हमारा कहना है
छात्राओं के बढ़ते संघर्ष
-संपादकीय
सामाजिक आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका हमेशा ही महत्वपूर्ण रही है। बीते समय में भी देश में कई ऐसे आंदोलन हुए जिसमें महिलाएं अग्रणी रहीं। यह आंदोलन यौन हिंसा के खिलाफ और बराबरी के लिए लड़े गये। छात्राओं के इन आंदोलनों ने समाज में गहरा प्रभाव भी डाला। इन आंदोलनों ने स्पष्ट कर दिया कि छात्राओं-महिलाओं को बराबरी की बातें किताबों, कथनों में ही नहीं चाहिए। वे बराबरी को ठोस और मूर्त रूप में पाना चाहती हैं।
हिदायतुल्ला विश्वविद्यालय, रायपुर, पंजाब वि.वि. में बीते दिनों ऐसे ही आंदोलन फूटे। इससे पूर्व बनारस विश्वविद्यालय, उत्तर प्रदेश में भी छात्राओं का जोरदार आंदोलन हुआ था। छात्राओं के ये आंदोलन कालेज-कैम्पसों में छात्राओं के साथ होने वाले लैंगिक भेदभाव के खिलाफ हुए। छात्राओं की सुरक्षा के नाम पर कालेजों में उन पर तरह-तरह के भेदभाव थोपे जाते हैं। कालेज प्रशासन के तमाम नियम लैंगिक भेदभाव का परिचायक बने हुए हैं। तमाम जगह छात्र-छात्राएं इन भेदभावों को देखते हुए भी अनदेखा कर देते हैं। किन्तु रायपुर, पंजाब और बनारस की छात्राओं ने इसे अनदेखा करने की जगह इसके खिलाफ लड़ने का निर्णय लिया। छात्राओं का यह आंदोलन पुस्तकालय खुलने का समय छात्र-छात्राओं के अनुकूल करने और उसके खुलने का समय बढ़ाने के लिए था। यहां हर प्रकार के लैंगिक भेदभाव को खत्म करने का था। छात्राओं की बेहद व्यक्तिगत किस्म की चीजों पर मोरल पुलिसिंग का भी यहां की छात्राएं विरोध कर रही थीं। यह आंदोलन छात्राओं के साथ लम्पट लड़कों द्वारा की जा रही छेड़छाड़ के भी विरोध में थे। इस सभी आंदोलनों में छात्राएं बेहद बहादुरी से लड़ी। कालेज प्रशासन, पुलिस आदि किसी के भी सामने छात्राओं ने झुकने से मना कर दिया। कालेज और समाज में छात्राओं के ऐसे बहादुराना संघर्ष समाज में लैंगिक भेदभाव को सीमित करते हैं। छात्राओं और महिलाओं को मिले अधिकार और सापेक्ष समानता इतिहास में ऐसे ही संघर्षों के क्रम का परिणाम हैं।
छात्राओं के इन संघर्षों के साथ तमाम न्यायप्रिय, स्त्री स्वतंत्रता का समर्थन करने वाले नौजवान भी खडे़ हुए। निश्चित ही ऐसे संघर्ष समाज में नये उत्साह का संचार कर रहे हैं। देश के अन्य छात्र-छात्राओं को भी संघर्षों के लिए प्रेरित कर रहे हैं।
छात्राओं के इन संघर्षों को भारतीय मीडिया ने लगभग नजरअंदाज किया। यदि मजबूरीवश दिखाया तो उसे सामाजिक ताने-बाने से कटा हुआ दिखाया। छात्राओं-महिलाओं की मुक्ति और बराबरी की इच्छा से काट कर दिखाया। इस अर्थ में कह सकते हैं कि भारतीय मीडिया ने इन आंदोलनों को प्रोत्साहित की जगह हतोत्साहित करने का ही काम किया। महिलाओं से जुड़े नारीवादी, फैशनेबल मुद्दों को तो बहुत प्रचारित किया जाता है। किन्तु, जब आम घरों की लड़कियां- महिलाएं संघर्ष करती हैं तो मीडिया की कोशिश उन्हें हतोत्साहित करने की ही होती है। यह सामाजिक बदलाव में जन की भूमिका को हतोत्साहित करना चाहता है। क्योंकि वह जानता है कि ऐसे संघर्षों का प्रचार या प्रोत्साहन भविष्य में और बडे़ और व्यापक संघर्षों की तरफ बढे़ंगे। भारतीय मीडिया किसी स्वतंत्र सोच पर खड़ा निष्पक्ष नहीं है। इसकी सोच पूंजीवादी है और इसकी पक्षधरता भी पूंजीपति वर्ग के साथ है। घृणित पूंजीवादी व्यवस्था की रक्षा के लिए ही मीडिया यह सब प्रपंच करता है।
पूंजीवाद; समाज बदलाव में जन की भूमिका को नहीं देखता। यह तो व्यक्ति या महानायकों की भूमिका को देखता है। और अपनी बारी में यह पूंजीवादी नायक-महानायक क्या करते हैं? यह ‘मी-टू’ या ऐसे ही तमाम मौकों पर बेपर्दा हो जाता है। ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ का नारा देने वाला महानायक जब समाज में छात्राएं-महिलाएं अपने अधिकारों, भेदभावों के खिलाफ लड़ रही होती हैं तो मुंह में मिस्री घोलकर बैठ जाता है। उसके मन में कोई बात उबाल नहीं मारती। यह रवैय्या इस महानायक का महिलाओं के प्रति रवैये को बेनकाब कर देता है।
जब इस पूंजीवादी व्यवस्था के शीर्ष नायक स्त्री विरोधी हैं। इसके कानून, पुलिस, संस्थायें आदि स्त्री विरोधी हैं तो हमें कहना होगा कि यह पूरी पूंजीवादी व्यवस्था घोर स्त्री विरोधी है। यह सर से पांव तक महिला हिंसा में डूबी हुई है। हमें इस व्यवस्था के खिलाफ अपने संघर्षों को खड़ा करना होगा। पूर्ण बराबरी यानी समाजवाद का नारा बुलंद करना होगा।
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