सावित्रीबाई फुले की याद में
आज महिला मुक्ति के सामने चुनौतियां
-कुसुम
सावित्री बाई फूले की याद में एक सेमिनार का आयोजन बरेली में किया गया। सेमिनार का विषय ‘आज महिला मुक्ति के सामने चुनौतियां’ रखा गया। सेमिनार का आयोजन प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र, परिवर्तनकामी छात्र संगठन, इंकलाबी मजदूर केन्द्र तथा क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन द्वारा संयुक्त तौर पर किया गया। सेमिनार की अध्यक्षता बिन्दू गुप्ता, पूर्णिमा, निगार नफीस व सतीश ने की तथा संचालन रजनी द्वारा किया गया।
परिवर्तनकामी छात्र संगठन की शिवानी द्वारा सेमिनार पत्र पढ़ा गया और सर्वप्रथम नीता ने सेमिनार पत्र पर विस्तार से बात रखी। सेमिनार को संबोधित करते हुए निगार नफीस ने महिलाओं के लिए बने कानूनों पर बात रखी। पूर्णिमा ने महिला मजदूरों के हालात और उनके संघर्षों पर बात रखी। इंकलाबी मजदूर केन्द्र के हरगोविंद ने सावित्रीबाई के जीवन संघर्ष पर विस्तार से बात रखी। परिवर्तनकामी छात्र संगठन के कमलेश ने आधुनिक समाज में महिलाओं की स्थिति और महिला उत्पीड़न होने पर पूंजीवादी संस्थानों की पुरूषप्रधानता की सोच पर बात रखी। किसान सभा के प्रेमपाल ने महिला मुक्ति के लिए मार्क्सवाद की आवश्यकता पर जोर दिया।
इसके अतिरिक्त सोनिया, अंशिका, रानी देवी, लक्ष्मी पंत आदि ने भी सेमिनार में बात रखी।
सेमिनार में टीमों द्वारा ‘आ गये यहां जवा कदम’, ‘चेहरे से घुघटा हटाओ तो सखी’, ‘वो सुबह हमीं से आयेगी’ आदि गीत प्रस्तुत किये गये। साथ ही छात्राओं द्वारा आत्मरक्षा की आवश्यकता पर बात रखते हुए उससे संबंधित झलकी प्रस्तुत की।
कार्यक्रम में महिलाएं काफी उत्साहित रहीं। समय-समय पर लगते नारों से महिलाएं अपना उत्साह प्रदर्शित करती रहीं। साबित्री बाई फूले द्वारा शुरु किये गये काम को और आज महिलाओं की समस्या के समाधान के लिए संघर्ष का संकल्प सेमिनार में लिया गया।
सेमिनार पत्र
सावित्रीबाई फुले जो कि एक महान समाज सुधारक रहीं, जिन का पूरा जीवन एक योद्धा का जीवन रहा, जिन्होंने स्त्रियों की अशिक्षा, धार्मिक कुरीतियों के खिलाफ लगातार तीखा संघर्ष किया। आज उनके जन्म के 187 वर्श बाद यदि हम भारत में महिलाओं की समस्याओं को देखें तो पाते हैं कि जो लड़ाई सावित्रीबाई फुले ने शुरू की थी, वह अभी तक अपने मुकाम पर नहीं पहुंची है। आज भी महिलाऐं तमाम तरीकों से समाज में शोषित-उत्पीड़ित हैं। आज भी वे बराबरी की जगह दोयम दर्जे की स्थिति जी रही हैं। सावित्रीबाई फुले का जीवन संघर्ष निश्चित ही आज भी महिलाओं को प्रेरणा देता है। उनका जीवन आज की भारतीय महिलाओं को कह रहा है कि वे आज की चुनौतियों का सामना करें जैसा कि उन्होंने किया।
