रविवार, 1 दिसंबर 2019

चुनाव जीतने के लिए युद्धोन्माद व 
राष्ट्रवाद का सहारा


दो बच्चे आपस में अपनी-अपनी शिकायत लेकर अपने मां-बाप के पास जाते हैं। वे अपनी बात इस ढंग से बताते हैं कि मैंने कुछ नहीं किया, उसने मुझे मारा-पीटा या परेशान किया। दूसरा बच्चा भी इसी तरह से अपनी बात बताता है। इस पर मां-बाप की प्रतिक्रिया अलग-अलग होती है। अक्सर मां-बाप अपने बच्चे की पीड़ा देखकर पड़ोसी के बच्चे के बहाने पूरे परिवार से भिड़ जाते हैं। अब ये बच्चों की लड़ाई दो परिवारों की लड़ाई हो जाती है। पर कुछ घंटों या दिनों के बाद बच्चे अपनी दोस्ती फिर कायम कर लेते हैं पर मां-बाप समझदार होते हैं, सब याद रखते हैं और पड़ोसियों की दुश्मनी ज्यादा पक्की हो जाती है।


कुछ मां-बाप बच्चों की इस लड़ाई में बच्चे की मासूमियत के पीछे अपने बच्चे की चालबाजी, बदमाशी या शैतानी के होने का एहसास रखते हैं। वे अपने बच्चे के प्रति सहानुभूति दिखाते हैं। पड़ोसी के बच्चे को बुरा-भला कहकर अपने बच्चे को शांत कर देते हैं। बच्चा अपनी कुछ छोटी-मोटी फरमाइश करता है और उसे पाकर कुछ देर घर पर ही रहता है। पर खिलौनों से मन ऊबने पर फिर से उसी बच्चे के साथ खेलने चला जाता है। 

कुछ मामलों में मां-बाप घटना सुनने के बाद अपने बच्चे को ही पीटते हैं। वे अपने बच्चे के शैतान चरित्र से इतने प्रभावित होते हैं कि उन्हें लगता है थोड़ा ठोक-पीट दें तो कुछ समय के लिए ठीक हो जाएगा। बच्चा पिटने के बाद थोड़ा रोता-सुबकता है और अफसोस मनाता है कि क्यों शिकायत लेकर गया। फिर अपने दोस्त के पास खेलने चला जाता है।

ये घटनाएं बच्चों के किशोर होने तक कम या ज्यादा घटती रहती हैं। इस सबके बीच बच्चों की दोस्ती कायम रहती है, बढ़ती और बदलती रहती है, कई बार यह दोस्ती जीवन भर तक रहती है।

इन घटनाओं में एक बात समान होती है कि मां-बाप समझते हैं कि ‘बच्चे हैं’। असल में बच्चे ही समझदारी दिखाते हैं। वे इस बहाने अपनी कोई छोटी-मोटी फरमाइश पूरी करवा लेते हैं और मां-बाप को भी लगता है कि चलो इस खिलौने से बच्चा कुछ दिन घर पर रहेगा झगड़ा नहीं होगा। कई बार बच्चे एकाउंट सेटल करवा लेते हैं। पड़ोसी बच्चा पिटा नहीं कि उसे चिढ़ाने लगते हैं ‘अब आया मजा’। कुछ मामलों में पड़ोसियों की ‘प्रोक्सी वॉर’ का आनन्द भी लेते हैं, बच्चे। ‘इंसाफ’ की डगर पर चलने वाले ये बच्चे ही कल के ‘नेता’ होंगे। 

ऐसा ही एक ‘बच्चा’ आज देश का प्रधानमंत्री है। लेकिन बच्चा प्रधानमंत्री हो जाता है तो वह मां-बाप (देश की जनता) को पूरी तरह से कंट्रोल करता है। वह तय करता है कि मां-बाप को किस मोड वाले झगड़े में डालना है। इसमें बच्चे के पिटने वाले चित्र के बारे में वह काफी सचेत होता है और पूरी कोशिश होती है कि यह चित्र न आये। मां-बाप पगलायी सी हालत में अपने बच्चे के दुःखी मन को शांत करने के लिए पड़ोसी के बच्चे और पूरे परिवार को नेस्तानाबूत करने की कसमें खाते हैं। गालियां बकते हैं। लाठी-डंडे चलाते हैं। देश के पास हथियार और सेना भी होती है, अतः उसका भी उपयोग किया जाता है। अगर किसी अपने ही परिवार वाले ने थोड़ी समझदारी की बात कह दी कि ‘चलो बच्चे हैं ऐसा होता रहता है’ तो उस पर भी पिल पड़ते हैं। देश के बारे में यह बयान ऐसा होता है कि ‘ये सब राजनीतिक गेम है’। तो उसको भी उतनी ही गालियां सुननी पड़ती हैं, धमकियां सुननी पड़ती हैं। पाकिस्तान भेजने की धमकी दी जाती है। इसका मतलब है कि पहले तुम्हें पाकिस्तान भेजेंगे फिर हमला करेंगे। उसे तो निपटायेंगे ही तुम भी निपटाये जाओगे। 

