ये गिरफ्तारियां सुरक्षा नहीं
जनता को आतंकित करने के लिए
-चंदन
27 दिस. को राष्ट्रीय सुरक्षा एजेन्सी (एन.आई.ए.) ने कुल 17 जगहों पर छापेमारी कर 10 लोगों को गिरफ्तार किया। इन गिरफ्तारियों का कारण आतंकवादी घटनाओं को रोकना बताया गया। कहा गया कि इन लोगांं की योजना देश में आतंकी धमाके करने की थी। एन.आई.ए. की इतनी ‘सतर्क’ कार्यवाही पर तमाम संदेह हैं।
गिरफ्तार सभी नौजवान हैं। 20-24 साल के इन नौजवानों का पेशा अलग-अलग और भिन्न शहरों में है। एक इंजीनियरिंग का छात्र है, एक मेडिकल स्टोर चलाता है, एक मौलवी है, एक ऑटो रिक्शा चालक तो एक वेल्डिंग वर्कशॉप चलाता है। दिल्ली के जाफराबाद, यू.पी. के अमरोहा और लखनऊ में गिरफ्तारियां की गयी। ट्रैक्टर के जैक को रॉकेट लांचर, लोहे के बुरादे को विस्फोटक, आदि बताया गया है। इन सबूतों के आधार पर 12 दिन की रिमाण्ड में भेज दिया गया।
इन सबूतों और गिरफ्तारियों पर सभी कथित आरोपियों के पड़ोसियों व परिजनों ने संदेह जताया है। उन्होंने कथित आरोपियों में किसी भी प्रकार संदेहजनक व्यवहार को नहीं देखा। सुबह 4-5 बजे छापेमारी की गयी। एन.आई.ए. ने लोगों को जबरन वापस घरों में जाने को कहा। कुछ लोगों ने घरों के झरोखों और झिर्रियों से देखा। देखने वालों का कहना है कि अफसरों ने गाड़ी से कुछ सामान निकालकर वहां रखा था। बाद में पड़ोसियों को बुलाकर सारे सामान को जब्त सामान के तौर पर बताया।
उपरोक्त घटनाओं पर राजनीतिक पार्टियों की भी अपने राजनीतिक हितों के अनुरूप ही प्रतिक्रिया आयी। जहां विपक्षी पार्टियों ने गिरफ्तारियों पर संदेह जताया वहीं राष्ट्रीय सुरक्षा के आगे वे नतमस्तक हो गयी। सरकार ने एन.आई.ए. की सक्रियता की तारीफ की है। साथ ही, आत्मप्रशंसा में लगे रहे। गृहमंत्री, वित्तमंत्री से लेकर तमाम मंत्री सुरक्षा एजेन्सियों की तारीफें करते नहीं थक रहे हैं। वहीं मानव संसाधन विकास मंत्री ने तो इसे मोदी सरकार की विशेष काबिलियत ही बता दिया। उन्होंने कहा मोदी सरकार में आतंकी कार्यवाही होने से पहले ही आतंकियों को पकड़ लिया जा रहा है। साथ ही, सरकार द्वारा 10 सुरक्षा एजेन्सियों को नागरिकों के मोबाइल, कम्प्यूटर की निगरानी का अधिकार देने के फैसले का परिणाम बता प्रशंसा की जा रही है।
दरअसल गृह मंत्रालय की तरफ से 20 दिसम्बर को देश की दस सुरक्षा एजेन्सियों को नागरिकों की निगरानी का अधिकार दिया है। कांग्रेस ने इसका निजता के हनन के रूप में विरोध किया। इसके साथ ही कुछ लोगों ने सरकार के इस फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में याचिका दाखिल कर दी। इस सब से इतर कई सवाल हैं। क्या मामला सिर्फ निजता के हनन तक का ही है? क्या देश पर आतंकवादी खतरा है? क्या निगरानी करने से आतंकवादी खतरे से निपटा जा सकता है? या फिर आतंकवाद का भय दिखा वास्तव में सरकार की कुछ और ही योजना है?