सावित्रीबाई फुले का जीवन- सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र में हुआ। महज 9 वर्ष की आयु में उनका विवाह 12 वर्षीय ज्योतिबा फुले के साथ हो गया। ज्योतिबा फुले ने सावित्रीबाई को पढ़ना-लिखना सिखाया। दोनों ने कंधे से कंधा मिलाकर सामाजिक कुरीतियों और स्त्री शिक्षा के लिए बेहद महत्वपूर्ण कार्य किये। 1848 में पहला बालिका स्कूल खोला, जिसमें 9 बालिकाएं पढ़ती थीं। सावित्रीबाई फुले यहां की प्रथम अध्यापिका और प्रधानाचार्या रहीं। इस तरह कहा जा सकता है सावित्रीबाई फुले भारत में आधुनिक बालिका शिक्षा की पहली अध्यापिका रहीं। इसके बाद यह सिलसिला आगे बढ़ा और कई बालिका विद्यालय खोले गए। अछूत बालिकाओं के लिए अलग विद्यालय खोले गये। मजदूरों को पढ़ाने के लिए रात्रि कक्षाएं भी चलाई गईं।
सावित्रीबाई फुले स्त्री शिक्षा का काम ऐसे समाज में कर रही थीं जो पूरी तरह सवर्ण ब्राह्मणवाद के कोड़ से ग्रसित था। यह सवर्ण ब्राह्मणवाद स्त्रियों को पैर की जूती से अधिक कुछ नहीं समझता था। 8-9 वर्ष में ही बच्चियों की शादी कर दी जाती थी। विधवा होने पर सर मुंडवा कर विधवा आश्रम भेज दिया जाता था। पति के मरने पर स्त्री को जिंदा जला कर उसे सती कर दिया जाता था। समाज का यह पिछड़ा हिस्सा सावित्रीबाई फुले की राहों में लगातार कांटे बिछाता रहा। सावित्रीबाई फुले इन कांटों भरी राह पर चलकर ही महानता के शिखर पर पहुंचीं। सावित्रीबाई फुले जब स्कूल जाती तो उसके ऊपर कीचड़-गोबर फेंका जाता। उन्हें गंदी गालियों का सामना करना पड़ता था। यहां तक कि उन्हें परिवार तक से निकाल दिया गया किंतु वे अपनी राह से डिगी नहीं बल्कि मजबूती से चलती रहीं।
स्त्री शिक्षा के साथ-साथ सावित्रीबाई फुले तमाम ब्राह्मणवादी धार्मिक कुरीतियों के खिलाफ भी लड़ी। विधवाओं को लेकर तमाम घृणित प्रथाओं के खिलाफ सावित्रीबाई फुले का लंबा संघर्ष रहा। विधवाएं समाज-परिवार के लिए अपशगुन मानी जाती थीं किंतु उन विधवाओं का तमाम ‘सम्मानित’ लोग लैंगिक उत्पीड़न करते थे। इन हालातों में यदि कोई विधवा गर्भवती हो जाती तो उसे कुल्टा चरित्रहीन कहकर उसका जीना हराम कर दिया जाता था। ऐसे ही हालातों से घिरी एक महिला जब खुद का जीवन समाप्त करने जा रही थी तो सावित्रीबाई फुले ने उस विधवा के पुत्र को गोद लिया। प्रचलित कुरीतियों के अनुसार विधवा होने पर महिलाओं को गंजा कर दिया जाता था। सावित्रीबाई फुले द्वारा नाइयों को समझाकर विधवाओं के बाल ना उतारने को राजी किया। यह एक बड़ा आंदोलन समाज में पैदा हुआ। विधवाओं को फिर से नया जीवन शुरू करने और उनके सम्मान के लिए फुले ने अनवरत संघर्ष चलाया। छुआछूत जैसी तमाम ब्राह्मणवादी सोच से भी वह लगातार लड़ती रहीं। 1852 में ‘महिला मंडल’ बनाया गया। जो उस समय का महिला आंदोलन का पहला संगठन कहा जा सकता है जिसके द्वारा स्त्रियों ने इन्हीं तमाम समस्याओं के खिलाफ संघर्ष को व्यापक किया।
