शिक्षा के मौजूदा हालात
मोदी-भाजपा सरकार के बीते पांच साल शिक्षा के लिहाज से बेहद बुरे रहे हैं। शिक्षण संस्थानों में बेहद सीमित जनवाद को भी खत्म करने, शिक्षा का भगवाकरण करने, संघी लम्पटों की गुंड़ागर्दी, आदि बातों को यदि कुछ समय के लिए भुला भी दिया जाए और सिर्फ शिक्षा पर सरकार के बजट व उसकी नीति की ही बात की जाए तो भी स्थिति बेहद निराशाजनक है। मोदी सरकार द्वारा भी उन्हीं शिक्षा विरोधी नीतियों को आगे बढ़ाया गया जिन्हें कांग्रेस ने लागू किया था। शिक्षा में बजट कटौती और निजी शिक्षण संस्थानों को लाभ पहुंचाने में मोदी सरकार ने बेशर्मी की सारी हदें पार कर दी।
2015-16 में शिक्षा बजट में 17 फीसदी तक की कटौती कर दी गयी। 2017-18 में शिक्षा बजट में बढ़ोत्तरी की घोषणा की गयी किन्तु यह बढ़ोत्तरी आभासी और आंकड़ों की बाजीगरी ही अधिक थी। हकीकत में यह पिछले वर्ष के जीडीपी खर्च से कम थी। 2016-17 में जीडीपी के सन्दर्भ में शिक्षा पर खर्च 0.48 फीसदी था। जो 2017-18 में घटकर 0.47 फीसदी रह गया। शिक्षा बजट की पिछले लम्बे समय से यही तस्वीर है। (देखें तालिका)
2015-16 में मोदी सरकार द्वारा शिक्षा के हर क्षेत्र में खर्च में भारी कटौती की गयी। स्कूली शिक्षा में लगभग 13,000 करोड़ रूपये और उच्च शिक्षा में 800 करोड़ की कटौती की गयी। सर्व शिक्षा अभियान में 28,635 करोड़ की कटौती की गयी। मौजूदा समय में इस मद में मात्र 22,000 करोड़ खर्च किया जा रहा है। बाल शिक्षा और स्वास्थ्य की मद में 81,074 करोड़ रूपये से घटकर 2015-16 में 57,919 करोड़ रुपये कर दिया गया। समेकित बाल विकास की राशि को 18,000 करोड़ से घटाकर 800 करोड़ कर दिया गया। मिड डे मील की योजना को इतने जोर-शोर से लागू किया गया था किन्तु साल दर साल इस पर बजट सरकारें कम ही करती गयीं। मिड डे मील में भी मोदी सरकार द्वारा 13,000 करोड़ की राशि को घटाकर 9,000 करोड़ कर दिया।
सबका साथ सबका विकास का नारा उछालने वाली मोदी सरकार की जमीनी हकीकत यह है कि वह दलित छात्र-छात्राओं के लिए आवंटित राशि को लगातार कम करती गयी। अनुसूचित जाति के छात्रों को मिलने वाली प्री मैट्रिक स्कालरशिप में 2017-18 में 500 करोड़ रूपये की कटौती कर दी गयी। मौजूदा समय में इस मद में महज 50 करोड़ रूपये की ही छात्रवृति दी जा रही है। साथ ही इस वर्ष सर्वशिक्षा अभियान, शिक्षक प्रशिक्षण, मिड डे मील आदि मदों में भी कटौती बदस्तूर जारी रही। दलित छात्राओं के लिए छात्रावासों के लिए महज 15 करोड़ रुपये का प्रावधान रखा गया है। गौरतलब है कि दलित छात्राओं के लिए बने 2,225 छात्रावासों में से महज 802 छात्रावास ही मौजूदा समय में संचालित किये जा रहे हैं। बेहद मामूली फंड का आंवटन इसकी मुख्य वजह है। मोदी सरकार का ‘बेटी पढाओ बेटी बचाओ’ का नारा इन तथ्यों को देखते हुए कितना बेमानी व पाखंड से भरा लगता है।
मोदी सरकार द्वारा अलग अलग तरीकों से शिक्षा में खर्च को कम करके गरीबों को मिलने वाली शिक्षा को उनसे छीना है। अभिभावकों को प्राइवेट स्कूलों में लुटने के लिए भी छोड़ दिया है। बेहतर शिक्षा के लिए अभिभावक प्राइवेट स्कूलों में ऊंची फीसें चुका रहे हैं। एक शोध के अनुसार भारत में माता-पिता अपने बच्चे को बेहतर से बेहतर तालीम देने के लिए प्रतिवर्ष लगभग 50 अरब डालर खर्च कर रहे हैं। बेहतर शिक्षा की तलाश में खर्च किया गया यह पैसा प्राइवेट कालेजों और कोचिंग सेन्टरों के मालिकों की जेबों में पहुंच रहा है। सिर्फ आईआईटी की कोचिंग देने वाले प्रमुख कोचिंग सेन्टरों की संख्या पिछले 30 सालों में 300 गुना बढ़ चुकी है। हमारे मां-बाप की जेबों में यह डाका सरकारों के संरक्षण से खुलेआम डाला जा रहा है।
