रविवार, 1 दिसंबर 2019

भयावह होती बेरोजगारी


इस समय हमारे देश में बेरोजगारी की समस्या काफी भयावह है। बेरोजगारी का आलम यह है कि पिछले 45 वर्षों में यह सबसे खराब स्थिति में है। कोई भी रोजगार पाने की संभावना को न देखते हुए बड़ी संख्या में बेरोजगारों ने नौकरी ढूढंना ही बंद कर दिया है। यह उनकी चरम निराशा को दिखाता है। 

नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस(एन.एस.एस.ओ) के पीरिओडिक लेबर फोर्स सर्वे(पीएलएफएस) के अनुसार वर्ष 2017-18 में बेरोजगारी की दर 6.1 प्रतिशत रही, जो 45 वर्ष पूर्व (1972-73) के बाद सर्वोच्च शिखर पर है। हालांकि सरकारी आंकडे़ बेरोजगारी की पूर्ण व वास्तविक तस्वीर कभी नहीं पेश कर पाते। लेकिन उसके बाद भी यह भयावहता का आंकलन करने में मदद करते हैं। 6.1 प्रतिशत की यह दर बहुत ज्यादा प्रतीत न हो लेकिन अगर इसकी तुलना 2011-12 की दर 2.2 प्रतिशत से करें तो बात बिल्कुल अलग हो जाती है। 


यद्यपि सर्वे का काम जून 2018 में ही पूरा हो गया था। सरकार अगर चाहती तो 2018 के अंत में इसे जारी कर सकती थी। लेकिन 56 इंच की सरकार में सच को स्वीकार करने का दम होता तो वह ऐसा करती। मौजूदा लोकसभा चुनाव को देखते हुए मोदी सरकार ने इस रिपोर्ट को दबा दिया। मोदी सरकार ने सच को स्वीकार न करने तथा रिपोर्ट को जारी न करने में ही अपनी भलाई देखी। लेकिन मोदी सरकार के रिपोर्ट को दबा देने के बाद भी यह रिपोर्ट ‘बिजनेस स्टैडंर्ड’ अखबार ने प्रकाशित कर दी। बाद में लीपापोती करने के एवज में सरकार ने कहा कि ‘एनएसएसओ की यह रिपोर्ट अंतिम नहीं है’। ‘यह एक मसौदा रिपोर्ट है’। और सच यह है कि आज तक फाइनल रिपोर्ट जारी ही नहीं की। 

एनएसएसओ की यह ‘‘रिपोर्ट’’ क्या कहती है?

रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2017-18 की बेरोजगारी दर (6.1 प्रतिशत) 1972-73 के बाद सबसे ज्यादा है। शहरी इलाकों में बेरोजगारी की दर 7.8 प्रतिशत है जबकि ग्रामीण इलाकों में 5.3 प्रतिशत है। 15 से 29 आयु वर्ग के शहरी पुरुषों के मध्य बेरोजगारी की यह दर 18.7 प्रतिशत है। यह दर 2011-12 में 8.1 प्रतिशत थी। 2017-18 में शहरी महिलाओं में बेरोजगारी दर 17.2 प्रतिशत है जो वर्ष 2011-12 में 13.1 प्रतिशत थी। ग्रामीण पुरुषों व महिलाओं में बेरोजगारी की दर क्रमशः 17.4 प्रतिशत व 13.6 प्रतिशत है, जो कि वर्ष 2011-12 में क्रमशः 5 प्रतिशत व 4.8 प्रतिशत थी।


पिछले लोक सभा चुनाव में प्रतिवर्ष 2 करोड़ लोगों को रोजगार देने की बात करने वाली मोदी सरकार को यह रिपोर्ट आईना दिखाने वाली है। रोजगार देना तो दूर की बात रही पिछले 5 वर्ष में मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों व नोटबंदी तथा बिना पूर्व तैयारी के जीएसटी को लागू करने के तुगलकी फरमानों ने लाखों लोगों को बेरोजगार बना दिया। सत्ता के अभिमान में चूर और अपनी ओर उठने वाली हर आवाज से बौखलाने वाली मोदी सरकार बेरोजगार युवाओं का मजाक उड़ाने में शर्म महसूस नहीं करती। अपने भाषणों में भारत को युवाओं का देश कहने वाले मोदी व मोदी सरकार जनता व युवाआें के प्रति जरा भी जिम्मेदार होते तो उनका मजाक उड़ाते हुए उन्हें पकौड़ा बेचने की सलाह न देते। नौजवानों में बेरोजगारी की दर सर्वाधिक है। हर 5 में से 1 नौजवान बेरोजगार घूम रहा है। 