समाज में फैली प्लेग जैसी संक्रामक बीमारी के दौरान सावित्रीबाई और उनके दत्तक पुत्र लगातार मरीजों की सेवा करते रहे। ऐसे ही मरीजों की सेवा करने के दौरान सावित्रीबाई फुले को भी प्लेग की बीमारी लग गई और 28 नवंबर 1890 को एक महान योद्धा का निधन हो गया। एक महान समाज सुधारक का निधन हुआ। किंतु उनके द्वारा शुरू किए गए कामों को, उनके द्वारा देखे गये सपनों को साकार करने के लिए अभी लंबा संघर्ष बाकी है।
सावित्रीबाई फुले के समय का भारत ब्रिटिश साम्राज्यवाद का गुलाम भारत था। जो सामंती ब्राह्मणवादी धार्मिक कुरीतियों की बेड़ियो में बुरी तरह जकड़ा हुआ था। इन बेड़ियों से सावित्रीबाई फुले लड़ी। समाज में चेतना पैदा हुई, संघर्ष और तीखे और व्यापक हुए। अंततः भारत की मेहनतकश जनता अंग्रेजों को यहां से भगाने में कामयाब हुई किंतु आजाद भारत सामंती-ब्राह्मणवादी सोच में लिपटा एक पूंजीवादी समाज बना। इस कारण स्त्री मुक्ति का सवाल बचा रहा महिलाएं आज भी तमाम सामाजिक समस्याओं को झेल रही हैं।
आज महिलाओं की समस्याएं- सावित्रीबाई फुले के जन्म को 187 वर्ष गुजर जाने के बावजूद आज भी महिलाएं तमाम समस्याओं में जी रही हैं। यदि सर्वप्रथम स्त्री शिक्षा की बात करें तो आज भी महिला साक्षरता दर 60 प्रतिशत के करीब है। इसमें भी गांव में तो महिला साक्षरता दर 50 प्रतिशत से भी कम है स्कूल जाने वाली बालिकाओं में से 40 प्रतिशत बालिकाएं दसवीं के बाद पढ़ाई छोड़ देती हैं। पढ़ाई के साथ-साथ यदि रोजगार की बात करें तो कुल श्रम शक्ति का मात्र 25.5 फीसदी ही महिलाएं हैं। यह स्थिति हमारे पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश, श्रीलंका से भी बुरी है। अल्पसंख्या में जो महिलाएं काम कर रही हैं, वे भी काम की जगह में लैंगिक उत्पीड़न झेलती हैं। काम पर आते-जाते यहां तक कि काम की जगह में भी असुरक्षा बनी रहती है। आए दिन जघन्य अपराधों की खबरें प्रकाश में आती हैं। कुछ ही दिन पहले दो अलग-अलग घटनाओं (आगरा, पौड़ी) में स्कूली छात्रा को लम्पटों द्वारा जला दिया गया।
छोटी बच्चियों से लेकर बूढ़ी महिलाएं आए दिन यौन हिंसा का शिकार बन रही हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की 2014 की रिपोर्ट के अनुसार हर 1 घंटे में 4 बलात्कार की घटनाएं हो रही हैं। 2014 में कुल 36,975 रेप के मामले दर्ज हुए हैं। यदि ना दर्ज होने वाली घटनाएं भी इसमें जुड़ जाएं तो हम सहज ही समझ सकते हैं कि भारत में बलात्कार की घटनाओं की क्या स्थिति है। बलात्कार के मामले में तो पूरी दुनिया में भारत का दूसरा स्थान है। इसी तरह महिला आत्महत्या के मामले में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है। पिछले समय में देखा गया कि बलात्कार के जघन्य मामलों में सरकार और प्रशासन बलात्कारियों के साथ निर्लज्जता से खड़े हुए। उन्हें बचाने का काम करते रहे। और बलात्कार पीड़ित का ही उत्पीड़न करते रहे। यह बेहद शर्मनाक रहा।
