पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष ही
महिला हिंसा से रोकथाम करेगा
-चित्रा
महिला हिंसा की दो वीभत्स और क्रूर घटनायें पिछले दिनों घटी। एक घटना उत्तराखण्ड के पौड़ी जिले कि थी तो दूसरी घटना उत्तर प्रदेश के आगरा की। आगरा की छात्रा संजलि जहां 10वीं की छात्रा थी वहीं पौड़ी की छात्रा बी.एस.सी. द्वितीय वर्ष में पढ़ाई कर रही थी। दोनों ही घटनाओं में आरोपियों ने पीड़िता को जिन्दा जला दिया। जिन्दगी की जंग लड़ते हुए आगरा की छात्रा ने 20 दिसम्बर को तो पौड़ी की छात्रा ने 23 दिसम्बर को अंतिम सांस ली।
10वीं की छात्रा की हत्या के कारणों का, आरोपियों का पता नहीं है परन्तु संदेह के घेरे में आये उसके चचेरे भाई ने आत्महत्या कर ली। वहीं पौड़ी की घटना में वहशी लम्पट, छात्रा से छेड़छाड़ कर रहा था और छात्रा के द्वारा विरोध करने पर उसने छात्रा को जिन्दा जला दिया।
दोनों घटनाओं के बाद सरकारी तंत्र का घड़ियाली आंसू बहाना शुरु हो चुका है। उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री घोषणाएं कर रहे हैं, संवेदनायें व्यक्त कर रहे हैं। दोषियों को न बख्शने की कसमें खा रहे हैं। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री तो चुप्पी साधे हुए हैं। प्रधानमंत्री मोदी इस घटना पर मौन हैं। बुलंदशहर की घटना में गौहत्या के मामले में तुरंत बोलने वाले योगी-मोदी को छात्राओं की नृशंस हत्या पर सांप सूंघ गया है। इंसानी हत्या भी इन्हें संवेदनशील नहीं कर पाती है। और जो मंत्री कुछ कह भी रहे हैं वो ढोंग से अधिक नहीं है। यौन उत्पीड़न के आरोपी भाजपा विधायक कुलदीप सेंगर को बचाने की हरचंद कोशिश करने वाले योगी से और क्या उम्मीद की जा सकती है?
समाज पुनः आक्रोशित है। 2012 के निर्भया कांड की बरसी के समय 16 दिसम्बर को ही पौड़ी की घटना घटी। महिला हिंसा पर रोकथाम के लिए क्या कदम उठे? उनका क्या हुआ? ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का क्या हुआ? और कितना महिला सशक्तिकरण हुआ? कुछ नहीं, कुछ नहीं।
पुरुषप्रधानता वाली सामंती मानसिकता; जहां किसी बदले की भावना या इंकार, नाराजगी में महिला को जिंदा जला दिया गया; उपरोक्त घटनाओं के मूल में है। इस सामंती मानसिकता का मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था पोषण कर रही है। महिला ‘देवी’ है सरीखी बातें सामंती विचारों की ही देन हैं जिसमें महिला को ‘त्याग की मूर्ति’ बताया जाता है। नाटकों के जरिये आए दिन ‘भारतीय संस्कृति’ की दब्बू, पूरे परिवार का बोझ उठाने वाली और अपमान झेलने वाली स्त्रियों को आदर्श बताता है। ‘क्राइमअलर्ट’ जैसे नाटकों से ऐसे भय और आतंक का माहौल बनाया जाता है कि महिला अपने को न कहीं सुरक्षित समझे और न ही समस्या के मूल को जान सके। बस हमेशा भय, आतंक के माहौल में रहे।
वर्तमान भाजपा सरकार तो अपनी विचारधारा में ही घोर महिला विरोधी और सामंती पूर्वाग्रहों से ग्रसित है। संघी योगी-मोदी और इनके कारकून महिलाओं की भूमिका को केवल वंशज (वो भी मर्द हो तो ही भला) देने तक ही समझते हैं। संघ से शिक्षित इनके नेता जब-तब अपनी महिला विरोधी सोच को बेशर्मी से जाहिर करते रहते हैं। महिलाओं-छात्राओं को नैतिक उपदेश देते फिरते हैं। मोबाइल, कपड़े यहां तक की खाने-पीने की चीजों तक में हिदायतें देने की हद तक चले जाते हैं। यह सामंती सोच हमारे समाज में भी गहरी पैठ बनाये हुए है।
दूसरी तरफ अश्लील उपभोक्तावादी संस्कृति तो हर मिनट फिल्मों, गानों, विज्ञापनों व इण्टरनेट के माध्यम से प्रसारित की जाती है। अपनी राजनीति के अनुकूल न होने पर किसी विज्ञापन, फिल्म को चलने न देने वाले संघी लम्पट मंत्री और उनकी पूरी ‘वानर सेना’ महिलाओं के खिलाफ कुत्सा प्रचार करने वाले सारे कार्यक्रमों को बिना किसी समस्या के चलने देते हैं। इसको बनाये रखने का काम सरकारी तंत्र पूरी शिद्दत से करता है। ऐसे में सत्ता में शामिल लोगों की संवेदनायें भी ढोंग-पाखण्ड के अलावा कुछ नहीं हैं।
उपरोक्त दोनों घटनाओं के मूल में सामंती पुरुष प्रधानता और अश्लील उपभोक्तावादी संस्कृति है। पूरी व्यवस्था और सरकार इसके सेवक, चाटुकार, घृणित पोषक बने हुए हैं। जहां सामंती पुरुष प्रधानता के जरिये महिलाओं को अबला, देवी, दया की मूरत, सहनशील, दब्बूपन जैसे गुणों से सम्पन्न दिखाया जाता है जिसे हर पल किसी पुरुष के संरक्षण की आवश्यकता हो। वहीं दूसरी तरफ अपने मुनाफे के लिए महिलाओं को हर विज्ञापन, फिल्म, आदि के जरिये यौन वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। महिलाओं को ‘सौंदर्य’ के लिए तो पुरुष को ‘भोग्य’ के लिए दिखाया जाता है। हद यहां तक है कि वेश्यावृति जैसे अपमानजनक काम को ‘सैक्स वर्क’ के रूप में महिमा मण्डित किया जा रहा है। और उस पर तुर्रा ये कि ‘माइ बॉडी माइ राइट’। महिलाओं को हर पल अपमानित करना ही उपभोक्तवादी संस्कृति का मूल है।
आज इन छात्राओं के लिए आक्रोशित समाज को यह समझना होगा कि समस्या के छोर पर हमला करने की जगह जड़ पर हमला किया जाय। समस्या को पालने-पोसने वाली मौजूदा व्यवस्था को निशाने पर लिया जाय। बाजार के मुनाफे के लिए महिला को ‘यौन वस्तु’ के रूप में प्रस्तुत करने का मामला हो या सामंती पुरुषप्रधानता को बनाये रखने का; इनके मूल पोषक मौजूदा व्यवस्था और सरकारें ही हैं। मौजूदा व्यवस्था के खात्मे से ही महिला हिंसा के दुर्ग को गिराया जा सकता है। ऐसे संघर्ष ही पीड़ित महिलाओं के प्रति हमारी सच्ची संवेदनायें या श्रृद्धांजलि होंगे। एक ऐसा समाज जो महिलाओं को सिर्फ और सिर्फ एक बराबर का नागरिक का दर्जा दे, न कि देवी का और ना हीं भोग्या का। ऐसा समाज पूंजीवाद के खात्मे की मांग करता है। समाजवाद को स्थापित करने की मांग करता है। पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष ही महिला हिंसा से रोकथाम करेगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें