मेहनतकशों के संघर्ष से हिल रहा है फ्रांस...
-दीपक
पिछले डेढ़ माह से फ्रांस मेहनतकशों के संघर्ष का अखाड़ा बना हुआ है। हर शनिवार हजारों की संख्या में जनता सड़कों पर उतरकर मौजूदा सरकार और उसकी नीतियों का विरोध कर रही है। फ्रांस की सरकार जनता का दमन करके इन आंदोलनों को रोकने का प्रयास कर रही है। सरकार द्वारा किए जा रहे बर्बर दमन के बावजूद जनता पीछे हटने को तैयार नहीं है। वो अपनी पूरी ताकत के साथ सरकार के हर दमन का सामना करते हुए संघर्ष के मैदान में डटी हुई है।
पिछले साल इसकी शुरूआत तब हुई जब फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल मैक्रों ने कार्बन उत्सर्जन का बहाना बनाकर डीजल पर टैक्स बढ़ाने की योजना प्रस्तावित की। ये बढ़े हुए टैक्स इस वर्ष 1 जनवरी से लागू होने थे। उनका तर्क था कि डीजल की गाड़ियों के प्रयोग से जहरीली गैस का उत्सर्जन ज्यादा होता है। जोकि पर्यावरण के लिए बहुत खतरनाक है। इसलिए लोगों को डीजल के प्रयोग के प्रति हतोत्साहित करने के लिए डीजल पर टैक्स बढ़ाया जा रहा है।
फ्रांस की अधिकांश मेहनतकश आबादी रोज गाड़ियों से अपनी यात्रा तय करके काम पर जाती है। खासतौर से शहरों से दूर रहने वाली ग्रामीण आबादी नियमित अपनी गाड़ियों से लम्बा सफर तय करके शहरों में काम करने आती है। ये आबादी पहले से ही सरकार की नीतियों के चलते बेहद बुरी परिस्थितियों में जीवन यापन कर रही है। स्पष्टतः ही सरकार की प्रस्तावित टैक्स बढ़ोत्तरी का सबसे अधिक खामियाजा इसी आबादी को चुकाना पड़ता। इस प्रस्ताव का पता चलते ही जनता ने विभिन्न माध्यमों से इसका विरोध करना शुरू कर दिया। मई 2018 से फेसबुक पर मौजूदा प्रस्तावों के विरोध में ऑनलाइन कैम्पेन शुरू हो गया। यह प्रचार इतनी तेजी से आगे बढ़ा कि 17 नवंबर को लाखों फ्रांसीसी मेहनतकशों ने सड़कों पर उतरकर मौजूदा प्रस्तावों के विरोध में नारे बुलंद किए। जगह-जगह मजदूरों ने सड़कों को ब्लॉक कर दिया। जनता सड़को पर सीधे-सीधे पुलिस से टकरा रही थी। पुलिस द्वारा किए जा रहे दमन का भी उस पर कोई असर नहीं हो रहा था।
17 नवंबर को 2 लाख 80 हजार मेहनतकशों ने पीला जैकेट (यलो वेस्ट) पहनकर सरकार की नीतियों का विरोध किया। पीला जैकेट के कारण ही इस आंदोलन को ‘यलो वेस्ट’ आंदोलन से पूरी दुनिया में जाना जाने लगा। दरअसल फ्रांस में प्रत्येक वाहन चालक को गाड़ी चलाते समय पीला जैकेट पहनना पड़ता है। इसलिए भी डीजल के दामों में बढ़ोत्तरी के खिलाफ होने वाले इस आंदोलन में ‘पीला जैकेट’ विरोध का प्रतीक बन गया। 17 नवंबर के बाद से हर शनिवार हजारों की संख्या में प्रदर्शनकारी विभिन्न मांगों को लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं। प्रदर्शनकारियों की संख्या कुछ कम हुई है परंतु फ्रांस की व्यापक आबादी में इसे जबरदस्त समर्थन मिल रहा है। फ्रांस के विभिन्न टीवी चैनलों द्वारा कराए गए एक सर्वे के अनुसार फ्रांस की 80 प्रतिशत जनता डीजल पर टैक्स बढ़ाने के सरकार के फैसले के विरोध में थी। यही नहीं लगभग 67 प्रतिशत जनता ‘पीला जैकेट’ आन्दोलन के समर्थन में थी। आंदोलन को मिल रहे व्यापक समर्थन से मैक्रों सरकार सकते में आ गयी। पहले तो उसने हर शासक की तरह इससे सख्ती से निपटने की कोशिश की परंतु सफलता न मिलते देख सरकार को जनता के सामने घुटने टेकने पड़े। दिसंबर आते-आते सरकार को बढ़े हुए टैक्स की वापसी के साथ-साथ न्यूनतम वेतन बढ़ाने, पेंशनभोगियों पर प्रस्तावित टैक्स वृद्धि को वापस लेने, ओवरटाइम आय पर टैक्स नहीं लगाने आदि घोषणाएं करनी पड़ी। परंतु इन घोषणाओं का भी फ्रांस की जनता पर कोई फर्क नहीं पड़ा।
