‘नकबा’ के 70 वर्ष और फिलीस्तीनी जनता का प्रतिरोध संघर्ष
5 अक्टूबर, हर शुक्रवार की तरह हजारों की संख्या में फिलीस्तीनी गाजा सीमा की ओर बढ़ रहे थे। सीमा पार इजरायली सैनिकों की राइफलें तनी हुयी थीं। बेखौफ फिलीस्तीनी; जिसमें बच्चे, महिलाएं, बूढ़े, नौजवान सभी शामिल थे; जान की परवाह किये बगैर आगे बढ़ रहे थे। इस जनसैलाब में नौजवानों की संख्या सर्वाधिक थी। ऐसे नौजवान जिन्होंने जन्म लेते ही बारूद की गंध में अपनी पहली सांस ली और गोलियों व बम के धमाकों के रूप में पहली आवाजें और प्रतिध्वनियां सुनीं।
निहत्थे फिलीस्तीनी शांतिपूर्ण तरीके से आगे बढ़ रहे थे। लेकिन कातिलों और हत्यारों को शांति से भी खौफ लगता है। फिलीस्तीनियों का यह शांतिपूर्ण प्रदर्शन उनके आतंक और गुरूर को एक चुनौती देता था। इजरायली सैनिकों ने एक बार फिर अंधाधुंध गोलीबारी की। 16 फिलीस्तीनी मारे गये, दर्जनों गंभीर रूप से घायल हुए।
पिछले कुछ समय से इजरायल के कब्जे वाले गाजा, वेस्ट बैंक व येरूसलम में रह रहे फिलीस्तीनियों पर इजरायल की निगरानी व दमन काफी बढ़ गया है। इजरायली शासकों द्वारा पुराने येरूसलम शहर पर उनके प्रवेश पर तात्कालिक तौर पर पाबंदी लगा दी है। येरूसलम मेें मुस्लिम, ईसाई और यहूदी धर्म मानने वालों के धार्मिक स्थल हैं। येरूशलम पर इजरायल ने अवैध कब्जा किया हुआ है और उसे अपनी राजधानी घोषित किया हुआ है। इसके बावजूद वहां किसी भी देश के दूतावास नहीं थे। फिलीस्तीनियों पर नये प्रतिबंध व निगरानी हाल ही में अमेरिका द्वारा अपना दूतावास तेल अवीव से येरूसलम स्थानांतरित करने के बाद हुए फिलीस्तीनी जनता के व्यापक विरोध प्रदर्शनों के बाद लगायी गयी। गौरतलब है कि येरूसलम सहित फिलीस्तीन पर इजरायल के कब्जे को अमेरिका व ब्रिटेन सहित पश्चिमी साम्राज्यवादियों के अलावा कोई देश मान्यता नहीं देता है। इसे दुनिया के ज्यादातर देश व विश्वजनमत विवादित मुद्दा ही मानता है।
इजरायल द्वारा फिलीस्तीनियों के बेइंतहा दमन व उत्पीड़न के बीच इजरायली कब्जे वाले इलाकों में फिलीस्तीनियों के इक्का-दुक्का हिंसक प्रतिरोध की घटनाओं को बहाना बताकर इजरायली शासक गाजा, येरूसलम व वेस्ट बैंक के फिलीस्तीनियों पर नए-नए प्रतिबंध लगा रहे हैं।
इस वर्ष जहां इजरायल अपनी स्थापना की 70 वीं सालगिराह मना रहा है। वहीं फिलीस्तीनी जनता नकबा की सत्तरवीं सालगिराह मना रही है। ‘नकबा’ यानी कब्जा। यह इजरायली सेना द्वारा 70 वर्ष पूर्व 7 लाख फिलीस्तीनियों के अपनी ही जमीन पर शरणार्थी बन जाने की त्रासद दास्तान है। नकबे की 70 वीं बरसी से 1 दिन पहले 14 मई (इजरायल के स्थापना दिवस) को अमेरिका द्वारा अपने दूतावास को तेल अवीव से येरूसलम स्थानांतरित करना फिलीस्तीनियों के जख्मों पर नमक छिड़कने के समान था।
इस वर्ष मार्च से लगातार गाजा सीमा पर फिलीस्तीनियों के प्रदर्शन का सिलसिला शुरू हो गया। हर शुक्रवार को हजारों की संख्या में फिलीस्तीनी गाजा सीमा तक मार्च का आयोजन करते रहे हैं। उनकी एक ही मांग रही है, अपनी मातृभूमि, पूर्वजों की भूमि पर वापसी की; जहां से 70 वर्ष पूर्व उन्हें बलात खदेड़ दिया गया था। समुद्र की लहरों की तरह तट से टकराने को उद्यत फिलीस्तीनी जनता का सैलाब हर बार दमन-उत्पीड़न की इंतहा से गुजरकर गाजा सीमा पर उमड़ पड़ता है।
