रविवार, 1 दिसंबर 2019

समाजवाद में छोटे बच्चों की शिक्षा 

भारत में अक्सर यह बात सुनी जाती है कि बच्चों की पहली पाठशाला उनका घर होता है और मां-बाप उसके पहले शिक्षक होते हैं। पर मां-बाप छोटे बच्चों को क्या सिखाएंगे यह खुद मां-बाप की सोच से तय होता है। हमारे देश में अधिकतर माता-पिता बच्चों को अपनी सोच के हिसाब से अनुशासित, धार्मिक, कहना मामने वाला, दूसरे बच्चों से ना झगड़ने वाला, झूठ ना बोलने वाला, आदि-आदि बनाना चाहते हैं। क्योंकि उनकी समझ में यही वह आदत हैं जो बच्चों को अच्छा बनाती हैं। बच्चे बहुत तेजी से चीजों को ग्रहण करते हैं इसीलिए वे न केवल उन बातों को सीखते हैं। जो उन्हें सिखाई जाती हैं बल्कि अपने घर में लोगों की बातों-झगड़ों, आस-पड़ोस के बच्चों आदि के व्यवहार से भी सीखते हैं पूंजीवादी देश में बच्चे बड़ी आसानी से पैसे का महत्व, अपना स्वार्थ, अपनी चीजें आसानी से दूसरों को ना देना, आदि बगैर सिखाए सीख जाते हैं। क्योंकि यह सब पूंजीवाद में चारों ओर आम होता है। 


पर क्या यह कल्पना की जा सकती है कि 6-7 वर्ष के बच्चे अपने मां-बाप को कुछ सिखाने लग जाएं। भारत में ऐसी ना उनसे उम्मीद की जाती है और न मां-बाप इसे सहन कर सकते हैं। पर समाजवादी सोवियत संघ की बात एकदम उलट थी। वहां न केवल ऐसा होता था बल्कि मां-बाप इस बात के लिए बच्चों पर गर्व भी करते थे। 

समाजवाद में बच्चों की शिक्षा का नजरिया भारत या किसी भी पूंजीवादी देश से एकदम अलग था। पूंजीवादी दुनिया में मानकर चला जाता है कि बच्चों को समाज की राजनीति-आर्थिक स्थिति से काटकर शुरूआती जीवन में परियों की कथाएं सुनाई जानी चाहिए, कि वक्त के साथ बच्चे जब बड़े होंगे तो वह समाज की राजनीति-अर्थव्यवस्था के बारे में खुद समझने लगेंगे। पर सोवियत समाजवाद की बात एकदम अलग थी। सोवियत समाजवाद अपनी निर्माण प्रक्रिया में लगातार एक क्रांति से गुजर रहा था। जिसके तहत पूंजीवादी रास्ते, शोषक तत्वों, पूंजीवादी आदतों, मूल्यों से पूरा समाज छुटकारा पाने की कोशिश कर रहा था। इसलिए समाजवाद में छोटे बच्चों को भी इस जंग के एक जिम्मेदार योद्धा-नागरिक के बतौर विकसित किए जाने की कोशिश की जाती थी और छोटी उम्र से ही उसे प्रोत्साहित किया जाता था कि वह गलत के खिलाफ संघर्ष करें। उसे धार्मिक बातों के बजाय वैज्ञानिक सोच का बनने का प्रयास किया जाता था। आज्ञाकारी के बजाय गलत से लड़ने वाला, आत्म सम्मान की भावना वाला सचेत नागरिक बनाने का प्रयास किया जाता था। और यह प्रयास उसके ककहरे की शिक्षा से ही शुरू हो जाता था। किंडर गार्डन से ही शुरू हो जाता था। 

अक्सर हमें अपने देश में मां-बाप बच्चों को घर में या शिक्षक स्कूल में ए फॉर एप्पल, बी फॉर ब्वाय, सी फॅार कैट पढ़ाते सुने जा सकते हैं। यह ककहरा समाजवाद में भी सिखाया जाता था पर इसके प्रतीक बदल चुके थे। वहां किंडर गार्डन में एबीसी सिखाने वाले पोस्टर, जो चित्र समेत होते थे कुछ इस प्रकार सिखाते थे। ए फॉर ऐथिस्ट (नास्तिक) जिन्हें पादरी मार डालना चाहता है। सी फॉर चेन्स (जंजीरें) जो वर्ग संघर्ष के कैदियों को बाधती है। डी फॉर डैथ (मृत्यु) जो न्यू इंग्लैंड में वर्ग संघर्ष के बहादुर कैदियों सेको और वैजयंती को सड़ चुके पुराने न्यू इंग्लैंड के जज द्वारा कानूनी हत्या (लीगल लिंचिंग) से मिली। एम फॉर मूनि जो कि वर्ग संघर्ष का एक कैदी है और कैलिफोर्निया की जेल में कैद है। टी फॉर ट्रायल्स जो कि शासक वर्ग के सभी स्तम्भों द्वारा कृत्रिम ढंग से चलाया जाने वाला प्रहसन है।... और इसी तरह आगे इन शब्दों के साथ जुड़ी तस्वीरें बच्चों के लिए उतनी ही रुचिकर होती थी जितनी अ से अनार की। अ से अनार भी पढ़ाया जाता था पर साथ ही उपरोक्त सब भी सिखाया जाता था। 

सोवियत समाजवाद के यह नए स्कूल अपने गांव या कस्बे के वातावरण से  गहराई से जुड़कर काम करते थे। किसी गांव में स्कूल के बच्चों (एक उम्र से ऊपर) को सामूहिक फार्म की सभी गतिविधियों में हिस्सा लेना पड़ता था। वे आलू बोते थे, फसल काटते थे, मुर्गियों को चारा खिलाते थे, मजदूरी की गणना करते थे, वह सामूहिक फार्म के सदस्य होने का महत्व समझते थे और इस प्रक्रिया में नए समाजवादी जीवन की समस्यायें-चुनौतियां सीखते थे। 

स्कूल में बच्चों द्वारा लिये जाने वाले सभी प्रोजेक्ट सामुदायिक काम की मदद करने वाले होते थे। बच्चे सड़क साफ करते थे, पेड़-पौधों को जीवाणुओं से मुक्त रखने के लिए दवा छिड़कते थे। इसके साथ ही स्कूल बड़ों से अलावा कुछ अलग भी करते थे। वे निरक्षर मां-बाप को अक्षर ज्ञान कराते थे, उन्हें धार्मिक अंधविश्वासों की बुराई के बारे में बताते थे, साफ रहने के तरीके समझाते थे, महिलाओं को पुरुषों की दासी के रूप में सोचने की बजाय स्वतंत्र व्यक्ति का अहसास दिलाते थे। गांव का तलाब गंदा होने पर बच्चे अपने जीव विज्ञान शिक्षक की मदद से उसे पहचानते और साफ करते थे। इन सारे कामों में शिक्षक और बच्चे मिलकर गांव वालों की मदद करते थे। 

क्रांति से बच्चों व मां-बाप का संबंध गुणात्मक रूप से बदल चुका था। अब बच्चों पर मां-बाप अपनी मनमर्जी नहीं थोप सकते थे, उन पर जबरन हावी नहीं हो सकते थे। इसी तरह बच्चे मां-बाप व बड़ों की जबरन अथॉरिटी मानने से मुक्त हो चुके थे। बच्चे अपने मां-बाप के उत्पीड़न से वैसे ही मुक्त हो चुके थे जैसे महिलाएं, मजदूर, किसान, अल्पसंख्यक अपने उत्पीड़न से मुक्त हो चुके थे। बच्चे मां-बाप की आलोचना करने में झिझकते नहीं थे, खासकर जब मां-बाप पुराने विचारों से अशिक्षित पूंजीवादी तत्व होते थे। बच्चे मां-बाप से संघर्ष कर उन्हें क्रांति पूर्व के अज्ञान के, अंधविश्वास के युग से प्रकाश व ज्ञान के युग में खींच लाने की कोशिश करते थे। बहुत दफे दो पीढ़ियों का अंतर दो समाज व्यवस्थाओं के अंतर के रूप में सामने आता था; जहां बच्चे समाजवाद का प्रतिनिधित्व कर रहे होते थे जबकि मां-बाप पूंजीवाद का। 

एक 6 साल की बच्ची, लकड़ी की बनी झोपड़ी की दीवार पर लगे धार्मिक अंधविश्वास के चिन्ह की ओर इशारा करके अपनी मां से कहती है ‘‘मां अब समय आ गया है कि तुम इन सब चीजों से दूर हो जाओ।’’ वह मां की आलोचना नहीं कर रही होती है बल्कि मां के रूढ़ीवादी संस्कार को खारिज कर रही होती है। 

कम्युनिस्ट मां-बाप और उनके बच्चों के बीच खाई कम होती थी और यहां बच्चे बराबरी से मां-बाप की आलोचना करना अपना अधिकार समझते थे। बच्चे शांत तरीके से मां-बाप से संघर्ष करते यहां देखे जा सकते थे। एक ऐसे घर में जहां मां-बाप दोनों कम्युनिस्ट कार्यकर्ता थे उनके घर की दीवार पर बच्चे द्वारा एक पोस्टर चिपकाया गया जिस पर लिखा था-  

‘‘हमारे फ्लैट नंबर 84 में कोई भी व्यवस्था बनाकर नहीं रखता। गृह व्यवस्था की देखरेख करने वाली मारोसिया सिमिनोव्ना (मां) भी नहीं रखती। वह लिनेन (कपड़ा) धोती है और रसोई में सूखने डाल देती है और पापा धूम्रपान करते हैं और राख जमीन पर झाड़ देते हैं। क्रांति के 13 वर्ष में इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती और इसीलिए मैं पापा और मम्मा से समाजवादी प्रतियोगिता पर सहमति व्यक्त करता हूं कि यह चीजें ना की जाएं।’’ 

एक अन्य पोस्टर पर यह लिखा था- 

‘‘हमारे फ्लैट नंबर 84 में मारोसिया सिमिनोव्ना (मां), इन्सेस (एक घनिष्ट मित्र लड़की) और मैं बात करते हैं। वह (मां) हमारे पास आती हैं और हमें बुरे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए डांटने लगती हैं। जैसे 31 मार्च को इनेसा राबोटनीटुजा  (महिला मजदूर) की सारी प्रतियां बडे़ कमरे से अपने कमरे में उठाकर ले गई। मैंने इसे उससे छीन लिया इस पर वह अपना आपा खो बैठी। मारोसिया दूसरे कमरे से अंदर आयी और उसे शांत करते हुए मुझ पर यह कहते हुए झपटी ‘‘इस तरह एक छोटी बच्ची से बर्ताव करना कितने दुख और शर्म की बात है, तुम बदनसीब कुत्ते...।’’ मैं इस बार इस बात को भुला दे रहा हूं पर अगली बार ऐसा नहीं होने दूंगा। अगर वह (मां) ऐसा करेगी तो वह खुद को दीवार अखबार में दोबारा पाएंगी।’’ 

मां जो कि टैक्सटाइल में शाक ब्रिगेड की सदस्य थी उसे अपने बच्चे के दीवार अखबार पर गर्व था। वह बच्चे को सही मानते हुए दोनों मामलों पर अपनी गलती स्वीकार करती हैं। किंडर गार्डन, नर्सरी स्कूल में बच्चों को अपने मां-बाप के पिछड़ेपन पर धैर्य के साथ संघर्ष करना सिखाया जाता था। इसके बावजूद माता-पिता व शिक्षक में तनाव पैदा नहीं होता था क्योंकि कम पढ़े-लिखे रूसी मां-बाप पढ़े-लिखे शिक्षकों को अपने से श्रेष्ठ मानकर उनकी इज्जत करते थे। माताएं जानती थी कि शिक्षक स्वास्थ्य, सफाई आदि के बारे में सही सीख देते हैं। जब नाद्या और पेत्या अपने नर्सरी स्कूल से वापस आकर अपनी माओं को यह बताते हैं कि उन्हें 5 दिन में कम से कम एक बार नहाना चाहिए तो माताएं विरोध नहीं करती। इसके उलट वे नर्सरी स्कूल शिक्षक का और अधिक सम्मान करने लगती हैं कि वे उनके बच्चों को नए बेहतर जीवन की ओर कदम चलना सिखा रहा है। 

माता-पिता को समझाया जाता था कि स्कूल क्यों धर्म के खिलाफ हैं और घर पर माता-पिता को भी इसी सिद्धांत पर बच्चों को शिक्षित करना चाहिए। बच्चों के लिए यह कठिन हो जाएगा अगर उन्हें घर पर उल्टी शिक्षा दी जाएगी। एक तीन साल का बच्चा गले में ईसू का चिन्ह लटकाकर आया तो शिक्षक ने उसे इसे नहीं पहनने के लिए समझाया। इस पर मां बहुत दुखी हुई और शिक्षक पर चिल्लाई ‘मेरा बच्चा हमेशा यह क्रास पहनेगा’ कुछ महीने बाद किंडर गार्डन में बच्चे ने क्रास पहनकर आना बंद कर दिया। अब तक मां सही सीख समझ चुकी थी। 

इसी तरह एक मां ने अपनी छोटी बच्ची के लिए घर में क्रिसमस ट्री (पेड़) सजाया और इस बारे में स्कूल में बताने को मना किया। लेकिन छोटी बच्ची ने स्कूल में बात बता दी। शिक्षक ने बच्ची को समझाया कि जीवित पेड़ को काट कर घर में लगाना क्यों बुद्धिमानी नहीं है। पेड़ कुर्सी व मेज बनाने के काम में उपयोगी हो सकते हैं। तुन्हें घर में पेड़ से क्या खुशी मिली, यह कुछ दिन में खत्म हो जाएगा। तुम्हें अपनी मां को तुम्हारे लिए कुछ तस्वीरें वाली किताबें खरीदने को कहना चाहिए जो ज्यादा दिन चलेंगी। इसके बाद उसने अपनी बच्ची के लिए कभी दोबारा क्रिसमस ट्री नहीं बनाया। एक दूसरे लड़के की मां के भी क्रिसमस ट्री घर में लगाने पर अध्यापक ने लड़के को समझाया कि ‘‘क्रिसमस की परंपरा अन्य सभी धार्मिक त्योहारों और परंपराओं की तरह पादरियों और पूंजीवादी लोगों द्वारा इसलिए शुरू किये गए ताकि मजदूर, वर्ग संघर्ष के बारे में न सोच सकें।’’ 

शिक्षक खुद भी माता-पिताओं के बीच सांस्कृतिक कार्य करते थे और बच्चों की पढ़ाई के नए तरीके-विचारों के बारे में बताते थे। हर स्कूल में अभिभावक-शिक्षक बैठक होती थी जिसमें बच्चों के कपड़े, खाने, स्वास्थ्य से लेकर उनकी राजनीतिक शिक्षा पर चर्चा होती थी। स्कूल की दीवारों पर नारे लिखे होते थे ‘‘अपने बच्चों से लगाव जरूरी है पर चुंबन खतरनाक है। अपने बच्चों को चर्च में मत ले जाओ उनके दिमाग में रूढ़िवादिता मत घुसेड़ो।’’ 

इसी तरह माता-पिता और बच्चों में समाजवादी प्रतियोगिता छोटी-छोटी बातों को लेकर होना बहुत आम था। जिसमें बच्चे समय पर स्कूल जाने, मेहनत से पढ़ने, धूम्रपान न करने, स्कूल से कक्षा ना छोड़ने के वायदे करते थे। तो मां-बाप काम पर देरी से ना जाने, शाक ब्रिगेड का मजदूर बनने, काम से छुट्टी बेवजह न करने, शराब न पीने, बच्चों की सही से देख-रेख करने के वादे करते थे। 

रूस में जहां पहले मजदूरों के बच्चों की शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। चर्च ही उनका स्कूल था। वहीं समाजवादी सोवियत संघ में 7 वर्ष से ऊपर सभी बच्चों को अनिवार्य एक समान वैज्ञानिक शिक्षा उपलब्ध हुई। शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों को छोटी उम्र से राजनीतिक शिक्षा दी जाती थी। उन्हें आंख मूंदकर न तो मां-बाप, न ही शिक्षक का अनुसरण करना सिखाया जाता था। ऐसे में बच्चे मनमौजी और किसी को बात मानने से इनकार करने वाले न बन जाएं, इससे बचने के लिए बच्चों को संगठित होने और संगठन के अनुरूप चलना सिखाया जाता था। 

एकदम छोटे बच्चों को ओक्टोबरियोनोम्स और थोड़े बड़े बच्चों को पायनियर्स के रूप में संगठित किया जाता था। किशोर उम्र से बड़े बच्चों के कोमसोमोल थे। इस तरह बच्चों को बचपन से अपने संगठन से राजनीतिक सचेत होना सिखाया जाता था। इन संगठनों का पार्टी से करीबी संबंध होता था। बच्चे भविष्य में पार्टी में भर्ती होना अपना लक्ष्य बनाते थे। इस तरह यह संगठन बच्चों को राजनीति सिखाने के अलग-अलग तरीके की पाठशाला थे। इनमें बच्चे गलत व्यवहार करने वाले बच्चों से लेकर माता-पिता व शिक्षकों के तौर-तरीकों पर बात करते थे। ये स्कूल के मामले में राय देने व शिकायत करने दोनों का काम करते थे। इस तरह छोटे बच्चे भी छोटे नागरिक की तरह विकसित किए जाते थे। उन्हें अपने अधिकारों और कर्तव्यों की समझ होती थी। बच्चों को इस भावना में तैयार किया जाता था कि हर बच्चा सामाजिक काम में अपना योगदान अनिवार्य समझे। वह यह सोचने के बजाय कि उसके काम ना करने से क्या फर्क पड़ेगा। यह सोचता था कि बगैर उसके योगदान के समूची योजना खतरे में पड़ सकती है। 