यह उन्माद कुछ समय कायम रहता है बच्चे की फरमाइश सामने आती है। देश में पिछले फरवरी माह से कायम उन्माद के माहौल के बाद फरमाइश सबके सामने है। हमारे देश के बच्चे ने (नरेन्द्र मोदी) फिर से प्रधानमंत्री की कुर्सी मांगी है। मानना पड़ेगा कि यह बच्चा बहुत ही चालाक, धूर्त और मक्कार है। खैर, कुल जमा परिणाम ये होना है कि कुर्सी मिली तो भी वह पड़ोसी के बच्चे के साथ वैसे ही हंसता-खेलता रहेगा, नहीं मिली तो बार-बार आपको पड़ोसी से झगड़ा करने के लिए उकसायेगा, क्योंकि उसे उम्मीद है कि तब ही उसकी फरमाइश पूरी होगी। 

बच्चों की बातें देश की राजनीति को समझने की कोशिश के लिए थी। आगे लेख में, बच्चों के इस झगड़े के सब राजनीतिक चरित्रों का ही नाम प्रयोग किया जायेगा। 

थोड़ा सा बात हमारे पूर्वाग्रहों की कर लेते हैं जो कि हमारे देश में कई सारे लोगों के दिमाग में पाकिस्तान या मुस्लिमों के प्रति बना दिये गये हैं। देश की आजादी के साथ ही इसका साम्प्रदायिक आधार पर बंटवारा हुआ। साम्प्रदायिक आधार पर बंटवारा और हिंसा करवाने वाली शक्तियों में से कुछ जो आज भारत में हैं, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, हिन्दू महासभा। (आज न सिर्फ ये मौजूद हैं बल्कि इनकी सैकड़ों अन्य संस्थायें भी मौजूद हैं। इनका ही चुनावी राजनीतिक मंच है, भारतीय जनता पार्टी।) इन्होंने देश में लगातार इस बात को बताया कि मुस्लिम बुरे हैं, पाकिस्तान बुरा है। इसमें भारतीय राजसत्ता हमेशा इनके साथ ही थी। वह खुद पाकिस्तान या मुस्लिमों के प्रति कोई बेहतर ताल्लुक नहीं रखती थी या नहीं रखना चाहती थी। पाकिस्तान से विवाद जगजाहिर है ही मुस्लिमों की स्थिति सच्चर कमेटी ने बतायी ही। आज ‘बुरा’ वाली बात ‘दुश्मन’ तक पहुंचा दी गयी है। पिछले कई दशकों से इसमें यही इजाफा हुआ है। पूरे देश को इस पूर्वाग्रह में रखा गया है और वह ऐसे ही सोचता और प्रतिक्रिया करता है। यदि लोग इसमें कुछ मानवीय, सम्प्रभुता या शांति, आदि जैसे राजनीतिक विचार से सोचने की कोशिश करते हैं तो फिर किसी धुंआधार प्रचार से उन विचारों को कुचलने का काम जोरों से होता है। देश की अधिकांश जनता को सबसे पहले इन्हीं पूर्वाग्रहों से लड़ने की जरूरत है। जरूरत देश की राजसत्ता और उसकी राजनीति को समझने की है। यह समझने की है कि जिस देश के शासक अपनी जनता की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने की जगह उसका दमन करते हैं, लाठी-गोली चलाते हैं वे किसी भी मामले में सही नहीं हो सकते।

अब तात्कालिक घटना पर आ जाते हैं। 14 फरवरी को कश्मीर के पुलवामा में अर्द्धसैनिक बलों को लेकर आ रहे गाड़ियों के एक काफिले पर हमला हुआ, 40-44 जवान मारे गये। हमले की जिम्मेदारी जैश-ए-मोहम्मद नामक आतंकी संगठन ने ली। फिर शुरू हुआ जनता को उकसाने का काम। सोशल मीडिया में आई.टी.सेल से निकले भड़काऊ मैसेज तैरने लगे। इलेक्ट्रोनिक व प्रिंट मीडिया में युद्ध के उत्तेजक चित्रण होने लगे। अंजाम क्या होगा इसकी बातें होने लगी। (अंजाम की बात हमेशा पाकिस्तान के बारे में होती थी, युद्ध के बारे में नहीं। मानो हमारी तरफ से युद्ध हवा, पानी, बादल लड़ते।) इसकी भाषा अक्सर भद्दी गाली-गलौज से भरी, युद्धोन्माद पैदा करने वाली और घृणा पैदा करने वाली थी। 