महिलाओं-बच्चियों के साथ होने वाले अपराधों में कई संगठित गिरोह काम कर रहे हैं। महिलाओं-बच्चियों को अगवा कर या उनकी गरीबी का फायदा उठाकर उन्हें बेच दिया जाता है उन्हें देह व्यापार में धकेल दिया जाता है। मजबूर, अनाथ बच्चियों को आसरा देने के नाम पर चलाए जा रहे कई बालिकागृह देह व्यापार के केंद्र बने हुए हैं। पिछले दिनों मुजफ्फरपुर, देवरिया में ऐसे ही खुलासे हुए। इन संगठित गिरोहों को शासन-प्रशासन का भरपूर सहयोग भी जब तब सामने आता रहा है।
पूंजीवाद की अश्लील उपभोक्तावादी संस्कृति रोज ही महिलाओं को सरेआम अपमानित कर रही है। अश्लील विज्ञापन, फिल्में, आदि में महिलाओं को यौन वस्तु के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है। पोर्न साईटों का कारोबार समाज में लगातार विकृत मानसिकता के लोगों को तैयार कर रहा है।
इन सबके साथ-साथ सांप्रदायिक, जातीय, क्षेत्रीय, आदि हिंसा में भी महिलाओं को प्रमुखता से निशाना बनाया जाता है। घर-परिवार की इज्जत के नाम पर परिवार के ही लोग ऑनर किलिंग कर रहे हैं। कन्या भ्रूण हत्या, दहेज हत्या, घरों पर मारपीट, आदि उत्पीड़न आज भी भारतीय समाज की हकीकत बने हुए हैं।
भारतीय समाज में मौजूद पुरुषप्रधानता की सामंती सोच, धार्मिक कुरीतियां और सवर्ण ब्राह्मणवाद आज भी महिलाओं को उत्पीड़ित कर रहा है। यह सोच महिलाओं को इंसानी अधिकार, बराबरी देने की विरोधी है। आज भी महिलाओं को अपनी पसंद के कपड़े पहनने, खाने-पीने, चलने-फिरने को लेकर बंदिशें थोपी जाती हैं। प्रेम करने, प्रेम विवाह करने पर भी महिलाओं को चरित्र हीनता का प्रमाण पत्र दिया जाता है। विधवाओं का विवाह आज भी समाज में सामान्य बात नहीं है। ना ही महिलाओं का रोजगार करना सामान्य बात है। इस सबके लिए महिलाओं को घर-समाज में तीखा संघर्ष करना पड़ता है। मासिक धर्म से लेकर तमाम धार्मिक कामों में महिलाओं के प्रति घृणित मान्यताएं आज भी मौजूद हैं।
आज की चुनौतियां- मौजूदा दौर में महिलाएं पूंजीवाद और सामंती सोच से उत्पीड़ित हैं। पूंजीवादी समाज आज भी महिलाओं को पूर्ण बराबरी और सुरक्षा नहीं दे पाया है। पूंजीवाद महिलाओं की दोयम दर्जे की स्थिति बनाकर रखता है उन्हें पुरूषों के मुकाबले कम वेतन देता है। जिससे पूंजीपति अतिरिक्त लाभ कमाता है।
पूंजीवादी व्यवस्था एक तरफ महिलाओं का भारी शोषण करती है, दूसरी तरफ परोपकारी का ढोंग-पाखंड करती है। यह एक तरफ सामंती मान्यताओं को पालती-पोसती है दूसरी तरफ आधुनिक व्यवस्था, महिला स्वतंत्रता की बड़ी-बड़ी बातें करती है। यह चतुर घृणित व्यवस्था महिलाओं के झूठे, भ्रामक नारे-मुद्दे प्रस्तुत करती है। इसकी कोशिश रहती है कि यह वर्ग अंतर्विरोध को धूमिल करती रहे। अमीर स्त्रियों की मांगों, उसके जीवन को यह पूरे समाज पर थोप देता है। यह स्त्री स्वतंत्रता को मात्र यौन स्वतंत्रता तक सीमित कर देता है। ‘माई बॉडी माई लाइफ’, ‘टॉप लेस मूवमेंट’, ‘स्लट मूवमेंट’, आदि भ्रामक मुद्दे उठाकर स्त्रियों की वास्तविक मांगों को पीछे धकेल देता है।