सरकार द्वारा लागू की जा रही नीतियों के प्रति सरकार की जिम्मेदारी बनती है। खासतौर पर जब युवाओं और काम करने योग्य आबादी से ये नीतियां संबंध रखती हैं। यह जिम्मेदारी तब और भी बढ़ जाती है जब यह आम जन के सामाजिक श्रम या समाज के प्रति उनके योगदान से जुड़ी हो। बेरोजगारी आम जन को समाज के प्रति योगदान करने से रोकती है। बेरोजगारी श्रम के हाथ, मस्तिस्क व सृजनशक्ति का अपव्यय करती है। परंतु पूंजीवादी शासक इसी अमानवीयता के लिए जाने जाते हैं। चंद सेठों के लिए, उनकी दौलत बढ़ाने के लिए वे लाखों-करोड़ों हाथों से रोजगार छीन लेते हैं। इस तरह ये हाथ, ये मस्तिस्क, ये सृजनशक्ति जो निर्माण करने की क्षमता रखती है, उससे पूरे समाज को ही मरहूम कर दिया जाता है। मोदी के रोजगार, युवाओं के प्रति किये गये तमाम जुमलों के बाद मोदी राज में भी यही चीज न सिर्फ जारी रही बल्कि और भीषण रूप में प्रकट हो रही है। युवाओं, बेरोजगारों के प्रति घोर गैर जिम्मेदारी का परिचय देते हुए मोदी ने बेरोजगारी के आंकड़ों को छुपाने की कोशिश की। मोदी सरकार की इस गैर जिम्मेदारी से क्षुब्ध होकर राष्ट्रीय सांख्यिकीय आयोग (एनएससी) के कार्यवाहक अध्यक्ष पी.सी. मोहनन व आयोग की ही सदस्य जे.बी. मीनाक्षी ने इस्तीफा दे दिया। पी.सी. मोहनन वरिष्ठ सांख्यिकीयविद और जे.बी मीनाक्षी दिल्ली स्कुल ऑफ इकोनॉमिक्स में प्रोफेसर हैं। दोनों को जून 2017 में तीन वर्ष के लिए एनएससी का सदस्य नियुक्त किया गया था। इनका कार्यकाल जून 2020 तक था। 


एनएसएसओ पहले 5 साल में 1 बार रोजगार या बेरोजगारी का सर्वे करता था। पिछला सर्वे वर्ष 2011-12 में हुआ था। इस अनुसार अगला सर्वे वर्ष 2016-17 में होना था। मगर मोदी सरकार ने यह सर्वे नहीं कराया। फिर एनएससी ने सालाना सर्वे (जुलाई 2017- जून 2018) कराने का फैसला लिया। जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच कराये गये एनएसएसओ के पहले सालाना सर्वे में नोटबंदी से पहले और बाद के आंकडे़ भी शामिल किये गये। ये आंकड़े सरकार की किरकिरी कराने वाले होने के चलते सरकार इनको जारी करने से हिचकती रही। इस्तीफा देने वाले एनएससी के कार्यवाहक अध्यक्ष मोहनन ने कहा कि ‘‘एनएसएसओ अपने नतीजों को एनएससी के सामने रखता है। यह एक सामान्य परंपरा है। आयोग से अनुमोदन मिलने के बाद रिपोर्ट अगले कुछ दिनों में जारी कर दी जाती है। आयोग ने एनएसएसओ के बेरोजगारी के आंकड़ों को 1 दिसंबर 2018 में ही मंजूरी दे दी थी। तब से 2 माह बीत जाने के बाद भी रिपोर्ट अब तक सार्वजनिक नहीं की गयी।’’ मोहनन के मुताबिक ‘‘उन्होंने ये नोटिस किया कि सरकार एनएससी के काम को गंभीरता से नहीं ले रही है। बड़े फैसले लेते समय भी एनएससी को अंधेरे में रखा गया। हम असरदार ढंग से अपनी जिम्मेदारी का पालन नहीं कर पा रहे थे।’’ 3 वर्ष पूर्व सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) आधारित डेटा को अंतिम रूप देने में भी नीति आयोग ने सांख्यिकीय आयोग (एनएससी) को किनारे कर दिया था। तब से इस आयोग के वजूद पर ही प्रश्न चिन्ह लगने लगे थे। गौर करने की बात है कि जिस आयोग को सरकार ने डेटा की नीतियां बनाने और उनकी निगरानी करने के लिए ही गठित किया हो, मोदी सरकार में उनको कोई पूछने वाला नहीं बचा। मोदी सरकार द्वारा विभिन्न विभागों, मंत्रालयों, संस्थाओं को प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) से संचालित करने, उन पर तानाशाही थोपने, उनको अधिकारविहीन कर पंगु बनाने, उनकी स्वायत्ता का हरण करने का यह एक नया उदाहरण है। 

