सोमवार, 11 फ़रवरी 2019

कृषि संकट का हल पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में नहीं
कृषि संकट और मौजूदा किसान आंदोलन
-नरेन्द्र

2018 का साल भारत में किसानों के व्यापक व देशव्यापी आन्दोलनों का साल रहा। 2017 में राजस्थान के सीकर-झुंझनु व मध्यप्रदेश के मंदसौर से किसान आन्दोलनों का जो सिलसिला शुरु हुआ; वह इस साल महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक व्यापक आन्दोलन का रूप लेकर उभरा।


2018 के मार्च में 40,000 किसानों ने महाराष्ट्र की राजधानी में जोरदार दस्तक दी। ये किसान महाराष्ट्र के दूरदराज इलाकों से आये थे। पैदल लहूलुहान किसानों को बंबई के नगरीय समाज के मध्य वर्गीय हिस्सों की सहानुभूति व समर्थन भी प्राप्त हुआ। तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया द्वारा खास तवज्जो न दिये जाने के बावजूद सोशल मीडिया में इस किसान मार्च का व्यापक प्रचार हुआ।

2018 के जून माह में कर्ज माफी तथा दाल, तिलहन और दूध के बेहतर मूल्य के लिए महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के किसानों ने दस दिन का विरोध प्रदर्शन किया। एक वर्ष की अवधि के दौरान किसानों का यह तीसरा बड़ा प्रदर्शन था। 

23 दिसम्बर,2018 को भारतीय किसान यूनियन के नेतृत्व में हरिद्वार से दिल्ली तक ‘‘किसान क्रांति यात्रा’’ निकाली गयी। इस यात्रा को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अनेक जिलों से होते हुए 2 अक्टूबर को दिल्ली पहुंचना था। 2 अक्टूबर को गांधी जयंती के दिन दिल्ली बार्डर पर इस यात्रा में शामिल किसानों का बर्बर दमन कर यात्रा को दिल्ली में घुसने से बलपूर्वक रोक दिया गया। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज सहित पानी की बौछार व आंसू गैस का इस्तेमाल किया। पुलिस द्वारा कानून व्यवस्था का हवाला देकर 8 अक्टूबर तक क्षेत्र में धारा 144 लागू कर दी गयी। ‘‘किसान क्रांति यात्रा’’ किसानों की कर्जमाफी, डीजल के दामों में कमी सहित 11 मांगों के लिए निकाली गयी थी।

‘स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करो’, किसानों को लागत मूल्य (महंगाई सहित) पर डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य देने, कर्ज माफी आदि मांगों को लेकर एवं कृषि संकट पर चर्चा हेतु संसद में एक विशेष सत्र लाने की मांग को लेकर 29-30 दिसम्बर को दिल्ली में ‘किसान मुक्ति मार्च’ के तहत हजारों किसानों ने रामलीला मैदान से संसद मार्ग तक मार्च निकाला तथा किसानों की बदहाली पर पूरे देश का ध्यान खींचा।

इस ‘किसान मार्च’ में देश के विभिन्न हिस्सों से भारी संख्या में गरीब व छोटे मझोले किसानों ने भागीदारी की। किसानों के इस प्रदर्शन को एक बार फिर तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया ने नजरअंदाज किया। जहां देश के कोने-कोने से हजारों की तादाद में किसान इस देश के एक सबसे ज्वलंत मुद्दे पर अपनी व्यथा व आक्रोश को प्रदर्शित कर रहे थे तो ‘गोदी मीडिया’ के लिए मुख्य आकर्षण निक और प्रियंका का भव्य विवाह समारोह था। और हो भी क्यों नहीं जबकि खुद प्रधानमंत्री मोदी आंदोलनकारी किसानों के बजाय इस वी.आई.पी. शादी को ज्यादा तवज्जो देते हुए इस विवाह समारोह के प्रीतिभोज में खुद शिरकत कर रहे हों।

खैर 29-30 दिसम्बर की ‘किसान मुक्ति यात्रा’ कई मायनों में महत्वपूर्ण थी तो इसकी कुछ मूलभूत कमियां या समस्यायें भी थी। सर्वप्रथम यह इस मायने में महत्वपूर्ण थी कि इसके आयोजकों; जो कि कई धाराओं से ताल्लुक रखते हैं; द्वारा रैली से पूर्व एक ‘संयुक्त घोषणा पत्र’ निकाला गया। इस घोषणा पत्र में किसानों की मांगों को कुछ मांगों तक सीमित करने के बजाय इन्हें संपूर्ण कृषि संकट में अवस्थित कर कृषि के विकास के लिए एक ऐसे मॉडल के विकास की बात की गयी थी जो पारिस्थिकीय तंत्र के अनुकूल अथवा पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाने वाला हो। लेकिन यह सब कहते हुए घोषणा पत्र स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की बात करता है जो कृषि क्षेत्र में दूसरे चरण की ‘हरित क्रांति’ की बात करती हैं।

