला आदमी) आदि सुनते ही वे पागल हो उठते थे। उनको कदम-कदम पर देश की इज्जत व सम्मान खतरे में नजर आने लगे। घर की याद आने पर जंजीरों में जकड़ा हुआ विवश भारत सामने आ जाता। उनका कोमल दिल धीरे-धीरे सख्त होने लगा और देश की आजादी के लिए जिंदगी कुर्बान करने का निश्चय दृढ़ होता गया। उनके दिल पर उस समय क्या गुजरती थी, यह हम कैसे समझ सकते हैं?  

यह असंभव था कि वे चैन से रह पाते। हर समय उनके सामने यह प्रश्न उठने लगा कि यदि शांति से काम न चला तो देश आजाद किस तरह होगा? फिर बिना अधिक सोचे उन्होंने भारतीय मजदूरों का संगठन शुरू कर दिया। उनमें आजादी की भावना उभरने लगी। हर मजदूर के पास घंटों बैठकर वे समझाने लगे कि अपमान से भरी गुलामी की जिंदगी से तो मौत हजार दर्जा अच्छी है।। काम शुरू होने पर और लोग भी उनसे आ मिले। मई, 1912 में इन लोगों की एक खास बैठक हुई। इसमें कुछ चुनिंदा हिंदुस्तानी शामिल हुए। सभी ने देश की आजादी के लिए तन, मन, धन न्योछावर करने का प्रण लिया। इन्हीं दिनों पंजाब के जलावतन देशभक्त भगवान सिंह वहां पहुंचे। धड़ाधड़ जलसे होने लगे। उपदेश होने लगे। काम से काम चलता गया। मैदान तैयार हो गया। फिर अखबार की जरूरत महसूस होने लगी। ‘गदर’ नामक अखबार निकाला गया। इसका प्रथम अंक नवंबर, 1913 में निकाला गया। इसके संपादकीय विभाग में कर्तार सिंह भी थे। आपकी कलम में अथाह जोश था। संपादकीय विभाग के लोग अखबार को हैंड प्रेस पर छापते थे। कर्तार सिंह क्रांति-पसंद मतवाले नौजवान थे। प्रेस चलाते हुए थक जाने पर वे गीत गाया करते थे-

       सेवा देश दी जिंदड़िए बड़ी औखी,
      गल्लां करनी ढेर सुखल्लीयां ने।
      जिन्नां देशसेवा विच पैर पाया,      
      उन्नां लक्ख मुसीबत झल्लियां ने।

(देश-सेवा करनी बहुत मुश्किल है, जबकि बातें करना बहुत आसान है। जिन्होंने देश-सेवा के रास्ते पर कदम उठा लिया वे लाख मुसीबतें झेलते हैं।) 

कर्तार सिंह जिस लगन से परिश्रम करते थे, उससे सभी की हिम्मत बढ़ जाती थी। भारत को किस तरह आजाद कराया जाए, यह किसी और को पता चले या नहीं, और किसी ने इस सवाल पर सोचा हो या नहीं, लेकिन कर्तार सिंह ने इस सवाल पर बहुत कुछ सोच रखा था। इसी दौरान आप न्यूयार्क में विमान कंपनी में भर्ती हो गए और वहीं दिल लगाकर काम सीखने लगे। 

सितंबर, 1914 में कामागाटामारू जहाज को अत्याचारी गोरे साम्राज्यवादियों के हाथ से अवर्णनीय यातनाएं झेलने पर वैसे ही लौटना पड़ा। तब हमारे कर्तार सिंह क्रांतिप्रिय गुप्ता और एक अमेरिकी अराजकतावादी जैक को साथ लेकर जापान आए और कोबे में बाबा गुरदित्त सिंह जी से मिलकर सब बातचीत की। युगांतर आश्रम, सान फ्रांसिस्को के गदर प्रेस में ‘गदर’ और ‘गदर की गूंज’ और अन्य बहुत-सी पुस्तकें छापकर बांटी जाती रहीं। दिनोंदिन प्रचार बढ़ता गया। जोश बढ़ता गया। फरवरी, 1914 में स्टाकटन के पब्लिक जलसे में आजादी का झंडा लहराया गया और आजादी और बराबरी के नाम पर कसमें खाई गईं। इस जलसे के मुख्य वक्ताओं में कर्तार सिंह भी थे। सभी ने घोषणा की कि वह अपने खून-पसीने की कमाई एक कर देश की आजादी के संघर्ष में लगा देंगे। इसी तरह दिन गुजरते रहे। अचानक यूरोप में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने की खबर आई। वे खुशी से फूले नहीं समाते थे। एकदम सभी गाने लगे- 
  चलो चलें देश के लिए युद्ध करने,