नतीजा यह हुआ कि देश भर में पढ़ रहे या मेहनत-मजदूरी कर रहे कश्मीरी मार-मार कर भगाये जाने लगे। खुद उनके अपने राज्य के हिन्दू बहुल इलाके जम्मू में कश्मीरियों की गाड़ियां जलायी गयीं, कश्मीरी पीटे गये। और ‘देशभक्ति’ का नंगा तांडव शुरू हुआ। पढ़ने वाले छात्र जान की सलामती के लिए जो कुछ जरूरी सामान था उसे बांधकर भागे। कामकाजी कश्मीरी कहीं पिटे तब भागे, कहीं बिना पिटे ही भागे। कहीं-कहीं कुछ जिन्दा लोगों ने समझदारी दिखायी और मारने वालों को रोका, कश्मीरियों को बचाया और ‘देशद्रोही’ होने का सबूत भी पेश किया। 

इस सब के बीच प्रधानमंत्री लगातार सभायें करते रहे सबक सिखाने की बातें करते रहे। (चुनावी मौसम में सभायें बहुत जरूरी होती हैं इससे ही जनता को रिझाया जाता है, अपनी इच्छा जाहिर की जाती है। अपनी मांगें मानने के लिए जनता को तैयार किया जाता है। अतः यह जरूरी काम हमारे देश का ‘बच्चा’ बहुत चतुराई से करता रहा।) जब देशभक्ति का इतना तांडव देश के भीतर हो गया तो सबक सिखाने के लिए ‘एयर स्ट्राइक’ कर दी गयी। इस पर पाकिस्तान की सेना व सरकार की प्रतिक्रिया थी, कुछ नहीं हुआ। (जैसे शैतानी करता बच्चा ऐसे में चिंगुटी काटे तो दूसरा कहता है कि कुछ नहीं हुआ।) अभी तक ज्ञात जानकारी के अनुसार बात कुछ-कुछ ऐसी ही जान पड़ती है कि कुछ नहीं हुआ। 

पर हमारे देश के प्रधानमंत्री से लेकर, मीडिया, सोशल मीडिया सबने आतंकियों की लाशों के आंकड़े बताने शुरू कर दिये। युद्धोन्माद और अंधराष्ट्रवाद के खेल में जनता को बढ़त मिलने का एहसास कराया गया। जनता को दर्शक दीर्घा में बैठे-बैठे और अंधराष्ट्रवाद की जय, युद्धोन्माद की जय करने के लिए प्रेरित किया गया। मीडिया इसकी लगातार कवरेज करता रहा। ऐसा नहीं है कि इस दौरान लोगों ने इस खतरनाक खेल को रोकने की बातें नहीं कहीं। लेकिन उसको दिखाते समय उसके खिलाफ अंधराष्ट्रवाद का शोर गुल इतना अधिक दिखाया गया कि वह आवाज सुनायी ही नहीं दी, उसके चित्र धुंधले से दिखे। 

अभी यह सब चल ही रहा था कि चिंगुटी कटने से हुए स्वाभिमान और संप्रभुता के नुकसान की भरपायी करने के लिए पाकिस्तान ने भी हमला कर दिया। हमारी सेना का एक जहाज गिर गया, एक सैनिक पाकिस्तान में पहुंच गया। हालांकि पाकिस्तान ज्यादा नुकसान करने का दावा करता रहा। जैसा दावा पहले भारत की सरकार या मीडिया संस्थान कर रहे थे। 

अंधराष्ट्रवाद के विषवृक्ष को और खाद-पानी-हवा मिली। अंधराष्ट्रवाद फलता-फूलता गया। हमने ज्यादा मारा, हमने ज्यादा नुकसान किया, आदि-आदि दावे किये जाते रहे। बस हमारा सैनिक वापस कर दो वरना तुम्हारी खैर नहीं। हमारा प्रधानमंत्री बहुत खतरनाक है तुम्हारी हालत खराब कर देगा। दुनियाभर में तुम्हारी थू-थू होगी। तुम्हें नेस्तनाबूत कर देगा। ऐसी बातें अंधराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद को जिन्दा रखने के लिए होती रही।