उपरोक्त सवाल निगरानी करने के सरकार के फैसले से उठते हैं। इन सवालों के घेरे में एन.आई.ए. द्वारा की गयी गिरफ्तारियां भी आती हैं। सरकार का कहना है कि साल 2000 और साल 2009 में आई.टी. कानून में निगरानी के प्रावधानों को हम केवल लागू कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि आई.टी. कानून से पहले निगरानी या छापेमारी आदि के कोई कानून नहीं थे। टाडा, पोटा, मीसा, यू.ए.पी.ए., आदि तमाम कानूनों की फेहरिस्त है जिनका सरकारों द्वारा दमन के औजार के तौर पर इस्तेमाल किया गया। अक्सर ही इनमें निर्दोष लोगों को शिकार होना पड़ा। परन्तु सूचना क्रांति ने सरकार को इस क्षेत्र में निगरानी करने जैसे प्रावधान बनाने की प्रेरणा दी। क्योंकि सरकार पर सवाल उठाने में यह भी एक मजबूत माध्यम साबित हो रहा था। आज तो निगरानी के इन कानूनों को लागू भी किया जाने लगा है। कुछ साल पहले बाल ठाकरे की मौत के बाद मुम्बई में दो लोगों को सोशल मीडिया में पोस्ट भेजने के बाद आई.एक्ट. की धारा 66 ए को झेलना पड़ा। जिसका बाद में कई राज्यों की सरकारों ने उपयोग किया। हालिया गिरफ्तारियों में भी सभी कथित आरोपियों के एक वाहट्सएप ग्रुप में होने की बात सामने आयी है। आज सोशल मीडिया संचार का मजबूत माध्यम बनते जा रहा है। यहां व्यक्ति अपने विचार बिना सेंसरशिप के रखता है। इस प्रभाव को देखते हुए ही भाजपा ने अपनी आई.टी.सेल का ही गठन कर दिया। जो बाद में फेक न्यूज भेजने के कारण ज्यादा सुर्खियों में रही। अन्य पार्टियों ने भी अपनी आई.टी.सेलों का गठन किया। जहां विरोधियों के खिलाफ झूठे-फर्जी प्रचार से लेकर सरकार पर तीखे सवाल उठाये भी जाते हैं। सत्ता संघर्ष से इतर भी कई लोग इस माध्यम से अपनी नाराजगी, विरोध दर्ज कराने लगे हैं।
मोदी सरकार ने अपने से पहले की सरकारों के समय के कानून को ही लागू किया है। अब सवाल ये कि ऐसा कानून बनाया क्यों गया? दरअसल सरकारें शासक वर्ग के हितों को ध्यान में रखते हुए कानून बनाती हैं। और ये कानून दीर्घकालीन हितों या खतरों को ध्यान में रखकर बनाये जाते हैं। यदि मनमोहन सिंह के काल में ये कानून बने तो इसका मतलब केवल यही है कि सरकार संचार के इन साधनों के ‘संभावित खतरों’ से वाकिफ थी और इससे बचने के हर संभव पुख्ता इंतजाम भी कर लिये। ये कानून देश की सुरक्षा के लिए नहीं बल्कि सरकारों की सुरक्षा और शासक वर्ग की सुरक्षा के लिए अधिक हैं।
देश की सुरक्षा को सबसे बड़ा खतरा आतंकवाद से बताया जाता है। आतंकवाद का यह घोषित खतरा हथियार उद्योग से लेकर सेना पर अत्यधिक खर्च तक कई सारी चीजों के लिए आवश्यक है। आतंकवाद का यह खतरा सरकार की नीतियों की देख-रेख में ही बनाया जाता है। पड़ोसी देश से आतंकवादी घुसपैठ कर रहे हैं, सेना पर खर्च बढ़ाओ। देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरा है, कुछ और दमनकारी कानून बनाओ। देश में आतंकवादी नेटवर्क बना रहे हैं, सबकी निगरानी का कानून बनाओ। यानी नीतियां तय हैं। तर्क बनाओ। जनता को समझाओ। कानून लागू करो। आतंकवाद का यह संभावित खतरा दिखा शासक वर्ग यह बताता है कि वह जनता की रक्षा के लिए है। वह यदि निगरानी न करे तो देश बर्बाद हो जायेगा। वह सेना, पुलिस, सुरक्षा में अतिशय खर्च न करे तो देश की सुरक्षा को खतरा पैदा हो