  यही आखिरी वचन व फरमान हो गए।

कर्तार सिंह ने देश लौटने का जोरों से प्रचार किया। फिर स्वयं जहाज पर सवार होकर कोलंबो (श्रीलंका) पहुंच गए। इन दिनों अमेरिका से पंजाब आने वाले प्रायः डिफेंस ऑफ इंडिया कानून (डी.आई.आर.) की पकड़ में आ जाते थे। बहुत कम सही-सलामत पहुंच पाते थे। कर्तार सिंह सही-सलामत आ गए। बड़े जोरों से काम शुरू हुआ। संगठन की कमी थी, लेकिन किसी तरह वह पूरी की गई। दिसंबर, 1914 में मराठा नौजवान विष्णु गणेश पिंगले भी आ गए। इनकी कोशिश से श्री सचीन्द्र नाथ सान्याल और रास बिहारी पंजाब आये। कर्तार सिंह हर समय हर जगह पहुंचे। आज मोगा में गुप्त मीटिंग है, आप यहां भी हैं। कल लाहौर के विद्यार्थियों में प्रचार हो रहा है, अगले दिन फिरोजपुर छावनी के सैनिकों से गठजोड़ हो रहा है। फिर हथियारों के लिए कलकत्ता जा रहे हैं। रुपये की कमी का प्रश्न उठने पर आपने डाका डालने की सलाह दी। डकैती का नाम सुनते ही बहुत-से लोग स्तंभित रह गए, लेकिन आपने कह दिया कि कोई भय नहीं है। भाई परमानंद भी डकैती से सहमत हैं। उनसे पुष्टि करवाने की जिम्मेदारी आप पर डाली गई। अगले दिन बगैर उनसे मिले ही कह दिया, ‘पूछ आया हूं, वे सहमत हैं।’ वे यह सहन नहीं कर सकते थे कि केवल रूपये की कमी से विद्रोह की तैयारी में देरी हो। 

एक दिन वे डकैती डालने एक गांव में गए। कर्तार सिंह नेता थे। डकैती चल रही थी। घर में एक बेहद खूबसूरत लड़की भी थी। उसे देखकर एक पापी आत्मा का मन डोल गया। उसने जबरदस्ती लड़की का हाथ पकड़ लिया। लड़की ने घबराकर शोर मचा दिया। कर्तार सिंह एकदम रिवाल्वर तानकर उसके नजदीक पहुंच गए और उस आदमी के माथे पर पिस्तौल रखकर उसे निहत्था कर दिया। फिर कड़ककर बोले, ‘पापी! तेरा अपराध बहुत गंभीर है। तुम्हें सजाए-मौत मिलनी चाहिए, लेकिन हालात की मजबूरी से तुम्हें माफ किया जाता है। फौरन इस लड़की के पांवों में गिरकर माफी मांग कि हे बहन! मुझे माफ कर दो। और फिर इसकी माता जी के पैर छूकर कह कि माता जी, मैं इस पतन के लिए माफी चाहता हूं। यदि वे तुम्हें माफ कर दें तो तुम्हें जिंदा छोड़ दिया जाएगा वरना गोली से उड़ा दिया जाएगा।’ उसने ऐसा ही किया। बात अभी ज्यादा नहीं बढ़ी थी। यह देखकर मां-बेटी की आंखें भर आई। मां ने कर्तार सिंह को प्यार भरे लहजे में कहा, ‘बेटा! ऐसे धर्मात्मा और सुशील नौजवान होकर आप इस काम में किस तरह शामिल हुए?’ कर्तार सिंह का भी दिल भर आया और कहा, ‘मां जी! रुपए के लालच में हमने यह काम शुरू नहीं किया। अपना सब कुछ दांव पर लगाकर डकैती डालने आए हैं। हथियार खरीदने के लिए रुपये की जरूरत है। वह कहां से लाएं? मां जी, इसी महान् काम के लिए आज इस काम पर मजबूर हुए हैं।’ इस समय पर यह दृश्य बड़ा दर्दनाक था। मां ने फिर कहा-‘इस लड़की की शादी करनी है। इसके लिए कुछ छोड़ जाओ तो अच्छा है।’ इसके बाद अपना सारा धन मां के सामने रख दिया और कहा-‘जितना चाहें ले लें।’ पैसा रखकर मां ने बाकी सारा रुपया कर्तार सिंह की झोली में डाल दिया और आशीर्वाद दिया, ‘जाओ बेटा, तुम्हें सफलता मिले।’ डकैती जैसे भयानक काम में शामिल होकर भी कर्तार सिंह का दिल कितना भावनामय, पवित्र व विशाल था, यह इस घटना से जाहिर है। 