गौरतलब है कि डॉ. स्वामीनाथन के निर्देशन में भारत में 1970 में देश के कुछ चुनिंदा क्षेत्रों में ‘हरित क्रांति’ का मॉडल लागू किया गया। इसके तहत इन क्षेत्रों में कृषि में नई तकनीक, उच्च गुणवत्ता वाले भ्ल्ट वाले बीजों, कीटनाशकों तथा उर्वरकों के इस्तेमाल के द्वारा कृषि में आत्मनिर्भरता हासिल करने का प्रयास किया गया था। ध्यान रहे कि उस समय देश में क्रांतिकारी भूमि सुधार की मांग को दरकिनार करते हुए कुछ नुस्खों के आधार पर कृषि संकट से निजात पाने की कोशिश की गयी जिसे ‘हरित क्रांति’ के नाम से प्रचारित किया गया। तात्कालिक तौर पर शासक वर्ग को इससे फायदा पहुंचा और कृषि संकट हल हुआ। कृषि में तात्कालिक तौर पर खाद्य आत्मनिर्भरता हासिल हुई। लेकिन दूरगामी तौर पर इसके दुष्परिणाम 2-3 दशक के बाद आने शुरु हुए। कीटनाशकों व उर्वरकों के बेहिसाब इस्तेमाल से भूमि की उर्वरता क्रमशः घटती गयी। भूमि क्षारीय होती गयी। कीटनाशकों ने खाद्य पदार्थों को जहरीला बना दिया। भारी संख्या में कैंसर सहित रसायन जनित बीमारियां बड़े पैमाने पर प्रकट हो गयीं। इसके साथ कीटनाशकों ने जैव विविधता को बड़े पैमाने पर हानि पहुंचाकर पारिस्थितिक तंत्र को गंभीर नुकसान पहुंचाया और इस सबके चलते कृषि पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ा ही साथ में इसने नए कृषि संकट को भी जन्म देने में सहायक की भूमिका अपनायी। 

बहरहाल स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को बदले हुए रूपों में लागू करने की बात किसान संगठन कर रहे हैं। वर्तमान कृषि संकट दो दशक पुराना हो चुका है। 2004 में केन्द्र सरकार ने इस संकट के समाधान हेतु डॉ. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया। आयोग कृषि संकट के समाधान के लिए कुछ नए नुस्खे लेकर सामने आया। इनमें किसानों को लाभकारी मूल्य हेतु फसल की लागत (महंगाई शामिल करते हुए) का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की बात की गई। इसके साथ ही स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट देशव्यापी पैमाने पर नये सिरे से भूमि सुधार की मांग करती है। स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट किसानों को आगतों में सब्सिडी देने की बात करते हुए इसके लिए कारपोरेट घरानों पर 2 प्रतिशत कर लगाने की बात करती है। लेकिन वह विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) के सम्बन्ध में या उससे बाहर आने के सम्बन्ध में कोई बात नहीं करती है जो कि कृषि आगतों (इनपुट्स) में सब्सिडी को हतोत्साहित करने की बात करता है। किसान घोषणा पत्र में दूसरी महत्वपूर्ण बात यह थी कि इसमें किसानों के साथ कृषि मजदूरों सहित कृषि, वानिकी, मत्स्यपालन से जुड़े लोगों, चरवाहों एवं घुमंतु समुदायों की बात की गई है। लेकिन उनके सम्बन्ध में ठोस मांगों को सूत्रित करने में घोषणा पत्र असफल रहा। जहां तक कृषि मजदूरों की बात है घोषणा पत्र कृषि संकट के साथ इनके उजड़ने या गंभीर रूप से संकट में होने की बात करता है लेकिन घोषणा पत्र यह नहीं बताता कि कृषि के लिए लाभकारी मूल्य से होने वाली महंगाई मजदूरों और गरीब किसानों और खासकर वे तबके जो कि खरीद कर खाते हैं उनके हितों की रक्षा कैसे होगी?