दरअसल पूरी दुनिया की ही तरह फ्रांस में गरीब-अमीर के बीच की खाई निरंतर बढ़ती गई है। बेरोजगारी अपने चरम पर है। जीवन के प्रति असुरक्षा के कारण समाज में भय का माहौल है। पूरी दुनिया के पूंजीपतियों की तरह फ्रांसीसी पूंजीपति भी जनता को कोई राहत देने को तैयार नही है। फ्रांस में 80 के दशक के बाद से ही नवउदारवादी नीतियां लागू हैं। जिसके तहत जनता से सभी जनकल्याणकारी योजनाओं को छीन कर उन्हें पूंजीपतियों के हाथ में दिया जा रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य, पेंशन जैसी योजनाओं में सरकार द्वारा तेजी से कटौती की जा रही है। चुनकर आयी हर सरकार जनता की कीमत पर पूंजीपतियों की तिजोरी भरने में लगी रही। इन नीतियों ने जनता के जीवन को अत्यंत कठिन बना दिया।
बहुमत से सत्ता में आए मैक्रों से जनता को काफी उम्मीदें थी। परंतु सत्ता में आते ही मैक्रों ने अपना असली चेहरा दिखा दिया। सत्ता में आते ही उन्होंने पूंजीपतियों को संपत्ति कर, कुल वेतन भुगतान आदि में छूट देने का काम किया। इन सब कदमों की वजह से ही फ्रांस की जनता के सामने मैक्रों का चेहरा स्पष्ट हो गया। ये इस स्तर तक हुआ कि जनता उन्हे ‘अमीरों का राष्ट्रपति’ नाम से पुकारने लगी।
फ्रांसीसी मेहनतकशों के दिलों में सालों से पैदा हो रहे असंतोष को डीजल पर लगाए गए टैक्स ने बढ़ाने का काम किया। जनता के लिए ये स्पष्ट हो चुका था कि सरकार पूंजीपतियों को तो राहत दे रही है पर मजदूरों-मेहनतकशों का खून चूसने को बेताब है। इस गुस्से की परिणती अन्ततः ‘पीली जैकेट’ आंदोलन के रूप में हुई। इसलिए भी सरकार द्वारा आंदोलनकारियों की प्रारंभिक मांगे मान लेने के बावजूद आंदोलनकारी पीछे हटने को तैयार नहीं है। संपत्ति का बंटवारा, पेंशन, बेहतर वेतन के साथ-साथ राष्ट्रपति मैक्रों का इस्तीफा आज आंदोलनकारियों की मुख्य मांगे बन गयी हैं।
फ्रांस का हर एक तबका इस आंदोलन के साथ जुड़ गया है। प्रारंभ में शहर के पास के ग्रामीण क्षेत्रों की मजदूर आबादी में ही ये आंदोलन अपनी जगह बना पाया था परंतु समय बढ़ने के साथ ही फ्रांस का हर तबका इसके साथ जुड़ता गया। बाद के समय में छात्र-नौजवान भी व्यापक संख्या में इस आंदोलन के साथ जुड़े। मैक्रों सरकार द्वारा पिछले समयों में शिक्षा के क्षेत्र में किए गए बदलाव उनके गुस्से का प्रमुख कारण था। नए बदलावों के मुताबिक उच्च शिक्षा में दखिला लेने के लिए डिग्री के बजाए पूरे शैक्षणिक वर्ष में उसके प्रदर्शन को आधार बनाया जाएगा। साथ ही यूरोपीय यूनियन के अलावा बाहर से आए सभी छात्रों को परास्नातक में प्रवेश लेने के लिए रजिस्ट्रेशन शुल्क को बढ़ाकर 3770 यूरो कर दिया गया था। पहले सभी छात्रों के लिए ये शुल्क बराबर था। सरकार द्वारा उठाए गए इन कदमों ने छात्रों को गुस्से से भर दिया था। वो पहले भी इन कदमों के खिलाफ अपना आक्रोश प्रदर्शित कर चुके थे। ‘पीली जैकेट’ आंदोलन शुरू होने के साथ ही उनकी मांगे भी इसी आंदोलन के साथ जुड़ गयी, और फ्रांस के छात्र भारी संख्या में इस आन्दोलन में भागीदारी करने लगे। आज फ्रांस के मजदूरों के साथ-साथ छात्र-नौजवान भी इस आंदोलन में व्यापक भागीदारी कर रहे हैं।