जायेगा। आतंक का भय सत्ताधारियों को व्यवस्था पर जनता की तरफ से आने वाले खतरे के भय से बचाता है। यह इस बात की पुष्टि करता है कि जनता आतंकित है और हम जनता के रक्षक हैं। और जनता भी यह बात स्वीकार कर रही है। भाजपा सरकार के पिछले चार-साढ़े चार सालों में सेना को प्रश्नातीत बना दिया गया है। सेना द्वारा मानवाधिकार हनन करने की बातें देशद्रोह का पर्याय बन गयीं। पुलिस को बेझिझक एनकाउंटर करने का अधिकार मिल गया। जनता के बीच इन बातों को स्वीकार्यता भी दिलवा दी गयी।
उपरोक्त गिरफ्तारियों में सुरक्षा एजेन्सियों द्वारा पुनः पूर्वाग्रहों से चलते हुए मुस्लिमों को निशाने पर लेने की बात भी उठी। यह बात उठना इसलिए भी लाजिमी है कि पिछले कई सारे मामलों में गिरफ्तार किए गए नौजवान सालों जेल में रहने के बाद निर्दोष साबित हुए। वहीं कई मामलों में अभिनव भारत जैसी संस्थाऐं और साध्वी प्रज्ञा, असीमानंद, कर्नल पुरोहित, आदि लोग भी आतंकवादी हमलों के मामलों में पकड़े गये। जो मक्का मस्जिद, अजमेर आदि हमलों में अपराधी बने। इन मामलों में भी पहले मुस्लिम युवकों को ही पकड़ा गया था। आज जब सत्ता में हिन्दू फासीवादी हैं तो सुरक्षा एजेन्सियां और भी अधिक अपने पूर्वाग्रहों से चल रही हैं। सुरक्षा एजेन्सियां कितनी स्वायत्त हैं यह पिछले दिनों सी.बी.आई. वाले प्रकरण में सामने आया ही। हर कोई स्वायत्त संस्था आज मोदी सरकार की संस्था हो चुकी है। यहां तक की सेना प्रमुख भी जगह-जगह हिन्दू फासीवादी भाषा में बात करते नजर आ रहे हैं।
निगरानी के कानून और गिरफ्तारियों का मामला देश की सुरक्षा का नहीं है। यह आतंक का भय बनाकर शासक वर्ग और सत्ता की सुरक्षा का मामला है। यदि अपराध न हो तो पुलिस की भर्ती कैसे हो। आतंक न हो तो सेना की भर्ती या खर्च में वृद्धि कैसे हो। अतः इनको बनाकर रखने में ही शासक वर्ग अपना हित समझता है। अपराध, आतंक कायम रहे और शासकों को अपनी सत्ता को मजबूत करने के नये-नये अस्त्र गढ़ने का अवसर मिलता रहे। राजकीय आतंक अन्य आतंकों का स्रोत है। कुछ इसके लिए पैदा किए जाते हैं और कुछ इससे पैदा होते हैं।
जब देश का शासक वर्ग जनता को उसकी मूलभूत जरूरतें पूरी न कर रहा हो। जब शासक वर्ग जनता को सिर्फ जिन्दा रहने लायक भी हालात न दे रहा हो। तब शासक वर्ग आतंकित होता है। ऐसे में वह राजकीय आतंक को कायम करता है। आम तौर पर यह आतंक मौजूद रहता है परन्तु जब जनता अत्यधिक आक्रोशित हो तो इसे और मजबूत किया जाता है। आज जब मजदूर श्रम कानूनों और श्रम परिस्थितियों से आक्रोशित हैं, किसान अपने बुरे हालातों से आक्रोशित हैं, छात्र बेरोजगारी, अपमान, कुण्ठा से आक्रोशित हैं, महिलाऐं असमानता से आक्रोशित हैं, दलित सदियों पुराने अपमान का घूंट आज भी पीने से आक्रोशित हैं, तो शासकों का आतंकित होना स्वाभाविक है। अपना यह आतंक वह वापस जनता पर थोपना चाहते हैं।
शासकों के आतंक का नाश जनता स्वयं शासक बनकर ही खत्म कर सकती है। और इसी से हर प्रकार के आतंक का खात्मा भी किया जा सकता है। मजदूरों-मेहनतकशों- छात्रों-नौजवानों को इस बात को समझ लेना चाहिए। उन्हें ही आतंक के इस खौफ को हमेशा-हमेशा के लिए कालातीत बनाने के लिए सत्ता को अपने हाथ में लेना होगा।
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