हाल ही में चला ‘मी टू’ अभियान इसी का एक ताजा उदाहरण है। ‘मी टू’ अभियान एक तरफ सड़ते-गलते पूंजीवाद की गंदगी को उजागर करता है वहीं इस गंदगी के सामाजिक आधार पूंजीवाद को कटघरे पर खड़ा नहीं करता है। यही इस नारीवादी आंदोलन की सीमा भी है।
पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा पालित-पोषित नारीवादी आंदोलन स्त्री मुक्ति के समक्ष बड़ी बाधा है। यह शासक और शासित का भेद मिटाने का प्रयास करता है। यह स्वतंत्रता की इच्छा, आकांक्षा को बेहद संकीर्ण व्यक्तिवाद में बांधकर रखता है। यह स्त्रियों की मुकम्मल आजादी के स्थान पर यौन स्वतंत्रता का पैरोकार है। यह स्त्रियों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार पूंजीवादी व्यवस्था को पाक-साफ बचाकर समाज के पुरुशों को स्त्रियों के दुश्मन के बतौर पेश करता है।
पूंजीवादी राजनीति दल कभी महिला सशक्तिकरण तो कभी ‘बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ’ के नारे उछालते हैं किन्तु नारों से इतर हकीकत यह है कि ये आज तक महिला आरक्षण बिल को किन्तु परन्तु करके टालते जा रहे हैं।
यह पूंजीवादी व्यवस्था आरएसएस जैसे संगठनों को पालती पोषती है। आरएसएस जैसे संगठन का महिला विरोध रूख तो जग जाहिर है। यह संगठन अपने संगठन के भीतर तक महिलाओं को बराबरी देने का सख्त विरोधी है। पुरूष प्रधानता की सोच पर खड़ा यह संगठन महिलाओं को पुरूष की सेविका से अधिक कुछ नहीं समझता है। हिटलर के समान यह भी महिलाओं को किचिन में कैद और बच्चे पैदा करने की मशीन समझता है। आज जब भाजपा-संघ सत्ता में हैं तो महिला मुक्ति की चुनौतियां बढ़ गयी हैं।
पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा उठाए मुद्दों से इतर महिलाओं को पूर्ण बराबरी और पूर्ण सुरक्षा चाहिए। महिलाओं को एक आत्मनिर्भर जीवन चाहिए, उसे समान काम का समान वेतन चाहिए, उसे जीवन के, समाज के हर क्षेत्र में बराबरी चाहिए। उसे घष्णित सामंती मूल्य मान्यताओं, धार्मिक पाखण्डों से मुक्ति चाहिए। यह सब कुछ पूंजीवाद देने में सर्वथा असमर्थ है बल्कि वह तो इन सारी समस्याओं के लिए खुद ही जिम्मेदार है।
नारी मुक्ति आंदोलन की दिशा- महिलाओं पर बढ़ रहे अपराधों के खिलाफ बीते वर्षों में तीखे आंदोलन हुए। दिल्ली में निर्भया गैंगरेप के खिलाफ पूरे देश में जोरदार आंदोलन हुए इसके बाद भी संघर्षों का यह सिलसिला थमा नहीं। हिमांचल प्रदेश, उत्तराखंड, कश्मीर, मध्य प्रदेश, आदि राज्यों में विभिन्न जघन्य घटनाओं के खिलाफ जनता द्वारा तीखा रोष प्रकट किया गया। छत्तीसगढ़ हिदायतुल्ला लॉ विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, पंजाब विश्वविद्यालय, आदि जगहों पर भी छात्राओं-छात्रों द्वारा महिलाओं की गैर बराबरी के खिलाफ लंबे संघर्ष किये गये। यह संघर्ष समाज की प्रगतिशीलता की पहचान हैं और जुल्म के खिलाफ बुलंद होती आवाजों की बयानगी हैं।