मोदी सरकार द्वारा शिक्षा की गुणवत्ता पर भी तीखा हमला किया गया। धार्मिक, कूपमंडूक व साम्प्रदायिक मूल्य तो शिक्षा में भरे ही गये हैं। विज्ञान व तार्किकता पर भी हमला किया गया। पिछली विज्ञान कांग्रेस का हाल देखा जा सकता है। यहां गौमूत्र, श्लोक आदि पर शोध भी करवाये जा रहे हैं। किन्तु अन्य शोधों के लिए शोध विद्यार्थियों की संख्या घटाई जा रही है। उनकी छात्रवृति में भारी कटौती की जा रही है। जब शिक्षकों के प्रशिक्षण खर्च को घटा दिया जायेगा और शोध कार्यों को बाधित किया जायेगा तो कैसे शिक्षा की गुणवता को बढ़ाया जा सकता है। हां! गौमूत्र के लाभों पर शोध करने से भारत जरूर भाजपा वाला ‘विश्व गुरू’ बन सकता है।
शिक्षा की इस दुर्दशा की पटकथा कांग्रेस काल में बहुत पहले ही लिख दी गयी थी। 2000 में अटल बिहारी वाजपेई की सरकार में अम्बानी-बिड़ला रिपोर्ट आयी, जिसमें शिक्षा के आज के भविष्य को तय कर दिया गया। हालांकि इस रिपोर्ट को कभी संसद में पास नहीं किया गया। किन्तु इस रिपोर्ट के अनुसार ही भारतीय शिक्षा व्यवस्था को तेजी से ढाला गया। इस रिपोर्ट में साफ था की सरकारी उच्च शिक्षा को बर्बाद किया जाये, यहां फीसें बढ़ाई जायें, सेल्फ फाइनेंश कोर्स अधिक से अधिक खोले जायें, विश्वविद्यालय अपने खर्चे खुद जुटायें, वे आत्मनिर्भर बनें आदि,आदि। कुल मिलाकर शिक्षा को विशुद्ध मुनाफे की वस्तु बना दिया जाये। निजी पूंजीपति को यहां करोबार करने, लूट खसोट मचाने की छूट दी जाये। आज लवली, शारदा जैसे चमचमाते फाइव स्टार विश्वविद्यालय, लाखों की फीस वसूलते आईआईटी, मेडिकल कालेज और खस्ताहाल पड़ी सरकारी शिक्षा हमारे सामने है। जहां साफ पानी, शिक्षकों, फर्नीचरों आदि मामूली चीजों की भी किल्लत बनी हुई है। इन बेहद मामूली चीजों के लिए भी छात्रों को संघर्ष करना पड़ रहा है और कई दफा तो पुलिस की लाठी भी खानी पड़ रही है।
फिर कांग्रेस काल में प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप (पीपीपी) की बात हुई। और सरकारी स्कूल बेच दिये गये। 12वीं पंचवर्षीय योजना ने तो शिक्षा के निजीकरण को नये मुकाम पर पहुंचा दिया। इसकी सिफारिशों ने शिक्षा के निजीकरण के आगे की परियोजना को खोल कर रख दिया।
मोदी सरकार में इसी परियोजना को आगे बढ़ाया जा रहा है वो भी सारी लाज शर्म छोड़कर। जियो यूनिवर्सिटी को उत्कृष्ट विश्वविद्यालय की मान्यता देना जैसा हास्यास्पद काम मोदी सरकार में ही किया गया। यह एक मात्र घटना ही बता देती है कि मोदी सरकार शिक्षा को पूंजीपतियों के मुनाफे की वस्तु बनाने को कितनी आतुर हैं। यह तो विश्वविद्यालय खुलने का इंतजार करने तक को तैयार नहीं है। पहले ही उसे उत्कृष्टता का प्रमाण पत्र दे दे रही है। ताकि विश्वविद्यालय खुले जनता के पैसे से, यहां पढ़े अमीरों के बच्चे और मुनाफा कमायें अम्बानी जी! वाह री मोदी सरकार!
(लेख में सभी तथ्य फिलहाल पुस्तक श्रृंखला से लिये गये हैं।)
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