अपने प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में प्रदर्शनकारी फिलीस्तीनियों ने इजरायल की पूर्वी सीमा पर हजारों की संख्या में टैंट खड़े कर लिए हैं। मार्च से जारी इन प्रदर्शनों का 15 मई को नकबा की बरसी पर समापन होना था।
14 मई को नकबा के एक दिन पूर्व भारी संख्या में फिलीस्तीनी गाजा, वेस्ट बैंक, येरूसलम आदि जगहों पर सड़कों पर उतरे। गाजा सीमा पर हजारों की संख्या में जनसैलाब उमड़ा। एक बार फिर इजरायली सेना ने गोली-बारूद का सहारा लिया। 60 फिलीस्तीनी मारे गये। मारे गये प्रदर्शनकारियों में 8 बच्चे 8 से 16 वर्ष की उम्र के थे। एक दुधमुंहा बच्चा भी गैस से दम घुटने से मर गया।
जुलाई में इजरायल ने एक बार फिर गाजा पर हवाई बमबारी की। इसमें दो फिलीस्तीनी किशोर मारे गए। 2014 के बाद यह सबसे बड़ा हवाई हमला था।
कुल मिलाकर इस वर्ष मार्च से शुरू हुए प्रदर्शनों-रैलियों में कम से कम 169 फिलीस्तीनी मारे गये हैं तथा 15 हजार के लगभग घायल हुए हैं। मारे गये ज्यादातर फिलीस्तीनी स्नाइपर (छिपे निशानेबाज बंदूकधारी) द्वारा मारे गये हैं। इजरायल इन हत्याओं के लिए फिलीस्तीनियों के उग्र प्रदर्शनों को जिम्मेदार ठहराता है। इजरायली शासकों का कहना है कि फिलीस्तीनियों द्वारा जलती हई पतंगी उड़ाने से उनके जंगलों व खेतों में भारी नुकसान हुआ है। इन दलीलों का बचकानापन आप जाहिर है।
इजरायली शासक न केवल फिलीस्तीनियों को गोलियों से भूनने पर आमादा हैं बल्कि वे उन्हें भूख और अभाव से भी मारने पर तुले हैं। फिलीस्तीनी अपनी आजीविका के लिए काफी हद तक संयुक्त राष्ट्र संघ व उनके संघर्ष के लिए सहानुभूति रखने वाले समर्थकों पर निर्भर थे। लेकिन 2007 के चुनाव में गाजा में उग्र इस्लामी संगठन हमास की जीत के बाद इजरायल ने गाजा की नाकेबंदी कर रखी है। इजरायल के साथ मिस्र भी इस नाकेबंदी में शामिल है। इजरायल के अनुसार उसकी यह नाकेबंदी हमास के प्रभाव को खत्म करने के लिए की गई है। यह गौरतलब है कि एक समय फिलीस्तीनी मुक्ति संगठन (पी.एल.ओ.) के प्रभाव को खत्म करने के लिए इजरायल, अमेरिका सहित पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने ही उग्र हथियारबंद संगठन हमास को खड़ा किया था। फिलीस्तीनी मुक्ति संगठन का पराभव उसके प्रमुख नेता यासिर अराफात के जीते जी ही शुरू हो गया था। यासिर अराफात के समय पी.एल.ओ. पर समझौतापरस्ती के साथ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे। इसने हमास के उभार को और बढ़ा दिया।
इजरायल ने इस वर्ष गर्मियों में अपनी नाकेबंदी और कठोर कर दी जब फिलीस्तीनी जनता का प्रतिरोध चरम पर पहुंचा था। गाजा की 18 लाख की आबादी इजरायल व मिस्र द्वारा लगाए गये प्रतिबंधों के चलते बहुत मुश्किल हालात में पहुंच चुकी है। 50 प्रतिशत आबादी बेरोजगार है और 80 प्रतिशत आबादी पूरी तरह विदेशी सहायता पर निर्भर है।