‘घोषणा पत्र’ के विरोधाभास के मूलभूत तौर पर दो  कारण हैं। पहला कृषि संकट को धनी किसानों के नजरिये से देखना जो कि मजदूरों व छोटे गरीब किसानों के खिलाफ जाता है। दूसरे कृषि संकट का कारण संपूर्ण पूंजीवादी व्यवस्था में न देखकर शासक वर्ग की किन्हीं खास नीतियों खासकर नई आर्थिक नीतियों (निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण) तक सीमित करके देखने तथा इस संकट का स्थायी समाधान पूंजीवादी व्यवस्था में ही तलाशना। इनके समाधान का एक ही प्रस्थान बिन्दु है, अतीत के राज्य संरक्षणकारी नीतियों की ओर पुनर्वापसी।

निस्संदेह कृषि संकट आज के ग्रामीण भारत का सबसे बड़ा संकट है। इस संकट का अंदाज इसी से लग जाता है कि 1995 से अब तक तीन लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली है। हर वर्ष लगभग 12 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के इन आंकड़ों को कई कृषि विशेषज्ञ बेहद कम बताते हैं। उनके अनुसार किसानों की आत्महत्या करने वाले आंकड़े कहीं अधिक और भयावह हैं। इस बात की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ने अपने एक अध्ययन द्वारा 2000 से 2010 के बीच पंजाब में आत्महत्या करने वाले किसानों का आंकड़ा 16,600 बताया तथा पंजाब में प्रतिवर्ष आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या लगभग 1,000 बतायी। जबकि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो ने इससे बेहद कम; पंजाब में प्रतिवर्ष आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 300; बताया।

भारत में किसानी के संकट को वर्गीय दृष्टि से न देखना इस समस्या के प्रति गलत एवं भ्रामक निष्कर्षों तक ले जाता है। किसान आबादी एक समांग आबादी नहीं है। कृषि संकट के चलते तबाह होते ज्यादातर किसान सीमांत या छोटे-मझोले किसान हैं। आत्महत्या करने वाले किसान मूलतः यही सीमांत व छोटे-मझोले किसान हैं, जिनके पास 1 से 2 एकड़ भूमि या नाम मात्र की भूमि है। 68 प्रतिशत कृषि भूमि पर राम भरोसे ही खेती होती है जो कि सूखा, बाढ़ व अन्य प्राकृतिक आपदाओं से बेहद प्रभावित होती रहती है। भारत में कृषक परिवारों में से 52 प्रतिशत ऋण ग्रस्त हैं। जहां धनी किसान बैंकों व सहकारी संस्थाओं आदि से कर्ज लेते हैं वहीं गरीब छोटे किसानों को बैंक कर्ज नहीं देते हैं। अतः मजबूरी में छोटे-मझोले किसान सूदखोरों से बेहद महंगी दरों पर कर्ज लेते हैं। खाद, बीज, बिजली, पानी, कीटनाशकों सहित कृषि आगतों के लगातार महंगा होते जाने के कारण कर्ज लेकर खेती करना छोटे-मझोले किसानों की नियति बन चुका है। अंत में जब किसान अपनी उपज लेकर बाजार पहुंचता है तो फसल की लागत के बराबर भी मूल्य हासिल नहीं हो पाता है। बिचौलिए, आढ़तिये से लेकर बड़े व्यापारी उसे कौड़ियों के मोल उपज बेचने पर मजबूर कर देते हैं। भंडारण की सुविधा केवल धनी किसानों के पास है जो उचित दाम मिलने तक उपज रोक सकते हैं। इस तरह छोटा गरीब किसान कर्ज जाल में फंसकर आत्महत्या को मजबूर हो रहा है। भारत में कृषि संकट वास्तव में छोटे-मझोले किसानों का संकट है। आज जहां धनी किसान खेती में अपने सापेक्षिक तौर पर घटते मुनाफे के लिए चिंतित हैं वहीं छोटे गरीब किसानों के लिए यह जीवन और मृत्यु का प्रश्न बन चुका है। यही आज के कृषि संकट व किसान आंदोलन का सबसे बड़ा विरोधाभास है। ऐसे में निरपेक्ष रूप से कर्ज माफी और न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की मांगें मूलतः धनी किसानों की मांगें बन जाती हैं जो मजदूर वर्ग व छोटे गरीब किसानों के खिलाफ खड़ी हो जाती हैं। 

कृषि संकट के मूल कारणों को समझे बगैर कृषि संकट के समाधान के सही निष्कर्षों तक नहीं पहुंचा जा सकता है। कृषि संकट का मूलभूत कारण भारतीय कृषि के पूंजीवादीकरण की प्रक्रिया में है। पूंजीवाद में छोटे पैमाने के उत्पादन का नष्ट होना एक सतत एवं अनिवार्य प्रक्रिया है, जिसे रोका नहीं जा सकता। इस पूंजीवादीकरण की प्रक्रिया के तहत जहां सीमांत व गरीब छोटे किसानों का उजड़कर सर्वहारा वर्ग में तब्दील होना एक अनिवार्य नियति है।