फरवरी, 1915 में विद्रोह की तैयारी थी। पहले सप्ताह आप पिंगले और दूसरे दो-तीन साथियों के साथ आगरा, कानपुर, इलाहाबाद, लखनऊ, मेरठ व अन्य कई स्थानों पर गए और विद्रोह के लिए उनसे मेल-मिलाप कर आए। आखिर वह दिन करीब आने लगा, जिसका बड़ी देर से इंतजार हो रहा था। 21 फरवरी, 1915 भारत में विद्रोह का दिन नियत हुआ था। इसी के अनुसार तैयारी हो रही थी, लेकिन इसी समय उनकी आशाओं के वृक्ष की जड़ में बैठा एक चूहा उसे कुतर रहा था। चार-पांच दिन पहले संदेह हुआ कि किरपाल सिंह की गद्दारी से सब ध्वस्त हो जाएगा। इसी आशंका से कर्तार सिंह ने रास बिहारी बोस से विद्रोह की तारीख 21 की बजाय 19 फरवरी करने के लिए कहा। ऐसा होने पर भी इसकी भनक किरपाल सिंह को मिल गई। इस क्रांतिकारी दल में एक गद्दार का होना कितने खतरनाक परिणाम का कारण बना। रासबिहारी और कर्तार सिंह भी कोई उचित प्रबंध नहीं होने से अपना भेद छिपा नहीं पाए। इसका कारण भारत के दुर्भाग्य के सिवाय और क्या हो सकता है?

कर्तार सिंह पिछले फैसले के अनुसार पचास-साठ साथियों के साथ फिरोजपुर जा पहुंचे। अपने साथी सैनिक हवलदार से मिले और विद्रोह की बात की। लेकिन किरपाल सिंह ने तो पहले ही सारा मामला बिगाड़ दिया था। हिंदुस्तानी सिपाही निहत्थे कर दिए गए। धड़ाधड़ गिरफ्तारियां होने लगीं। हवलदार ने सहायता करने से इनकार कर दिया। कर्तार सिंह की कोशिश असफल रही। निराश हो लाहौर आए। पंजाब-भर में गिरफ्तारियों का चक्कर तेज हो गया। अब साथी भी टूटने लगे। ऐसी स्थिति में रास बिहारी बोस मायूस होकर लाहौर के एक मकान में लेटे हए थे। कर्तार सिंह भी वहीं आकर एक चारपाई पर दूसरी ओर मुहं फेर लेट गए। परस्पर कोई बात नहीं की, लेकिन चुपचाप ही एक-दूसरे के दिल की हालत समझ गए। इनकी हालत का अनुमान हम क्या लगा सकते है? 

दरे-तदवीर पर सर फोड़ना शेवः रहा अपना, 
वसीले हाथ ही ना आए किस्मत आजमाई के। 

(हमारा काम भाग्य के दर पर सर फोड़ना ही रहा, लेकिन भाग्य आजमाने के साधन ही हाथ नहीं आए।) उनकी तो यही ख्वाहिश थी कि कहीं लड़ाई हो और वे अपने देश के लिए लड़ते-लड़ते प्राण दे दें। फिर सरगोधा के नजदीक चक्क नं0 5 में आ गये। फिर विद्रोह की चर्चा छेड़ दी। वहां पकड़े गए। जंजीरों में जकड़े गये। निर्भीक विद्रोही कर्तार सिंह को लाहौर स्टेशन पर लाया गया। पुलिस कप्तान ने कहा, ‘मिस्टर टॉमकिन, कुछ खाना तो लाइए।’ यह कितना मस्त मौला था। गिरफ्तारी के समय वे बहुत खुश थे। प्रायः कहा करते थे, ‘वीरता और हिम्मत से मरने पर मुझे विद्रोही की उपाधि देना। कोई याद करे सो विद्राही कर्तार सिंह कहकर याद करे।’ मुकदमा चला। उस समय कर्तार सिंह की आयु साढे अट्ठारह वर्ष थी। सबसे कम आयु के अपराधी आप ही थे। लेकिन जज ने इनके संबंध में यह लिखा-‘वह इन अपराधियों में, सबसे खतरनाक अपराधियों में एक है। अमेरिका की यात्रा के दौरान और फिर भारत में इस षड़यंत्र का ऐसा कोई हिस्सा नहीं जिसमें उसने महत्वपूर्ण भूमिका न निभाई हो।’ 