अमेरिकी सरकार ने 3 सितंबर को घोषित किया कि वह फिलीस्तीनी शरणार्थियों को दी जाने वाली राहत को खत्म करने जा रहा है। अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र राहत व कार्य एजेन्सी को इस वर्ष दी जाने वाली 290 मिलियन डाॅलर (लगभग 21 अरब 37 करोड़ रूपये) की रकम पर रोक लगा दी है। अमेरिका ने एजेन्सी पर फिजूलखर्ची और बढ़-चढ़कर खर्चा करने का आरोप लगाया है। अमेरिका ने कहा है कि एजेन्सी को केवल उन्हीं 7,50,000 फिलीस्तीनियों को राहत देनी चाहिए जो 1948-49 में इजरायली सेना द्वारा अपने घरों से खदेडे़ गए।
गौरतलब है कि 1948 में फिलीस्तीन में इजरायल को स्थापित करने में अमेरिका-ब्रिटेन की ही मुख्य भूमिका थी। अमेरिका ने अपनी भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते हुए इजरायल को मध्यपूर्व में अपने लठैत के रूप में स्थापित किया। 1948-49 में इजरायल द्वारा अमेरिका की शह पर ही इजरायल ने फिलीस्तीनियों को अपनी जमीन से उजाड़ा व बेदखल किया था।
कालांतर में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इन फिलीस्तीनी शरणार्थियों को एक एजेंसी के माध्यम से राहत पहुंचाने का प्रावधान किया गया। अमेरिका द्वारा राहत एजेंसी को दिया जाने वाला योगदान; अपनी मानवाधिकार संरक्षक की छवि चमकाने के लिए होने के साथ ही; चूहा मारकर गोबर सुंघाने के समान था।
संयुक्त राष्ट्र संघ की राहत एजेंसी द्वारा जारी राहत राशि गाजा, वेस्ट बैंक, पश्चिमी येरूसलम, लेबनान, जार्डन व सीरिया में शरणार्थी के बतौर रह रहे फिलीस्तीनियों के 5,26,000 बच्चों के 711 स्कूलों को चलाने के काम आती थी। अब इन स्कूलों को जारी रखने पर भी संकट खड़ा हो गया है।
कुल मिलाकर इजरायल व; उसका संरक्षक; अमेरिका फिलीस्तीनी जनता पर हर तरह से कहर बरपा रहे हैं। वे फिलीस्तीनी जनता के मनोबल को कुचल देने पर आमादा हैं लेकिन फिलीस्तीनी जनता का संघर्ष जारी है। एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी संघर्ष की मशाल को थामे आगे बढ़ रही है। 70 वर्ष से फिलीस्तीनियों का संघर्ष सतत रूप से जारी है।
फिलीस्तीनी जनता के इस संघर्ष में छात्रों-नौजवानों की हमेशा अग्रणी भूमिका रही है।
फिलीस्तीनी जनता के पहले व्यापक विरोध संघर्ष (पहला इंतिफादा), जो दिसंबर, 1987 में गाजा के जबालिया शरणार्थी शिविर से शुरू हुआ और जो शीघ्र ही पूरे वेस्ट बैंक में फैल गया और 6 वर्ष के लंबे व्यापक जन प्रतिरोध के रूप में सामने आया, में छात्रों-नौजवानों की अग्रणी भूमिका थी। प्रदर्शन, आम हड़ताल और इजरायली वस्तुओं के बहिष्कार आदि तमाम रूपों को अख्तियार कर जमीनी प्रतिरोध के रूप में इस इंतिफादा ने अपनी पहचान बनायी। छात्र आंदोलन ने इस इंतिफादा में नेतृत्वकारी भूमिका निभाई।
आज एक बार फिर छात्र फिलीस्तीनी जनता के प्रतिरोध में अगली कतारों में हैं।
फिलीस्तीनी मुक्ति संघर्ष में अपनी नेतृत्वकारी एवं अग्रणी भूमिका के लिए छात्रों-नौजवानों की रोज-ब-रोज गिरफ्तारी आम बात है। विगत समय में बिरजीट विश्वविद्यालय (birziet university) के दो छात्र संघ अध्यक्षों की गिरफ्तारी के साथ लगातार छात्रों की गिरफ्तारी हुई है। सभी दलों से जुड़े छात्रों की गिरफ्तारी होती है लेकिन हमास से जुड़े छात्रों की ज्यादा गिरफ्तारियां हुई हैं।
