रविवार, 1 दिसंबर 2019

संवैधानिक व जनवादी संस्थाओं पर 
बढ़ती ‘हिन्दू फासीवादी’ गिरफ्त


मोदी सरकार के बीते 5 साल भारी उथल-पुथल के रहे हैं। इन पांच सालों में मजदूरों-मेहनतकशों पर तमाम हमले तो हुए ही; मोदी सरकार ने पूंजीवादी संस्थाओं तक को नहीं बक्शा। मोदी सरकार लोकतंत्र के लिए खतरे का पर्याय बन गयी।

        अभी हाल ही में समझौता ब्लास्ट के आरोपियों को सबूतों के अभाव में रिहा करने वाले जज ने कहा कि ‘‘एन.आई.ए. ने अच्छे साक्ष्य गायब कर दिए बेहद कमजोर साक्ष्य के चलते आरोपियों को छोड़ना पड़ा।’’ समझौता बम ब्लास्ट में 68 लोग मारे गए थे इसमें असीमानंद समेत 8 भगवा आतंकी आरोपी थे। इसी प्रकार मालेगांव बम ब्लास्ट जिसमें चार लोगों की मौत हो गई थी तथा 79 लोग घायल  हुए थे। आरोपी साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित समेत 12 लोग थे। इस केस को देख रही पब्लिक प्रोसेक्यूटर (सरकारी वकील) रोहिनी सलियान का 2015 में कहना था कि उन पर निरंतर आरोपियों के प्रति नरम रुख अपनाने के लिए मोदी सरकार व राष्ट्रीय जांच एजेंसी द्वारा दबाव डाले जा रहे हैं। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को तो उनकी ‘सेवाओं’ के लिए लोक सभा टिकट तक दे दिया गया। 

गुजरात दंगों में नरोदा पाटिया केस मसले पर भी सबूतों के अभाव में आरोपी रिहा कर दिये गये। हुई जिसमें 97 अल्पसंख्यकों की हत्या हिन्दू फासीवादियों द्वारा कर दी गई। अमित शाह के मामले को देख रहे जस्टिस लोया की तो हत्या करवाने की बात कुछ वक्त तक मीडिया में छायी रही। हालांकि बाद में इसे भी मैनेज कर लिया गया। 

       याद कीजिये! पिछले साल जनवरी तक चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की कार्यप्रणाली से व कुछ मामलों में फासीवादी गिरोह के बचाव के हिसाब से काम करने को लेकर 4 वरिष्ठ जजों ने प्रेस कांफ्रेंस कर डाली। जिस पर देश में शासक वर्ग के बीच हंगामा भी हुआ। 4 जजों ने कहा कि ऐसे निर्णायक वक्त पर यदि वो चुप रहते तो उनकी आत्मा उन्हें कचोटती रहेगी, इतिहास उन्हें माफ नहीं करता। फिर कुछ वक्त बाद जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा कि यदि अगला सी.जे.आई. रंजन गोगोई को नहीं बनाया जाता तो हमारी आशंका सही साबित होगी। फिर हुआ क्या? जिनके नाम का प्रस्ताव था वही मुख्य न्यायाधीश बना दिये गए। किन्तु इसके बाद भी भाजपा-मोदी सरकार लगातार सुप्रीम कोर्ट को निशाना बनाती रही। राफेल में पहले झूठा हल्फनामा और फिर जब चोरी पकड़ी गयी तो कह दिया कि यह तो टाइपिंग ऐरर था। और सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसे मान भी लिया गया। ऐसा ही कुछ सीबीआई मामले में भी हुआ। तमाम उठा-पटक के बाद अंततः भाजपा अपने पंसद का सीबीआई चीफ बनाने में कामयाब रही।

मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद सत्ता का यहां अभूतपूर्व केंद्रीकरण हो चुका है। जनता द्वारा नहीं चुना जाने वाला प्रधानमंत्री कार्यालय सर्वशक्तिशाली है। मंत्रियों की कोई हैसियत नहीं है। इसी प्रकार अलग-अलग मंत्रिमंडलीय समितियां व समूह ध्वस्त हैं। नोटबन्दी के मसले पर लोक लेखा समिति की बातों को खारिज किया गया, अनसुना किया गया। मोदीभक्त मीडिया में इन संसदीय समितियों द्वारा की गई कार्यवाही, फैसलों के लिए कोई जगह नहीं थी या इनके फैसलों पर सवाल कर एक संदेह का वातावरण तैयार कर दिया जाता है। राफेल के मसले पर कैग द्वारा लोक लेखा समिति को रिपोर्ट दिखाए बिना सर्वोच्च न्यायालय में इस पर झूठ बोलने का मामला हुआ था। यही स्थिति मुरली मनोहर जोशी की अगुवाई वाली प्राक्कलन समिति द्वारा जब यह कहा गया कि बेरोजगारी के सम्बन्ध में कोई आंकड़े न होने व इसकी आलोचना की गई तो तब भी यही देखने में आया। कुल मिलाकर स्थिति ऐसी बनाने की कोशिश हुई कि मोदी ही संसद हैं। मोदी ही सारे विभागों के मंत्री हैं। सब कुछ मोदी हैं। मोदी ही एकमात्र नेता हैं, जो सर्वज्ञानी, सर्वसक्षम हैं बाकी सारे नकारा व नाकाबिल। यह अधिनायकवादी प्रवृत्ति है। यह अधिनायकवाद पूंजीपति वर्ग के अलग-अलग धड़ों के अंतर्विरोध को कुचलने व समग्र नीति को लम्पट एकाधिकारी पूंजी के हिसाब से ढालने के लिए बेहद जरूरी है।

           चुनाव आयोग को देखेंगे तो यहां भी नजारा ऐसा ही दिखेगा। एन्टी सेटेलाइट टेस्ट के मसले पर राष्ट्र को संबोधन के जरिये प्रचार करने पर चुनाव आयोग को कोई आपत्ति नहीं। चुनाव की डेट तब घोषित की जाती है जब ठीक उससे पहले मोदी प्रचार कर चुके हों। इसी प्रकार यह भी कहा जा रहा है कि चुनाव की तारीखें व एक ही राज्य में कई चरणों में चुनाव भी भाजपा को लाभ पहुंचाने की गरज से किया गया है। इसी तरह विपक्षी पार्टियों के कोर्ट में रिट दायर करने के बाद यह सुझाव कि वी वी.पी.ए.टी. और ई.वी.एम. के 50 प्रतिशत का मिलान किया जाय। इस पर भी चुनाव आयोग असहमत है। यह भी कुछ न्यूज पोर्टल (द वायर) के माध्यम से दावा किया गया है कि देश के 12 करोड़ मतदाताओं का नाम मतदाता लिस्ट से गायब है। इतनी बड़ी तादाद में मतदाताओं का नाम गायब होना या न होने का फायदा किस पार्टी को होगा यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

     कुल मिलाकर आज देखें तो पाएंगे कि हर जगह हिन्दू फासीवादी तत्वों की घुसपैठ हो चुकी है। राष्ट्रीय जांच एजेंसी, सी.बी.आई., आर्मी, न्यायालय, शिक्षण संस्थाएं आदि-आदि हर जगह ये काबिज हो चुके हैं। यदि चुनाव में ये हार भी जाते हैं, यहां तक कि इनकी सरकार यदि नहीं भी बनती तब भी भले ही इनकी आक्रामकता कुछ कमजोर हो जाये मगर फासीवादी आंदोलन की जो उपस्थिति व प्रभाव इन संस्थाओं में कायम हुआ है वह कमजोर नहीं होने वाला। वक्त बे वक्त यह फिर यहीं से आगे बढे़गा। क्यांकि इसको चुनौती देने व पीछे धकेलने की ऊर्जा व क्षमता सिर्फ क्रांतिकारी आंदोलन में निहित है। 

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