फ्रांस की तरह पूरी दुनिया का मेहनतकश आज निरंतर बर्बाद हो रही अपनी जिंदगी को खुली आंखां से देख रहा है। देश की सीमाएं भले ही बदल जाए पर विभिन्न देशों के शासकों का पूंजी परस्त चेहरा और नीतियां एक सी ही हैं। पूरी दुनिया के स्तर पर अमीर-गरीब के बीच की खाई बढ़ रही है। पूंजी परस्त सरकारें जनता से आखिरी निवाला छीनकर भी पूंजीपतियों की छप्पन भोग वाली थाली को सजाने में लगी हुई हैं। हर देश की जनता की जीवन परिस्थितियां फ्रांस की जनता से अलग नहीं है। इसलिए भी एक बार व्यापक प्रचार पा लेने के बाद इस आंदोलन ने पूरी दुनिया की जनता को राह दिखाने का काम किया। फ्रांस की देखा-देखी विभिन्न देशों में ‘पीली जैकेट’ आंदोलन की तर्ज पर आंदोलन फूट पड़े।
बेल्जियम में बढ़ती असमानता के विरोध में ‘पीली जैकेट’ आंदोलन के तर्ज पर आंदोलन फूट पड़ा। जनता ने सड़कां पर उतरकर मौजूदा दक्षिणपंथी सरकार से इस्तीफा देने की मांग की। सर्बिया, स्पेन, इराक, जर्मनी, ताइवान आदि देशों में भी इस आंदोलन का प्रभाव दिखाई दिया। ईरान में सैकड़ों प्रदर्शनकारियों ने बेहतर पानी और बिजली की मांग करते हुए पीली जैकेट पहनकर राज्यपाल के ऑफिस में प्रदर्शन किया। ईरान के शासक तो इस आंदोलन से इतना डर गए कि उन्हांने कुछ माह तक पीली जैकेट की बिक्री पर ही रोक लगा दी।
निरंतर बढ़ रहे इस आंदोलन को फ्रांस सरकार कुचलने के पूरे प्रयास कर रही है। इसके लिए साम-दाम-दण्ड-भेद सभी तरीकों का इस्तेमाल किया जा रहा है। जनता की प्रारंभिक मांगे मानकर उन्हें पीछे हटने का लालच दिया जा रहा है तो दूसरी तरफ सड़क पर उतरी हुई जनता के खिलाफ दमन के नए कीर्तिमान स्थापित किए जा रहे हैं। प्रदर्शनों के दौरान अब तक 10 नागरिकों की मौत हो चुकी है, 2841 नागरिकों के साथ-साथ 1000 से अधिक पुलिस कर्मी घायल हुए हैं। वहीं 4 दिसम्बर तक 1600 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। सरकार के ये सारे प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं। जनता पीछे हटने को तैयार नही है। आंदोलन लगातार जारी है।
एक तरह से ये आंदोलन स्वतः स्फूर्त रहा है। पर इसके पीछे जनता का सालों से पल रहा आक्रोश काम कर रहा था। इसमें वामपंथियों के साथ-साथ घोर दक्षिणपंथियों ने भी भागीदारी की है। तेल पर टैक्स के खिलाफ शुरू हुआ आंदोलन आज व्यापक मांगे पेश कर रहा है पर इसके बावजूद पूरे आंदोलन में व्यवस्था से बाहर जाने की उम्मीदें कम दिखाई देती हैं। असमानता के खिलाफ उपजे गुस्से को दक्षिणपंथी भी भुनाने की कोशिश कर रहे हैं। इस आंदोलन का कोई नेतृत्व नहीं है साथ ही इसका कोई अंतिम लक्ष्य नहीं है। पर इन सबके बावजूद मौजूदा आंदोलन पूरी दुनिया की जनता को राह दिखाता है। अपनी तमाम कमजोरियों के बवाजदू ये आंदोलन बताता है कि फ्रांस के साथ-साथ पूरी दुनिया के शासकों की राह आसान नही है। आने वाली दुनिया अपनी राह खुद बनाएगी और हर हाल में वो रास्ता समानता को तलाशता हुआ ‘समाजवाद’ का ही होगा।
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