इस तरह एकदम छोटे ओक्टोबरियानोम्स में संगठित बच्चों के नियम बेहद सरल थे। वे ये थे- हर संगठिन बच्चे को साफ रहने, अपने शरीर व कपड़ों को साफ रखने पर ध्यान देना चाहिए। उसे काम करना पसंद होना चाहिए। उसके भविष्य में युवा पायनियर बनने की इच्छा होनी चाहिए। वह पायनियर, नौजवान कम्युनिस्ट व मजदूरों-किसानों की मदद करता हो। संगठन की सदस्यता के बैच भी दिये जाते थे। जिन्हें नए तरीके से समारोह में मजदूर क्लब में बच्चे गर्व से पहन कर जाते थे। बच्चे अपनी सदस्यता के प्रति बेहद गंभीर होते थे व इसकी शर्त को पूरा करने को हमेशा तत्पर होते थे। 

इस तरह संगठित पायनियर बच्चे वर्ष में एकाध बार कैंप लगाने जाते थे। जहां वे अपने बीच से नेता चुन सारा काम स्वयं करते थे। ये कैम्प अक्सर ही सामाजिक उत्पादन (खेतों व फैक्ट्रियों) में मदद का कार्यभार लेते थे। 

बिगड़े बच्चों के साथ शिक्षक ज्यादा मेहनत करते थे। वे उन्हें तरह-तरह की जिम्मेदारियां देते थे व काम ना करने पर अगली बार काम करने को कहते थे। बार-बार जिम्मेदारियां देने से ऐसे बच्चे धीरे-धीरे गंभीर नेता के रूप में विकसित हो अक्सर ईमानदारी से काम करने लगते थे।

बच्चों की कलात्मक क्षमता के विकास के लिए उन्हें प्रकृति-वातावरण से सीखने को प्रेरित किया जाता था। उन्हें मनमर्जी से किसी भी चीज का चित्र बनाने को कहा जाता था। 

एक जगह एक कम्युनिस्ट इंजीनियर पुरुष और जर्मन पत्नी के 6 वर्षीय बच्चे से जब कुछ सवाल किए गए तो उसने गंभीरता से जवाब दिए- 
प्रश्न- कम्युनिस्ट क्या होता है?
बच्चा- एक आदमी जो फैक्ट्रियां बनाता है।
प्रश्न- तुम फैक्टरियां क्यों चाहते हो?
बच्चा- समाजवाद के निर्माण के लिए।
प्रश्न- समाजवाद के दुश्मन कौन है?
बच्चा- मैं नहीं जानता। (बच्चे की मां पीछे से चिल्लाई, जर्मनी में वे कौन है?)
बच्चा- जर्मनी में पूंजीपति लोग।
प्रश्न- और पूंजीवादी लोग कौन होते हैं?
बच्चा- खतरनाक।
प्रश्न- वे क्या करते हैं?
बच्चा- वे खाते हैं और सोते हैं और मजदूर जो कमाते हैं उसे छीन लेते हैं।
प्रश्न- क्या युद्ध अच्छा होता है?
बच्चा- नहीं यह खराब होता है। क्योंकि यह लोगों को मारता है।
प्रश्न- अगर कोई युद्ध होगा तो तुम लड़ोगे?
बच्चा- निश्चित रूप से।
प्रश्न- तुम क्यों लड़ोगे जब यह बुरा होता है?
बच्चा- क्योंकि यह पूंजीवादी लोगों के खिलाफ युद्ध होगा। 
प्रश्न- क्या तुम चर्च जाते हो? (बच्चे ने प्रश्नकर्ता की ओर इस निगाह से देखा मानो प्रश्नकर्ता पागल हो।) 
बच्चा- नहीं, मैं नहीं जाता हूं।
प्रश्न- क्यों नहीं जाते हो? 
बच्चा- क्योंकि चर्च ऐसी जगह है जहां लोगों को बेवकूफ बनाया जाता है। 

6 वर्ष के बच्चे की इस समाजवादी शिक्षा को देखकर सहज ही इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि सोवियत समाजवाद ने कैसे राजनीतिक रूप से सचेत बच्चों की पूरी फौज खड़ी कर दी  थी। जो समाजवाद से प्यार करती थी और उसके लिए मरने-मारने को तैयार थी। इसकी तुलना पूंजीवादी देशों से करने पर हम पायेंगे कि समाजवाद में बच्चां की देख-रेख, विकास पूंजीवाद की तुलना में गुणात्कम रूप से बदल जाता है।

 (इला विंटर की पुस्तक ‘द रेड वर्ट्यू’ के एक अध्याय पर आधारित) 

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