एनएसएसओ की यह रिपोर्ट ही मोदी सरकार को रोजगार के मुददे पर आईना दिखाने का काम नहीं कर रही है। मार्च 2019 में सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) द्वारा जारी आंकडे़ भी मोदी सरकार की पोल खोलने वाले हैं। निजी संस्था सीएमआईई के अनुसार बेरोजगारी दर वर्ष 2016 के बाद से अब तक रिकार्ड स्तर पर पहुंच गयी है। सीएमआईई द्वारा जारी आंकड़ों में कहा गया है कि फरवरी 2019 के दौरान देश में बेरोजगारी दर 7.2 प्रतिशत पहुंच गयी है। यह सितंबर 2016 के बाद अब तक का रिकार्ड स्तर है। फरवरी 2018 में बेरोजगारी दर 5.9 प्रतिशत थी तो फरवरी 2017 में 5 प्रतिशत थी। सीएमआईई के यह आंकडे़ देशभर के लाखों परिवारों पर किये गये सर्वे पर आधारित होते हैं। इससे पूर्व सीएमआईई की जनवरी में जारी रिपोर्ट में कहा गया था कि 2018 में करीब 1.1 करोड़ लोग बेरोजगार हो गये। इसके लिए 2016 में मोदी सरकार द्वारा किये गये नोटबंदी व 2017 में लागू जीएसटी को जिम्मेदार बताया गया। 

एक तरफ जहां बेरोजगारी दर बढ़ रही है वहीं दूसरी तरफ काम मांगने वालों की संख्या भी घटती जा रही है। काम मांगने वालों की संख्या को लेबर पार्टिसिपेशन रेट कहते हैं। यह रेट तभी बढ़ता है जब काम मिलने की उम्मीद हो। 2018 की तुलना में 2019 के प्रथम 2 माह में काम मांगने वालों की संख्या घटी है। सीएमआईई की यह रिपोर्ट कहती है कि लेबर पार्टिसिपेशन रेट अब 43.2 से 42.5 प्रतिशत रहने लगा है। लेबर पार्टिसिपेशन रेट की गिनती में 15 से अधिक उम्र के लोगों को शामिल किया जाता है।  
  
मोदी सरकार यह कहते नहीं थकती कि देश तेजी से आर्थिक विकास कर रहा है। हमारी जीडीपी कुछ वर्षा में सबसे ऊपर होगी। लेकिन मोदी जी यह विकास किसका कर रहे हैं? इस विकास के छींटे भी बेरोजगारों पर नहीं पड़ रहे हैं। बेरोजगारी के बढ़ते आंकड़े मोदी जी के खोखले विकास को बेपर्दा कर रहे हैं। और बेपर्दा करने का काम एक सरकारी संस्था कर रही है। नवउदारवादी नीतियों के घोड़े पर सवार सरकारों द्वारा बेरोजगारों व आम मेहनतकशों को कुचला जा रहा है। नवउदारवादी नीतियों का ही परिणाम है कि अंबानी-अडाणी का विकास, उनकी दौलत में लगातार इजाफा- हो रहा है। और इस विकास की कीमत मेहनतकशों-युवाओं को बेहद कम वेतन में असुरक्षित काम या बेरोजगारी के रूप में चुकानी पड़ रही है। मोदी सरकार की चिंता का केन्द्रीय बिन्दु अडाणी-अंबानी जैसे कारपोरेट घराने हैं। मेहनतकश व बेरोजगारों के लिए मात्र उनके गाल बजाते, कोरे भाषण हैं। मोदी सरकार पर कोई उंगली उठाने की स्थिति में झूठ का बार-बार व विभिन्न तरीकों से प्रसारण उनका बचाव है। 