एक दिन आपके बयान देने की बारी आई। आपने सबकुछ मान लिया। आप क्रांतिकारी बयान देते रहे। जज कलम दांतों के नीचे दबाये देखता रहा। एक शब्द न लिखा। बाद में इतना कहा- ‘कर्तार सिंह, अभी आपका बयान लिखा नहीं गया। आप सोच-समझ कर बयान दें। आप जानते हैं कि आपके बयान का क्या परिणाम हो सकता है?’ देखने वाले कहते हैं कि जज के इन शब्दों पर कर्तार सिंह ने बड़ी मस्तानी अदा से केवल इतना कहा, ‘फांसी ही तो चढ़ा देंगे, और क्या? हम इससे नहीं डरते।’ इस दिन अदालत की कार्यवाई समाप्त हो गई। अगले दिन फिर कर्तार सिंह का अदालत में बयान शुरू हुआ। पहले दिन जजों का कुछ ऐसा विचार था कि कर्तार सिंह भाई परमानंद के इशारे पर ऐसा बयान दे रहे हैं, लेकिन वह विद्रोही कर्तार सिंह के दिल की गहराईयों में नहीं उतर सकते थे। कर्तार सिंह का बयान अधिक जोरदार, अधिक जोशिला और पहले दिन की तरह ही इकबालिया था। आखिर में आपने कहा- ‘अपराध के लिए मुझे उम्रकैद की सजा मिलेगी या फांसी। लेकिन में फांसी को प्राथमिकमता दूंगा, ताकि फिर जन्म लेकर-जब तक हिंदुस्तान आजाद नहीं हो, तब तक मैं बार-बार जन्म लेकर फांसी पर लटकता रहूंगा। यही मेरी अंतिम इच्छा है.....’ 

आपकी वीरता से जज बहुत प्रभावित हुए लेकिन उन्होंने विशाल दिल वाले दुश्मन की तरह आपकी वीरता को वीरता न कहकर बेशर्मी के शब्दों में याद किया। कर्तार सिंह को सिर्फ गालियां ही नहीं, मौत की सजा भी मिली।आपने मुस्कुराते हुए जजों को धन्यवाद दिया। कर्तार सिंह फांसी की कोठरी में कैद थे। आपके दादा ने आकर कहा, ‘कतार सिंह, जिनके लिए मर रहे हो, वे तुम्हें गालियां देते हैं। तुम्हारे मरने से देश को कुछ लाभ होगा, ऐसा भी दिखाई नहीं देता है।’ कर्तार सिंह ने बहुत धीमे से पूछा ‘फलां रिश्तेदार कहां है?’ 

‘प्लेग से मर गया।’ 
‘फलां कहां है?’  
‘हैजे से मर गया।’ 

‘तो क्या आप चाहते हैं कि कर्तार सिंह महीनों बिस्तर पर पड़ा रहे और पीड़ा से दुखी किसी रोग से मरे! क्या उस मौत से यह मौत हजार गुना अच्छी नहीं? 

दादा चुप हो गए। 

आज फिर सवाल उठता है कि उनके मरने से क्या लाभ हुआ? वह किसलिए मरे? इसका जवाब बिलकुल स्पष्ट है। देश के लिए मरे। उनका आदर्श ही देश-सेवा के लिए लड़ते हुए मरना था। वे इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहते थे। मरना भी गुमनाम रहकर चाहते थे। 

चमन जारे मुहब्बत में, उसी ने बागबानी की, 
जिसने मिहनत को ही मिहनत का समर जाना। 
नहीं होता है मुहताजे नुमाइश फैज शबनम का, 
अंधेरी रात में मोती लुटा जाती है गुलशन में। 

डेढ़ साल तक मकदमा चला। 16 नवंबर, 1915 का दिन था, जब उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। उस दिन भी वे हमेशा की तरह खुश थे। इनका वजन दस पौंड बढ़ गया था। ‘भारत माता की जय’ कहते हुए वे फांसी के तख्ते पर झूल गए।   


    -भगत सिंह के संपूर्ण दस्तावेज (संपादक-चमन लाल) से

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