खैर, पाकिस्तान की सरकार, सेना जिसने जो भी फैसला लिया हमारा सैनिक दो दिन के अन्दर वापस लौट आया। इस पूरे मामले में दुनिया भर में हमारे प्रधानमंत्री की जो भी छवि गयी हो पर पाकिस्तान का प्रधानमंत्री ज्यादा नपा-तुला बोला। उनके अपने देश में अर्थव्यवस्था के संकट जैसे कुछ जरूरी मसले उलझे हुए हैं। उन्होंने सोचा इस झंझट से जितनी जल्दी हो मुक्ति मिले, इनका क्या है? इन्हें (मोदी को) तो फिर से प्रधानमंत्री बनने की ही तैयारी करनी है। हमें तो अपने देश की अर्थव्यवस्था और अपनी कुर्सी बचानी है। खैर मामला इतने से हाल-फिलहाल के लिए तो शांत हो गया पर जनता के बीच में अंधराष्ट्रवाद का जहर आज भी बाकायदा डाला जा रहा है। खुद ही अपनी वाहवाही, शाबाशी की जा रही है।

देश में चुनाव चल रहे हैं। प्रधानमंत्री तो चुनावी रैलियों में तब भी व्यस्त थे जब सैनिक मारे गये थे और आज भी रैलियां कर रहे हैं। उनके सीने का साइज इतनी बार दोहराया गया कि आज बच्चा-बच्चा जानता है कि उनके सीने का बताया गया साइज 56 इंच है। किसी ने उनके कपड़े सिलने वाले दर्जी से पता नहीं किया। खैर, साइज जो भी हो मरने वाले सैनिकों के चर्चे, हवाई हमला करने वाले वायु सेना के सैनिकों के चर्चे तक नहीं हो रहे हैं। 

सारी प्रशंसा प्रधानमंत्री की, मोदी की। किया क्या? कुछ नहीं। लेकिन प्रचार क्या? प्रधानमंत्री बड़ा बहादुर है। और सैनिकों के नाम पर वोट मांग रहा है, प्रधानमंत्री। या ज्यादा सही कहें तो मारे गये सैनिकों के नाम पर वोट मांग रहा है, प्रधानमंत्री। 

पूरे देश को ‘मोदी-मोदी’ की धुन पर नाचता हुआ दिखाने की कोशिश की जा रही है। जनता से यह मांग की जा रही है कि वह मजबूत सरकार चुने। वह सेना को मजबूत करने वाली सरकार चुने। सेना के राफेल और अन्य युद्ध सामग्री खरीदने वाली सरकार चुने। चुनाव में अन्य मांगें और चुनावी अपीलें भी हैं पर युद्धोन्माद और अंधराष्ट्रवाद के इर्द-गिर्द इसी तरह की मांगें हो रही हैं।

अंधराष्ट्रवाद के इस हो-हल्ले के बीच मेहनतकश जनता की बातें-मुद्दे छुपा दिये गये हैं। मजदूरों, किसानों, बेरोजगारों, अन्य मेहनतकशों के आर्थिक-सामाजिक मुद्दे इसमें गायब कर दिये गये हैं। सिर्फ और सिर्फ युद्ध या अंधराष्ट्रवादी राष्ट्रवाद की बातें हो रही हैं। ऐसी परिस्थितियों में फैलाया जाने वाला युद्धोन्माद जनता की आर्थिक हालत और अधिक खराब करेगा। वह शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, किसान, मजदूर के हिस्से के बजट को और कम करने की ओर ले जायेगा। खस्ताहाल जनता युद्ध-युद्ध के शोर में कोरस करे तो शासकों को और क्या चाहिये। युद्ध-युद्ध के कोरस से शासकों को कोई खौफ नहीं है।

युद्ध के कोरस से शासकों को तब खौफ होता है जब जनता युद्ध; लूट-शोषण के खिलाफ करने के लिए खड़ी होती है। तब शासक सेना को अपनी ही जनता के खिलाफ युद्ध का आदेश देते हैं। पर यह ऐसा युद्ध होता है जिसमें सेना को भी अंततः अपना पक्ष चुनना होता है। दुनियाभर की क्रांतियां सेना के बगावत कर जनता के पक्ष में खड़े हो जाने की गवाह रही हैं। सबसे बढ़कर अक्टूबर समाजवादी क्रांति में सेना ने लुटेरे पूंजीपतियों के खिलाफ जनता का पक्ष चुना था। लेकिन ऐसे निर्णायक युद्ध से पहले बाधा के तौर पर शासक अंधराष्ट्रवाद के जरिये इसे रोकना चाहते हैं। 

अंधराष्ट्रवाद के इन काले बादलों को पार कर मानव मुक्ति, समानता के लिए होने वाले युद्ध के लिए हमें एकजुट होने की जरूरत है। यह युद्ध तमाम समस्याओं के साथ शासकों के झूठे दम्भ, लालच, घृणा के लिए होने वाले युद्धों का भी अन्त करेगा। आओ! ऐसे युद्ध के लिए खुद तैयार हों और बाकि समाज को भी तैयार करें।

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