सच से मुंह मोड़ने और गणित के प्रश्नों का हल समाजशास्त्र के जरिये देने में मोदी जी का हाल-फिलहाल कोई सानी नहीं है। इसका एक उदाहरण यह है कि 7 फरवरी को लोकसभा में मोदी जी ने कई आंकड़ों का जिक्र करते हुए कहा कि उनके राज में रोजगार के मौके तेजी से बढ़े हैं। उन्होंने कहा- 

‘‘ नेशनल पेंशन स्कीम(एनपीएस) से आज 1.2 करोड़ लोग जुड़े हैं, जिनकी संख्या मार्च 2014 में 65 लाख थी।’’ 

क्या इससे पता चलता है कि साठ लाख रोजगार के मौके बढ़े। एनपीएस तो निवेश और रिटायर्डमेंट बचत योजना है। क्या निवेश करना और रोजगार मिलना समान बात है? 

प्रधानमंत्री ने कहा-‘‘मई 2014 के बाद से 36 लाख कामर्शियल गाड़ियां और 1.5 करोड़ पैसेंजर गाड़ियों की बिक्री हुई है जो रोजगार बढ़ने का पैमाना है।’’ 

सोसायटी आफ इंडियन आटोमोबाईल मैन्यूफैक्चर के मुताबिक 2012-13 में करीब 8 लाख कार्मिशियल गाड़ियां बिकी थीं। इसे हम 2017-18 में ही पार कर पाये। अगर मोदी सरकार की तर्क प्रणाली को अपनाया जाय तो यह मान लिया जाय कि मोदी राज के पहले 3 साल में कम रोजगार पैदा हुए? पैसेंजर गाड़ियों के मसले में भी 2012-13 से अधिक बिक्री 2015-16 में जाकर हो पायी। 

प्रधानमंत्री ने रोजगार में बढ़ोत्तरी के दावे को सही साबित करने के लिए ईपीएफओ सब्क्राइबर्स के आंकडे़ भी पेश किये। ईपीएफओ से रोजगार बढ़ने की सही तस्वीर पेश नहीं होती। कानून के अनुसार जब किसी इकाई में 20 या इससे अधिक कर्मचारी होंगे तभी उसे ईपीएफओ के तहत लाया जायेगा। अगर किसी संस्था में 19 लोग काम करते हैं और वह एक अतिरिक्त व्यक्ति को काम पर रखते हैं तो उसे ईपीएफओ के तहत रजिस्टर्ड किया जायेगा। अगर इसे पैमाना बनाया जायेगा तो 1 के स्थान पर 20 नये रोजगार दिखाने पड़ेंगे। एक रिपोर्ट के अनुसार सितंबर 2017 और जुलाई 2018 के मध्य 62 लाख लोग ईपीएफओ से जुड़े, इनमें से 15 लाख ईपीएफओ से बाहर निकल गये। क्योंकि वे नई नौकरी के साथ वापस उससे जुड़ते। इस प्रकार ईपीएफओ को रोजगार का सही पैमाना कैसा माना जा सकता है। यह मोदी सरकार का मानसिक दिवालियापन नहीं तो और क्या है? कि वह येन केन प्रकाणेन रोजगार में वृद्धि  दिखाना चाहती है। एक तरफ रोजगार के चुभते आंकडे़ हैं और दूसरी तरफ प्रधानमंत्री इनसे न सिर्फ मुंह चुराते हैं बल्कि रोजगार की झूठी तस्वीर पेश करते हैं। 

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