इसके अतिरिक्त मजदूर-मेहनतकश महिलाओं द्वारा पूंजीवाद द्वारा किए जा रहे शोषण के खिलाफ आवाजें बुलंद की गयी। बेंगलुरु में गारमेंट फैक्ट्री की महिला मजदूरों का जोरदार संघर्श, उत्तराखंड में इंटर्राक, डेल्टा, में मजदूर महिलाओं का संघर्ष, केरल में दुकान पर काम करने वाली महिलाओं का संघर्ष ऐसी ही बुलंद होती आवाजों के हालिया उदाहरण हैं। जनता के यह आंदोलन मुक्ति की छटपटाहट को दिखाते हैं। यह आंदोलन निश्चित ही समाज को प्रेरणा दे रहे है।
आज जरूरत है कि इसी तरह पूंजीवाद के हर महिला विरोधी हमले और सोच को कड़ी चुनौतियां दी जायें। दहेज हत्या, कन्या भू्रण हत्या आदि सभी प्रकार की घरेलू हिंसा से लेकर जघन्य अपराधों के खिलाफ मुखरता से विरोध किया जाये। पूंजीवाद की अश्लील उपभोक्तावादी संस्कृति के स्थान पर जनता की सामुहिक-संघर्ष की संस्कृति को स्थापित किया जाए। भाजपा-संघ के फांसीवादी महिला विरोधी सोच और हमलों का जवाब अपनी मजबूत एकता के दम पर दिया जाए। पूंजीवाद के खिलाफ मजबूत संगठनों का निर्माण किया जाये। और उस मंजिल की तरफ बढ़ा जाये जहां महिलाओं को पूर्ण स्वतंत्रता, बराबरी मिल सके। जहां महिला मुक्ति का सपना साकार हो सके।
किंतु वह कौन सी मंजिल है जहां नारी मुक्ति का सपना साकार हो। निश्चित ही यह मंजिल पूंजीवाद का नाश और मजदूर राज समाजवाद की स्थापना है।
मजदूर राज समाजवाद स्त्रियों को पूर्ण बराबरी व समानता का हिमायती है और इतिहास में जब उसे मौका मिला (रूसी-चीनी महान समाजवादी क्रांति) तो उसने यह करके भी दिखाया। क्रांति ने महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाया, वेश्यावृत्ति जैसे कलंक को इतिहास की बात बना दिया, उसने महिलाओं के घरेलू कामों को, बच्चों की परवरिश को सामाजिक दायित्वों में बदल दिया। सामूहिक भोजनालय, सामूहिक लाउंड्रियों, बेहतरीन शिशुगृहों का निर्माण किया। इन कदमों से महिलाओं को घरेलू दासता से मुक्ति मिली। कुछ वर्ष बीतते-बीतते रूस-चीन की महिलाएं एक आत्मनिर्भर, घरेलू दासता से मुक्त महिलाएं बन गईं। जो मजदूर राज समाजवाद को मजबूत बनाने के कार्य में अपना जीवन लगा रही थीं।
भारत की स्त्रियों के सामने भी आज यही एक रास्ता है। सावित्रीबाई फुले द्वारा शुरू की गई मुहिम आज हमसे मांग कर रही है कि हम सभी मिलकर पूंजीवाद का नाश करें और मजदूर राज समाजवाद का निर्माण करें।
सावित्री बाई फुले अमर रहें! नारी मुक्ति आंदोलन जिन्दाबाद!!समाजवाद जिन्दाबाद!!!
दिनांक- 6 जनवरी 2019
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