फ्रीडम एट मिडनाइट
भारत विभाजन का मुखर वर्णन, साम्राज्यवाद की भूमिका पर चुप
डोमिनिक लापियर और लैरी कॉलिन्स की पुस्तक ‘मध्य रात्रि में आजादी’ (फ्रीडम एट मिडनाइट) में भारत की आजादी और विभाजन को बहुत करीब से लेखकों ने समेटा है।
पुस्तक इस मायने में खास है कि इसमें उस समय की घटनाओं पर बारीकी से नजर डाली है। इतिहास के सूक्ष्म रूप से परिचय कराने वाली यह पुस्तक महात्मा गांधी की विभाजन को स्वीकार न करने तथा सांप्रदायिक दंगों को रोकने की उनकी भूमिका को भी उजागर करती है।
हालांकि किताब में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की भूमिका को उतना विस्तृत वर्णित नहीं किया है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद की भारत को उपनिवेश बनाए रखने में भूमिका और अपना शासन बनाए रखने के लिए सांप्रदायिक ताकतों को प्रशय और संरक्षण देने में उसकी भूमिका को नहीं दिखाया है। मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा तथा आर.एस.एस जैसे सांप्रदायिक तत्वों को ब्रिटिश सरकार के द्वारा संरक्षण मिला जो आगे चलकर देश के विभाजन का कारण भी बने।
पुस्तक में भारत के अंतिम गर्वनर जनरल लार्ड माउंटबेटन को एक ऐसे चमत्कारी व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है जिसने उससे पूर्व के गर्वनर जनरलों की भारत को स्वतंत्र करने की योजना की असफलता को अपनी सफलता में बदल दिया और ‘आपरेशन मैडहाउस’ की जगह ‘आपरेशन सिडक्शन’ शुरू कर भारत को स्वतंत्र कराने और भारत के विभाजन की समस्या को हल किया।
पुस्तक में संपूर्ण भारत में फैले लगभग 565 रजवाड़ों का विस्तार से जिक्र किया गया है। इन रजवाड़ों में नवाबों, राजाओं, बादशाहों की जीवनशैली, शिकारी प्रवृत्ति, अय्याशियों पर विस्तार से लिखा है।
पुस्तक में भारतीय जनता का दृष्टिकोण, उसके अलग-अलग धड़ों का देश की आजादी के बारे में योगदान, देश की मजदूरों, किसानों की नुमाइंदगी करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी की आजादी और विभाजन के दिनों की भूमिका को नहीं दर्शाया गया है।
महात्मा गांधी देश के आजादी के आंदोलन की सबसे बड़ी शख्सियत थे लेकिन अपने अंतिम दिनों में जब एक तरफ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, मुस्लिम लीग और ब्रिटिश सरकार के मध्य देश के विभाजन और आजादी को लेकर समझौता वार्ताएं चल रही थीं। वहीं दूसरी तरफ महात्मा गांधी देश को सांप्रदायिक दंगों से बचाने में लगे हुए थे। गांधी विभाजन के खिलाफ थे। उनका कहना था कि देश का बंटवारा मेरी लाश पर होगा लेकिन देश के हालात सांप्रदायिक राजनीति के चलते इतने बिगड़ गये थे कि वह कांग्रेस या ब्रिटिश सरकार के काबू से बाहर हो गये थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं नेहरू और पटेल को यह लगने लगा था कि विभाजन को स्वीकार करना ही अब एक विकल्प है जिससे देश में स्थिरता को लाया जा सकता है। मुस्लिम लीग ने ‘सीधी कार्यवाही’ के द्वारा यह दिखा दिया कि सिवाय विभाजन के उसे कुछ मंजूर नहीं है। देश में बड़े पैमाने पर दंगे ने स्थिति को विस्फोटक बना दिया। लिहाजा कांग्रेस को विभाजन स्वीकार करना पड़ा। महात्मा गांधी विभाजन के मुददे पर अलगाव में पड़ गये, क्योंकि कांग्रेस के अन्य नेता विभाजन की सहमति दे चुके थे। देश आजाद हुआ उससे पूर्व पाकिस्तान के रूप में उसका एक हिस्सा अलग हो गया। महात्मा गांधी उस दौरान नोआखाली और कलकत्ता में दंगों को शांत कराने के लिए आमरण अनशन कर रहे थे। सांप्रदायिक दंगां को शांत कराने में और उनको न होने देने में गांधी की भूमिका निर्णायक थी। जहां एक तरफ पंजाब में भारतीय सेना के 55000 जवान सांप्रदायिक दंगों को रोकने में नाकाम थे तो दूसरी ओर अकेले महात्मा गांधी ने नोआखाली, कलकत्ता और दिल्ली में सांप्रदायिक दंगों को रोकने में अपनी जान की बाजी लगा दी और दंगों को रोकने और शांति बनाएं रखने में भी सफल रहे।
दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे रोकने के लिए आमरण अनशन करते हुए उन्होंने पाकिस्तान जाने की भी योजना बनाई और 3 फरवरी का दिन निश्चित किया लेकिन उससे पूर्व ही 30 जनवरी, 1948 को हिन्दू महासभा सदस्य नाथूराम गोडसे ने उन्हें गोली मार दी।
पुस्तक में गांधी की हत्या का विस्तृत वर्णन किया गया है। गांधी की हत्या में शामिल लोगों वी.डी. सावरकर, नाथूराम गोडसे, गोडसे का भाई गोपाल गोडसे, विष्णु करकरे, मदनलाल पावा, दिगम्बर बाडगे के विषय में और गांधी की हत्या की योजना का विस्तार से वर्णन है।
पुस्तक भारत विभाजन से उपजे हालात का भी जायजा लेती है। विभाजन का दर्द दोनों ओर के हिन्दुओं और मुस्लिमों में एक समान था। यह अब तक के इतिहास की सबसे बड़ी आबादी की अदला-बदली थी, जिसने अकथनीय मानवीय त्रासदी को जन्म दिया था। विभाजन और उसके बाद संपूर्ण भारत खासतौर पर पंजाब, दिल्ली, संयुक्त प्रांत, बिहार, बंगाल में जो सांप्रदायिक दंगे फैले उसमें लाखां जानें गयीं। महात्मा गांधी के प्रयासों और उनकी मृत्यु ने इन सांप्रदायिक दंगों को एक हद तक नियंत्रित किया।
पुस्तक यह दिखाने का प्रयास करती है कि विभाजन के बाद भारत जिस अराजक स्थिति में पहुंच गया था उसको इस स्थिति से निकालने का कार्य भी लार्ड माउंटबेटन ने किया।
अंत में, पश्च दृष्टिकोण से लिखी गई इस पुस्तक में फ्रांसीसी लेखक डोमिनिक लापियर और ब्रिटिश लेखक लैरी कॉलिन्स ने भारत के विभाजन की त्रासदी और आजादी का सूक्ष्म दृष्टि से वर्णन करते हुए ब्रिटिश साम्राज्यवाद की भूमिका पर कोई प्रश्न नहीं खड़ा किया बल्कि कहीं न कहीं उसको सकारात्मक दिखाया है। उन्होंने यह भी दिखाया है कि ब्रिटिश सत्ता ही भारत के शासन को चलाने के लिए उपयुक्त थी, भारतीय इस काबिल नहीं थे। पुस्तक देश की रियासतों की स्थिति, विभाजन की त्रासदी और आजादी के दिनों में किस तरह की समझौता वार्ताएं हो रही थीं, उसको समझने के लिए पढ़ी जानी चाहिए।
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