साम्राज्यवादी वैश्वीकरण की नीति ने कृषि को प्राप्त राजकीय संरक्षण को समाप्त प्रायः कर कृषि के पूंजीवादीकरण की प्रक्रिया को काफी तेज कर दिया।

विश्व व्यापार संगठन के निर्देशों पर सरकारों ने आत्मनिर्भर बनने की ‘आयात प्रतिस्थापन नीति’ को बदलकर अपनी अर्थव्यवस्थाओं को निर्यातोन्मुखी बनाने की नीति पर अमल किया। इसी के तहत कृषि में भी आत्मनिर्भरता की सरकारी नीतियों को त्याग कर कृषि को मिलने वाली सब्सिडियों में भारी कटौती कर उसे पूरी तरह बाजार के हवाले कर दिया। गौरतलब है कि 90 के दशक में जब ये नीतियां लागू हुईं तो पहले तो सशंकित धनी किसानों के संगठनों ने इन नीतियों का विरोध किया लेकिन बाद में विश्व बाजार के साथ जुड़ने के लाभों को जानकर वे इनका समर्थन करने लगे या उनका विरोध नाम मात्र का रह गया।

निश्चित तौर पर छोटे-गरीब किसानों को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि पूंजीवाद में उनके हितों को लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है इसके बरक्स उन्हें स्पष्ट तौर पर यह समझने की जरूरत है कि इस पूंजीवादी व्यवस्था में उनके हितों की लंबे समय तक सुरक्षा की गारंटी नहीं की जा सकती है, कि उनके हित पूंजीवाद में नहीं बल्कि समाजवाद में ही सुरक्षित हो सकते हैं। साथ ही हमें गरीब-छोटे-मझोले किसानों के तात्कालिक राहत के लिए प्रयास जारी रखने होंगे। न्यूनतम समर्थन मूल्य, आगतों पर सब्सिडी, समुचित समर्थन मूल्य का समर्थन करते हुए हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए। इसका उद्देश्य केवल गरीब-छोटे किसानों को तात्कालिक राहत पहुंचाना ही होना चाहिए न कि धनी किसानों के लिए मुनाफा बढ़ाने वाला। इसलिए हमें इस सम्बन्ध में विभेदीकृत मांगें पेश करनी चाहिए जो गरीब-छोटे किसानों के पक्ष में झुकी हों। निश्चित तौर पर धनी किसानों को मांगपत्र के दायरे से बाहर रखना होगा।

इन कदमों से महंगाई का बढ़ना लाजिमी है। इसके लिए आगतों में समुचित सब्सिडी एवं सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त कर मजदूरों व गरीब किसानों के हितों को समायोजित किया जा सकता है। इसके लिए भारत को विश्व व्यापार संगठन की शर्तों से आजाद होना पड़ेगा यानी इससे बाहर आना होगा। साथ ही कारपोरेट परस्त नीतियों को भी तिलांजलि देनी होगी। कारपोरेट पूंजीपतियों पर सरकार जितना खजाना लुटा रही है (पिछले 4 सालों में लगभग 6 लाख करोड़) उसमें किसानों को कर्ज माफी सहित तात्कालिक तौर पर संकट से राहत दी जा सकती है। लेकिन इसके लिए आज शायद ही कोई सरकार तैयार हो। एक बहुत व्यापक और सशक्त किसान आंदोलन, जो कि धनी किसानों के नेतृत्व से मुक्त हो और मजदूर वर्ग से एकजुट हो, के दम पर ही इस तरह की राहत को हासिल किया जा सकता है। जाहिर है कि यह कृषक आंदोलन की धार पूंजीवाद व साम्राज्यवाद के खिलाफ होगी।

अंततः एक पूंजीवाद विरोधी-साम्राज्यवाद विरोधी आमूलचूल आंदोलन ही किसान प्रश्न को अंतिम तौर पर हल करने की ओर ले जा सकता है। गरीब-छोटे किसानों की मुक्ति पूंजीवाद में नहीं समाजवाद में है। 
मौजूदा दौर में किसानों के आंदोलनों ने किसान प्रश्न को सामाजिक रंगमंच पर प्रमुखता से उभार दिया है लेकिन अपनी वर्गीय सीमा एवं व्यवस्थागत समाधान के भ्रामक आग्रहों के कारण ये अंततः असफल होने को अभिशप्त हैं। लेकिन ये आंदोलन देर-सबेर किसान सवाल के सही समाधान तक पहुंचने में एक पूर्वपीठिका का काम करेंगे।

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