बिरजीट के ‘राइट टू एजुकेशन’ अभियान के मुताबिक ट्रंप के येरूसलम घोषणा के बाद 60 से अधिक बिरजीट के छात्रों को अवैध तरीके से गिरफ्तार कर इजरायली जेलों में रखा गया है। 2004 से अब तक 800 से अधिक बिरजीट विश्वविद्यालय के छात्रों को इजरायल ने जेलों में बंद किया है। इनमें से कई को एक से अधिक बार की उम्रकैद की सजा सुनाई गयी है।
फिलीस्तीनी छात्रों-नौजवानों के दमन में इजरायल के साथ महमूद अब्बास के नेतृत्व वाली फिलीस्तीनी अथारिटी की सरकार प्रमुख भूमिका निभा रही है। खासकर उन छात्रों की गिरफ्तारी में जो उग्र संघर्ष की बात करते हैं या फिर हमास से जुड़े हैं।
फिलीस्तीनी अथाॅरिटी का जन्म 1993 में ओस्लो समझौते के बाद हुआ था। 1993 का समझौता जो फिलीस्तीनी मुक्ति संगठन (फतेह गुट) व इजरायल के बीच हुआ था। एक कमजोर समझौता था, जिसमें फिलीस्तीनी मुक्ति संगठन के नेता यासिर अराफात की समर्पणवादी भूमिका रही। यासर अराफात की मृत्यु के बाद फिलीस्तीनी मुक्ति संगठन (फतेह गुट) का नेतृत्व पश्चिमी साम्राज्यवादियों के चहेते महमूद अब्बास के हाथों में आ गया। 2005 में फिलीस्तीन में हुए राष्ट्रपति के चुनाव में जहां फिलीस्तीनी मुक्ति संगठन (अब्बास गुट) के महमूद अब्बास को जीत मिली। वहीं 2007 में विधायिका के चुनाव में हमास को जीत मिली। वर्तमान में फिलीस्तीनी अथारिटी वेस्ट बैंक के 39 प्रतिशत हिस्से पर शासन करती है जबकि वेस्ट बैंक का 61 प्रतिशत हिस्सा इजरायल के फौजी व नागरिक सरकार के कब्जे में है। गाजा पर हमास का शासन है। हमास की जीत को इजरायल व पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने कभी मान्यता नहीं दी तथा तभी से गाजा की आर्थिक नाकेबंदी चल रही है। शेष हिस्से पर महमूद अब्बास के नेतृत्व में फिलीस्तीनी अथारिटी की समझौतापरस्त सरकार कायम है। फिलीस्तीनी अथारिटी की सरकार पश्चिमी साम्राज्यवादी ताकतों के इशारे पर काम करती है। वह आज फिलीस्तीनी जनता के संघर्ष के रास्ते में मुख्य रोड़ा बन चुकी है। इजरायल के साथ मिलकर वह कानून व्यवस्था के नाम पर छात्रों-नौजवानों के आंदोलन का दमन करने में लगी हई है। हमास से जुड़े 21 वर्षीय बिरजीट के छात्र यामा रबी के घर पर फिलीस्तीनी अथारिटी की पुलिस ने छापा मारकर उसे गिरफ्तार किया। 3 दिन अपनी कैद में रखने के बाद उन्होंने उसे इजरायली सुरक्षा बलों को सौंप दिया जहां उसे गंभीर शारीरिक यंत्रणा के साथ 8 महीने जेल की कैद भुगतनी पड़ी। जेल के अपने सेल में उसने बिरजीट के सात दोस्तों को पाया जो कि हमास से नहीं जुड़े थे। यामा रबी के घर के सभी युवा लोगों को इसी तरह जेल में डाला गया है।
लेकिन भूख, बेरोजगारी, गोली-बारूद और जेल से जूझते हुए, दमन व मौत को चुनौती देते हुए इजरायली शासकों के सामने फिलीस्तीन की बहादुर जनता और उसके बेटे-बेटियां सीना तानकर खड़े हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी वे प्रतिरोध की मशाल को आगे बढ़ा रहे हैं। उनकी मुक्ति लंबी व जटिल जरूर है पर अंततः वे ही जीतेंगे। इजरायल के क्रूर शासकों का एक दिन अंत हो जायेगा।
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